शनिवार, 25 अगस्त 2018

व्यंग्य नये शब्दकोश


व्यंग्य
नये शब्दकोश
दर्शक
एक कश्मीरी शायर लियाकत ज़ाफरी का शे’र है –
हाय अफसोस... कि, किस तेजी से दुनिया बदली
आज जो सच है, कभी झूठ हुआ करता था
कभी पुरानी फिल्मों में एक गाना चला था – सैंया झूठों का बड़ा सरताज निकला। लगता है कि दिल्ली की टाकीजों में पुरानी फिल्मों के पुनर्प्रदर्शन का कार्यक्रम चल रहा है। चुनी हुयी सरकारी पार्टी और उसके प्रवक्ता जो कहते हैं, उसे देखते हुए लगता है कि पाठ्यक्रम में इतिहास बदलने वाले दल ने जिस ढीठता के साथ शब्दार्थ बदलने शुरू कर दिये हैं तो अब कुछ दिनों में शब्दकोश बदलने की स्थिति आ जायेगी ताकि बयान का यथार्थ के साथ मेल हो सके। जब भाजपा नेता हिन्दू कहते हैं तो उसका अर्थ होता है भाजपा, संघ और उनके आनुषांगिक संगठन। इन पर लग रहे सारे आरोप हिन्दुओं पर लगते हैं। इनके यहाँ मारने वाला नाथूराम गोडसे हिन्दू है किंतु मरने वाले राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी हिन्दू नहीं है। जब जब भाजपा खतरे में होती है तो वह हिन्दू धर्म पर खतरा होता है, देश पर खतरा होता है। मोदी का मतलब मिलेट्री हो गया है। अगर उनके झूठ को पकड़ा जाता है तो उसे देश की सेना का अपमान बताया जाता है, जबकि देश की सेना का अपमान तो वे राजनीतिक पार्टियां करती हैं जो सत्तारूढ होने पर सेना के शौर्य को अपने नाम लिखवाने की कोशिश करती हैं। जब बघारी गयी शेखियों की कलई खुलने लगती है तो नकली लालकिला बना कर उससे भाषण देने वाला नेता ऐसी सर्जीकल स्ट्राइक करने लगता है जिसे वेद प्रताप वैदिक जैसे संघ समर्थक पत्रकार भी फर्जीकल स्ट्राइक कहने को विवश हो जाते हैं। वह तो गनीमत रही कि उन्हें नकली पाकिस्तानी सिर नहीं मिले बरना वे एक का दस करके दस का दम दिखा देते।
डीसीएम टोयेटा को रथ बना कर घूमने वाली पार्टी के नेता इतिहास, पुरातत्व ही नहीं महापुरुषों की जीवनी को भी उलट देना चाहते हैं. कबीर नानक के साथ गोरखनाथ आदि लोगों को मिला देते हैं और उसके लिए क्षमा भी नहीं मांगते।  मुकुट बिहारी सरोज इन्हीं के बारे में कह गये हैं-
ये जो कहें प्रमाण, करें वो ही प्रतिमान बने
इनने जब जब चाहा, तब तब नये विधान बने
कोई क्या सीमा नापे, इनके अधिकारों की
ये खुद जनम पत्रियां लिखते हैं सरकारों की
इनके जितने भी मकान थे, वे सब आज दुकान हैं
इन्हें प्रणाम करो,
ये बड़े महान हैं।
अगर कोई हिन्दुत्व के नाम पर इनके कट्टरवादी आचरण की तुलना पाकिस्तान से करते हुए देश को हिन्दू पाकिस्तान बनाने का आरोप लगाता है तो वे उसे हिन्दुत्व की निन्दा बताते हुए साधारण समझ वालों को भटकाने भड़काने का काम करते हैं। झूठे फालोअर, झूठी सदस्यता, झूठा बहुमत, झूठी भीड़, झूठा विकास, झूठा सुधार, झूठे खतरे, सब कुछ झूठ झूठ और झूठ।
राहत इन्दौरी कहते हैं –
कुछ और काम उसे याद ही नहीं शायद
मगर वह झूठ बहुत शानदार बोलता है     

व्यंग्य डांडिया का मौसम


व्यंग्य
डांडिया का मौसम
दर्शक
