सोमवार, 21 फ़रवरी 2022

व्यंग्य अनुत्तरदायी सरकार दर्शक

 व्यंग्य

अनुत्तरदायी सरकार

दर्शक

सरकार से अपेक्षा की जाती है कि वह उतरदायी हो किंतु जब सरकार दाढी बढा कर मौनी बाबा बन कर बैठ गयी हो तो उत्तर कहाँ से मिलें, जनता कहाँ जाये? तुम सवाल पूछो, हम जवाब ही नहीं देंगे। मुकुट बिहारी सरोज ने एक पंक्ति कही है-

बन्द किवार किये बैठे हैं

अब आये कोई समझाने

हिंसा का प्रारम्भ ही वहाँ से होता है जहाँ पर सम्वाद की सम्भावना नहीं बचती। जो लड़ने के लिए उतावला होकर भी आया होता है, वह भी पहले गाली देता है और जब उसे उत्तर में उससे भी बड़ी गाली मिलती है तब उसे हिंसा का अधिकार मिल जाता है वह कहता है – अच्छा तूने माँ की गाली दी तो ये ले। गाली भी रिश्तों के हिसाब से गुरुतर , लघुतर होती जाती हैं और हिंसा का कारण भी उसके समानुपात में बदलता रहता है। इसमें पत्नी का रिश्ता सबसे नीचे रहता है। यही कारण है कि माँ बहिन के नाम पर दी जाने वाली गालियों की भीड़ में पत्नी के नाम की गाली भी सुनने में नहीं आती।

एक और तरीका है। बुन्देली में एक कहावत है- कोऊ कय कंउ की बऊ कंय मऊ की- अर्थात कोई कहीं की बात करे खांटी बुढिया को तो मऊरानीपुर की बात करना है। आप जासूसी की बात करें जिसमें पत्रकारों, सांसदों, विपक्ष के नेता, सुप्रीम कोर्ट के जज, चुनाव आयुक्त, सेना के अधिकारी ही नहीं सरकार् के अपने मंत्रियों की जासूसी की भी बात हो पर प्रधानमंत्री उत्तर में कहते मिलेंगे कि विपक्ष नये मंत्रियों का परिचय इसलिए नहीं सुनना चाहता क्योंकि वे दलित पिछड़े और महिला वर्ग से आते हैं। परम्परा की दुहाई तो दी जाती है किंतु यह भुला दिया जाता है कि परम्परा तो यह भी है कि दिवंगत सांसदों के लिए श्रद्धांजलि प्रस्ताव लोकसभा अध्यक्ष खड़े होकर पढता है।

जब इमरजैंसी के बाद देश में जनता पार्टी की सरकार बनी तो श्रीमती इन्दिरा गांधी को हराने वाले राज नारायण को स्वास्थ मंत्री बनाया गया। उन्होंने अंग्रेजी में पूछे गये एक प्रश्न का उत्तर हिन्दी में दिया तो दक्षिण के उन सांसद ने कहा कि मुझे हिन्दी नहीं आती। कृप्या आप अंग्रेजी में उत्तर दीजिए या तमिल में दीजिए।  राज नारायण ने कहा कि ना तो मेरा बाप अंग्रेज था और ना ही माँ अंग्रेज थी इसलिए मैं तो हिन्दी में ही दूंगा। व्यवस्था का सवाल उठा और अध्यक्ष ने कहा कि आप अगर अंग्रेजी में नहीं देना चाहते तो क्षेत्रीय भाषा में जवाब दिया करें। अगले दिन वे सारे जवाब तमिल में लिखवा कर लाये जिनमें बंगाल के लोगों के भी सवाल थे। बंगाली सांसद ने कहा कि मुझे हिन्दी आती है, अंग्रेजी आती है, बंगला आती है पर तमिल नहीं आती। आप चाहें तो हिन्दी में दे दीजिए। लेकिन राज नारायण तो राज नारायण बोले मैं तो तमिल में ही दूंगा।

