व्यंग्य
बिना इमरजैंसी अमितशाह
दर्शक
अमित शाह फिर
से भाजपा अध्यक्ष बना दिये गये हैं। उनके नाम के पीछे तो फिर भी शाह लगा हुआ है,
पर यदि मोदी किसी घोषित चोर की पीठ पर भी वैसे ही हाथ रख देते जैसे कि मुकेश
अम्बानी ने उनकी पीठ पर रख दिया था तो भाजपा वाले उसे भी अध्यक्ष के रूप में
स्वीकार कर लेते। जंग खाये हुए लौहपुरुष अडवाणी जी ने इमरजैंसी का खतरा ऐसे ही
थोड़े सूंघ लिया था। इमरजैसी के बाद किसी ने लिखा था कि उस दौर में जब झुकने के लिए
कहा गया तो लोग लेट गये थे। अब हाल यह है कि बिना झुकने को कहे हुये ही भाजपाजन दण्डवत
प्रणाम की मुद्रा में हो गये हैं।
हमारे
लोकतंत्र में खानदानी राज्य को गाली देने की आज़ादी तो सबको होती है, किंतु बिना जन
समर्थन के खानदान की तरह अपनों अपनों को पद पर थोप देने पर केवल घुटा जा सकता है,
जिससे
घुटने का दर्द पैदा होता है। भरोसा न हो तो अटल बिहारी जी से पूछ सकते हैं।
मुकुट
बिहारी सरोज के शब्दों को याद करें तो –
जैसे कोई
खुशी किसी मातम के साथ हुयी,
क्योंजी ये
क्या बात हुयी?
सूचना माध्यम
कह रहे हैं कि अमित शाह के पद ग्रहण का समारोह बिहार की जबरिया शादी की तरह था
जहाँ सबके मुखड़े पर मायूसी थी पर रस्में पूरी की जा रही थीं। बिहार से याद आया कि
बिहार विधानसभा के चुनाव परिणामों में जब पहले राउंड के चुनावों में भाजपा को बढत
मिल गयी थी तो ढोल और भांगड़ा नाचने वाले बुलवा लिये गये थे पर बाद के राउंड में
ग्राफ गिरता गया तो उन्हें जाने के लिए कह दिया गया था। उसी पुराने एडवांस की
भरपाई के रूप में वे ही ढोल नगाड़े वाले बुलवा लिये गये थे। किसी ने गणतंत्र दिवस
की निकटता महसूस कर के – ओ मेरे वतन के लोगो- गाना बजवा दिया था, जिसे – जो लौट के
घर न आये- तक आते आते बन्द करवा दिया गया था क्योंकि इस समारोह में शहीद जैसे हो
चुके बुजुर्ग नेता तो झांके भी नही थे। उनकी कुर्बानी को कौन याद करता।
अमित शाह
मोदी के साथ ऐसे ही आये हैं जैसे पुराने राजस्थान में रानियों के साथ गोली आया
करती थीं जो रानी की विश्वस्त सेविका होती थीं। रनिवास से बाहर तक संवाद का माध्यम
वे ही बनती थीं। प्रसिद्ध उपन्यासकार आचार्य चतुर सेन शास्त्री जो राजा महराजाओं
के विश्वसनीय वैद्य भी थे और अंतःपुर की सारी कहानियां जानते थे, ने ‘गोली’ नाम से
एक उपन्यास लिखा है। उम्मीद की जाना चाहिए कि किसी दिन प्रधानमंत्री कार्यालय की
कहानियां भी बाहर आयेंगी, और बहुत रुचि के साथ पढी जायेंगीं। मोदी मंत्रिमण्डल में
पुराने राज परिवारों जैसी प्रतिद्वन्दिताएं चरम पर हैं। जैटली को हजम नहीं हो रहा
कि राजनाथ सिंह नम्बर दो पर हैं जिन्हें कभी अरुण शौरी ने हम्फी डम्फी और एलिस इन
वंडरलेंड के रूप में याद किया था। अब उन्हीं अरुण शौरी ने मोदी सरकार को काऊ प्लस
मनमोहन सिंह सरकार बताया है। कभी अटल सरकार में डिसइनवेस्टमेंट मंत्री रहे शौरी जी
पूरी मोदी सरकार का डिसइनवेस्टमेंट करने पर उतारू नजर आते हैं। ये अरुण जैटली ही
थे जिनके कथन पर राजनाथ के सुपुत्र की शिकायत पाकर प्रधानमंत्री कार्यालय को सफाई
देना पड़ी थी। 2005 में प्रैस को जानकारी लीक करने का आरोप लगाते हुए उमा भारती ने
जब अटल अडवाणी को खुले आम कार्यवाही की चुनौती दी थी, तब भी संकेत अरुण जैटली की
ओर ही माना गया था। सुषमा स्वराज के ललित मोदी प्रकरण ने भी जिस आस्तीन के सांप की
चर्चा की थी उसके शक की सुई भी जैटली की ओर गई थी। उधर सुषमा स्वराज और उमा भारती
की प्रतिद्वन्दिता जग जाहिर है। जब सुषमाजी ने सोनिया गाँधी के प्रधानमंत्री बनने
की दशा में सिर घुटाने, जमीन पर सोने और चने खाकर रहने की चेतावनी दी थी तो उमा
भारती भी उनकी प्रतिद्वन्दिता में उतर आयी थीं। अब दोनों एक ही मंत्रिमण्डल में
मंत्री हैं। कीर्ति आज़ाद, शत्रुघ्न सिन्हा के साथ सदाबहार सुब्रम्यम स्वामी तो
मोदी जी के समर्थन का जाप करते करते भी उनके मंत्रिमण्डल के फैसलों की ऐसी
छीछालेदर कर रहे हैं कि न निगलते बन रहा है और न ही उगलते।
ऐसी पार्टी
के अनचाहे अध्यक्ष बने अमितशाह आखिर कब तक टिक पायेंगे? कहीं वे खुद के साथ सनम को
लेकर भी तो नहीं डूबेंगे। केदारनाथ अग्रवाल की कविता है-
कागज की नावें हैं
तैरेंगीं,
तैरेंगीं
लेकिन वे
डूबेंगीं, डूबेंगीं, डूबेंगीं
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