मैंने कहा कि डांडिया का मौसम आ गया है। इतना सुनते ही राम भरोसे मेरे ऊपर लगभग डंडा लेकर दौड़ पड़ा। बोला तुम्हें भारतीय संस्कृति की बिल्कुल समझ नहीं है और पता ही नहीं है कि डांडिया कब, कहाँ कैसे खेला जाता है, बस अपने को बुद्धिजीवी प्रदर्शित करने के लिए लगे रहते हो कुछ भी पेलने।
“ पर मेरा वह मतलब नहीं था..........”। मैंने सफाई देना चाही
“ तो क्या मतलब था? डांडिया माने डांडिया जिसमें हर खेलने वाले के हाथ में दो दो लकड़ियां होती है जो टकराने पर आवाज करती हैं और उन्हें घूम घूम कर ऐसी ही लकड़ियां रखने वाले लोगों से एक लय में टकराना होता है, उसे डांडिया कहते हैं. यह नव रात्रि के अवसर पर देवी पूजा के दौरान देवी की भक्ति के गीत गा गा कर खेला जाता है। यह गुजराती लोक संस्कृति का नृत्य गीत है जो अब पूरे देश में खेला जाने लगा है” राम भरोसे ने अपना सारा ज्ञान एक साथ उंडेल दिया।
“ बस करो भाई, इतना ज्ञान तो मुझे भी है, पर कुछ बातें प्रतीकों में भी कही जाती हैं। पता नहीं आजकल क्यों मिर्ची खाये बैठे रहते हो और बात समझने से पहले ही मोबलिंचिंग करने लगते हो।“ मैंने शांतिपूर्वक कहा।
‘ अच्छा समझाओ, क्या समझाते हो. तुम लोगों को तो आजकल गुजरात की कोई बात नहीं सुहाती और हर डील में मोदी शाह या हर्षद मेहता तलाशने लगते हो, फिर भी बोलो”।
“ देखो भाई डंडा लेकर तो तुम्हीं दौड़ते हो जिसे अपनी सांस्कृतिक भाषा में दण्ड कहते हो व जिसके संचालन का  प्रशिक्षण तुम्हें सुबह शाम शाखा में सिखाया जाता है। मैं तो यह कहना चाह रहा था कि पहले विधानसभा और फिर लोकसभा के चुनाव आ गये हैं और चुनाव आयोग ने इसे पर्व का सही नाम दिया है। चुनावी पार्टियों के नेताओं के लिए यह पर्व ही होता है। उनके लिए राजनीति का मतलब ही चुनाव होता है, जिससे सत्ता पाने की उम्मीदें जगती हैं, और ऐसी कुर्सी के लिए मुँह में पानी आने लगता है जिससे कमाई होती है।“ मैंने धैर्य से अपनी बात समझानी चाही।
“वो तो सब ठीक है पर चुनाव में अभी समय है, और इसमें ये डांडिया क्या है?” उसने सवाल किया।
“सुनो भाई, जिन लोगों के लिए यह पर्व है. तो फिर उसे मनाने के तरीके भी होंगे। उन तरीकों में डांडिया भी एक है। जैसे ही पर्व का महूर्त निकलता है वैसे ही उत्साह का संचार हो जाता है। कार्यकर्ता अपनी अपनी वर्दियां सिलवाने लगते हैं क्योंकि होने से दिखना ज्यादा महत्वपूर्ण होता है। कहा जाता है भक्त तुलसी दास की विनय पर जब उनके भगवान राम उन्हें दर्शन देने आये तो उन्होंने यह कहते हुए सिर झुकाने से इंकार कर दिया कि –
तुलसी मस्तक तब नवै, जब धनुष बान लिउ हाथ
व्यक्ति की पहचान उसकी वर्दी से होती है, बिना उचित वर्दी के भक्त भगवान तक को नहीं पहचानता। मीरा बाई तक कहती हैं कि
जाके सर मोर मुकुट मेरो पति सोई
सो कार्यकर्ता खादी की वर्दी में भगवे या तिरंगे दुपट्टे डाल कर तैयार होने लगते हैं। एक ही दुकान पर कमल के फूल और पंजे के निशान वाली सामग्रियां बिकने लगती हैं व दिखने वाले स्थान पर स्तेमाल होने वाली समस्त पोषाकों, ध्वजों, गाड़ियों, थैलों, पर चुनाव चिन्ह नजर आने लगते हैं।“ मैंने भी अपने हिस्से का ज्ञान उड़ेल दिया।
“ वह तो ठीक है किंतु यह डांडिया क्या है?”
