शुक्रवार, 27 नवंबर 2020

व्यंग्य किसान और जवान

 

व्यंग्य

किसान और जवान

दर्शक

जवाहरलाल नेहरू जैसे बड़े व्यक्तित्व के निधन के बाद लाल बहादुर शास्त्री जैसे बड़े दिल व छोटे कद के प्रधानमंत्री ने उनकी विरासत सम्हाली थी। चीनी सेना के घाव तब तक भरे नहीं थे कि पाकिस्तान ने कश्मीर में घुसपैठ करा दी थी। इसी समय देश भुखमरी के कगार पर भी था। स्वाभिमानी प्रधानमंत्री ने जय जवान जय किसान का नारा दिया। लोगों से प्रति सोमवार को उपवास रखने के लिए कहा। अभावों के इस दौर में भी जवानों ने पाकिस्तान को मुँहतोड़ उत्तर दिया और किसान भी और मेहनत के लिए प्रोत्साहित हुये।

आज फिर जवान और किसान चर्चा में हैं। भरपूर उत्पादन करके भी किसान लाखों की संख्या में आत्महत्या के लिए मजबूर हो रहे हैं और जवान बिना लड़े ही मारे जा रहे हैं। उरी हो या पुलवामा , रोज रोज हमारी सीमा में ही हमारे जवान शहीद हो रहे हैं। बदले में हम दुश्मन को मारने की जो खबरें प्रसारित करते हैं, उन पर देश का विपक्ष ही भरोसा नहीं करता सो उसे सरकार देशद्रोही करार दे देती है। मनोबल बना रहना चाहिए।

आचार्य रामभरोसे का कहना है कि सुरक्षा बलों का मनोबल बना रहना बहुत जरूरी है। चाहे वे सीमा पर लड़ने वाले सैनिक हों या आंतरिक सुरक्षा वाली, पुलिस, सीआरपी, बीएसएफ, आरपीएफ, हो या औद्योगिक सुरक्षा बल हों। सरकार जानती है कि सीमा की सुरक्षा से आंतरिक सुरक्षा बहुत जरूरी है। जनता का असंतोष आसमान छू रहा है। पता नहीं वह थैला उठा कर मेहुल भाइयों के पास पहुंचने भी देगी या नहीं।

नेता सुरक्षा बलों की वर्दी पहिन कर उनके पास जाता है , और कहता है कि हम तुम भाई-भाई। वे कहते हैं यस सर! नेता फिर पूछता है- तुम्हारा मनोबल कमजोर तो नहीं पड़ रहा?

“नहीं सर”

“अगर पड़ रहा हो तो बताओ, हम किसी आन्दोलन पर गोलियां चलवा कर तुम्हारा मनोबल मजबूत करा देंगे” 

नेता आशंकित है कि किसान भी मर रहे हैं, जवान भी मर रहे हैं, कहीं दोनों एक होकर “जय जवान जय किसान” न करने लगें। सो किसान को जवान से लड़वा दो। गाँधीवादी तरीके से अपनी मांगों के लिए आये हुए किसानों पर जवानों से आँसू गैस के गोले फिंकवा दिये, लाठी चलवा दी। सड़कें खुदवा दीं, डम्पर अड़ा दिये, कड़कड़ाती सर्दी में ठंडे पानी की बौछारें करवा दीं। लगभग युद्ध छेड़ दिया। पर किसानों ने शांति बनाये रखी। अपने लिए रखी पानी की बोतलों से प्यासे जवानों को पानी पिलाया, रोटी के लिए पूछा। जवान जरूर सुरक्षा बलों में है पर उसका चाचा ताऊ तो किसान ही है। उसे उसके दर्द का पता है, पर क्या करे, नौकरी तो आदेश मानने से ही चलती है।

किसान धरना देने वहाँ तक जाना चाहते हैं, जहाँ पर कानून बनते हैं। कानून बनाने वाले वे लोग हैं जो उन्हीं किसानों ने ही चुने हैं। वोट डालना तो वे खेल समझते रहे हैं, सो फिलिम में हैंड पम्प उखाड़ने वाले को दे दिया, बसंती को दे दिया, अगर धन्नो खड़ी होती तो उसे भी दे देते, जो बसंती की खतरे में पड़ी इज्जत को बचाने के लिए क्या खूब दौड़ी थी। अब किसानों पर लाठियां पड़ रही हैं तो न बसन्ती आ रही है, ना धन्नो। किसानों को अन्दाज ही नहीं था कि वोट डालने को खेल समझने के क्या क्या दुष्परिणाम होते हैं। 

शास्त्री जी के नारे को अपना बनाने के चक्कर में अटलजी ने परमाणु परीक्षण करने के दौरान जय जवान जय किसान के साथ जय विज्ञान भी जोड़ दिया था। मोदी जी ने उसे तोड़ दिया, अब जवान और किसान के युग्म को तोड़ने के प्रयास में हैं।     

व्यंग्य दाढी वाले

 

व्यंग्य

दाढी वाले

दर्शक 

वह व्यक्ति उस सुदर्शन पुरुष को बहुत गम्भीरता से देख रहा था। उसने आगे से देखा, पीछे से देखा , ऊपर से देखा, नीचे बैठ कर देखा, और इतना देखा कि वह परेशान हो गया। घबरा कर उसने पूछा कि भाईसाहब क्या बात है, आप मुझे इतना क्यों देख रहे हैं?

उसने फिर एक बार उस पर भरपूर नजर डालते हुए कहा – सिर्फ दाढी मूंछों का फर्क है, बरना आपकी शक्ल बिल्कुल मेरी पत्नी से मिलती है।

“दाढी मूंछें?” उसने अपने चेहरे पर हाथ फेरते हुए कहा कि मेरी तो दाढी मूंछें हैं ही नहीं।

“ बिल्कुल ठीक, बस यही तो फर्क है, मेरी पत्नी की हैं’। उसने फिर एक बार उस पर निगाह डाल कर कहा। 

दाड़ी मूंछें रखने का ना तो कोई नियम है और ना ही कानून, जब जिसका मन होता है तब वह रख लेता है और जब मर्जी होती है तब मुंढवा लेता है।

अपने आप को संत बताने वाले भिंडरावाले कहा करते थे कि आदमी तो स्वभावतः सिख ही होता है। यह तो कैंची और ब्लेड है जो उसे गैर सिख में बदल देता है। उनके इस बयान पर उनके जाने के बाद एक पत्रकार ने यहाँ वहाँ देख, धीरे से फुसफुसा कर कहा था कि आदमी तो पैदाइशी दिगम्बर जैन मुनि भी होता है। इन दिनों बैक टु द नेचर वाले लोग बढते जा रहे हैं कोई राम वन गमन पथ तलाश रहा है तो कोई बाबर के जमाने में जाकर रामजन्म भूमि की पुनर्स्थापना में जीवन की सार्थकता मान रहा है। जो बहुत पीछे नहीं जाना चाहते वे जवाहरलाल नेहरू के वंशजों की ही खोज में लगे हैं। काला धन कोई नहीं तलाशता कि पन्द्रह लाख न सही पन्द्रह सौ रुपये ही मिल जायें।