वर्तमान सरकार के पास भी यही हाल है। यहाँ दर्जनों जान क्विकजोट बैठे हैं। डाक्टर नाम देख कर एक पशु चिकित्सक को स्वास्थ मंत्री बना दिया जाता है प्रदेश के विश्वविद्यालयों के कुलपति के रूप में मिडिल पास व्यक्ति को बैठा दिया जाता है और सरकार सवालों को घुमाती रहती है। जो ज्यदा सवाल करता है उसे देशद्रोही, गद्दार, बता दिया जाता है।    




व्यंग्य लड़की हूं लड़ सकती हूँ

 

व्यंग्य

लड़की हूं लड़ सकती हूँ

दर्शक

चुनावों के दौरान सक्रिय होने वाली पार्टी भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस की नई नेता प्रियंका गाँधी ने पाँच राज्यों के विधानसभा चुनावों में से एक उत्त्तर प्रदेश के चुनावों के लिए एक नया नारा दिया है – लड़की हूं लड़ सकती हूं।

उक्त नारा देते समय उन्होंने प्रदेश के विधानसभा चुनावों में अपनी पार्टी की ओर से चालीस प्रतिशत टिकिट महिलाओं को देने का वादा किया। इस कार्यक्रम के अंतर्गत उन्होंने महिलाओं की मैराथन [दौड़] के आयोजन भी किये जिसमें ढेर सारी लड़कियां दौड़ीं, जो दो साल से लाक डाउन के कारण घरों में कैद थीं। ऐसी दौड़ें और भी होतीं अगर सरकार को दौड़ में कोरोना के नये वाइब्रेंट का पता नहीं चला होता। ऐसा लग रहा था कि लड़कियां यह सन्देश दे रही थीं कि लड़की हूं लड़ ही नहीं सकती दौड़ भी सकती हूं।

लड़कियां दौड़ीं, और दौड़ने के साथ साथ लड़ने भी लगीं कि उनका नम्बर दौड़ में कौन सा था। बहुत सी लड़कियों ने तो यह समझा था कि चुनावी पार्टी में लड़ने का मतलब चुनाव लड़ने से ही होगा, क्योंकि उन्हें यह तो बताया ही नहीं गया कि उनका दुश्मन कौन है और उन्हें किस से लड़ना है। यह गलतफहमी इसलिए भी हुयी होगी क्योंकि उसी दौरान चलीस प्रतिशत टिकिट देने की बात भी कही गयी थी। जैसे ही चुनाव घोषित हुये और टिकिट बंटना शुरू हुये तो लड़कियां लड़ने लगीं कि टिकिट उन्हें मिलना चाहिए। अब, सबको तो टिकिट मिल नहीं सकता अतः जिसे नहीं मिला वे प्रियंका गाँधी से ही लड़ने लगीं। उनके पोस्टर की तीनों लड़कियां एक एक करके काँग्रेस से लड़ कर चली गयीं, और भाजपा में शामिल हो गयीं।

लड़ने का नारा देते समय प्रियंका ने उन्हें यह तो बताया ही नहीं था कि समाज का दुश्मन कौन है। शायद उन्हें खुद भी पता नहीं हो। जिन मन्दिरों में भाजपाई चक्कर लगाते हैं उन्हीं में तरह तरह से माथा रंग के प्रियंका और उनके भाई राहुल गाँधी जाकर खुद को हिन्दू साबित कराने लगते हैं। जब मनमोहन सिंह ने नई आर्थिक नीतियों की घोषणा की थी तब संसद में अटल बिहारी वाजपेयी ने कहा था कि इन्होंने हमारी नीतियां हाईजैक कर ली हैं। सो दोनों की आर्थिक नीतियां भी एक ही हुयीं। सो लड़कियां लड़ते लड़ते भाजपा में प्रविष्ट हो गयीं।   