“ बता रहा हूं. चुनाव से पहले चुनाव के लिए टिकिट जुटाना होता है और यह टिकिट अपने ही लोगों से टकरा कर जुटाना होता है। हाई कमान के सामने अपनी ही पार्टी के अपने समान नेताओं से टकराने के लिए उनके चरित्र का चित्रण करना होता है और उन्हें पराजित करने के बाद फिर चुनाव में विपक्षी दल के नेता से टकाराना पड़ता है। इस दौरान अपने दल का टिकिट वंचित नेता भीतर भीतर विरोधी दल के प्रत्याशी का सहयोग करता है व विरोधी दल में टिकिट वंचित नेता अपना सहयोग करता है। चुनाव जीत जाने पर अगर सरकार बन जाती है तो फिर मंत्री बनने के लिए अपने ही दल के विधायकों से मंत्री पद के लिए टकराना होता है। इस तरह घूम घूम कर अपने और पराये से डंडियां टकाराने का मौसम आ गया लगता है।“
राम भरोसे मुँह फुला कर चला गया।       

व्यंग्य तूल देना और तेल लगाना


व्यंग्य
तूल देना और तेल लगाना
दर्शक
भगवा वेषधारी अजय सिंह विष्ट जो खुद को योगी बताते हुए अपना नाम योगी आदित्यनाथ बताते हैं, ने कहा है  कि माब लिंचिंग को ज्यादा ही तूल दिया जा रहा है। योगी के शब्दों के सही अर्थ जानने के लिए मैंने शब्दकोश खोला और तूल का अर्थ देखा अर्थ था तूल, माने कपड़ा, लम्बाई, कोमल पंख, प्रसार, रुई, सविस्तार विवरण ।
मैं धन्य हो गया। अगर कपड़ा के अर्थ में लें तो मृतक को कफन देने की परम्परा है। अजय सिंह विष्ट ने भी भले ही गोरखपुर अस्पताल में मारे गये बच्चों को कफन न दिया हो किंतु उनके परिवार वालों ने तो तूल देना जरूरी समझा होगा। आखिर मोब लिंचिंग में एक दो नही दर्जनों लोग मारे गये हैं। बताइए योगी जी इन्हें तूल दें या न दें! हाल ही में दिवंगत नीरज जी लिख गये हैं-
पर ठहर वो जो वहाँ लेटे हैं फुटपाथों पर
लाश भी जिनके कफन तक न यहाँ पाती है
और वो झोंपड़े छत भी है न जिनके सर पर
छाते छप्पर ही जहाँ जिन्दगी सो जाती है
पहले इन सब के लिए एक इमरत गढ लूं 
फिर तेरी मांग सितारों से जड़ी जायेगी
अगर तूल का अर्थ लम्बाई या विस्तार मान कर चला जाये तो आपको थोड़े में समझ में कहाँ आता है। अगर कानून व्यवस्था की हमारी बातें आपको तूल लगती हैं तो सम्बित पात्रा की बातें क्या लगती हैं जो टीवी डिबेट में कभी विषय पर बात ही नहीं करता अपितु विषय को टालने और समय खत्म करने के लिए यहाँ वहाँ की बातें ही करता रहता है।
साम्प्रदायिकता के प्रसार के लिए जिन निर्दोषों को अकारण बेमौत मार दिया गया उनके जख्मों पर थोड़ी सी रुई या किसी चिड़िया का कोमल पंख जरूर रखना चाहूंगा और इस तरह तूल देना जरूरी समझते हैं। हम लोग आपकी तरह योगी नहीं इंसान हैं इसलिए हमारी सच्चाई और वादा निभाना ही हमारी पूंजी है। आपकी तरह नहीं कि पिछले साल शपथ लेते समय कहा था कि 15 जून तक सड़कों के सारे गड्ढे खतम कर देंगे पर इस साल की 15 जून भी निकल गयी और सड़कों पर और अधिक गड्ढे हो गये। सड़कें तो सड़कें हाल ही में कैराना चुनाव के समय उद्घाटित हुये एलीवेटिड रोड तक में इतना पानी भरने लगा है नावें चलने की नौबत आ गयी है। इस रोड का उद्घाटन भी आपके प्रिय प्रधान मंत्री ने किया था पर मैं उनके कर कमलों को दोष नहीं देता। वे तो नसीब वाले प्रधान मंत्री हैं जो हावर्ड से हार्ड वर्क की तुकें मिलाते रहते हैं और धमकाते रहते हैं कि झोला उठायेंगे और चल देंगे।
