व्यंग्य
कैश लैस से लैश कैश
तक
दर्शक
जो लोग डन्डे को दण्ड कहते हैं, स्कूल को शिशु मन्दिर कहते हैं, यूनीफार्म को
गणवेश कहते हैं, रोड शो को पथ संचलन कहते हैं, डीसीएम टोयटा को रथ, डिमोनेटाइजेशन
को विमुद्रीकरण कहते हैं, वे भी कैश लैस और लैश कैश की संस्कृतनिष्ठ हिन्दी नहीं
कर पाये। संघ परिवारी असल में इतिहास से एक कालखण्ड को विलोपित कर देना चाहते हैं,
इसलिए उस कालखण्ड की भाषा, संस्कृति, वास्तु आदि सब को भुला देना चाहते हैं ताकि
‘हिन्दुस्तानियों’ को भाषा का संकट रहे। राहुल गाँधी बड़ी मुश्किल में तो
असहिष्णुता बोलना सीख पाये थे और फिर ये विमुद्रीकरण आ गया।
मैंने कुछ दिनों हिप्नोटिज्म के प्रशिक्षण को देखने की कोशिश की थी, जिसमें
प्रशिक्षक प्रशिक्षु को [ अगर यह ज्यादा संस्कृत्निष्ठ हो गया हो तो उन्हीं की
भाषा में समझें कि मास्टर सब्जेक्ट को ] कुछ अंक भूल जाने का आदेश देता है और उसके
आदेश के प्रभाव में वह गिनती में से आदेशित अंक भूल जाता है। मैंने जब यह दृश्य
देखा था तब प्रशिक्षक ने सब्जेक्ट को आठ का अंक भूल जाने का आदेश दिया था और फिर
दीवार पर लगे कलैंडर में से तारीखें पढने के लिए कहा था। मैं देख कर सचमुच चकित रह
गया था कि वह सात तक तो धड़ल्ले से पढ लेता था और आठ आने पर अटक जाता था। संघ
परिवार भी चाहता है कि लोग इतिहास के उस कालखण्ड को भूल जायें जिसे इतिहासकारों ने
मुगल पीरिय़ड के रूप में वर्णित किया है। यही कारण है कि वे जनता को इस तरह से
हिप्टोनाइज करने में लगे हुए हैं कि वे मुगल पीरियड को या तो बिल्कुल ही भूल जायें
या फिर उसकी कथित बुराइयां ही याद रखें। पृथ्वीराज चौहान से सीधे गुरू जी के चरणों
में गिरते हैं और बीच में याद भी करते हैं तो राणाप्रताप, शिवाजी, या गुरु गोबिन्द
सिंह को याद करते हैं।
हिटलर के विचार, उसकी पोषाक, उसके ध्वज प्रणाम, से उन्हें कोई आपत्ति नहीं है
किंतु औरंगजेब रोड के नाम पर सड़क भी नहीं हो सकती। भोपाल को भोजपाल करने के
लिए एक नकली बुत खड़ा कर देंगे। उनके अखबार का नाम या तो ‘आर्गनाइजर’ होगा या
‘पाँचजन्य’। जब हिन्दुस्तान की जनता अंग्रेजों से लड़ रही थी तब वे मुसलमानों, और
कम्युनिष्टों से लड़ने की शिक्षा दे रहे थे। अब जब वे कैश लैश से जूझ रहे थे तब
उन्हें फकीर होना याद आना चौंकाता है।
वैसे मोदीजी फकीर का भेष पहले भी धारण कर चुके हैं। यह भेष उन्होंने तब धारण
किया था जब इमरजैंसी में गिरफ्तारी का डर पैदा हो गया था। तुलसी दास को पहले ही
आशंका थी कि कभी ऐसा होगा इसलिए उन्होंने लिख दिया था-
नारि मुई गृह संपति
नासी। मूड़ मुड़ाइ होहिं संन्यासी
[इस दोहे की पहली पंक्ति में जातियां थीं इसलिए हमने भी विलोपित कर दीं, जो फिर भी जिज्ञासु हैं वे तुलसी दास को पढ लें]
[इस दोहे की पहली पंक्ति में जातियां थीं इसलिए हमने भी विलोपित कर दीं, जो फिर भी जिज्ञासु हैं वे तुलसी दास को पढ लें]
कहने वाले तो यह भी कहते हैं कि उस दौरान मोदी अमेरिका चले गये थे पर वे उस
कालखण्ड को भी विलोपित कर देना चाहते हैं और सन्यासी के भेष में ही अपने रंगीन
फोटो प्रचारित कराते हैं। सन्यासी के लिए तो सबै भूमि गोपाल की। फकीर होना वैराग
का नहीं सुविधा का मामला हो गया है। जिन्हें दुनिया में धन वैभव मिलना कठिन हो
जाता है वे स्वर्ग में तलाश करने लगते हैं। उधर कबीर के वंशज प्रसिद्ध गीतकार नईम
जी की पंक्तियां दूसरी हैं-
काशी साधे नहीं सध रही, चलो कबीरा मगहर साधो
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