उक्त नारा देते समय प्रियंका की समझ यह रही होगी कि लड़कियां पुरुषों की तरह लड़ नहीं सकतीं इसलिए उन्हें नारे से प्रेरित करना चाहिए। लड़ाई में प्रेरणा का बहुत महत्व होता है। सामंत काल में हर राजा के पास चारण होते थे जो तरह तरह के सुसुप्तों, कायरों, आलसियों को बहादुर बता कर उनकी भुजायें फड़कवा दिया करते थे। महाभारत में भी कृष्ण को अर्जुन को प्रोत्साहित करना पड़ा था और अर्जुन को बताना पड़ा था कि लड़के हो लड़ सकते हो।  कल दो लोगों में मुँह्वाद हो रहा था, रामभरोसे ने एक को समझाया तब लाठियां चलीं।

कर्नाटक में भी लड़कियां कालेज प्रबन्धन से भिड़ गईं और अपनी बात मनवा भी लेतीं किंतु लड़कियां मुस्लिम थीं और देश में चुनाव चल रहे थे सो गले में भगवा पट्टा और मुँह में जय श्री राम लेकर दूसरे छात्रों को भी उतार दिया गया। बिल्कुल वैसे ही जैसे- तुम कौन?

‘ हम खामखां’   

अब खामखाँ साहब का एक इतिहास है जो बहुत काला है। इसलिए मामला और भड़क गया। वे भी यही चाहते थे ताकि गोदी मीडिया के माध्यम से बात चुनावी राज्यों तक पहुंचे।, सो पहुँच गयी।

लड़कियों की लड़ाई तो पीछे छूट गयी है अब तो कुत्ते लड़ रहे हैं।

व्यंग्य पद्म पुरस्कार , छद्म पुरस्कार

 

व्यंग्य

पद्म पुरस्कार , छद्म पुरस्कार

दर्शक

प्रति वर्ष की भांति इस वर्ष भी नया वर्ष और उसमें पहले महीने के रूप में जनवरी आ गया। परम्परा चली आ रही है कि छब्बीस-जनवरी, जनवरी में ही पड़ती है। परम्परानुसार छब्बीस जनवरी को ही गणतंत्र दिवस पड़ता है जिसमें परेड और झांकियों के अलावा पद्म पुरस्कार भी घोषित होते हैं। ये पुरस्कार विभिन्न क्षेत्रों में उल्लेखनीय  काम करने वालों को दिये जाते रहे हैं किंतु पिछले कुछ वर्षों से ऐसे लोगों को दिये जाने लगे हैं जिनका उल्लेख पुरस्कार मिलने के कारण ही होता है। कोई पूछता है कि फलां का योगदान क्या है, तो उत्तर मिलता है कि इन्हें पद्म पुरस्कार मिला है।

पहले पुरस्कारों से लोग सम्मानित होते थे अब कुछ लोगों को पुरस्कार मिलने से पुरस्कारों की गरिमा घटती है। पुरस्कारों के लिए जिनकी जीभ लपलपाती रहती है वे उनकी गुणवत्ता पर कभी टिप्पणी नहीं करते कि क्या पता कब इससे उनकी सम्भावना की जड़ सूख जाये। आशा की डोर चाहे जितनी भी पतली हो गुलामी की जंजीर से मजबूत होती है। कहते हैं कि उससे आसमान टंगा रहता है।

रामभरोसे को भरोसा था कि जब इतने नाम बदले जा रहे थे तब इन पुरस्कारों के नाम भी बदले जा सकते थे। पद्मश्री को कमलश्री, और इसी तरह कमलभूषण, कमलविभूषण आदि किया जा सकता था।

पद्म पुरस्कारों के युग्म से सरकारें कभी कभी कुछ मजाक भी कर लेती रही हैं जैसे धर्मवीर भारती और चिरंजीत को एक ही वर्ष में पद्मश्री एक साथ दी गयी थी, व हरिशंकर परसाई व काका हाथरसी के साथ भी ऐसा ही किया गया था। वो तो बच्चे हैं जिनमें से कई को मन के सच्चे माना जाता है, इंकार भी कर देते हैं। एक संडे स्कूल में बच्चों को अच्छी अच्छी बातें सिखायी गयीं और फिर पूछा गया कि बताओ स्वर्ग जाने के लिए क्या क्या काम करना पड़ेगा। बच्चों ने दिन भर में सिखाये गये सारे काम गिना दिये। पादरी ने उनकी तारीफ की और फिर पूछा कि बताओ स्वर्ग कौन कौन जाना चाहता है? एक लड़के को छोड़ कर सब ने हाथ खड़े कर दिये। पादरी उसके पास आया और बड़े प्रेम से पूछा कि तुम स्वर्ग नहीं जाना चाहते?