शोएब अंसारी की एक शानदार फिल्म ‘खुदा के लिए’ में मौलाना की भूमिका करने वाले नसरुद्दीन शाह अदालत में कहते हैं कि इस्लाम में दाढी है, दाढी में इस्लाम नहीं। किंतु उन जैसों की बात आज कहीं नहीं सुनी जा रही। जिन मजहबों की दम पर दक्षिण पंथ खड़ा और बड़ा हो रहा है उनमें निहित अन्ध विश्वासों की जड़ें उनके राजनीतिक विरोधी भी नहीं काट रहे हैं। 

हिन्दी के एक हास्य कवि काका हाथरसी भी दाढी रखते थे और अपना पक्ष मजबूत करने के लिए उन्होंने दाढी वालों का पूरा इतिहास खोज निकाला था। वे लिखते हैं कि –

काका दाढी राखिए, बिन दाढी मुख सून

ज्यों मंसूरी के बिना, व्यर्थ देहरादून

व्यर्थ देहरादून, इसी से मुख की शोभा

दाढी से ही प्रगति कर रहे संत विनोबा

मुनि वशिष्ट यदि दाढी मुख पर नहीं रखाते

तो क्या वे भगवान राम के गुरु बन पाते

रूजवेल्ट, बर्नार्ड शा, टालस्टाय, टैगौर

लेनिन लिंकन बन गये जनता के सिरमौर

जनता के सिरमौर यही निष्कर्ष निकाला

दाढी थे इसलिए महाकवि हुए निराला

कह काका नारी सुन्दर लगती साड़ी से

इसी तरह नर की शोभा बढती दाढी से .... इत्यदि

पता नहीं हमारे प्रधानमंत्री किस सौन्दर्यबोध, किस प्रेरणा और लक्ष्य से दाढी बढा रहे हैं कि लोग अपनी भावना के अनुसार प्रभु मूरत देख रहे हैं। अगर राज नारायण की प्रतिज्ञा की तरह ट्रम्प की जीत के लिए बढाई हो तो आगे चार साल में न जाने और कितनी बढ जायेगी। इमरजैंसी में सन्यासी बनने की असत्य कथा सत्य कथा में बदल सकती है। हो सकता है कि 25 दिसम्बर को सांता क्लाज बनने तक ही रखी हो। अर्नब गोस्वामी की बोलती बन्द हो गयी बरना वह पूछ सकता था कि नेशन वांट्स टु नो ....... पर शायद वह भी नहीं पूछ पाता, क्योंकि उसका नेशन तो विपक्षियों से ही पूछना जानता है।

व्यंग्य विधायक निर्माण योजना

 

व्यंग्य

विधायक निर्माण योजना

दर्शक

किताबों के महत्व के बारे में किसी विदेशी विद्वान ने कहा है कि ‘ बैग बाई और स्टील ’ मांग कर पढो, या खरीद कर पढो नहीं तो चुरा कर पढो, पर पढो। किसने कहा है यह मुझे याद नहीं और किसी जमाने में गेटे या गोयटे मेरे बड़े काम आते थे, मैं कोई भी कथन यह मान कर गेटे के नाम से चिपका देता था, कि सामने वाले को क्या पता कि किसने क्या कहा है, किंतु जब से मोदीजी प्रधानमंत्री बने हैं तब से लोग हर कथन का इतिहास भूगोल ध्यान से देखने और बताने लगे हैं कि कबीर के नाम से वे जो कुछ पेले दे रहे हैं वह मूलतः किसका कथन है। यही कारण है कि मैं अज्ञात को अस्पष्ट ही रहने देता हूं। इसमें दोनों की लाज ढकी रहती है।

सो, बात चल रही थी किताबों की जिसके बारे में उपरोक्त कथन लोकप्रिय होने के बाद लोग इसका प्रयोग करते हुए धड़ल्ले से मांगने और चुराने लगे। खरीदने की सलाह को लोगों ने साइलेंट में डाल दिया। लगे हाथ बताता चलूं कि इससे किताबें देने वाले होशियार हो गये। वाल्तेयर ने तो लिख ही दिया ‘कि अपनी पुस्तकें किसी को उधार मत दो, क्योंकि मित्र लोग इन्हें पढ कर लौटाते नहीं हैं, मेरी अलमारी में जितनी पुस्तकें हैं उनमें से ज्यादातर मित्रों से मांग कर ना लौटाई हुयी हैं’। इतना गणित तो आपको भी आता ही होगा कि तीन में से दो चले गये तो क्या बचा।

किताबों के बारे में तो यह सम्भव है कि वे चुरा ली जायें किंतु लोकतंत्र में जो जनप्रतिनिधि होते हैं, जिनके हाथ खड़े करने या गिराने से सराकारें बनती बिगड़ती हैं, उनको जिताये बिना या खरीदे बिना काम नहीं चलता। विधायक को जिताना बहुत कठिन काम हो गया है, आखिर कितने फिल्म स्टार, टीवी स्टार, गायक, संगीतकार, क्रिकेट खिलाड़ी, बाबा बाबी, पुराने जमाने के राजा रानी बटोरे जायें! जनता जैसे जैसे समझदार होती जा रही है वह इनमें से भी कई को हरा देती है। इसलिए सबसे अच्छा तो यह है जनता अपनी कर ले, जिसे सरकार बनाना है वह बने बनाये जनप्रतिनिधि ही खरीद लेगी। राहत इन्दौरी साहब कह गये हैं कि –

क्या जरूरी है कि गज़लें भी खुद लिखी जायें

खरीद लायेंगे कपड़े सिले सिलाये हुये

परसाईजी के इंस्पेक्टर मातादीन जब चाँद पर जाकर अपराधी पकड़ने का प्रशिक्षण देते हैं तो नमूने के तौर पर हत्या के एक मामले में वे उसी को गिरफ्तार कर लेते हैं, जिसने अपने दरवाजे के बाहर हत्या होने की सूचना दी थी। जब वहाँ की पुलिस इस बात का विरोध करती है तो वे समझाते हैं कि सभी प्राणियों में एक उसी परमात्मा का वास है। फांसी इसको हुयी या उसको हुयी फांसी पर तो परमात्मा ही चढेगा। जो पकड़ में आ गया उसी को पेश कर दो, पुलिस की वाहवाही और ऊपर वाले भी खुश कि उनका विरोध करने वाले को निबटा दिया।

