व्यंग्य
बुरा न मानने वाली होली
के अवसर पर गधों की दुनिया
दर्शक
मैं इतना भी गधा नहीं हूं कि गधों पर कुछ लिखूं । मैंने तय किया है कि मैं
गधों पर कुछ नहीं लिखूंगा क्योंकि इतने सारे लोग केवल और केवल गधों पर ही बोले और
लिखे जा रहे हैं तो गधों के इस नक्कारखाने में मैं भी अपनी गधी जैसी तूती गुंजाऊं
यह मुझे मंजूर नहीं। कुछ प्रतीक इतने सुनिश्चित हो चुके हैं कि केवल गधा कह देने
से भी लोग हँसने लगते हैं। उल्लुओं ने इनकी बराबरी करने की बहुत कोशिश की किंतु
वहाँ तक नहीं पहुँच सके जहाँ तक गधे पहुँच गये, और मैं हमेशा पिछड़ों, वंचितों के
साथ रहा हूं। असल में उल्लू को देख सकने में ही एक उमर निकल जाती है तब वह दिखाई
देता है क्योंकि वह रात्रि कालीन पक्षी होता है तथा अखबार में काम करने वालों से
होड़ लेता रहता है। वह आदमियों से इतना भिन्न होता है कि आदमियों को रात्रि में
दिखाई नहीं देता और उल्लुओं को दिन में दिखाई नहीं देता। गधा इसी बात में बाजी मार
लेता है क्योंकि बाज़ार की भाषा में कहा गया है कि जो दिखता है, वह बिकता है।
असमंजस ऐसा ही है जैसा कि एक गज़ल में कहा गया है
तुझको देखा है मेरी
नज़रों ने, तेरी तारीफ हो मगर कैसे,
न जुबाँ को दिखाई
देता है, और ना नज़रों से बात होती है
गुजरात के गधों की लोकप्रियता से पहले वे
धोबियों तक सीमित रहे हैं। किसी देवता ने उन्हें वाहन नहीं बनाया। उल्लू थोड़ा इलीट
क्लास का पक्षी है, वह धन की देवी का वाहन है। दुनिया की सारी लक्ष्मियां उल्लुओं
को ही वाहन बनाती हैं, चाहे वे गृहलक्ष्मियां ही क्यों न हों। उल्लुओं का महत्व
वही समझ सकता है जिसने कलेक्टरों, या मंत्रियों के वाहन चालकों से बातचीत की हो। उन्हें
वह बात तक पता होती है जो पुरुष मंत्रियों की गृहलक्ष्मियों तक को पता नहीं होती।
हिन्दी के कवि अब्दुल रहीम खानखाना ने कहा है कि
लक्ष्मी थिर न रहीम
कहि, यह जानत सब कोय
पुरुष पुरातन की
वधू, क्यों न चंचला होय !
मोदीजी के प्रिय कवि
काका हाथरसी ने राम सीता, राधा कृष्ण, आदि की पूजा की परम्परा में दीवाली पर
लक्ष्मी गणेश की पूजा होते देख जिज्ञासा व्यक्त की थी –
पति हैं उनके
विष्णुजी, धार्मिक अपना देश
लक्ष्मीजी की बगल
में क्यों अड़ रहे गणेश
गधा तो रेंक कर अपना राज खोल देता है किंतु उल्लुओं को कभी किसी ने कोई चुगली
करते नहीं देखा। अगर ऐसा होता तो मोदी को काला धन निकालने के लिए विमुद्रीकरण की असफल
योजना लागू करके देश का पैसा नहीं फूंकना पड़ता। आयकर अधिकारी उल्लू को ही मुखबिर
बना कर पता लगा लेते।
भले ही गुजरात के गधे अमिताभ बच्चन के सहारे अंतर्राष्ट्रीय महत्व पा रहे हों
किंतु जातिवाद के इस युग में मैं केवल और केवल उल्लुओं की बात करूंगा।
उल्लू दो तरह के होते हैं। एक सचमुच के उल्लू, और दूसरे काठ के उल्लू। सचमुच
के उल्लुओं में सभी उल्लू, उस्ताद उल्लू नहीं होते अपितु कुछ प्रशिक्षु भी होते
हैं, जिन्हें उल्लू के पट्ठे कहा जाता है। पट्ठों के बारे में यह गारंटी नहीं होती
कि पक्के उल्लू बन भी जायेंगे या नहीं, इसलिए उनके उस्ताद को ही पहचाना जाता है।
यह वैसा ही है जैसा कि उर्दू गज़ल लिखने वालों में होता है। ऐसे उल्लू अधूरे
प्रशिक्षण से कभी कभी उल्लू की दुम होकर रह जाते हैं।
उल्लुओं में अपने पराये का भेद भी होता है। जो अपना उल्लू होता है वह हमेशा
टेढा ही रहता है इसलिए हर कोई हर समय अपना उल्लू सीधा करने में लगा रहता है। जो
लोग अपना उल्लू सीधा नहीं करते उन्हें लोग विनयपूर्वक उल्लू ही मानते हैं।
वैसे तो उल्लू पुरानी इमारतों, उजड़े महलों के स्थानों को आबाद करते हैं किंतु
कई तो उस पेड़ के कोटर में भी रहते हैं जिसकी डाल पर बैठ कर विवाह के पूर्व कालिदास
उसी डाल को काट रहे थे और उनकी प्रतिभा को विद्योतमा से पराजित पंडितों ने पहचाना
था।
उल्लुओं की प्रतिभा को उर्दू के शायर ने ठीक तरह से पहचाना है और वह कहता है
कि अकेला एक उल्लू ही गुलिस्तां को बर्बाद करने के लिए काफी होता है किंतु जब हर
डाल पर भाई बन्द बैठे हों तो फिर गुलिस्तां की बरबादी के नज़ारों का क्या कहना। यह
शोध का विषय हो सकता है कि यह गुलिस्तां इकबाल वाला गुलिस्तां है जिसकी वे बुलबुल
हैं या जली कट्टू वाले बुल बुल का गुलिस्तां है।
गधों की दुनिया में मैं उल्लूपना का इसलिए भी पक्षधर हूं क्योंकि उल्लू पक्षी
होता है और गधा विपक्षी।
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