लड़का बोला स्वर्ग तो जाना चाहता हूं, किंतु इन लड़कों के साथ नहीं जाना चाहता। पद्म पुरस्कारों की स्थिति भी ऐसी ही है। राहत इन्दौरी ने कहा है-

एक सरकार है, इनआम भी दे सकती है / इक कलन्दर है इंकार भी कर सकता है

बुद्धदेव भट्टाचार्य ने विनम्रतापूर्वक ऐसा ही किया है। यह परम्परा वामपंथियों में ही देखने को मिलती है। जब एक बार साम्प्रदायिक सद्भाव के लिए कुछ सम्पादकों को पुरस्कृत किया गया थो उस सूची में ‘लोकलहर’ के सम्पादक हरकिशन सिंह सुरजीत का नाम भी था। इसे शेष सारे सम्पादकों ने तो स्वीकार कर लिया किंतु कामरेड सुरजीत ने कहा कि यह तो हमारी पार्टी की नीति है, और उसके सदस्य के रूप में मैंने यह काम किया है, अगर सम्मानित करना है तो हमारी पार्टी को करो। इसी तरह सफदर हाशमी ने जन नाट्य मंच को मिले पुरस्कार लेने से इंकार करते हुए हरकिशनलाल भगत से कहा था कि पुरस्कार देने वाल हाथ इतने साफ नहीं हैं कि उनके हाथों से पुरस्कार ग्रहण किया जा सके। 

  

व्यंग्य स्वामियों से पीड़ित सरकार

 

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स्वामियों से पीड़ित सरकार

दर्शक

हमारी मोदीशाह सरकार को कई व्याधियां घेरे हुए हैं, जिनमें से एक स्वामी व्यधि भी है। जो खुद को स्वामी समझते हैं उनके भी स्वामी हैं। पहली गलती मोदी ने सुब्रम्यम स्वामी को पार्टी में शामिल करके की थी जो अजातमित्र हैं, वे जिसके साथ भी रहे उसका पतन उन्हीं के सहयोग से हुआ है। जयललिता हो, अटलजी हों या राजीव गाँधी हों, उन्होंने दोस्त बनने के बाद उनके कच्चे चिट्ठे खोल कर रख दिये। जब देश में इमरजैंसी के बाद जनता पार्टी सरकार बनी थी तब वे उसमें शामिल थे और दारूबन्दी का विरोध करने वाले तत्कालींन प्रधानमंत्री मोरारजी देसई मंत्रिमण्डल के बारे में उन्होंने बयान दिया था कि केवल तीन मंत्रियों को छोड़ कर उनके मंत्रिमण्डल के सारे सदस्य शराब पी लेते हैं।

मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद उनकी पहली विदेश यात्रा फ्रांस की ही थी। मोदी फ्रांस की धरती पर उतर ही नहीं पाये थे कि स्वामी का बयान [v1]  गया था कि राफेल विमान का सौदा ठीक नहीं है। तब तक देश को पता ही नहीं था कि मोदीजी राफेल के बारे में बात करने के लिए भी गये हैं। बाद में स्वामीजी मान भी गये। कैसे माने किसी को पता नहीं। बाद में तो जब राहुल गांधी ने राफेल से स्म्बन्धित तरह तरह के आरोप भी लगाये तो उनके मुखारविन्द से शब्द नहीं फूटे। उन्होंने यह जरूर कहा था कि उन्हें भाजपा में शामिल करते समय वित्त मंत्री बनाने का वादा किया गया था। बीच में उन्होंने यह भी कहा था कि मोदी का कोई भी वित्त मंत्री अर्थव्यवस्था का जानकार नहीं है। गाहे बगाहे वे अन्धभक्तों की जमात में सरकार की नीतियों से असहमति भी जताते रहते हैं जिसका कोई जबाब नहीं देता। जिन प्रवक्ताओं की जुबान कैंची की तरह चलती है उनकी धार भी सुब्रम्यम स्वामी के नाम पर मौथरी हो जाती है। उन्हें पार्टी से निकाल भी नहीं सकते बरना बचे खुचे राज भी बाहर हो सकते हैं। उगलत निगलत पीर घनेरी।