इसी तरह वे विधायक हैं, जो अटूट धन कमाने के लिए ही विधायक बनते हैं। नेकर वाले मदारी के इशारों पर नाचने वाली व ईमानदारी का ढिंढोरा पीटने वाली कथित राष्ट्रवादी पार्टी पंजा छापों को समझा देती है कि अंततः तो तुम्हें पैसा ही कमाना है, चाहे ऐसे कमाओ या वैसे कमाओ। अपनी विधायकी की कीमत लो और ऐश करो। आपदा को अवसर में बदलो। बुद्ध, महावीर और गाँधी के देश की जनता तो कोउ नृप होय हमें का हानी वाली जनता है फिर लाइन में लग कर वोट दे आयेगी। ना तो वो बिकने वालों को नुकसान पहुंचायेगी ना ही उनके धन को।

खरीदने वाले तो गाली प्रूफ हैं ही, पर बिकने वाले और उनके नेता भी गजब के बेशरम हैं-

‘मरने वाले तो खैर बेवश हैं, जीने वाले कमाल करते हैं’     

व्यंग्य हाथरस की बेटी और उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री

 

व्यंग्य

 हाथरस की बेटी और उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री  

दर्शक

यह वह समय है कि अगर कोई घर में आग भी लगा दे तो घर का चौकीदार अपनी जिम्मेवारी से बचने के लिए कह देगा कि यह तो दिवाली हो रही है, या होली जल रही है। जो लोग इसे आग मान रहे हैं वे देशद्रोही है, विदेशी एजेंट हैं। ये लोग ही तुम्हें आँखें खोल कर देखने के लिए भड़का रहे हैं बरना-

मूंदहि आँख कितहुं कछु नाहीं

सच देखने के लिए तो उस मीडिया को देखो जो हमारी गोदी में बैठा हुआ है। जो हमारे इशारे पर दिखाया जा रहा है वही सच है।

लाल बुझक्कड़ों की हमारे यहाँ कोई कमी नहीं है। कभी एक भले मानुष के यहाँ बच्चा पैदा हुआ तो उसने कुछ दिन बाद जब उसके सिर पर हाथ फेरा तो पाया कि उसका तलुआ धड़क रहा है। बेचारा भागा भागा लाल बुझक्कड़ के पास गया और उसे बच्चे की दशा बतायी। गम्भीर चिंतन के बाद लाल बुझक्कड़ ने सलाह दी कि उसके सिर में कीला ठोक दो। उसने तेजी से घर लौट कर ऐसा ही किया। क्यों न करता, अन्ध भक्त ऐसे ही होते हैं। पर वह बच्चा कीला ठोकते ही मर गया। पूरे घर में कोहराम मच गया। जब लाल बुझक्कड़ से पूछा कि ऐसी सलाह क्यों दी जिससे बच्चा ही मर गया।

लाल बुझक्कड़ बोला कि बेबकूफो, पहले यह बताओ कि तुलुआ धड़कना बन्द हुआ कि नहीं? सब बोले हाँ वह तो बन्द हो गया। लाल बुझक्कड़ ने ताली बजायी, उस समय उसके पास थाली नहीं थी, नहीं तो वह भी बजाता। बोला कि हमारे पास जिस समस्या को लेकर आये थे वह खत्म हो गयी। बच्चा जिये या मरे उससे हमें कोई मतलब नहीं। आजकल ऐसे ही लाल बुझक्कड़ हमारे यहाँ की सरकारों में बैठे हुये हैं। घास काटने गयी किसी दलित लड़की की गरदन तोड़ दी जाती है, रीढ तोड़ दी जाती है और वह मृत्यु पूर्व बयान दे कर जाती है कि उसके साथ गाँव के किन किन लड़कों ने बलात्कार किया। जो पुलिस रिपोर्ट लिखने तक में हीलाहवाली करती है वही अस्पताल से लाश लाकर रात के बारह बजे लाश को जलाने में ऐसी तत्परता से काम करती है जैसा काम तो उन्होंने अपने बाप के मरने पर भी नहीं किया होगा। जब देश भर में आक्रोश उठता है तो वहाँ का मुख्यमंत्री कहता है कि डाक्टर ने तो पोस्टमार्टम रिपोर्ट में बलात्कार की पुष्टि नहीं की है। अब वह न केवल उस लड़की की मौत को भूल जाता है, उसकी गरदन तोड़ने को भूल जाता है, उसकी रीढ टूटने को भूल जाता है बस लालबुझक्कड़ की तरह इस बात पर ताली बजा रहा होता है कि डाक्टर ने रिपोर्ट में बलात्कार की पुष्टि नहीं की है। वह बलात्कारियों के पक्ष में नजर आने लगता है, वह पुलिस वालों को बचाता नजर आता है क्योंकि उसे तो विपक्षियों की बात को गलत ठराने का तकनीकी बहाना मिल गया।

आक्रोशित जनता को भटकाने के लिए उन्होंने हिन्दू मुस्लिम भेदभाव पैदा करने में जो वर्षों लगाये हैं वे काम आ जाते हैं। वे कहते हैं कि यह प्रदेश में माहौल खराब करने की विदेशी चाल थी। वे चार मुस्लिमों को पकड़ लेते हैं और सारा ठीकरा उनके सिर पर फोड़ते हुए भटकाने लगते हैं। गुजरात में भी यही तरीका अपनाया गया था। जिस मुसलमान को मार दिया जाता था वह गुजरात के नेताओं की हत्या करने के लिए आया होता था। कश्मीर में भी ऐसी ही घटनाएं होने लगी हैं।

उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री तो वह है जो बलात्कार को सबसे बड़ा बदला मानता है और किसी हिन्दू लड़की के साथ किसी मुसलमान अपराधी द्वारा बलात्कार का बदला कानून से सजा दिला कर नहीं अपितु कब्र की लाशों के साथ बलात्कार कर के लेने की सरे आम घोषणा करता है।

नीरज जी की पंक्तियां हैं-

देख कर वक्त का ये अजब फैसला हमको रोते हुए भी हँसी आ गयी
मोमबत्ती भी जिनसे नहीं जल सकी, उनके हाथों में सब रौशनी आ गयी          

व्यंग्य चौबे छब्बे और दुबे

 

व्यंग्य

चौबे छब्बे और दुबे

दर्शक

कहावत पुरानी है।

              वैसे भी कोई बात जब पुरानी होने पर भी स्तेमाल होती रहती है, तभी कहावत कहलाती है। राम भरोसे ने एक बार पूछा था कि लोग कहते हैं कि दो वेदों के ज्ञाता को द्विवेदी कहा जाता था, तीन के ज्ञाता को त्रिवेदी और चार वेदों के ज्ञाता को चतुर्वेदी कहा जाता था जो बाद में दुबे और चौबे कहलाने लगे। पर जो केवल एक वेद का ही ज्ञाता होता था उसे क्या कहते थे?

