शुक्रवार, 27 नवंबर 2015

व्यंग्य बिहार में चुनाव

व्यंग्य
बिहार में चुनाव
दर्शक
      फिल्म निर्माण एक धन्धा है इसलिए इन दिनों कई फिल्म निर्माता अपनी फिल्मों को रिलीज होने से रोके हुए हैं। वैसे तो लेखक को लिखने के बाद पुस्तक प्रकाशन की और फिल्म निर्माताओं को फिल्म प्रदर्शन की जल्दी होती है पर वे सीने पर पत्थर रखे हुए वक्त के गुजरने का इंतज़ार कर रहे हैं ताकि बिहार के विधान सभा चुनाव गुजर जायें। फिल्में सामाजिक संवेदनाओं से पैसा नहीं कमातीं अपितु मनोरंजन से कमाती हैं। इन दिनों चुनाव की चर्चाएं इतनी स्वादिष्ट हैं कि दर्शक टीवी छोड़ कर सिनेमा जाना ही नहीं चाहता। टीवी से उसकी यह चिपकन उसकी लोकतांत्रिक चेतना का विकास नहीं है अपितु उसकी मनोरंजन प्रियता के कारण है।
      बिहार की राजनीति में वैसे तो पहले से ही लालू प्रसाद थे अबकी बार नरेन्द्र मोदी और आ गये तो मजा दुगना हो गया। किसी जमाने में अटल बिहारी हिन्दू महा सभा के राष्ट्रीय अध्यक्ष बृज नारायण बृजेश की तर्ज पर आम सभाओं में चुटकले सुनाते हुए बताते थे कि मैडम इन्दिरा गाँधी ने कहा है कि वे नहले पर दहला मारेंगीं, तो मैं कहता हूं कि मैं बेगम पर इक्का मारूंगा। पब्लिक को मजा आ जाता था। वे कहते कि श्रीमती गाँधी कहती हैं कि अटलजी जब दोनों हाथ उठा कर भाषण देते हैं तो मुझे हिटलर की याद आती है, पर मुझे भाषण देने का वे ऐसा कोई तरीका नहीं बतातीं जिसमें टाँग उठा कर भाषण दिया जाता हो। उनकी इस बात पर खाया पिया मध्यम वर्ग निहाल हो जाता था। अनुमान है कि कभी साहित्यिक समारोह माने जाने वाले कवि सम्मेलनों में चुटकलेबाजी की शुरुआत इसी दौर से शुरू हुयी। अटल जी विपक्ष में रहने और सरकार के गरिमापूर्ण पद पर रहने का भेद समझते थे इसलिए उन्होंने पद की जिम्मेवारी समझने के बाद कभी चुटकलेबाजी नहीं की। दूसरी तरफ अब पदों को ऐसे नेतृत्व ने हथिया लिया है जो रहीम के अनुसार नल के नीर की तरह जितने ऊपर चढते हैं उतना ही नीचे गिरने लगते हैं। गुजरात में तेजी से अलोकप्रिय होती भाजपा सरकार को बचाने के लिए केशू भाई पटेल को हटा कर मोदी को आजमाया गया था जिन्होंने ठीक चुनाव के पहले ‘गोधरा उपरांत’ ड्रामा खेलकर खुली उत्तेजना पैदा की और उसका ताज़ा चुनावी लाभ उठाना चाहा। पर जब तत्कालीन चुनाव आयुक्त लिंग्दोह ने सद्भाव का वातावरण निर्मित होने तक चुनाव टालने की गैर भाजपा दलों की अपील मान ली तो मोदी जी उनके नाम को विच्छेद करके उच्चारित करने लगे। कहने लगे कि मैडम सोनिया से उनकी मुलाकात शायद चर्च में होती होगी। उन्हीं दिनों धर्मांतरण रोकने के नाम पर चर्चों पर हमले होने लगे। मोदी जी ने सोनिया गाँधी और राहुल गाँधी के उदय को जर्सी गाय और बछड़े का ही रूपक नहीं दिया था अपितु मुसलमानों के लिए पाँच बीबी और पच्चीस बच्चे कह कर खिल्ली भी उड़ायी। शिष्ट और सौम्य लोग इसे राजनीतिक गन्दगी कह कर चुप हो गये किंतु लालू प्रसाद जैसे लोग समझते थे कि ‘शठे शाठ्यम समाचरेत’ अर्थात खल जाने खल की ही भाषा। तुम डाल डाल हम पात पात।