बहरहाल एक दो बातें आप में और प्रधानमंत्री जी में समान हैं। आप अपने को योगी कहते हैं और वे अपने आप को फकीर बतलाते हैं। आपने भी एक बार संसद में रोकर दिखाया था और प्रधानम्ंत्री जी भी भरी सभा में इसी तरह का अभिनय करते हुए बताते रहे हैं कि नोटबन्दी करके उन्होंने कैसे कैसे लोगों से दुश्मनी मोल ले ली है, वे उन्हें जिन्दा नहीं छोड़ेंगे। गरीब आदमी सोचता है कि जब देश का प्रधानमंत्री ही ‘कैसे कैसे’ लोगों से सुरक्षित नहीं है तो हमारी क्या विसात। क्या दुनिया में दूसरा कोई ऐसा देश होगा जिसके प्रधानमंत्री को पता हो कि उसे कौन से लोग जिन्दा नहीं छोड़ने वाले हैं और वह उनके खिलाफ कुछ भी न करे। या हो सकता है कि समझौता हो गया हो। शायद यही कारण है कि नोटबन्दी की बन्दी भी हो गयी कई लाख करोड़ बर्बाद भी हो गये और कुछ भी हासिल नहीं हुआ। भोपाल जैसे शहर में नाबालिग बच्चे तक नोट छाप रहे हैं।
बहरहाल आपके कहे अनुसार खुले आम हो रही हत्याओं पर भी तूल न दें तो क्या तेल दें। तेल की बिक्री बढेगी तो प्रधानमंत्री से जुड़े तेल उत्पादक अडानी आदि को फायदा पहुँचेगा। वैसे भी हमारे यहाँ शनिवार को तेल चढाने की परम्परा है। पर आपसे विनम्र अनुरोध है कि या तो तेल लगाना बन्द कर दो या योगी के कपड़े उतार कर फेंक दो। बेचारे भोले भाले लोग अभी भी इनका सम्मान करते हैं।
हमारे मित्र भवानी शंकर ने इमरजैंसी के दौरान लिखा था-
रात आती है जब मुहल्ले में / लोग कपड़े उतार देते हैं       

व्यंग्य सलाहकार का स्तीफा


व्यंग्य
सलाहकार का स्तीफा
दर्शक
मैंने अखबार से हवा करते हुए राम भरोसे से पूछा- यार पानी कब बरसेगा!
वह मुँह में दही जमाये बैठा रहा, जैसे उसके होंठ चिपक गये हों।
‘क्या हुआ आज क्या मौनव्रत है? मेरे मनमोहन” मैंने उसे छेड़ा
‘नहीं, मैंने सलाह देना बन्द कर दिया है’ वह मुँह फेर कर बोला
‘अरे ऐसा जुल्म न करो, तुम्हारी सलाह पर तो ये दुनिया चल रही है बरना न जाने किधर भटक जाती। जब तुम्हीं चले परदेश, लगा कर ठेस ओ प्रीतम प्यारा, दुनिया में कौन हमारा। ‘ मैंने एक भजन के बोलों को भजन की तरह ही गाने की असफल कोशिश की।
‘ तुम कुछ भी कह लो पर ये सलाह वलाह बहुत हो गयी, मेरी भी पारिवारिक जिम्मेवारियां हैं, जिन्हें निभाना है”
मुझे लगा कि वह देश के आर्थिक सलाहकार अरविन्द सुब्रम्यन की तरह बात कर रहा है। उनकी भी कुछ पारिवारिक जिम्मेवारियां थीं सो वे मोदी सरकार को अधर में छोड़ कर चले गये। ‘ये ले अपनी लकुटि कमरिया, बहुतहि नाच नचायो’ ।