मैंने धूल में लट्ठ मारा। ऐसे लोग केवल पंजाब में पाये जाते थे और वहाँ जो वेदी होते हैं वे एक ही वेद के ज्ञाता होते थे इसलिए वेदी कहलाते थे।

राम भरोसे समझ गया कि मैंने तुक्का लगाया है, सो उसने दूसरा सवाल दाग दिया कि जब दुबे और चौबे दो से चार हो गये तो त्रिवेदी तिबे क्यों नहीं हुये? मैं लाजबाब हो गया सो बात बदल दी कि अभी बिहार के कुछ नेता चौबे से छब्बे बनने गये थे, पर दुबे होकर रह गये।

रामभरोसे विषय से भटक कर तुरंत पूछ बैठा कैसे? मैं भी तुरंत बोला अरे भाई दो महीने तो तुम सुशांत सिंह, सुशांत सिंह सुनते रहे और अब अभिनेत्रियों को ड्रग में डूबे देख कर सब कुछ भूल गये। पहले भाजपा के गठबन्धन में बंधे नितीश कुमार ने आगामी विधानसभा चुनावों के लिए सुशांत सिंह की अस्वाभाविक मौत को एक अच्छे मुद्दे की तरह ऐसे लपका जैसे धोनी कैच लपकता रहा है। उसने सुशांत सिंह जैसे भोले भाले बच्चे को बिहार का महान सपूत बतलाया और अपने गठबन्धन के सहयोगी की सलाह पर प्रचारित किया कि बालीवुड के निर्माता निर्देशकों ने भाई भतीजावाद फैला कर इस महान कलाकार को मौका ही नहीं दिया क्योंकि सब के सब मुसलमानों का कब्जा है। और इसी निराशा में उसने मौत को गले लगा लिया। फिर लगा कि मुम्बई की पुलिस तो जाँच में इसकी कलई खोल देगी सो उसके हाथ से केस ले लेने के लिए उसके पिता से बिहार में रिपोर्ट करायी कि उसकी मौत सन्दिग्ध है और मुम्बई की पुलिस जाँच में इसलिए गड़बड़ कर रही है कि भाजपा के पुराने सहयोगी शिवसेना के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे का बेटा खुद इस षड़यंत्र में शामिल था। बिहार पुलिस के पांडे डीजीपी ने तुरंत ही बिहार में रिपोर्ट लिख ली और इस बहाने सीबीआई से जाँच की सिफारिश कर दी। वे समझे कि पिंजरे के तोते को मौका दे कर हम चुनाव निबटा लेंगे। कुछ सन्देह था सो उसके सत्तरह करोड़ रुपये गायब होने की हवाई खबर के नाम पर ईडी की जाँच बैठा दी। मामले को और फूलप्रूफ बनाने के लिए नार्कोटिस कंट्रोल ब्यूरो जिसके पदाधिकारी के रूप में उन अस्थाना को पदस्थ कर दिया गया था जिन्हें सीबीआई का डायरेक्टर नहीं बना पाये थे। वाह! क्या प्लान था, छब्बे बन ही जाना था। मुम्बई में भाजपा को लतिया कर भगा देने वाली शिव सेना से भी बदला पूरा हो जाना था। उसके बहाने काँग्रेस और एनसीपी के शरद पवार को भी दबाव में ले लेना था। गुलाम मीडिया तो पहले ही से कहानियों की भांग घोंटने बैठा था।

पर, सीबीआई को हत्या का या आत्महत्या के लिए विवश किये जाने का कोई सबूत नहीं मिला। ईडी को लेन देन के हिसाब के जो सबूत मिले वे उसने राष्ट्रहित में उजागर नहीं किये। अब बचा नारकोटिक्स सो वह तो इतना फैला हुआ था कि स्वयं नारकोटिक्स ही घेरे में आ गया कि जब इसका जाल इतना व्यापक था तो ये नार्कोटिक्स विभाग वाले क्या कर रहे थे? इस जाल में केवल मछलियां ही नहीं वे मगरमच्छ भी फंस सकते हैं बाबा भेषधारी भी फंस सकते थे जिससे मदद मिलती रहती है, वे महाजन भी जिनकी फाइलें गायब करके और अनेक स्वाभाविक या अस्वाभाविक मौतें होने के बाद बचा लिया गया था।

बेचारा बिहार का सपूत जिसे शहीद बना कर पेश करना था वह एक आदतन चरसी, अनेक महिलाओं के साथ सम्बन्ध रखने वाला और लगभग सारे लेनदेन में एक दो तीन नम्बर का हिसाब किताब रखने वाला सिद्ध हो चुका था जिसने राज ठाकरे द्वारा बिहारियों के खिलाफ हिंसक अभियान चलाने पर दुम दबा ली थी और लाक डाउन में प्रवासी बिहारी मजदूरों की कोई मदद नहीं की थी।

चौबे जी छब्बे बनने चले थे दुबे से कहीं दवे ना बन गये हों।       

व्यंग्य बेचो, बेचो, बेचो और खेंचो, खेंचो, खेंचो

 

व्यंग्य

बेचो, बेचो, बेचो और खेंचो, खेंचो, खेंचो

दर्शक

शेखीबाज रामभरोसे ने दुकान खोली थी। उद्घाटन के छह महीने बाद मिला। मैंने पूछा और क्या हाल है तो शायरी करने लगा। बोला –

कुछ इस तरह से आपने पूछा मिरा मिजाज

कहना पड़ा कि शुक्र है परवरदिगार का

वो तो ठीक है, पर दुकान चल तो रही है? मैंने पूछा

उत्तर में वह फिर भावुक हो गया और बोला कि ‘पहले तो चली.....’

जब उसका पाज लम्बा हो गया तो मैंने फिर पूछा ‘ और अब?’

‘अब बिल्कुल चली गयी है।‘ उसने लम्बी सांस खींच कर कहा।

      क्यों, क्या बिक्री नहीं हुयी?

‘हुयी! पहले घर का टीवी बिका, फिर फ्रिज बिका, फिर कार बिकी और अब घर के बिकने की बारी है।‘ वह बोला

‘और दुकान का सामान’ ?