उत्तर प्रदेश के आगामी विधानसभा चुनाव में जब मोदी और शाह दोनों ही जी जान से जुटे हुए थे और कार्यकर्ताओं के समने जीत का गुब्बारा फुलाये जा रहे थे तब उसमें सुई चुभोने वाला भी एक स्वामी निकला। स्वामी प्रसाद मौर्य ने सही समय पर गुब्बारे में सुई चुभो दी और हवा निकलते हुए देखने लगे। उन्हें भी जब बहुजन समाज पार्टी से स्तीफा दिलबाकर लाया गया था तब वे विधानसभा में उस पार्टी की ओर से विधायक दल के नेता थे। जाहिर है कि यह सौदा भी कोई सस्ता सौदा नहीं रहा होगा। उनकी बेटी को संसद में भेजा गया था। कहा जा रहा है कि इस बार बेटे को टिकिट देने का वादा निभाने में आनाकानी की जा रही थी। यही कारण रहा कि बहुजन समाज पार्टी छोड़ कर भाजपा में पधारे स्वामी परसाद को भाजपा ताबूत नजर  आने लगी और वे उस ताबूत में आखिरी कील ठोकने को उतावले नजर आने लगे।

वैसे भी खुद को भगवा दिखाने वाली भाजपा में स्वामियों, संतों, महंतों, की कमी नहीं है जिनमें जनता के भरोसे को वोटों में भुनाने के लिए वे उनसे गलबहियां करते रहते हैं, किंतु अपने कृत्यों से वे कभी कभी भाजपा पर ही भारी पड़ जाते हैं। वे इन स्वामियों को भी छोड़ नहीं सकते। सदन में बहुमत बनाने में भी इनकी भूमिका रहती है।

हम [प्रधान] सेवक, तुम स्वामी कृपा करो भर्ता ,

स्वामी जय जगदीश हरे   

 


 [v1]

व्यंग्य झांकी और बाकी

 

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झांकी और बाकी

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बाबरी मस्ज़िद तोड़ने के बाद उन्होंने कहा था कि अभी तो केवल झांकी है, काशी मथुरा बाकी है। इसके समानांतर साढे तीन सौ इमारतों की सूची भी घूमने लगी थी जो मुगल काल में बनी थीं और उसके साथ यह सन्देश भी चिपकाया गया था कि ये हिन्दू मन्दिरों को तोड़ कर बनायी गयी हैं।

प्रसिद्ध शायर कृष्ण बिहारी नूर का एक शे’र है-

कुछ घटे या बढे तो सच न रहे

झूठ की कोई इंतिहा ही नहीं

अर्थात आम मान्यता के विपरीत सच तो सीमित है, किंतु झूठ असीम है। इसी असीमित हस्ती को लोग भगवान कहते हैं जिसे सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान कहा जाता है। इन दिनों झूठ ही सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान होकर राज कर रहा है। राहत इन्दौरी कहते थे कि

