शनिवार, 25 अगस्त 2018

व्यंग्य डांडिया का मौसम


व्यंग्य
डांडिया का मौसम
दर्शक
मैंने कहा कि डांडिया का मौसम आ गया है। इतना सुनते ही राम भरोसे मेरे ऊपर लगभग डंडा लेकर दौड़ पड़ा। बोला तुम्हें भारतीय संस्कृति की बिल्कुल समझ नहीं है और पता ही नहीं है कि डांडिया कब, कहाँ कैसे खेला जाता है, बस अपने को बुद्धिजीवी प्रदर्शित करने के लिए लगे रहते हो कुछ भी पेलने।
“ पर मेरा वह मतलब नहीं था..........”। मैंने सफाई देना चाही
“ तो क्या मतलब था? डांडिया माने डांडिया जिसमें हर खेलने वाले के हाथ में दो दो लकड़ियां होती है जो टकराने पर आवाज करती हैं और उन्हें घूम घूम कर ऐसी ही लकड़ियां रखने वाले लोगों से एक लय में टकराना होता है, उसे डांडिया कहते हैं. यह नव रात्रि के अवसर पर देवी पूजा के दौरान देवी की भक्ति के गीत गा गा कर खेला जाता है। यह गुजराती लोक संस्कृति का नृत्य गीत है जो अब पूरे देश में खेला जाने लगा है” राम भरोसे ने अपना सारा ज्ञान एक साथ उंडेल दिया।
“ बस करो भाई, इतना ज्ञान तो मुझे भी है, पर कुछ बातें प्रतीकों में भी कही जाती हैं। पता नहीं आजकल क्यों मिर्ची खाये बैठे रहते हो और बात समझने से पहले ही मोबलिंचिंग करने लगते हो।“ मैंने शांतिपूर्वक कहा।
‘ अच्छा समझाओ, क्या समझाते हो. तुम लोगों को तो आजकल गुजरात की कोई बात नहीं सुहाती और हर डील में मोदी शाह या हर्षद मेहता तलाशने लगते हो, फिर भी बोलो”।
“ देखो भाई डंडा लेकर तो तुम्हीं दौड़ते हो जिसे अपनी सांस्कृतिक भाषा में दण्ड कहते हो व जिसके संचालन का  प्रशिक्षण तुम्हें सुबह शाम शाखा में सिखाया जाता है। मैं तो यह कहना चाह रहा था कि पहले विधानसभा और फिर लोकसभा के चुनाव आ गये हैं और चुनाव आयोग ने इसे पर्व का सही नाम दिया है। चुनावी पार्टियों के नेताओं के लिए यह पर्व ही होता है। उनके लिए राजनीति का मतलब ही चुनाव होता है, जिससे सत्ता पाने की उम्मीदें जगती हैं, और ऐसी कुर्सी के लिए मुँह में पानी आने लगता है जिससे कमाई होती है।“ मैंने धैर्य से अपनी बात समझानी चाही।
“वो तो सब ठीक है पर चुनाव में अभी समय है, और इसमें ये डांडिया क्या है?” उसने सवाल किया।
“सुनो भाई, जिन लोगों के लिए यह पर्व है. तो फिर उसे मनाने के तरीके भी होंगे। उन तरीकों में डांडिया भी एक है। जैसे ही पर्व का महूर्त निकलता है वैसे ही उत्साह का संचार हो जाता है। कार्यकर्ता अपनी अपनी वर्दियां सिलवाने लगते हैं क्योंकि होने से दिखना ज्यादा महत्वपूर्ण होता है। कहा जाता है भक्त तुलसी दास की विनय पर जब उनके भगवान राम उन्हें दर्शन देने आये तो उन्होंने यह कहते हुए सिर झुकाने से इंकार कर दिया कि –
तुलसी मस्तक तब नवै, जब धनुष बान लिउ हाथ
व्यक्ति की पहचान उसकी वर्दी से होती है, बिना उचित वर्दी के भक्त भगवान तक को नहीं पहचानता। मीरा बाई तक कहती हैं कि
जाके सर मोर मुकुट मेरो पति सोई
सो कार्यकर्ता खादी की वर्दी में भगवे या तिरंगे दुपट्टे डाल कर तैयार होने लगते हैं। एक ही दुकान पर कमल के फूल और पंजे के निशान वाली सामग्रियां बिकने लगती हैं व दिखने वाले स्थान पर स्तेमाल होने वाली समस्त पोषाकों, ध्वजों, गाड़ियों, थैलों, पर चुनाव चिन्ह नजर आने लगते हैं।“ मैंने भी अपने हिस्से का ज्ञान उड़ेल दिया।
“ वह तो ठीक है किंतु यह डांडिया क्या है?”
“ बता रहा हूं. चुनाव से पहले चुनाव के लिए टिकिट जुटाना होता है और यह टिकिट अपने ही लोगों से टकरा कर जुटाना होता है। हाई कमान के सामने अपनी ही पार्टी के अपने समान नेताओं से टकराने के लिए उनके चरित्र का चित्रण करना होता है और उन्हें पराजित करने के बाद फिर चुनाव में विपक्षी दल के नेता से टकाराना पड़ता है। इस दौरान अपने दल का टिकिट वंचित नेता भीतर भीतर विरोधी दल के प्रत्याशी का सहयोग करता है व विरोधी दल में टिकिट वंचित नेता अपना सहयोग करता है। चुनाव जीत जाने पर अगर सरकार बन जाती है तो फिर मंत्री बनने के लिए अपने ही दल के विधायकों से मंत्री पद के लिए टकराना होता है। इस तरह घूम घूम कर अपने और पराये से डंडियां टकाराने का मौसम आ गया लगता है।“
राम भरोसे मुँह फुला कर चला गया।       

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