गुरुवार, 4 अप्रैल 2019

व्यंग्य लोकतंत्र का बाजार


व्यंग्य
लोकतंत्र का बाजार
दर्शक
कभी किसी पुरानी फिल्म का एक गाना था- बाबूजी तुम क्या क्या खरीदोगे, लालाजी तुम क्या क्या खरीदोगे? यहाँ हर चीज बिकती है मियाँजी तुम क्या क्या खरीदोगे!
चुनाव आते ही इस गाने के दृश्य कोंधने लगते हैं। यहाँ हर चीज बिकती है। टिकिट से लेकर वोटर तक, और विधायिकी से लेकर मंत्री पद तक। संस्कृत में एक श्लोक है-
यस्यास्ति वित्तं स नरः कुलीनः
स च विद्वान, श्रुतवान् गुणज्ञः ।
स एव वक्ता स च दर्शनीयः
सर्वे गुणाः कांचनमाश्रयन्ते ॥ 
अर्थात जिसके पास में धन है वही मनुष्य पण्डित है, श्रोता है, गुणी है, वही वक्ता है और वही सुदर्शन है। सारे गुण सोने में बसते हैं।
पूंजीवादी दलों में चुनाव की दुकानदारी टिकिट वितरण से शुरू होती है। सिनेमा या बस के टिकिट बेचने से अलग विधायकी के टिकिट बेचना लाभ का धन्धा होता है इसलिए इस नौकरी के लिए बहुत कोशिशें करनी पड़ती हैं। पार्टी में जितने गुट होते हैं उतने ही काउंटर खुल जाते हैं और टिकिट बेचने वाला रेलवे के टीटी की तरह कहीं छुप कर फोन बन्द कर बैठ जाता है और उसे वही तलाश पाता है जिसकी जरूरत बहुत ज्यादा होती है और जो टिकिट की कोई भी कीमत चुकाने के लिए तैयार दिखता है। यही कारण है टिकिटार्थियों में करोड़पतियों के अलावा कुछ बेबकूफ जरूर मिल जाते हैं किंतु टिकिट केवल करोड़पतियों को ही मिलता है। जो लोग पाँच साल तक अपने नेता के पीछे चिचियाकर खुद को टिकिट का पात्र मानने लगते हैं वे केवल उपहास के पात्र ही बनते हैं। इन पार्टियों में टिकिट देने का अन्य कोई फार्मूला नहीं होता सिवाय क्रेता की क्रयशक्ति के। जब टमाटर पचास रुपया किलो हो जाते हैं तो हर रोज मोलभाव करने वाले ग्राहक को सब्जी वाला हाथ लगाने से पहले ही भाव बताने लगता है।
टिकिट देने वाला कहता है कि इस बार कड़ी टक्कर है और चुनाव मँहगे हो गये हैं आप नहीं लड़ पाओगे, बीस करोड से कम वाले को तो सोचना भी नहीं चाहिए, सामने वाली पार्टी के पास बहुत पैसा है। जब टिकिटार्थी कहता है कि इतने की व्यवस्था तो मैंने कर रखी है। सुन कर वह कहता है कि कमजोर प्रत्याशियों को चुनाव लड़ाने के लिए पाँच करोड़ चन्दा भी पार्टी को देना पड़ेगा तो वह उसे भी मंजूर कर लेता है क्योंकि विधायक निधि से लेकर दुनिया भर की विधायक विकास योजनाएं उसकी आँखों में कोंधने लगती हैं। सवाल पूछने और उत्तर के समय अनुपस्थित हो जाने के भी तो पैसे मिलते हैं। फिर लाइसेंस परमिटों आदि के कमीशन, टैक्सों के फंसे हुए केसों में प्रस्तावित रिश्वत आदि की बड़ी बड़ी राशियां दिखने लगती हैं, सरकार बनने पर मंत्री पद और राज्यसभा के चुनाव में रोकड़ा। तो वह चुनावी चन्दा भी मंजूर कर लेता है। फिर वितरक दूसरे गुट के टिकिट वितरकों से भी मामला क्लीअर कराने को कहता है ताकि ज्यादा बड़ी राशि आफर करने वाले के प्रति अन्याय न हो जाये। अब जब चुनाव चल रहे हैं तो कमजोर प्रत्याशियों के लिए मदद तो हर जगह लगती ही है, भले ही कोई प्रत्याशी कमजोर न हो।
गत दिनों एक प्रत्याशी द्वारा अपने प्रदेश अध्यक्ष से बातचीत का एक आडियो वायरल हुआ था जिसमे एक प्रत्याशी कहता हुआ सुना गया कि वोटर बहुत हरामी हो गया है और मोदी की रैली में जाने से लेकर हर बात के पैसे मांगने लगा है। वोटर भी क्या करे! वह देखता है कि चुनावी जुमलों का तो कोई मतलब है नहीं इसलिए प्रत्याशी नेता की कमाई में से ही जो कुछ मिल जाये वही लोकतंत्र के पर्व की ईदी है सो वसूल लो, नहीं तो बात गयी फिर पाँच साल के लिये। कुछ दलितों के वोट बेचते हैं, तो कुछ यादवों के, कुछ कुर्मियों, पटेलों के तो कुछ कुश्वाहा, आदिवसियों के। कोई वोट काटने के लिए किसी प्रत्याशी के पक्ष में खड़े होने के पैसे ले रहा है, तो कोई खड़े होकर बैठ जाने के पैसे ले रहा है। कुछ दल बदलने के पैसे ले रहे हैं तो कुछ टिकिट के लिए खर्च किये गये पैसे मिल जाने पर दल न बदलने के लिए पैसे ले रहे हैं। सेलिब्रिटीज अपनी फिल्म के डायलाग सुनाने के लिए पैसे ले रहे हैं तो मीडिया वाले सर्वेक्षणों में जिताने हराने के पैसे ले रहे हैं। पण्डित अनुष्ठान करने के पैसे ले रहे हैं तो कुछ नये मन्दिर मस्जिदें बनने लगती हैं।   
लोकतंत्र के पर्व का मेला लगा है और कोई न कोई कुछ न कुछ बेच रहा है। अब ऐसे में अगर आप किसी जनहितैषी काम की उम्मीद करेंगे तो दोष तो आपका ही होगा। जब बाजार है तो क्रयबिक्रय ही होगा।         

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