जरा कुछ और अपना कद तराशो
बहुत नीची यहाँ ऊँचाइयां हैं
      बिहार में भाजपा को ऐसा गठबन्धन बनाना पड़ा जिनका संसार कुँएं के घेरे से ज्यादा नहीं था।  सो खुले छुपे सारे गठबन्धनियों में मुख्यमंत्री पद प्रत्याशी ही भरे पड़े थे। मौसम विज्ञानी रामविलास पासवान ने अपने सारे बेटे दामाद भाई भतीजों को टिकिट देने के बाद सोचना पड़ा कि खानदान इतना छोटा क्यों है। यही हाल मुख्यमंत्री पद के दूसरे उम्मीदवार जीतन राम माँझी के साथ हुआ। परोक्ष समर्थन करने वाले पप्पू यादव तो घोषणा किये बैठे हैं कि उनके दल के समर्थन बिना बिहार में कोई सरकार बन ही नहीं सकती। जीवन भर भाजपा के कारनामों का बोझ ढोने वाले सुशील मोदी को बाहुबली गिरिराज सिंह पीछे कर दिये। रथयात्री अडवानी को कलैक्टर के रूप में गिरफ्तार करने वाले ईमानदार आई ए एस आर के सिंह को अडवानी ने गृहमंत्री बनने पर अपने मंत्रालय में उपसचिव बनाया था, उन्हें ही चिदम्बरम ने गृह सचिव बनाया था, नितीश कुमार ने मुख्य सचिव के रूप में बिहार रोड कार्पोरेशन सौंपा था उन्हें मोदी ने बिहार से सांसद बना कर उम्मीद की थी कि वे उनकी जबान खरीद लेंगे। पर-
चाहे सोने के फ्रेम में जड़ दो
आइना झूठ बोलता ही नहीं
उन्होंने ही कह दिया कि बड़े बड़े अपराधियों को दो करोड़ रुपयों में टिकिट बेचे गये हैं और वे उनके लिए प्रचार नहीं करेंगे। शत्रुघ्न सिन्हा शत्रु बन गये और ‘उगलत निगलत पीर घनेरी’ देने लगे।
      मोदी ने मदारीगीरी की तो लालू ने उनकी मिमक्री करके उनसे भी ज्यादा मजा पैदा कर दिया और अरहर के दाल सत्तर से अस्सी नब्बे सौ तक ही नकल कर पाये पर जनता ने उसे दो सौ तक पहुँचा दिया व हर घर में जिस बच्चे को जहाँ तक गिनती आती थी वह नीलामी करने लगा। भाइयो बैनो, भाइयो बैनो तो इतना हुआ कि भैया बैनों की माँ तक दुखी हो गयी। मोहन भागवत की आरक्षण समीक्षा से निबटें, कि अरुण शौरी की काऊ प्लस काँग्रेस से निबटें, कि तोगड़िया से निबटें, कि शिव सेना की काली स्याही से निबटें, पाकिस्तान का पासपोर्ट काटते खट्टर काका से निबटें कि गाय बकरी से निबटें। सारे जुमले फेल होते देख कर खिसियाये हुए नेता की शक्ल बहुत मनोरंजक हो जाती है।

      फिर आ गयीं मीसा दीदी उन्होंने बता दिया कि भले ही लालू की बेटी हैं पर रिश्ते में तो मोदी की दादी हैं जिन्होंने नानी याद दिलाने से पहले उनकी पत्नी और माँ को याद करा दिया। हर रोज नया मनोरंजन हो रहा हो तो फिल्में देखने कौन जायेगा। फिल्म निर्माताओ अभी आठ नवम्बर का इंतज़ार करो।   

व्यंग्य वो जिनका रखा हुआ है

व्यंग्य
वो जिनका रखा हुआ है
वीरेन्द्र जैन
पहले दो तरह के संस्कृतिकर्मी हुआ करते थे। एक् वे जिन्हें मिल गया था, और दूसरे वे जो उसके लिए हींड़ते रहते थे। हींड़ना नहीं समझते हैं।
अगर आप बुन्देलखण्ड में नईं रये हैं तो हींड़ना नहीं समझ सकते हैं। वैसे तो यह तरसने जैसा शब्द है किंतु उससे कुछ भिन्न भी है। तरसने वाला तो तरसने को प्रकट भी कर देता है जैसे बकौल कैफ भोपाली-
हम तरसते ही, तरसते ही, तरसते ही रहे
वो फलाने से, फलाने से, फलाने से मिले
किंतु हींड़ने वाला तरसता भी है और प्रकट भी नहीं करता। मन मन भावै, मुड़ी हिलावै वाली मुद्रा बुन्देलखण्ड में ही मिलती है। और यही मुद्रा क्या दूसरी अनेकानेक मुद्राएं भी बुन्देलखण्ड की मौलिक मुद्राएं हैं। ये अलग बात है कि बुन्देलखण्डियों ने उनका पेटेंट नहीं करवाया है। इन्हीं मुद्राओं के कारण ही इस क्षेत्र में हिन्दी व्यंग्य के भीष्म पितामह हरिशंकर परसाई जन्मते हैं, रागदरबारी जैसा उपन्यास इसी क्षेत्र के अनुभवों पर ही लिखा जाता है, और बरामासी जैसा उपन्यास किसी दूसरे क्षेत्र के जीवन पर सम्भव ही नहीं हो सकता।
बात निकलेगी तो फिर दूर तलक जायेगी, पर यह तो बात न होकर गैस हो गयी कि निकलने भर की देर थी और इतनी दूर तक चली आयी। पर यह गैस नहीं है, इसलिए ज़िन्न को वापिस बोतल में ठूंसते हैं।
तो जी हाँ मेरा मतलब पुरस्कारों से ही था जो कभी कुछ लोगों को मिल जाता था और बहुत सारे लोग उनको तरसते रहते थे। तरसने वाले अपनी झेंप दो तरह से मिटाते थे। एक तरफ तो वे कहते थे कि पुरस्कारों का कोई महत्व नहीं है, बेकार की चीज हैं, दूसरी तरफ वे कहते थे ये तो चापलूसी से मिलते हैं, सरकार के चमचों को मिलते हैं, साहित्य के नाम पर नहीं विचारधारा के नाम पर मिलते हैं, जब सरकार बदलेगी तो वह हमारी प्रतिभा को पहचानेगी आदि। पर सरकारें आती जाती रहीं किंतु पुरस्कारों और उन लोगों का रिश्ता कम ही बन सका। ऐसे लोग तत्कालीन सरकार का विरोध करते थे उसे जम कर गालियां देते थे व अपने आप को संत होने का दिखावा जैसा करते थे, पर निगाहें हमेशा पुरस्कारों पर लगी रहती थीं । वे गुपचुप रूप से आवेदन करते रहते थे। सिफारिशें करवाते थे, क्योंकि सरकार प्रतिभा को पहचान ही नहीं रही थी अर्थात पुरस्कार नहीं दे रही थी। किंतु जब उन्हें भूले भटके मिल जाता था तो वे सारा विरोध भूल कर ले आते थे।
फिर परीक्षा की घड़ी आयी। जो सचमुच जनता के लेखक थे, जिनका लेखन उनके पुरस्कारों से नहीं पहचाना जाता था, उन्होंने सरकार की निर्ममता, उदासीनता और तानाशाही प्रवृत्ति के विरोध में पुरस्कार वापिस लौटा दिया तो वे बड़े संकट में आ गये। जैसे तैसे तो मिला था, उसे लौटायें कैसे? हरिशंकर परसाई ने इसी संकट को आत्मालोचना के रूप में उस समय लिखा था जब ज्यां पाल सात्र ने नोबल पुरस्कार लौटा दिया था। उन्होंने लिखा, यह ज्याँ पाल सात्र बहुत बदमाश आदमी है, इसे नोबल पुरस्कार मिला तो इसने उसे आलू का बोरा कह कर लौटा दिया। ये मेरे चार सौ रुपये मरवाये दे रहा था। मुझे सागर विश्वविद्यालय से चार सौ रुपये का पुरस्कार मिला था किंतु सात्र की देखा देखी मेरे अन्दर भी उसे लौटा देने का जोर मारा और मैं भी उसे लौटाने वाला था किंतु सही समय पर अक्ल आ गयी और मैं पुरस्कार ले आया। उस पैसे से मैंने एक पंखा खरीदा जो आजकल ठंडी हवा दे रहा है जिससे आत्मा में ठंडक पहुँच रही है। मैं ठीक समय पर बच गया।
उदय प्रकाश इस दौर के सात्र हैं। उनके दुष्प्रभाव से जिनकी आत्मा बच गयी उसे ठंडक पहुँच रही है। उन्होंने ड्राइंग रूम में सजे पुरस्कारों को उठा कर अलमारी में रख दिया है। वे रात में अचानक उठ जाते हैं, और अलमारी खोल खोल कर देख लेते हैं कि रखा हुआ है या नहीं। इस साली आत्मा का कोई भरोसा नहीं कब आवाज देने लगे, कब जाग जाये और बेकार के जोश में कह दें कि- ये ले अपनी लकुटि कमरिया बहुतई नाच नचायो। बच्चों से कह रखा है कि कोई ऐसा वैसा आदमी आ जाये तो कह देना, आत्मा को ठंडक पहुँचाने हिल स्टेशन पर गये हैं और मोबाइल भी यहीं छोड़ गये हैं। कोई मिल भी जाता है तो कह देते हैं कि आजकल पितृपक्ष के कढुवे दिन चल रहे हैं, इन दिनों में कोई लेन देन का काम नहीं होता। फिर नवरात्रि का पावन पर्व आ गया, मुहर्रम आ गया बगैरह बगैरह। स्वास्थ नरम गरम चल रहा है। हत्याएं तो होती रहती हैं, पहले भी हुयी थीं, बगैरह बगैरह। इन दिनों दिमाग में कविताएं, कहानियां नहीं बहाने कौंधते रहते हैं। मुख्यधारा पुरस्कार लौटाने की चल रही है और इतनी मुश्किल से मिला हुआ कैसे वापिस कर दें? चाहे पूरी मानवता लुट पिट जाये, पुरस्कार नहीं छूटता।
एक कंजूस व्यापारी के पास डाकू आये और गरदन पर बन्दूक रख कर पूछा- बोलो जान देते हो या पैसा? व्यापारी बोला जान ले लो, पैसा तो मैंने बहुत मुश्किल से कमाया है।
वे मानवता की कीमत पर पुरस्कार को सीने से लगाये बैठे हैं। छूटता ही नहीं। 
वीरेन्द्र जैन                                                                          
2 /1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा सिनेमा के पास भोपाल म.प्र. [462023]
मोबाइल 9425674629
    


व्यंग्य अध्यापकों की औकात

व्यंग्य
अध्यापकों की औकात
दर्शक
देवनागरी का अक्षर ज्ञान देने वाली पुस्तकों में कभी ‘अ’ से अध्यापक नहीं पढाया गया। वैसे तो सरकारी स्कूलों के अध्यापकों और ज्यादातर छात्रों को अनार का फल देखने और स्वाद चखने का अवसर तभी मिलता है जब डाक्टर सलाह देता है, पर बिना देखे हुए भी उन्हें ‘अ’ से अनार पढना पड़ता है। अपने अतीत से आलोकित होने वाले संगठनों की शासन अवधि में शासकों को सर्व शिक्षा अभियान हजम नहीं हो सकता। वे कहते हैं कि यह क्या कि सभी जातियों और धर्मों के लोगों को पकड़ पकड़ के पढा रहे हैं। वे जिस पुरातन काल के उपासक है उसमें अगर कोई दलित आदिवासी गुरु की मिट्टी की मूरत बना के भी शिक्षा ले लेता था तो गुरू राजकुमारों के कैरियर के लिए उसका अंगूठा कटवा लेते थे। शम्बूक तपस्या कर लेता था तो उसका सिर काट दिया जाता था।
