व्यंग्य
सुप्रीम कोर्ट हाजिए हो
दर्शक
पादरियों जैसा सफेद चोगा, चोगे के ऊपर लाल
पट्टा जिस पर पीतल का बिल्ला, सिर पर साफा और हाथ में दण्ड लिये चोबदार जोर से
हांक लगाता है-
“सुप्रीम कोर्ट हाजिर हो”
हांक सुनते ही काला कोट पहिने टाई लगाये एक
न्यायमूर्ति भागते हुए आते हैं। उनके हाथ में कानून और धर्म ग्रंथों की अनेक मोटी
मोटी पुस्तके थीं।
यह एक ऐसे व्यक्ति की अदालत थी जो कभी
न्यायालय के आदेश पर तड़ी पार रहा था और अब एक ऐसी पार्टी का अध्यक्ष बना हुआ था जिसका
देश पर शासन था। उसने न्यायाधीश को कटघरे में खड़े होने के लिए कहा और आदेश दिया कि
शपथ लो कि तुम कुछ भी नहीं कहोगे। तुम्हारे कहने के दिन खतम हो गये। अब तुम केवल
सुनोगे।
“ पर न्यायपालिका स्वतंत्र है और वह
विधायिका के आदेश को मानने के लिए विवश नहीं है” काले कोट वाले से बोले बिना नहीं
रहा गया।
तड़ीपार रह चुके व्यक्ति ने अपने गोल फ्रेम
वाले चश्मे के कांच से घूरा और कहा कि “ तुम्हारी सत्तर साल से पड़ी हुयी आदत जल्दी
नहीं जायेगी। पहली बात तो यह कि मैं न मैं विधायिका हूं और न ही कार्यपालिका,
बल्कि इन सबसे ऊपर हूं जिसके नीचे तुम्हारे समेत ये दोनों भी काम करेंगे। एक और
चौथा है जो खुद अपने आप को लोकतंत्र का एक खम्भा बतलाता है, उसे तो मैंने अपने
कुत्तों के बराबर टुकड़े डालना शुरू किया तो वह तब ही से अपनी पूंछ हिला रहा है और
वह क्रमशः दाँएं- बांयें होती रहती है। जब जितना बड़ा लुक्मा गिराता हूं तब उसकी
पूंछ उतनी ज्यादा तेजी से हिलती है। मुनव्वरराना पहले ही कह गये हैं –
सियासत मुँह भराई के हुनर से खूब वाकिफ है
वो हर कुत्ते के आगे एक टुकड़ा डाल देती है
कार्यपालिका तो पहले से ही हुक्म की गुलाम
होती है। परसाई जी कह गये हैं कि डूबते सूर्य को दिखाते हुए एक लेखक ने समुद्र
किनारे खड़े एक व्यक्ति से कहा कि देखो सूरज डूब रहा है।
उस व्यक्ति ने सहमति में सिर हिलाया।
तो तुमने देखा कि सूरज डूब रहा है?
उसने फिर सहमति में सिर हिलाया।
क्या तुम जाँच आयोग के सामने इस बात की
गवाही दे सकते हो कि शाम को तुमने सूरज को डूबते हुए देखा?
“ हैं हैं हैं, मैं ऐसा कैसे कह सकता हूं,
मैं तो सरकारी कर्मचारी हूं” इतना कह कर वह व्यक्ति वहाँ से गायब हो गया।
मुख्य विपक्षी दल का तो वंश मिटा देने के
लिए ही मैंने चोटी में गांठ बाँधी है। और जब जितना चाहते हैं आर्डर देकर अपनी
पार्टी में बुलवा लेते हैं। अभी पिछले दिनों ही गोवा में बड़े दल का राग अलापने लगे
थे सो हमने उनके दो विधायकों से स्तीफा ही दिलवा दिया। अरे जब बिना मेहनत किये ही
उससे ज्यादा मिल रहा है जिसके लिए पालटिक्स के धन्धे में आये थे तो कौन रोज रोज की
मेहनत करता फिरेगा। लोकसभा चुनाव से पहले उनके कैबिनेट मंत्रियों तक को भर्ती कर
लिया था सांसदों से मिला हुआ उनका टिकिट वापिस करा के अपना टिकिट दे दिया था।
लोगों के लिए टिकिट खरीदवा के वापिसी की तिथि को नाम वापिस लेने को विवश कर दिया
था। सो विधायिका के जरूरत भर सदस्य तो पैसे के हंटर पर नाचेंगे।
“ इसलिए आपको भी नेक सलाह है कि जो भी
फैसला दें उससे पहले हम से पूछ लें कि हम उसे लागू करवायेंगे कि नहीं। जो हम लागू
नहीं करवायेंगे उस से सम्बन्धित फैसला ही
नहीं लिखें, भले ही वह चाहे जितना न्याय सम्मत हो और मौलिक अधिकारों के हित में
हो। हम लोग इमरजैंसी घोषित करके इन्दिरा गाँधी जैसी भूल नहीं करना चाहते इसलिए
बिना घोषित किये हुए ही इमरजैंसी लागू कर देते हैं। अब आप जा सकते हैं, अभी मुझे
मतदाताओं को मूर्ख बनाने के लिए कई चुनाव सभाओं में जाना है। फिर याद दिला रहा हूं
कि फैसले विधायिका की मर्जी पर कार्यपालिका ही लागू कराती है, इसलिए केवल
खानापूर्ति के लिए न दें।“
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें