व्यंग्य
सम्पर्क फार समर्थन
दर्शक
भाजपा के बड़े से लेकर छोटे नेता समर्थन के
लिए सम्पर्क करने निकल पड़े हैं।
जो नेता जितना बड़ा है वह उतने ही बड़े
सेलीब्रिटीज के दरवाजे पर खड़ा है। उसने अपने आने की पहले से सूचना दे कर रखी है
ताकि लोग अपने कुत्तों को बाँध कर रखें। वे अपनी उपलब्धियां बखानेंगे। चूंकि
उपलब्धियां इतनी ज्यादा हैं कि उन्हें खुद याद नहीं रहतीं हैं इसलिए उन्होंने
पुस्तिका छपवा कर रखी है। उसे दे देते हैं। खुद पढ लें।
हरिशंकर परसाई, बसंत के आगमन पर लिखे लेख
में लिखते हैं कि बसंत आ गया। अब कवि कविताने लगेंगे। ‘हा बसंत आया, प्रिय बसंत
आया..... आदि। जिस प्रिय को गा कर बताना पड़े कि बसंत आ गया है, उस प्रिय से तो शत्रु
अच्छा।‘
जिस जनता को घर घर जा कर और पुस्तिका बाँट
कर बताना पड़े कि तुम्हारा इतना विकास हो गया। उस विकास का क्या फायदा। विकास कोई छुपा
हुआ बल थोड़े है कि याद दिलाने पर ही महसूस हो। जिसका विकास जब जब और जहाँ जहाँ हो
जाता है वह तो खुद ही बोलता है।
अमित शाह को बड़ी जिम्मेवारी मिली है।
उन्हें उन लोगों से समर्थन मांगना है जो वोट देने ही कभी कभी जाते हैं। उनका और
उनके मार्गदर्शकों का भूगोल ज्ञान ऐसा है कि एक फौजी के यहाँ जाना था पर उसी नाम
के दूसरे फौजी के यहाँ पहुँच जाते हैं। लता जी का पता याद करके पहुँचते हैं पर वे
बीमार होती हैं और मिजाजपुर्सी कराने के लिए भी तैयार नहीं होतीं। बड़े बेआबरू होकर
कूचे से निकल आते हैं।
रोचक यह है कि जो पार्टियां खुद ही सरकार
में शामिल हैं उन्हें तक नहीं पता कि कितना विकास हो गया इसलिए उन्हें समर्थन जारी
रखना चाहिए। इसके लिए भी उन्हें उनके दर पर बताने जाना पड़ता है। जब शिव सेना के
किले पर ढोक देते हैं तो वे सुबह सुबह ही अपने अखबार में उनकी खबर ले लेते हैं।
कुछ अखबार खबर देने का काम कम ‘खबर लेने’ का काम ज्यादा करते हैं। शायद शिवसेना के
मातोश्री में अमित शाह जैसे भाजपा पार्टी की ओर से नहीं जाते इसलिए वे उद्धव से
अकेले में बात करते हैं। देवेन्द्र फड़नवीस, मुख्यमंत्री महाराष्ट्र उद्धव के बेटे
के पास बाहर बैठे रहते हैं। फिर डिनर होता है। सर्वे भवंतु सुखिना, सर्वे संतु
निरामयाः।
मृत्यु का मामला बहुत संवेदनशील होता है,
और इसका सहारा लेकर सदियों से ब्लैकमेल किया जा रहा है। शादी करने के लिए तैयार न
होने वाले बेटे को माँ डराती है और कहती है कि क्या मैं पोते का मुँह देखे बिना ही
मर जाऊंगी! माँ की मौत की आशंका से घबराया बेटा शादी के लिए तैयार हो जाता है। बाद
में माँ दशकों तक अपनी बहू के साथ सास बहू का सीरियल चलाती रहती है। इसी तरह नेता
भी अपने प्रिय वोटरों को डराता रहता है। नोटबन्दी की असफलता के बाद मंच से आँसू
बहाते हुए कहता है कि मैंने कैसे कैसे लोगों से दुश्मनी मोल ले ली है, वे लोग मुझे
ज़िन्दा नहीं छोड़ेंगे। जनता सम्वेदनशील होकर नोटबन्दी की तकलीफें सहन कर लेती है।
नेता कोई रिपोर्ट नहीं लिखाता, सुरक्षा एजेंसियां जाँच नहीं करतीं। धीरे धीरे सब
भूल जाते हैं। जब फिर संकट आता है तो नक्सलवादी और दलित आन्दोलनकारी एक कर दिये
जाते हैं। वे चिट्ठी भेजते हैं और उस चिट्ठी का प्रिंटआउट तकिये के नीचे छुपा कर
पुलिस के आने की प्रतीक्षा करते रहते हैं। पुलिस आकर उन्हें मय सबूत के गिरफ्तार
कर लेती है। जब रिपोर्ट लिखायी जाती है तो दिल्ली के उस नेता का नाम नहीं होता है।
पहले भी ऐसा होता रहा है। सरकार पर संकट माने कि देश पर संकट।
भेड़िया आया, भेड़िया आया, हमेशा नहीं चलता। दुर्भाग्य
से कभी सच में भेड़िया आ जाता है तब मुश्किल होजाती है।
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