ऐसे ही गुरू सम्मान के योग्य थे। वे ही गुर्रूर, ब्रम्हा गुर्रूर् विष्णु गुर्रूर देवो महेश्वरा थे। साक्षात परम ब्रम्ह वे ही थे।
 यह कोई बात हुयी कि सबको घेरो, पढाओ, कापी किताबें दो, स्कूल ड्रैसें दो, साइकिल दो और मध्यान्ह भोजन कराओ। ये सारी शरारतें सरकारों के बामपंथियों के दबाव में चलने के दौर में ही पैदा हुयीं। सबको पढाओ, तो सबके लिए स्कूल का बोर्ड लगाओ, कहीं कहीं तो भवन भी बनवाओ, और फिर उन स्कूलों में अध्यापक भरती करो, उनको वेतन दो। अतीत के अध्यापक तो दक्षिणा में संतुष्ट हो लेते थे, और गुरु पत्नी गुरु पुत्र को दूध की जगह आटा घोल कर पिला देती थी। पर अब ये अध्यापक के बच्चे पेट भरने लायक वेतन मांगने लगे हैं। इनकी हिम्मत इतनी बढ गयी।
तमतमा रहे हैं नन्द किशोर चौहान। चना चबेना खाने लायक दाना डाला गया था और ये रोटी के साथ दाल भी मांग रहे हैं। अगर सरकार इसी सब राजस्व लुटा देगी तो अपने ठेकेदारों को क्या लुटायेगी जो उन्हें उचित हिस्सा चन्दे में देते हैं। रघुनन्दन शर्मा कह रहे हैं कि किसी अध्यापक नेता को विधायकी का टुकड़ा क्या डाल दिया अब सारे नेता विधायकी के लिए नेतागिरी कर रहे हैं। अगर ये ही नेतागिरी करने लगे तो व्यापम कौन करेगा। हम क्या घास छीलेंगे। पुलिस, आरएएफ, सीआरएफ, होमगार्ड, सब बुला लो और मनने दो इन गुरुओं की दनादन गुरु पूर्णिमा।
अध्यापकों की सामाजिक हैसियत के बारे में एक अध्यापक अपनी शर्मिन्दगी को सुना रहे थे। उन्होंने बताया कि गाँवों में महिलाएं शौच के लिए बाहर जाती है और सुरक्षा की दृष्टि से वे सामूहिक रूप से सड़क के किनारे बैठ जाती हैं। जैसे ही कोई वहाँ से गुजरता है तो वे संकोच और शर्म से उठ कर खड़ी हो जाती हैं। ऐसे ही एक शाम जब वह अध्यापक वहाँ से गुजरे और एक युवती उठ कर खड़ी होने लगी तो एक प्रौढा ने उसको बैठे रहने का निर्देश देते हुए कहा कि- रहने दे, रहने दे, वो तो मास्टर है। भले ही शिक्षा में अनुशासन का अलग महत्व हो किंतु ऐसे मास्टर का अनुशासन बच्चों पर क्या खाक रहेगा!
अब चौहान कुछ भी कहते रहें किंतु इन दिनों अध्यापक अब रहीम को यह पढाते हुए अलग व्याख्या करते हैं  कि 
दुर्बल को न सताइए, जाकी मोटी हाय 
मरे खाल की श्वांस ते लौह भसम हो जाय

तो उनकी श्वासें तेज तेज चलने लगती हैं। और वे सोचने लगते हैं कि उन्हें तो केवल लकडी की कुर्सी ही जलाना है, जो वैसी ही ज़र्ज़र हो चुकी है।