‘उसे तो दुकान के मालिक ने किराये की वसूली में नीलाम कर दिया।‘

नीलामी के बाद हिसाब तो हुआ होगा? उसमें क्या हुआ।

‘हिसाब भी हुआ, और मुझे तीस हजार और देने हैं।

मुझे दुख और गुस्सा एक साथ आया। इसको समझाया था कि तुमसे नहीं होगा। पर कहने लगा था कि क्यों नहीं होगा! अब तो नसीब वाला प्रधानमंत्री आ गया है, जिसके खून में व्यापार है, और जिसका सीना 56 इंच का है। ऐसे में नहीं होगा तो कब होगा। स्टार्ट अप का बटन दबाते ही गाड़ी स्टार्ट होकर फर्राटे भरने लगेगी।  

एक बार एक जंगल का प्रधानमंत्री एक बन्दर चुन लिया गया था। एक हिरन उसके पास कोई आवेदन लेकर पहुंचा तो उसने उसे पढने का पूरा नाटक किया। फिर इस डाल से उस डाल पर, उस डाल से इस डाल पर छलांगें लगाने लगा, जैसे इस देश से उस देश पर और उस देश से इस देश पर जा रहा हो। जब हिरन को देखते देखते बहुत देर हो गयी तो उसने कहा कि हुजूर मेरे काम का क्या हो रहा है।

बन्दर ने और एक छलांग लगायी व किसी उपदेशक संत की तरह और ऊंची डाल पर बैठ गया। बोला गीता में भगवान ने कहा है कि कर्म किये जाओ, फल की चिंता मत करो। सो देखो, मैं कर्म कर रहा हूं। अब मेरे प्रयास में कोई कमी हो तो बताओ! परिणाम की चिंता मत करो।

दस प्रतिशत जीडीपी बढने की बात थी. पर उल्टे चौबीस प्रतिशत घट गयी है और तीस प्रतिशत तक घटने का अनुमान है अर्थात कुल चालीस प्रतिशत के अंतर के साथ देश चल रहा है। हमारी वित्त मंत्री के अनुसार सब कुछ एक्ट आफ गाड है। अगर संयोग से कुछ अच्छा हो जाये तो ये मोदी के नसीब के कारण होरहा है और जो भी बुरा हो रहा है वह भगवान की करतूत है। हाँ मोदी मित्र जो प्रधानमंत्री की पीठ पर वरद हस्त रख कर कभी कभी फोटो खिंचवाते रहते हैं, की सम्पत्ति जरूर तीन प्रतिशत बढ गयी। बेरोजगार मजदूर और युवा मुँह पर मास्क बाँध कर थाली बजा रहे हैं और पुलिस उन पर लाठा बजा रही है। जय हो।  

व्यंग्य विजुअल मीडिया के बिजूके

 

व्यंग्य

विजुअल मीडिया के बिजूके

दर्शक

       देश का पूरा माहौल अशांत चल रहा है। इसमें कहीं सुशांत चल रहा है तो कहीं प्रशांत चल रहा है। जब से देश में विजुअल मीडिया [दृश्य माध्यम] ने प्रिंट मीडिया की जगह ली है तब से सूचनाएं और ज्ञान पुस्तक या अखबार की जगह फिल्म और ड्रामा से मिलने लगे हैं। इसने पाठक को दर्शक बना दिया है, और सारा नाटक दुखांत चल रहा है।

कल्पना थी कि यह सब शुभ होगा। कबीरदास ने कहा था कि तू कहता कागद की लेखी, मैं कहता आँखन की देखी। ऐसा कह कर उन्होंने परोक्ष में प्रिंट मीडिया की जगह विजुअल मीडिया के महत्व को बढाया था। हम भी सोचते थे कि अब सच को हम अपनी आँखों से देखेंगे। लाजिम है कि हम भी देखेंगे। पर क्या पता था कि ये जादूगरों का देश है जो नजर को बांध देते हैं और हमें वही सच देखना पड़ता है जो ये दिखाते हैं। ये दो हजार के नोट में लगी चिप भी देख लेते हैं जो सेटेलाइट के माध्यम से सात पुर्तों के अन्दर से भी बोलेगी। ये जेम्स बांड 007 की तरह सुशांत सिंह की हत्या के राज ईडी और सीबीआई के पहले से भी निकाल लेने का दावा कर सकते हैं, भले ही यह पता ना हो कि कारगिल में पाकिस्तानी सेना और गलवान घाटी में चीनी सेना कहाँ तक घुस आयी थी। इन्हें सुशांत सिंह की बीमारियों की तो खबर है पर यह नहीं पता रहता है कि देश के सबसे सक्रिय गृहमंत्री, बिना किसी बीमारी के पूरे एक माह तक क्यों निष्क्रिय रहते हैं।

आज जितना झूठ विजुअल मीडिया दिखा रहा है, उतना तो महाभारत के काल में भी नहीं बोला गया था। तब अश्वत्थमा मारा तो गया था पर मनुष्य या हाथी के सच को फुसफुसा कर बता दिया गया था। वैसे तब जानवरों के भी नाम होते थे और वे मनुष्यों से मिलते जुलते होते थे। इन दिनों तो जाति वाचक टाइगर व्यक्ति वाचक में बदल दिया जाता है। कोई कहे कि टाइगर बिक गया तो पहले पहल किसी नेता का ध्यान आता है।

अब 24X7 मीडिया का पेट तो भरना ही पड़ता है और अपना पेट पालते हुए मीडिया मालिकों का पेट भी भरना पड़ता है. जो झूठ से भरता है। सो सच को छुपाना भी पड़ता है, इसलिए कठिन परीक्षा शुरू हो जाती है। इसलिए वे वह सब तो दिखाते हैं, जो नहीं दिखाना चाहिए और वह सब छुपाते हैं जिसे दिखाना जरूरी होता है। खबरों के लिए टीवी खोलते हैं और विज्ञापन देखने लगते हैं जिनमें बड़े बड़े भारत रत्न, पद्मविभूषण, पद्मश्री च्यवनप्राश में वह सब होना बता रहे होते हैं जो उस में होता ही नहीं है। अंत में गालिब की तरह यह सोच कर रह जाते हैं कि

हमने सोचा था कि गालिब के उड़ेंगे पुर्जे

देखने हम भी गये थे पै तमाशा न हुआ

टीवी खोलते ही ऐसा लगता है कि रंगमंच के सामने बैठे हैं और न्यूज एंकर तब की रामलीला के संवाद बोल रहा है जब माइक और लाउडस्पीकर नहीं होते थे और वह सीधे दिल्ली से भोपाल तक मुँह से बोल कर ही खबरें सुनाने का प्रयास कर रहा है। डनलप पिलो के गद्दों पर हो रहे कवि सम्मेलनों में वीर रस के कवियों के पाठ के जिस अन्दाज का वर्णन शरद जोशी जी ने अपने एक लेख में किया है वह आज के चीखते चिल्लाते न्यूज एंकरों को देख कर फिर से याद आ जाता है। फिलहाल अपने दृष्टिकोण को समाचार बता कर सुनाने वाले एंकरों पर दतियावी भोपाली का एक शे’र सुनिए-

खबर खबर की तरह और नज़र नज़र की तरह

सुना रहे हो नज़रियात को खबर की तरह

 

     

 

व्यंग्य हमारे डाक्टर कोरोना मास्टर

 

व्यंग्य

हमारे डाक्टर कोरोना मास्टर

दर्शक

एक पुरानी कहावत है-

पंडित वैद्य मशालची , इनकी उल्टी रीत

औरन गैल बताय कें आपहु नाकें भीत

अर्थात पूजा पाठ कराने वाला पुरोहित, वैद्य और मशाल से रास्ता बताने वालों की उल्टी रीति होती है, जो दूसरों को तो लम्बा रास्ता बताते हैं और खुद दीवार फांद कर निकल जाते हैं।

इन दिनों दुनिया बीमार चल रही है और दुनिया में हमारा जगतगुरू देश भारत भी शामिल है। यहाँ हरी चटनी के साथ समोसा खाने से कृपा बरसने लगती है और लाल चटनी के साथ खाने से कृपा चली जाती है। ऐसे नायाब उपाय बताने वाले चिक्त्सिकों के दरबार में भी मोटी मोटी फीस चुकाये जाने के बाद ही दर्शन मिलते हैं व जल्दी नम्बर के लिए ऊपर से कुछ देना पड़ता है। ऐसे देश में कोरोना ने लाक डाउन करा दिया तो करोड़ों मजदूरों की नौकरी चली गयी, दुकानदारों का व्यापार चला गया, फिल्म कलाकार खेती करने लगे, मंच के कवि घर में बैठ कर भजन गाने लगे। जो लोग हाथ पर हाथ धरे बैठे थे वे हाथ पर लात धर कर बैठ गये। दफ्तर वालों की ऊपरी कमाई तो चली ही गयी, निचली कमाई में भी कटौती शुरू हो गयी। पैकेज वालो के पैकेज में लीकेज शुरू हो गया। जो ब्रांडेड कमीजें और जूते ही खरीदते थे वे लोकल पर वोकल होने लगे। उन्हें समझ में आया कि ब्रांड के इतने ज्यादा पैसे चुकाने पड़ते है।

हमेशा पाजटिव की बात करने वाले ‘सर्वे भवंतु निगेटिवः” की बात करने लगे। जो पाजटिव निगल गया उसे संस्कृत का वह श्लोक याद आ गया जिसमें कहा गया था कि वैद्यराज तुम्हें नमस्कार है, क्योंकि तुम यमराज के बड़े भाई हो। यमराज तो केवल जान ही ले जाते हैं, तुम तो जान और धन दोनों ले जाते हो। अस्पताल में इलाज का एक बिल देखने को मिला जो चार लाख पचपन हजार का था, जिसमें दवा का कुल खर्च चार सौ पांच रुपये का था। बाकी मरीज की पीपीई किटों से लेकर डाक्टर और नर्सों से लेकर वार्ड व्याय की किटों का खर्च जुड़ा हुआ था। यह खर्च सारे मरीजों से वसूला जाता है जबकि वे ही डाक्टर, वे ही नर्सें, उसी एक किट को पहिने दिन भर मरीजों की पहरेदारी करती हैं कि कहीं वह भाग न जाये।

बहुत चर्चा है कि मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री ने बिना सेनेटाइज किये विधायक खरीद लिये सो वे भी संक्रमित हो गये। सलाह यह थी कि जो भी चीज खरीद कर लायी जाये उसे पहिले सेनीटाइज कर लिया जाये।

इब्त्दा-ए-इश्क है रोता है क्या, आगे आगे देखिए होता है क्या।  

अभी तो उपचुनावों की अग्नि परीक्षा बाकी है।

शिकायत यह है कि सरकार में जनता को उपचार बताने वाले जितने निर्मल बाबा हैं वे अपनी पार्टी वालों का उपचार प्राइवेट अस्पतालों के एलोपथी के डाक्टरों से करवाते हैं, पर जनता को गौमूत्र चिकित्सा की सलाह देते हैं। इलाज की बात तो जाने दीजिए, अमित शाह ने तो बीमारी तक को गोपनीय रखा। सम्बित पात्रा ने गोदी मीडिया की गोद में बैठ कर नहीं बताया कि उन्होंने देशी गाय के मूत्र से उपचार किया या जर्सी गाय के मूत्र से। म.प्र. विधानसभा अध्यक्ष की कुर्सी को अस्थायी रूप से सुशोभित करने वालों ने तो राम जन्मभूमि मन्दिर के नये माडल की नींव पड़ते ही कोरोना के भाग जाने की घोषणा कर दी। अपनी चर्चित छवि से साध्वी की छवि बनाने वाली एक सांसद ने तो उपाय बता दिया कि दिन में पांच बार हनुमान चालीसा का सस्वर पाठ करने से कोरोना भाग जायेगा। अब यह पता नहीं कि यह पांच बार का समय उन्होंने नमाज की तर्ज पर उसी समय करने के लिए कहा है या किसी दूसरे समय!

बहरहाल खबर यह भी है जिन्हें रोज रोज दर्शनों का सौभाग्य मिलता था उन तिरुपति बालाजी के एक सौ चालीस पुजारी पाजटिव पाये गये हैं।

व्यंग्य कानपुर वाला विकास

 

व्यंग्य

कानपुर वाला विकास

दर्शक

नीरज जी की काव्य यात्रा कानपुर से ही परवान चढी। वहाँ वे पढे भी, नौकरी भी की और प्रेम भी किया, जिसके वियोग में गुजरते हुए कारवां का गुबार भी देखा। वे कानपुर के नाम लिखे अपने पत्र का प्रारम्भ करते हैं-

कानपुर आज याद तेरी फिर आयी

रंग कुछ स्याह मेरी रात हुयी जाती है

ये आँख पहले भी बहुत रोई थी तेरे लिये

अब तो लगता है कि बरसात हुयी जाती है

इस लम्बे काव्य पत्र में वे लिखते हैं कि-

और तब तक के लिए अपने कारखानों को

खूब समझा दे कि ना उगलें जहर धरती पर

यूं ही पीती ना रहेगी मेरी ये धरती धुंआँ

यूं ही भूखी ना रहेगी मेरे भारत की नजर

कानपुर जो कभी मेनचेस्टर कहलाता था, में कारखाने और उनका धुंआँ तो बन्द हो गया किंतु विकास बन्द नहीं हुआ। वह विकास दुबेओं के रूप में फैलता गया। सबका साथ सबका विकास का नारा ऐसा फूला कि विकास की जरूरत हर पार्टी वाले को पड़ने लगी। बहुजन पार्टी की बहिनजी जिनकी पार्टी का नारा कभी उसकी जाति को चार जूते मारने का आवाहन करता था, वे कहने लगीं कि विकास जल्दी स्वस्थ हो जाओ व जहाँ से चाहो वहाँ से चुनाव लड़ लो। एक बार वह लड़ भी चुका था। समाजवादी पार्टी ने तो अपने टिकिट पर उसकी पत्नी को जनपद का सदस्य ही बनाया हुआ था। भाजपा के दो विधायक उसकी मदद के लिए उतावले रहते थे। उसके पास सारे गुण थे क्योंकि उसके पास पैसा था व ‘सर्वे गुणः कांचनम आसवंते’।