ये पारिवारिक जिम्मेवारियां भी अब अर्थशास्त्रियों को बहुत आने लगी हैं। हर चीज का समय होता है। बबलू की मम्मी को एक खास समय में याद आता है कि बाजार में कैरी आने लगी है सो उसका अचार डाल लेने का यही सही समय है। मुन्नी को अच्छे स्कूल में एडमीशन कराना है। प्याज चार रुपये किलो बिक रही है सो दस बीस किलो ले के डाल लो बरना तो प्याज के भाव पर तो सरकारें पलट जाती रही हैं। कहाँ सरकार की आर्थिक सलाहकारी ढोते रहें। सरकार भी ऐसी कि न कुछ जानती है न मानती है। तुलसी बाबा पहले ही प्रशंसा में कह गये हैं कि – सबसे भाले मूढ, जिन्हें न व्यापे जगत गति।
रिजर्व बैंक के गवर्नर राजन को भी पारिवारिक जिम्मेवारियां याद आ गयी होंगीं सो उन्होंने भी कह दिया कि सम्हालो अपना बही खाता और अमितशाह की को-आपरेटिव बैंक के किसी मैनेजर को सम्हलवा दो हमसे नहीं होगा। यही बात नीति आयोग के उपाध्यक्ष अरविन्द पनगढिया को याद आ गयी होगी सो उन्होंने भी छाता उठा कर जूते पहने और जयराम जी की करते हुए निकल लिये। मोदी जी की कुण्डली में जरूर यह लिखा होगा कि अरविन्द नाम के लोगों से दूरी बनाये रखना।
वैसे पता नहीं ये अर्थशास्त्री अपना पद और जिम्मेवारियां छोड़ के जाने के लिए परिवार को क्यों बीच में लाते हैं! मोदी जी ने तो बीच में लाने के झंझट से बचने के लिए परिवार ही छोड़ दिया था पर इसके बाद भी वे कहते हैं कि मैं तो फकीर आदमी हूं अपना झोला उठाऊंगा और चल दूंगा। ऐसे में तो शत्रुघ्न से शत्रु बन चुके शत्रुघ्न सिंहा की फिल्म का गाना गाने के लिए ही उनके मोदी मोदी कहने वाले भक्त रह जायेंगे कि- हमें इस हाल में किसके..... सहारे ... छोड़ जाते हो!  
ये रामभरोसे भी पट्ठा हमेशा ऊंचे लोगों की नकल करता है, डर लगता है कि कहीं अपनी पत्नी के बारे में यह न कह दे कि इससे तो मेरी शादी ही नहीं हुयी थी। पूछेंगे तो बड़के बड़के लोगों के बयानों का उदाहरण देने लगेगा। कल के दिन मुरली मनोहर जोशी की तर्ज पर यह न कह दे कि कोरी कापी पर नम्बर कैसे। यह तो कांग्रेस की भाषा हुयी जो कहती है कि इन्होंने कुछ भी नहीं किया केवल हमारे द्वारा शुरू किये गये कामों का उद्घाटन भर किया है। वे भी यह नहीं बताते कि अच्छे अच्छे काम यूपीए के किस घटक की सलाह पर हुये थे।
अचानक कमल हातवी का शे’र याद आ गया है-
अरे ये काफिले वालो अगर रहबर नहीं बदला
तो फिर शिकवा न करना मील का पत्थर नहीं बदला      

व्यंग्य सम्पर्क फार समर्थन


व्यंग्य
सम्पर्क फार समर्थन
दर्शक
भाजपा के बड़े से लेकर छोटे नेता समर्थन के लिए सम्पर्क करने निकल पड़े हैं।
जो नेता जितना बड़ा है वह उतने ही बड़े सेलीब्रिटीज के दरवाजे पर खड़ा है। उसने अपने आने की पहले से सूचना दे कर रखी है ताकि लोग अपने कुत्तों को बाँध कर रखें। वे अपनी उपलब्धियां बखानेंगे। चूंकि उपलब्धियां इतनी ज्यादा हैं कि उन्हें खुद याद नहीं रहतीं हैं इसलिए उन्होंने पुस्तिका छपवा कर रखी है। उसे दे देते हैं। खुद पढ लें।
हरिशंकर परसाई, बसंत के आगमन पर लिखे लेख में लिखते हैं कि बसंत आ गया। अब कवि कविताने लगेंगे। ‘हा बसंत आया, प्रिय बसंत आया..... आदि। जिस प्रिय को गा कर बताना पड़े कि बसंत आ गया है, उस प्रिय से तो शत्रु अच्छा।‘