मिरी निगाह में वो शख्स आदमी ही नहीं

जिसे लगा है ज़माना खुदा बनाने में

पहले झूठ मुख से बोला जाता था, अब उसे हजार मुख वाले मीडिया से बोला जाता है। गोएबल्स के ज़माने में मीडिया का यह रूप नहीं था अन्यथा वह झूठ को सच बनाने के लिए हजार बार बोलने की तरकीब नहीं बताता। जिस तरह से सुगर कोटेड पायजन होता है या प्राचीन काव्य में ‘विष रस भरा कनक घट ‘ कहा गया है, उसे ही आजकल धर्म की पोषाक में लपेट कर दिया गया झूठ कह सकते हैं। वे पुराणों को इतिहास बताते हैं और उनमें वर्णित अवैज्ञानिक घटनाओं को दिव्य शक्तियों द्वारा किये गये काम बताते हैं। यह दिव्य शक्तियां विदेशी आक्रांताओं द्वारा नष्ट कर दी गयी बताने लगते हैं।

ऐसा झूठ एक धर्म की दुकान से ही नहीं बेचा जा रहा है अपितु हर ब्रांड की दुकानों से बिकने वाले इन झूठों में प्रतियोगिता भी बहुत है। जब ज़िन्दगी अनिश्चितताओं से भरी हो तो किसी चमत्कार की आशा में धर्म की ओट में बेचे जा रहे रहस्य साधारण जन को लुभाने लगते हैं और वह उनके जाल में फंसा रहता है। कुटिल राजनीति की दुकाने उसे इसी जाल में गिरफ्तार करके रखना चाहती हैं। झूठा इतिहास, कपोल कल्पित पुराण, धर्म पर झूठे खतरे, और उनके नाम पर अपना वोट बैंक बना कर शक्ति, सत्ता और सम्पत्ति अर्जित करने वाले लोग झांकियों की अनवरत श्रंखला चलाना चाहते हैं। उनके लिए एक, दो या तीन या फिर साढे तीन सौ ही नहीं पूरा देश बाकी है। पहले मुसलमान, फिर ईसाई, फिर सिख, फिर पारसी, फिर बौद्ध, फिर जैन, फिर दलित फिर आदिवासी फिर वैश्य, फिर ये, फिर वो अर्थात ये मलबे के व्यापारी हैं और जो जहाँ से टूट सकता है, उसकी तोड़ फोड़ में लगे रहते हैं।

वे नहीं जानते कि इस तोड़ फोड़ के बाद भी जो रोटी, रोजगार का सवाल है वह जोड़ता भी है। किसानों ने न केवल माफी ही मंगवा ली अपितु इसे कुछ सिखों का आन्दोलन बताने वालों को जयश्रीराम के साथ अल्ला हो अकबर का नारा बुलन्द करा के दिखा दिया। दस लाख बैंक कर्मियों ने निजी लाभ के लिए नहीं अपितु सार्वजनिक सम्पत्ति की बिक्री के खिलाफ दो दिन की हड़ताल से कुछ संकेत दिया है तो जूनियर डाक्टर, से लेकर लाखों की संख्या में पंचायत कर्मी सड़कों पर उतर आये हैं। और अभी तो ये झांकी है अभी तो महाराष्ट्र, राजस्थान, छतीसगढ, के अलावा पाँच राज्यों के चुनाव बाकी हैं।        

 

व्यंग्य घर वापिसी

 

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घर वापिसी

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राजकपूर की फिल्म जिस देश में गंगा बहती है का एक गीत था- आ अब लौट चलें , बाहें पसारे, तुझको पुकारे, देश मेरा। यह गीत डकैतों को जंगल छोड़ कर गाँव की ओर लौटने का सन्देश देता था, क्योंकि पहले के डकैत जंगलों में ही रहते थे और डकैत बनने से पहले मौलिक रूप से ग्रामीण हुआ करते थे। फिल्मों के अनुसार डकैतों की भूमिका निभाने के लिए वे काले कपड़े पहिनते थे, काला टीका लगाते थे और काली की ही उपासना करते थे। नगरों में रहने वाले तो तब डकैती डालने के लिए दुकानदार या उद्योगपति बन जाते थे।