 

सबके अपने अपने नारों में विकास हैं। इन दिनों कानपुर वाले जिस विकास की चर्चा है, जिस पर पुलिस वाले हाथ डालने से डरते थे, जिस पर पाँच लाख का इनाम हो वह चीख चीख कर कह रहा था कि मैं विकास दुबे हूं कानपुर वाला। इस विकास ने सैकड़ों किलोमीटर की पर्यटक की तरह कानपुर से फरीदाबाद और फिर उज्जैन की तीर्थ यात्रा की महाकाल के मन्दिर में पूजा की तो अर्चना भी की होगी। उसकी मृत्यु के अगले ही दिन सरकारी विभाग जाग गये और उसके करोड़ों के मकानों व संस्थानों का पता लगा लिया। जितना पता चला वह तो शायद उसकी कुल सम्पत्ति का मामूली हिस्सा होगा। भारतीय पुलिस व प्रशासनिक मशीनरी को उसका बल याद दिलाना पड़ता है, तब जागती है। आठ पुलिस वालों को मार कर विकास ने उनका बल याद करा दिया था।  

जिसके पास अपराधों से कमायी गयी इतनी अटूट दौलत हो और जिसके सिर पर मौत आ बैठी हो, जिस पर पाँच लाख का इनाम घोषित हो गया हो, वह जिन्दा रहने के लिए कितना पैसा खर्च कर सकता है इसका अनुमान ही लगाया जा सकता है। वह जब मध्य प्रदेश के लिए चला होगा तो अपनी जान की सुरक्षा का वादा ले कर ही चला होगा। जब किसी बड़े आदमी से कोई मिलने जाता है तो कुछ ले कर ही जाता है। सुदामा तक तन्दुल ले कर गया था, फिर यह तो विकास था जिसका पैसा लखनऊ से दुबई तक फैला हुआ था। मध्य प्रदेश में चाहे मेडिकल कालेज में प्रवेश हो या कोई सरकारी नौकरी हर चीज पैसों में मिलती है। जब इतने अपराधी संसद, विधान सभा, में पहले से मौजूद हैं तो एक और सही। आपदा को अवसर में बदलना उन्हें आता है। उसने जरूर अपनी जेब खाली कर दी होगी। पर धोखा हो गया। आत्मा मध्य प्रदेश में खाली करा ली गयी व शरीर उत्तर प्रदेश वालों को सौंप दिया गया। वे खाली शरीर का क्या करते ! सो गाड़ी फिसल गयी और जोर जोर से मैं विकास दुबे कानपुर वाला कहने वाला भागने लगा। शायद!

इस तरह सबने साथ तो दिया और विकास सबका हो गया पर सबका विश्वास नहीं पा सका। भरोसा नहीं हो रहा कि मंत्रिमण्डल के विभाग तक ऊपर से पूछे बिना न बांट सकने वालों ने सब कुछ अपने स्तर पर कर लिया होगा।  

व्यंग्य मन की बात

 

व्यंग्य

मन की बात

दर्शक

जब से चीन ने हमारे बीस सैनिकों को शहीद कर दिया है तभी से राम भरोसे को मोदेजी के मन की बात का इंतजार था। वह टीवी के सामने पाँच मिनिट पहले ही आकर बैठ गया। जब से कोरोना आया है वह चित्त से भयभीत हो गया है। किसी पर भरोसा नहीं रहा उसे। घड़ी तक पर नहीं। क्या पता लेट चल रही हो! मोदीजी का भी भरोसा नहीं, क्या पता पाँच मिनिट पहले ही शुरू हो जायें। मेरे पहुंचने पर उसने कुर्सी को लात मार कर छह फीट दूर खिसका दिया और मुँह पर बांधे हुये मुसीके को फिर से कस लिया जो लटक गया था। जब मैंने पूछा क्या बात है तो बाँधे हुए मुसीके पर ही उंगली रख कर उसने चुप रहने को कहा, फिर धीरे से बोला मोदीजी मन की बात करने वाले हैं।

‘ वो तो हर बार करते हैं, इसमें नया क्या है?” मैंने कहा

‘ इस बार चीन ने हमारे बीस बहादुर सैनिक मार दिये हैं, देखते हैं कि जीवन में नौ बार चीन जाने वाले और शीपिंग को झूला झुलाने वाले मोदी जी सैनिकों की हत्या पर क्या कहते हैं। ‘ वह बोला।

इतने में मोदी जी शुरू हो गये और प्यारे देशवासियों को सम्बोधित करने लगे। उन्होंने सीमा पर हुयी झड़प के बारे में कुछ नहीं बतलाया, बस इतना कहा कि हमारे जवान बहादुरी से लड़ते हुए शहीद हुये हैं। यह सच तो प्यारे देशवासियों को पहले ही पता लग गया था।

 इस बार इस बात का विशेष महत्व था। यह इसलिए नहीं था कि पिछली बार पुलवामा में हमारे चवालीस जवान लापरवाही में ही शहीद हो गये थे व जिसकी जाँच रिपोर्ट अभी तक सामने नहीं आ पायी है। न ही यह बताया कि चीन हमारी सीमा में घुस आया या हम चीन की सीमा में घुस गये थे। पर यह जरूर बताया कि वे बिहार रेजीमेंट के थे। इस पर उन्होंने जवानों की बहादुरी की तारीफ करते हुए उनके परिवार वालों को हो रहे गर्व के बारे में भी बताया।यह भी बताया कि शहीद के पिता अपने पोतों को भी सेना में भरती कराने की बात कर रहे हैं। इस पर रामभरोसे से चुप नहीं रहा गया और शाहीदों के प्रति प्रणाम की मुद्रा बनाते हुए बोला कि अगले महीनों में बिहार में विधान सभा के चुनाव हैं, वैसे एक बात समझ में नहीं आती कि देशभक्ति की इतनी इतनी बातें करने वाले गुजराती फौज में इतने कम क्यों हैं। कभी नहीं सुना कि कोई गुजराती बहादुरी दिखते हुए शहीद हुआ हो।‘

मैंने कहा कि यह बंटवारा तो मनु महाराज पहले ही कर गये हैं ‘ गुजराती के खून में व्यापार है’