जिस जनता को घर घर जा कर और पुस्तिका बाँट कर बताना पड़े कि तुम्हारा इतना विकास हो गया। उस विकास का क्या फायदा। विकास कोई छुपा हुआ बल थोड़े है कि याद दिलाने पर ही महसूस हो। जिसका विकास जब जब और जहाँ जहाँ हो जाता है वह तो खुद ही बोलता है।
अमित शाह को बड़ी जिम्मेवारी मिली है। उन्हें उन लोगों से समर्थन मांगना है जो वोट देने ही कभी कभी जाते हैं। उनका और उनके मार्गदर्शकों का भूगोल ज्ञान ऐसा है कि एक फौजी के यहाँ जाना था पर उसी नाम के दूसरे फौजी के यहाँ पहुँच जाते हैं। लता जी का पता याद करके पहुँचते हैं पर वे बीमार होती हैं और मिजाजपुर्सी कराने के लिए भी तैयार नहीं होतीं। बड़े बेआबरू होकर कूचे से निकल आते हैं।
रोचक यह है कि जो पार्टियां खुद ही सरकार में शामिल हैं उन्हें तक नहीं पता कि कितना विकास हो गया इसलिए उन्हें समर्थन जारी रखना चाहिए। इसके लिए भी उन्हें उनके दर पर बताने जाना पड़ता है। जब शिव सेना के किले पर ढोक देते हैं तो वे सुबह सुबह ही अपने अखबार में उनकी खबर ले लेते हैं। कुछ अखबार खबर देने का काम कम ‘खबर लेने’ का काम ज्यादा करते हैं। शायद शिवसेना के मातोश्री में अमित शाह जैसे भाजपा पार्टी की ओर से नहीं जाते इसलिए वे उद्धव से अकेले में बात करते हैं। देवेन्द्र फड़नवीस, मुख्यमंत्री महाराष्ट्र उद्धव के बेटे के पास बाहर बैठे रहते हैं। फिर डिनर होता है। सर्वे भवंतु सुखिना, सर्वे संतु निरामयाः।
मृत्यु का मामला बहुत संवेदनशील होता है, और इसका सहारा लेकर सदियों से ब्लैकमेल किया जा रहा है। शादी करने के लिए तैयार न होने वाले बेटे को माँ डराती है और कहती है कि क्या मैं पोते का मुँह देखे बिना ही मर जाऊंगी! माँ की मौत की आशंका से घबराया बेटा शादी के लिए तैयार हो जाता है। बाद में माँ दशकों तक अपनी बहू के साथ सास बहू का सीरियल चलाती रहती है। इसी तरह नेता भी अपने प्रिय वोटरों को डराता रहता है। नोटबन्दी की असफलता के बाद मंच से आँसू बहाते हुए कहता है कि मैंने कैसे कैसे लोगों से दुश्मनी मोल ले ली है, वे लोग मुझे ज़िन्दा नहीं छोड़ेंगे। जनता सम्वेदनशील होकर नोटबन्दी की तकलीफें सहन कर लेती है। नेता कोई रिपोर्ट नहीं लिखाता, सुरक्षा एजेंसियां जाँच नहीं करतीं। धीरे धीरे सब भूल जाते हैं। जब फिर संकट आता है तो नक्सलवादी और दलित आन्दोलनकारी एक कर दिये जाते हैं। वे चिट्ठी भेजते हैं और उस चिट्ठी का प्रिंटआउट तकिये के नीचे छुपा कर पुलिस के आने की प्रतीक्षा करते रहते हैं। पुलिस आकर उन्हें मय सबूत के गिरफ्तार कर लेती है। जब रिपोर्ट लिखायी जाती है तो दिल्ली के उस नेता का नाम नहीं होता है। पहले भी ऐसा होता रहा है। सरकार पर संकट माने कि देश पर संकट।
भेड़िया आया, भेड़िया आया, हमेशा नहीं चलता। दुर्भाग्य से कभी सच में भेड़िया आ जाता है तब मुश्किल होजाती  है।             

व्यंग्य फिजीकल फिटनैस


व्यंग्य
फिजीकल फिटनैस
दर्शक
         “फिट होने का क्या मतलब होता है?” सवाल राम भरोसे का था इसलिए उसका पेचीदा होना जरूरी था, और पेचीदा सवाल का सीधा सीधा उत्तर हो ही नहीं सकता।
“ फिट होने का मतलब होता है किसी बने बनाये सांचे में ठीक तरह से समाने के लिए, समाने वाली वस्तु को घटाना-बढाना” मैंने अपने तईं सरल सा उत्तर देने का भरपूर प्रयास किया।
“इसका मतलब सांचा महत्वपूर्ण है, जड़ है, ठोस है, और उसमें समाने के लिए तैयार वस्तु कम महत्वपूर्ण है। यदि हम बाज़ार से एक लीटर दूध लाते हैं तो उसको नापने वाला लीटर दूध से ज्यादा महत्वपूर्ण है……” राम भरोसे बोला।
मैं अचकचा गया और भूल चुके कर्ता, क्रिया. कर्म, विशेषण आदि याद करने लगा पर जब नहीं याद आये तो उससे कहा महाराज आप सीधे सीधे बात क्यों नहीं करते। अपनी बात कहने के लिए तरह तरह के सवाल क्यों पूछते हो, असली बात पर आइए।
वह आ गया।    बोला ये जो फिजीकल फिटनैस होती है इसका सांचा पैंट शर्ट होगी जिसमें समो जाने पर आदमी फिट माना जाता है। पर जब हम बाज़ार जाते थे तब सेल में बिक रही शर्ट को पहिन कर देखते थे और साथ गये दोस्त से पूछते थे कि फिट तो आ रही है न,! उसकी हाँ सुन कर ही उसका रेट देखते थे और फिर अपनी जेब देखते थे। जब सारी चीजें फिट होती थीं तब शर्ट खरीद लेते थे। इसमें तो सांचा नहीं देखते थे।
“ इसमें सांचा तुम्हारा बेडौल शरीर होता था, राम भरोसे! और माल शर्ट होती थी।“ मैंने विद्वता बगरायी।
“ अर्थात ये परस्पर बदल सकते हैं, कभी गाड़ी नाव पर, तो कभी नाव गाड़ी पर ! “
उसने मुझे बिलबिचवा दिया, इसलिए अपनी बुद्धिमत्ता के सम्मान की रक्षा में मैंने हाँ कह दी।
“ तो मोदी मंत्रिमण्डल के सदस्य जो फिजीकल फिटनैस - फिजीकल फिटनैस खेल रहे हैं उसमें भी कभी फिटनैस उनके कपड़ों और शरीर के बीच होगी तो कभी कपड़ों के अनुरूप शरीर गढने की कोशिशों के बीच होगी। कभी मंत्री पद के लिए फिट है, कभी पद मंत्री के लिए फिट है जैसे उमा भारती और स्मृति ईरानी के मंत्रिमण्डल का परिवर्तन “ उसने कहा।
“अर्थात?”
“ जैसे गडकरी जी को जब उनकी नाप के कपड़े मिल जायें तो उन्हें फिट माना जायें तो उन्हें फिट माना जाये और जब राज्यवर्धन सिंह के कपड़ों के अनुसार उनकी देह हो जाये तब उन्हें फिट माना जाये। पर गिरिराज सिंह, निरंजन ज्योति आदि को कब फिट माना जायेगा? “
“ उनके मामले में फिजीकल फिटनैस नहीं चलेगी, जब वे मानसिक रूप से फिट होंगे तब फिट माने जायेंगे”
मोदी सरकार के घोषणापत्र में भले ढेर सारी फालतू बातें लिखी हों किंतु सरकार तो मंत्रिमण्डल के सदस्यों द्वारा फिटनैस का चैलेंज स्वीकारने की तैयारी के लिए काम कर रही है। राफेल का सौदा इसीलिए किया ताकि फिजीकली फिट रह सकें। डीजल पैट्रोल के रेट का चैलेंज कोई स्वीकार नहीं कर रहा। बेरोजगारों को रोजगार देने का चैलेंज कोई स्वीकार नहीं कर रहा। हर हाथ को काम तो छोड़ दीजिए हर स्कूल को शिक्षक देने का चैलेंज भी कोई स्वीकार नहीं कर रहा। हर गाँव को सड़क और हर घर को पानी देने का चैलेंज भी कोई स्वीकार नहीं कर रहा।
कुछ मंत्री पुश अप करके भले ही फिट होने का वीडियो सोशल मीडिया पर डाल दें पर सरकार यह न समझे कि वह फिट है। राहत इन्दौरी कहते हैं-
आज जो साहबे मसनद हैं, कल नहीं होंगे
किरायेदार हैं, जाती मकान थोड़े है