अब डकैती का मामला भी बदल गया है, अब डकैत अगर पलायन भी करता है तो ज्यादा से ज्यादा नगरों से राजधानियों की ओर करता है जहाँ उसका नाम जनप्रतिनिधि होता है। पहले के डकैत सेठ साहूकार ब्याजखोरों को दोनाली बन्दूकों की दम पर लूटते थे। अब ऐसा नहीं होता है , अब सरकार नामक संस्था यह काम करती है जो पुलिस आदि की बर्दियों में रहने वाले बन्दूकधरियों के सहारे जो धन वसूलती हैं, उसे टैक्स कहते हैं। फिर उस धन को ठेकेदारी के नाम पर अपने लोगों में बांट दिया जाता है। हिस्सा चुपचाप नेताओं और अफसरों की तिजोरी तक पहुंच जाता है। विदेशों से बिना जरूरत के भी रक्षा उत्पादन खरीदे जाते हैं जिनके सौदे सुरक्षा के बहाने गुप्त रखे जाते हैं। इससे कमीशन पैदा होता है जिसे बंगारू लंगारू आदि रुपयों की जगह डालरों में  तक मांगते रहे हैं। जो ईमानदारी से बाँट लिया जाता है। विकास नाम का जो हथियार है उसके पोस्टरों से ही डरा डरा कर जनता को आतंकित कर दिया जाता है, फिर भी सरकार को आतंकवादी नहीं कहा जाता। आतंकवादी तो वे होते हैं जो अपनी पहचान गुप्त रखते हैं, जिससे सरकारों को कुछ भी ऊंचानीचा उनके सिर पर थोप देने में आसानी होते है। प्रतिवाद करने पर उन्हें गोली मार दी जाती है और पिछली तारीख से उन पर इनाम घोषित कर दिया जाता है। किस पर कितना इनाम घोषित है यह जनता को तब तक पता नहीं चलता जब तक कि उसे मार ना दिया गया हो।

इसलिए अब असली डकैतों की घरवापिसी सम्भव नहीं क्योंकि वे अब सारा काम घर पर बैठे हुए ही करते हैं। बकौल मुकुट बिहारी सरोज – इनके जितने भी मकान थे, वे सब आज दुकान हैं, इन्हें प्रणाम करो ये बड़े महान हैं।

इसके अलावा अब कहाँ घर लौटेंगे, हाँ अगर कोई सक्षम सरकार बने और सक्षम न्यायालय स्थापित हो सके तो गृह की जगह कारागृह की ओर जा सकते हैं। अभी तो कारागृह उन लोगों से भरे हुये हैं जो कहते थे कि –

खुदा ने दे दिया अब जेलखाना

बहुत तकलीफ थी मुद्दत से घर की  

इन दिनों घर वापिसी तो वह कहलाती है जिसमें व्यक्ति अपना धर्म छोड़ कर सत्तारूढ बहुसंख्यकों के दल वाले धर्म में प्रवेश करता है। वह किस घर से गया था यह तो उसके बाप दादाओं को भी पता नहीं होता सो घर वापिसी में किसी के भी घर में घुस जाने को स्वतंत्र होता है। सबै भूमि गोपाल की।  जरूरत हो तो वहाँ प्लास्टिक सर्जरी की भी सबसे पुरानी व्यवस्था मौजूद रहती है। ऐसी घर वापिसी में पाप पुण्य का हिसाब भी ट्रांसफर करना होता होगा। जो फायलें कयामत के दिन के लिए पेंडिंग रखी होंगीं उन्हें अपडेट करवाना होता होगा। मशहूर शायर राजेश रेड्डी का एक शे’र है-

जिन गुनाहों का बस खयाल आया

अगर उन को भी गिन लिया गया – तो!

एक घर वापिसी किसानों की भी हुयी है जो जीत जैसे माहौल में ऐसे  नाचते गाते लौटे हैं जैसे जंग जीत कर लौते हों। मेरे पिता कुछ पंक्तियां गुनबुनाते थे –

ओ, विप्लव के थके साथियो

विजय मिली विश्राम न समझो !    