‘ तो फिर 56” सीने की डींग क्यों हाँकते हैं?” वह चिढ कर बोला

“ वह तो सूट भेंट करने वालों को नाप देने के लिए होता है, आप गलत समझे “ 

राम भरोसे थोड़ी देर के लिए ऐसी मुद्रा में चुप हो गया, मानो बुरा मान गया हो। मोदी जी के मन की बात चालू रही। एक बार फिर वे चीन का नाम लेने से बचे। बोले ‘लोकल के लिए वोकल’। अब तो रामभरोसे कुर्सी पर से उछल ही पड़ा। बोला पहले ही झंझट कौन से कम थे कि रेट, वेट, डेट [एक्सपायरी और मैनूफ्रेक्चरिंग] के साथ यह भी देखो कि बना कहाँ का है? जब एक चीज खरीदने में इतना समय लगेगा तो फिर पीछे वाला सोशल डिस्टेंसिंग क्या खाक मैंटेन करेगा? अगर किसी से दुश्मनी है तो साफ साफ बताओ! उसके सामान के आने पर प्रतिबन्ध लगाओ।

पर भले घर की बहुएं ससुर का नाम कैसे ले सकती हैं। 2013 में 1.8 बिलियन डालर का व्यापार था वह 7.9 बिलियन डालर का हो गया। इसे पहले ही सुधारना था। अब तो चिड़्यां चुग गयीं खेत। अगर 1.8 बिलियन पर चन्दा मिल सकता है तो 7.9 बिलियन पर कितना मिला होगा? ओवरसीज फ्रैंड्स आफ बीजेपी क्या काम करता है भैया? 

    

गुरुवार, 28 मई 2020

व्यंग्य ट्रम्फ का चुनाव

व्यंग्य
ट्रम्फ का चुनाव
दर्शक
लोकतांत्रिक होना समाज में भले आदमी होने जैसा है और लोकतांत्रिक होने का मतलब चुनाव जीतने की क्षमता हो गया है। जो भी चुनाव जीत जाता है वह खुद को लोकतांत्रिक बताता हुआ नहीं थकता है। हजारों सामंत, पूंजीपशु, और मफिया गिरोह चुनाव जीत कर भले आदमी कहलाते हुए विचरण कर रहे हैं।
जब चुनाव जीतना ही मापदण्ड है तो कैसे भी जीत लो। साम दाम दण्ड भेद किसी भी तरह से दूसरे प्रत्याशियों से अधिक वोट ले लेना ही लोकतांत्रिक हो जाना है। यह बात खुद को लोकतंत्र का सबसे बड़ा ठेकेदार बताने वाले अमेरिका के प्रैसीडेंट तब तक नहीं समझते थे जब तक कि नरेन्द्रभाई दामोदर दास मोदी ने उन्हें नहीं समझा दी थी। लोकतांत्रिक होने से चुनाव जीत जाना आवश्यक नहीं है, जबकि चुनाव जीत जाने से लोकतांत्रिक होना तय है। पहले चुनाव जीतो, सत्ता हथियाओ, पुलिस प्रशासन, फौज़ को अपने नियंत्रण में करो तो चन्दा देने वाले तुम्हारे पीछे पीछे घूमेंगे। देखते नहीं हो कि जब जिसकी सत्ता होती है तब तब उसी पार्टी को सारे इलेक्ट्रोरल ट्रस्ट बड़ॆ बड़े चन्दे देते हैं। खुद को लोकतंत्र का सबसे बड़ा संरक्षक बताने वाले ये ट्रस्ट वोटों के आधार पर दलों की मदद नहीं करते अपितु सीटों की संख्या से लोकतंत्र को नापते हैं। पैसा आ गया, सत्ता आ गयी, पुलिस आ गयी, फौज आ गई तो सीटें कहाँ जायेंगीं, वे भी आ ही जायेंगीं| हर व्यापार में कुछ तो लागत लगती है, कुछ तो ज़ोखिम होता है।  चुनाव भले नकली लाल किला बनवा कर भी जीता जाये, बाद में यही रास्ता असली लाल किले तक ले जायेगा।
भीड़ तो भीड़ होती है, चाहे मुफ्त में जुटी हो या किराये की हो। मुफ्त की भीड़ के लिए भी तो लोग सम्मानजनक बोल नहीं बोलते। किराये से जुटायी गयी भीड़ को देख कर असली भीड़ भी जुटने लगती है। फिल्मी सितारों को टिकिट दे कर उन्हें स्टार प्रचारक बना दो लोग अपने आप जुटने लगेंगे। पुराने जमाने के राजा रानी, क्रिकेट खिलाड़ी, ऎथलीट, पहलवान, ओलम्पियन, गायक, कवि, शायर, भगवा भेषधारी सब नमूनों को जोड़ लो। राम भरोसे से पूछो कि क्यों जा रहे हो भीड़ में, तो वह कहता है कि जब इतने सारे लोग जा रहे हैं तो हम भी जा रहे हैं। मोदीजी ने दिखा दिया कि देखो भीड़ कैसे जुटायी जाती है। भीड़ देख कर ट्रम्फ भी चमत्कृत कि जब मेरे देश में इतने लोग जुटा लेता है तो अपने में कितने जुटा लेता होगा। जहाँ भीड़, वहाँ जीत।
संख्या बढाने के कई तरीके हैं। बम विस्फोट करा दो और किसी अल्पसंख्यक गुट के नाम से जिम्मेवारी लेने का ईमेल करा दो और सख्त बयान दे डालो तो भयभीत बहुसंख्यकों के सारे वोट झोली में। कोई अपने वाला फंस जाये तो प्रासीक्यूशन को सैट कर लो गवाहियों को डरा कर उनका घर भर दो और बरी होने पर उसे विधायक, सांसद या मंत्री बना दो। पैसा लगाओ, पैसा कमाओ।
इतने सारे लोगों के सामने जब कहा जायेगा कि अबकी बार ट्रम्फ सरकार, तो भीड़ में बदल चुके लोग 45 लाख भारतीय उसी जोश से जबाब भी तो देंगे।
पता नहीं, कितना सच है, पर कहा तो यह भी जा रहा है कि मोदीजी ने अमेरिका के प्रैसीडेंट से पूछा था कि तुम कहो तो हम अपने यहाँ की ईवीएम और प्रिसाइडिंग आफीसर भिजवा दें ताकि सब कुछ भारत जैसा हो सके, पर ट्रम्फ ने ही मना कर दिया।
शंकाएं, और भी हैं, अमेरिका के प्रैसीडेंट को अपने सारे प्रस्ताव संसद से पास कराने पड़ते हैं, और अगर वहाँ बहुमत नहीं आया तो क्या होगा? और अगर ट्रम्फ हार गये तो अगला प्रैसीडेंट अगली बार भारत में किसकी सरकार बोलेगा! इन सबके बीच चिंता उन एटम बमों की भी है जो हिन्दुस्तान पाकिस्तान ने दीवाली और ईद में फोड़ने के लिए नहीं रखे हैं। किसी ने कहा है-
हुक्मरानों की अदाओं पै फिदा है दुनिया
इस बहकती हुयी दुनिया को सम्हालो यारो