व्यंग्य
साहित्यकार हिन्दी
और सोम रस
दर्शक
रामभरोसे के
यहाँ कथा हो रही थी, पर उसने अपने सबसे निकट के पड़ोसी और सबसे अच्छे मित्र को नहीं
बुलाया। जब ज्यादा चड़ोत्री के लालच में कथावाचक पंडितजी ने कारण जानना चाहा तो वे
गोल कर गये और बात बदल दी। पर पंडितजी को खटका लग गया कि जिसे रामभरोसे का सबसे
अच्छा दोस्त और पड़ौसी समझते थे, उसे क्यों नहीं बुलाया। एक दिन जब वह अकेले में
मिल गया तो उन्होंने पूछ ही लिया। उत्तर में उसने साफ कह दिया कि रामभरोसे ने
बुलाया तो था किंतु मैं पूड़ी खीर पंजीरी खाने को नहीं आ सकता। पंडितजी समझ गये कि
ये उनमें से हैं जो बिना पैग लगाये दावत को अदावत समझते हैं। पंडितजी कुटिलिता से
मुस्कराये ही थे कि उसने सुना दिया-
शेख साहब
मुकाबला कैसा
आपका हम
शराबनोशों से
कितने
अस्मतफरोश बेहतर हैं
आप जैसे खुदा
फरोशों से
पंडितजी ने
शर्मिन्दिगी महसूस की। किंतु सभी तो एक जैसे नहीं होते हैं। जनरल वी के सिंह को तो
आप जानते ही होंगे। वही वी के सिंह जो किसी बहादुरी के कारण नहीं अपितु अपने जन्म
की गलत तारीख के कारण चर्चा में आये और 56 इंच से थोड़ा कम सीना फुलाये घूमते हैं। कहते
हैं कि –बदनाम भी होंगे तो क्या नाम न होगा। इसी तरह नामी होने का का लाभ उठा कर उन्होंने
राजनीति में हाथ मार लिया। प्राथमिक प्रवेश के लिए पहले उन्होंने अन्ना और रामदेव के चक्कर काटे पर शरण उन्हें
भाजपा में ही मिली।
भाजपा पहाड़ी
पर बसे उस गाँव जैसा है जहाँ कानून से भागे हुए बहुत सारे लोग फरारी काटते हैं।
इन्हीं जनरल
साहब की पुरानी हैसियत का लाभ उठा कर भाजपा ने अपनी एक सीट तो बढा ली, पर झुक कर
आये व्यक्ति को जनरल से भाजपा का सिपाही बना दिया। जब अपने कद के पद के बिना
बेरोजगारी से परेशान जनरल के होते हुए पुराने सैनिकों ने सरकार को नाकों चने चबवा
दिये तो प्रधान मंत्री ने उन्हें हिन्दी हिन्दी खेलने में लगा दिया गया।
जनरल की जनरल नौलेज जिसे हिन्दी में सामान्य
ज्ञान कहा जाता है, थोड़ी कमजोर है और उन्हें इतना ही पता है कि लेखक जब सेमिनारों
में जमा होते हैं तो वे दारू पीते हैं और लड़ने लगते हैं। जिस जनरल को दारू पीकर
लड़ने वालों से डर लगने लगता है उस शांतिदूत जनरल को सलाम करने का मन होता है। पता
नहीं जनरल को उनके 56 इंची सीनों ने बताया या नहीं कि वे भी लेखकों की लड़ाई से
बहुत डरते हैं, यही कारण है कि उन्हें चेहरा छुपा कर बहादुर बने लोगों द्वारा छुप
कर मार दिये जाने पर न तो अफसोस जाहिर करते हैं और न ही किसी जाँच का झूठा भरोसा
ही देने की कोशिश करते हैं। नरेन्द्र दाभोलकर हों, गोबिन्द पनसारे हों या कलबुर्गी
हों वे भी लड़ाई लड़ रहे थे जो अज्ञान के खिलाफ थी, अन्धविश्वास के खिलाफ थी,
अवैज्ञानिकता के खिलाफ थी। कलम के सिपाही प्रेमचन्द ने भी लेखकों को राजनीति के
आगे आगे चलने वाली मशाल बताया है। अमिताभ बच्चन और प्रसून जोशियों को लेखकों के
ऊपर थोपने वालों को तो चरण सेवक ही पसन्द आते हैं।
बहरहाल
हिन्दी को वैष्णवों की भाषा बनाने की कोशिश करने वाले न तो उसे चेतना की भाषा बना
सकते हैं, न ज्ञान की, न विज्ञान की। ‘हिन्दी-हिन्दू-हिन्दुस्तान का नारा देने
वाले न उसे आंचलिक और प्रादेशिक भाषाओं से गलबहियां करने दे सकते हैं और न ही परिवर्तनकारी
चेतना के लिए आन्दोलन की भाषा बनने दे सकते हैं। उनका काम तो व्यापम और ललित गेट
वालों के दागों को भाषा की भावुक चादर से ढकना है। 1967 के भाषा आन्दोलन पर धूमिल
ने सही कहा था-
उन्होंने भूख
की जगह भाषा को रख दिया है।
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