व्यंग्य
मूर्ति भंजन का खेल
दर्शक
लेनिन की मूर्ति और त्रिपुरा के चुनाव
परिणाम का क्या सम्बन्ध हो सकता है जब न तो लेनिन चुनाव में खड़े हों और न ही चुनाव
जीतने हारने वालों ने चुनाव में लेनिन की स्मृति का स्तेमाल ही किया हो। लेनिन की
मूर्ति कोई चमत्कारी मूर्ति तो थी नहीं कि उसके दर्शन मात्र से किसी राजनीतिक दल
को कोई फायदा मिलता हो जैसे कि देवी देवताओं के बारे में प्रख्यात है और उनके पहले
दर्शन के लिए हर साल सैकड़ों कुचल जाते हैं व उनकी लाशों पर पैर रख कर पीछे वाले दर्शनों
हेतु आगे पहुँच जाते हैं।
लेनिन की मूर्ति कोई डायन की मूर्ति भी
नहीं थी कि रात में बच्चे डर जाते हों या औरतों बच्चों पर टोना टोटका होता हो। और
ऐसी गलतफहमी थी भी तो यह काम इससे पहले भी करा के देख सकते थे। माणिक
सरकार की सरकार कोई औरतों बच्चों को डराने वाली सरकार तो थी नहीं। पर मूर्ति तोड़ दी गयी, भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव
राम माधव के प्रोत्साहन से तोड़ दी गई, जिस पर राज्यपाल की किलकारी सुनाई दी। नादान
बच्चों के खेल की तरह बड़े बड़े नेताओं ने तालियां पीटीं और जिम्मेवार पदों पर बैठीं
कुर्सियां मुस्कियाती रहीं। जब प्रोत्साहित बच्चों का यह खेल और आगे बड़ा तथा
उन्होंने दूसरी मूर्तियां तोड़ीं तो खतरा दिखने लगा, दूसरी ओर के बच्चों ने भी उनके
बच्चों की तरह व्यवहार करना शुरू कर दिया, जिससे उनके बच्चों की मूर्तियां टूटने
लगीं। बच्चों की लड़ाई में बड़े बड़ों के सिर फूट जाते हैं, सो सर्वधर्म समभाव की तरह
सारी मूर्तियों को न तोड़े जाने के सन्देश सुनाई देने लगे। त्रिपुरा की नई सरकार के
मुख्यमंत्री को माणिक सरकार के पैर छूने और राम माधव को उन्हें शपथ समारोह में
आमंत्रित करने के लिए भेजा गया। इतना ही नहीं अपने मार्गदर्शक मंडल को समारोह में
लाइन में लगवाया गया जहाँ उनका अपमान कर संदेश दिया गया कि हमारे बच्चे तो अपने
बुजर्गों का भी अपमान करते हैं। दादा तुम बड़े दिल के हो इन्हें माफ कर देना आगे से
ये ऐसा नहीं करेंगे। उसके बाद कोई मूर्ति नहीं टूटी जो इस बात का प्रमाण है कि सब
कुछ इन्हीं के इशारों पर चल रहा था। यह बच्चों का खेल नहीं था अपितु बच्चों से खेल
करवाया जा रहा था।
प्रसंगवश याद आया कि एक थे समाजवादी नेता
राम मनोहर लोहिया, जो कभी जवाहरलाल नेहरू के बड़े भक्त थे व उन्हीं से प्रभावित
होकर राजनीति में आये थे। हमारे स्वतंत्रता संग्राम में गाँधीजी व भगत सिंह के बाद
सबसे बड़ा कद नेहरूजी का ही था। लोहियाजी ने लोकतंत्र आने के बाद जयप्रकाश नारायण
के साथ काँग्रेस छोड़ दी और विपक्षी की तरह सामने आये। वे यह जानते हुए भी कि हारना
निश्चित है, नेहरूजी के विरुद्ध चुनाव लड़ते थे। इस बहाने उन्होंने अपना कद बहुत
बड़ा लिया था। विचारक और चिंतक लोहिया, नेहरूजी की आलोचना में बहुत हल्के स्तर पर
उतर आते थे व उनके कुत्ते के खर्च से लेकर प्रधानमंत्री के लिए बनवाये जाने वाले
मूत्रालय के खर्च तक का विश्लेषण करने लगते थे। पता नहीं अगर वे आज होते तो हमारे
आज के परिधान मंत्री की काजू की रोटियों और सूट बूट पर कितनी ऊर्जा खर्च कर देते।
उसी दौर में नेहरू मंत्रिमण्डल में एक उपवित्तमंत्री तारकेशवरी सिन्हा होती थीं,
जो न केवल सुदर्शनीय थीं अपितु उन्हें इतनी शायरी कण्ठस्थ थी कि अपनी हर बात के
समर्थन में कोई शे’र कह के ध्यानाकर्षित कर लेती थीं। तारकेश्वरी जी एक बार लोहिया
जी को कनाट प्लेस में मार्केटिंग करते हुए टकरा गयीं तो लोहियाजी उन्हें हाथ पकड़
कर काफी हाउस में ले गये जहाँ आम लोगों के बीच जाने में वे बहुत घबराती थीं।
लोहियाजी बोले जब लोकतंत्र में नेता जनता के बीच जाने में डरेगा तो लोकतंत्र कैसे
जिन्दा रहेगा।
तारकेश्वरीजी ने अपने संस्मरण में लिखा कि
उस दिन मैंने लोहियाजी से पूछा कि आप इतने बड़े विचारक हैं किंतु जब नेहरूजी की
आलोचना पर उतरते हैं तो इतने हल्के स्तर पर क्यों आ जाते हैं जबकि अन्यथा आप इस
स्तर की बात नहीं करते। लोहिया जी का उत्तर था कि तारकेश्वरी यह मूर्ति पूजकों का
देश है और इसने नेहरूजी की भी मूर्ति बना कर पूजा करना शुरू कर दिया है। अगर ऐसा
हुआ तो लोकतंत्र नहीं बचेगा, इसलिए मैं नेहरू को मूर्ति बनने से बचाना चाहता हूं
और इस बनती हुयी मूर्ति पर चोट करता रहता हूं, ताकि नेहरू के कार्यों पर विचार हो
सके।
भाजपा के हिंसा पसन्द लम्पटों ने लेनिन की
मूर्ति तोड़ते समय ऐसा नहीं चाहा था किंतु वामपंथी समझदारों ने लेनिन के विचारों पर
चर्चा करके उनको सही उत्तर दिया है। विचारों की मूर्तियां हथोड़ों से नहीं टूटतीं।
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