व्यंग्य कृषि कानूनों की वापिसी और तपस्या में कमी

 

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कृषि कानूनों की वापिसी और तपस्या में कमी

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एक दिन अचानक 56 इंची सीने ने महसूस किया कि उसकी तपस्या में कुछ कमी रह गयी थी, जिससे वह किसान भाइयों को उनके भले के लिए लाये गये तीन कृषि कानूनों के महत्व को समझा नहीं सके। इस जगतगुरु देश को शिक्षा देने और समझाने के लिए गुरु की तपस्या का नया प्रयोग सुनने को मिला क्योंकि सीखने वालों की तपस्या की बात तो समझ में आती है पर सिखाने वालों को तपस्या करना पड़े ऐसा कभी नहीं सुना था। यदि ऐसा ही चलता रहा तो आगे स्कूली शिक्षा विभाग अध्यापकों की जगह तपस्यिओं की भरती करना शुरू कर सकता है। छात्रों को तिलक लगा कर प्रवेश देने की शुरुआत तो हो ही चुकी है। इतिहास और समाज शास्त्र के पाठ भी बदले जा चुके हैं अब अध्यापकों की तपस्या भी शुरू हो जायेगी।

स्कूल इंस्पेक्टर इंस्पेक्शन पर आयेगा और नोटिस देकर चला जायेगा कि गुरुजी स्कूल में तपस्या करने की जगह मोबाइल में चैटिंग करते हुए पाये गये, इन पर उचित कार्यवाही की अनुशंसा की जाती है। हैड मास्टर के बारे में बताया गया कि वह तपस्या के लिए जंगल या पहाड़ की तरफ निकल गये होंगे। इन दिनों वे स्कूल छोड़ कर उस तरफ ज्यादा जाने लगे हैं। उनकी तपस्या को भंग करने के लिए मेनका और रम्भा भी जंगल की तरफ जाती देखी गयी हैं। कई बार तो मेनका और रम्भाएं आगे निकल जाती हैं और तपस्या भंग करवाने के लिए हैड मास्साब खुद ही पीछे पीछे चले जाते हैं।

लगता है कि 56 इंची सीने की समस्त कार्यप्रणाली तपस्या करने पर निर्भर है। यह भी लगता है कि नोटबन्दी के मामले में ऐसा ही हुआ होगा। तपस्या की कमी इस मामले में भी रह गयी होगी, तब ही ना तो काला धन बाहर निकल पाया और ना ही आतंकवाद समाप्त हो पाया। पन्द्रह लाख की तो बात ही नहीं हो रही क्योंकि उसे तो जुमला बता दिया गया था। दो करोड़ नौकरियां देने की बात पर भी कहा जा सकता है कि तपस्या में कमी रह गयी होगी या था यह भी चुनावी जुमला था। 

एक के बदले दस सिर लाने में तपस्या की कमी का तो हाल ही मत पूछो, हर बार झूठ बोल कर काम चलाना पड़ा। झूठ बोलने में भी तपस्या की कमी रह गयी होगी सो हर बार पकड़ा गया। जब भी झूठ पकड़ा जाता तो जोर शोर से देश भक्ति और सेना को बीच में अड़ा दिया जाता। सत्य जानने के प्रति उत्सुक लोगों को पाकिस्तान भेज देने की बातें मीडिया के सहारे ठिलवायी जाने लगतीं। रामभरोसे तो सोचता रह गया कि कभी ये ज्यादा गुस्से में अमेरिका भेज देने की बात करें तो वह भी सजा पाने के लिए प्रयास करे क्योंकि उसे बहुत प्रयास के बाद भी वीजा नहीं मिल पा रहा था। बेचारा अब की बार ट्रम्फ सरकार का नारा लगाने और नमस्ते ट्रम्फ करने गुजरात भी गया था, किंतु उसकी भी तपस्या में कुछ कमी रह गयी होगी सो कोरोना से पीड़ित होकर लौट आया था। हाँ तपस्या इतनी जरूर थी कि किसी तरह बच गया।