व्यंग्य
मामा तो गियो
दर्शक
हमारे भक्त कवि कह गये हैं –
आया है सो जायेगा, राजा, रंक, फकीर
एक कथित सूटबूटधारी फकीर ने तो पहले ही कह
दिया था कि मेरा क्या है, मैं तो फकीर आदमी हूं जब चाहूंगा तब थैला उठा कर चल
दूंगा। नये फकीर चल देने के मामले में भले ही खुद को फकीर बताते हों किंतु जायेंगे
तो थैला लेकर जायेंगे ! वे थैला नहीं छोड़ना चाहते। परसाई जी ने कहा है कि शंकर
भगवान जहर तो पचा गये थे पर उसका रंग नहीं पचाया ताकि उसे कण्ठ में नीले रंग के
माध्यम से दिखाते रहें कि देखो जहर मैंने ही पिया है।
वैसे तो राहत इन्दौरी साहब फर्माते हैं कि
आज जो साहबे मसनद हैं, कल नहीं होंगे
किरायेदार हैं जाती मकान थोड़ी है
सो सब ठाठ धरा रह गया और बंजारे को लाद कर
जाना पड़ा। विधानसभा चुनाव शांति पूर्वक निबट गये और उसी तरह भाजपा भी बीकानेर से
कांकेर तक शांतिपूर्वक निबट गयी। अब लोगों की टकटकी दिल्ली की ओर लग गयी है। अखबारों
से टीवी चैनलों तक और सिनेमा हाल से सोशल मीडिया तक किये गये सरकारी और गैरसरकारी प्रचार
का कोई असर नहीं हुआ। सीटें घट गयीं, पदवी खिसक गयी।
नाम बदलने का काम केवल योगी ही नहीं करते
शिवराज ने भी खुद का नाम मामा रख लिया था। पहले खुद का नाम रखने का काम केवल कवि
किया करते थे पर अब जिसको जो अच्छा लगता है वह अपना नाम रख लेता है। शेक्सपियर ने
भले ही कहा हो कि नाम में क्या रखा है, पर यह उस समय की बात थी जब बाज़ार ने अपनी
सत्ता स्थापित नहीं कर ली थी। अब तो चाय वाले तक अपने ब्रांड का नाम बाघ बकरी चाय
रख लेते हैं। मेरी मर्जी!
वैसे तो रिश्ते में बाप लगना अच्छा लगता
है, किंतु मोहनदास करमचन्द गान्धी ने पहले ही वह नाम हथिया लिया था। नेहरू जी चाचा
बन गये थे तो मायावती बहिनजी बनी घूमती हैं, ममता बनर्जी दीदी बन चुकी हैं तो
देवीलाल कभी ताऊ हुआ करते थे। ले दे के एक अकेला नाम मामा का बचा था सो शिवराज जी
ने समय रहते लपक लिया। देर हो जाती तो हो सकता है अमित शाह हथिया लेते। सरकारी
मामा बनने का फायदा यह है कि भांजे भांजियों को चाहे जो कुछ बांट दो, जायेगा तो
सरकारी खजाने से जायेगा। और आयेगा तो अपने हिस्से में आयेगा।
“ गाड़ी बैल पटेल के, बन्दे की ललकार”
मामा तो हर जगह होते हैं किंतु जगत मामा
कहीं कहीं ही मिलते हैं। पहले के मामाओं में अव्वल दर्जे का कांइयांपन भी देखने को
मिला है। एक मामा तो शिवराज मामा के बच्चों के भी थे जो ठीक चुनाव से पहले दुश्मन
के घर जा के बैठ गये। पर चुनावों में वे भी शांतिपूर्वक निबट गये। कंस और शकुनि की
कहानियों के बीच भी मामाओं का सुन्दर संसार रहता है। मालवा वालों ने बहुत पहले ही
कह दिया था कि मामा तो गियो ।
टाटा बाय-बाय ।
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