व्यंग्य
अध्यापकों की औकात
दर्शक
देवनागरी का
अक्षर ज्ञान देने वाली पुस्तकों में कभी ‘अ’ से अध्यापक नहीं पढाया गया। वैसे तो
सरकारी स्कूलों के अध्यापकों और ज्यादातर छात्रों को अनार का फल देखने और स्वाद
चखने का अवसर तभी मिलता है जब डाक्टर सलाह देता है, पर बिना देखे हुए भी उन्हें
‘अ’ से अनार पढना पड़ता है। अपने अतीत से आलोकित होने वाले संगठनों की शासन अवधि
में शासकों को सर्व शिक्षा अभियान हजम नहीं हो सकता। वे कहते हैं कि यह क्या कि
सभी जातियों और धर्मों के लोगों को पकड़ पकड़ के पढा रहे हैं। वे जिस पुरातन काल के
उपासक है उसमें अगर कोई दलित आदिवासी गुरु की मिट्टी की मूरत बना के भी शिक्षा ले
लेता था तो गुरू राजकुमारों के कैरियर के लिए उसका अंगूठा कटवा लेते थे। शम्बूक
तपस्या कर लेता था तो उसका सिर काट दिया जाता था।
ऐसे ही गुरू
सम्मान के योग्य थे। वे ही गुर्रूर, ब्रम्हा गुर्रूर् विष्णु गुर्रूर देवो महेश्वरा
थे। साक्षात परम ब्रम्ह वे ही थे।
यह कोई बात हुयी कि सबको घेरो, पढाओ, कापी
किताबें दो, स्कूल ड्रैसें दो, साइकिल दो और मध्यान्ह भोजन कराओ। ये सारी शरारतें
सरकारों के बामपंथियों के दबाव में चलने के दौर में ही पैदा हुयीं। सबको पढाओ, तो
सबके लिए स्कूल का बोर्ड लगाओ, कहीं कहीं तो भवन भी बनवाओ, और फिर उन स्कूलों में
अध्यापक भरती करो, उनको वेतन दो। अतीत के अध्यापक तो दक्षिणा में संतुष्ट हो लेते
थे, और गुरु पत्नी गुरु पुत्र को दूध की जगह आटा घोल कर पिला देती थी। पर अब ये
अध्यापक के बच्चे पेट भरने लायक वेतन मांगने लगे हैं। इनकी हिम्मत इतनी बढ गयी।
तमतमा रहे
हैं नन्द किशोर चौहान। चना चबेना खाने लायक दाना डाला गया था और ये रोटी के साथ
दाल भी मांग रहे हैं। अगर सरकार इसी सब राजस्व लुटा देगी तो अपने ठेकेदारों को
क्या लुटायेगी जो उन्हें उचित हिस्सा चन्दे में देते हैं। रघुनन्दन शर्मा कह रहे
हैं कि किसी अध्यापक नेता को विधायकी का टुकड़ा क्या डाल दिया अब सारे नेता विधायकी
के लिए नेतागिरी कर रहे हैं। अगर ये ही नेतागिरी करने लगे तो व्यापम कौन करेगा। हम
क्या घास छीलेंगे। पुलिस, आरएएफ, सीआरएफ, होमगार्ड, सब बुला लो और मनने दो इन
गुरुओं की दनादन गुरु पूर्णिमा।
अध्यापकों की
सामाजिक हैसियत के बारे में एक अध्यापक अपनी शर्मिन्दगी को सुना रहे थे। उन्होंने
बताया कि गाँवों में महिलाएं शौच के लिए बाहर जाती है और सुरक्षा की दृष्टि से वे
सामूहिक रूप से सड़क के किनारे बैठ जाती हैं। जैसे ही कोई वहाँ से गुजरता है तो वे
संकोच और शर्म से उठ कर खड़ी हो जाती हैं। ऐसे ही एक शाम जब वह अध्यापक वहाँ से
गुजरे और एक युवती उठ कर खड़ी होने लगी तो एक प्रौढा ने उसको बैठे रहने का निर्देश
देते हुए कहा कि- रहने दे, रहने दे, वो तो मास्टर है। भले ही शिक्षा में अनुशासन
का अलग महत्व हो किंतु ऐसे मास्टर का अनुशासन बच्चों पर क्या खाक रहेगा!
अब चौहान कुछ भी
कहते रहें किंतु इन दिनों अध्यापक अब रहीम को यह पढाते हुए अलग व्याख्या करते हैं कि
दुर्बल को न सताइए,
जाकी मोटी हाय
मरे खाल की श्वांस
ते लौह भसम हो जाय
तो उनकी श्वासें तेज
तेज चलने लगती हैं। और वे सोचने लगते हैं कि उन्हें तो केवल लकडी की कुर्सी ही
जलाना है, जो वैसी ही ज़र्ज़र हो चुकी है।
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