सोमवार, 21 मई 2018

व्यंग्य बेरोजगारी उन्मूलन के अभिनव प्रयोग


व्यंग्य
बेरोजगारी उन्मूलन के अभिनव प्रयोग
दर्शक
वे मुँह के जबर हैं। उनके पास मंच भी है और लाउडस्पीकर भी। लोगों के सुनने की क्षमता उनके शोर मचाने की क्षमता से बहुत कम है।
किसी शायर ने किसी सन्दर्भ में कहा है –
बस इसी बात का गिला है मुझे / तू बहुत देर से मिला है मुझे
मुझे शे’र सुन कर पकौड़े की याद आ गयी। रामभरोसे कह सकता है कि लाहौल बिला कूवत, कहीं की ईंट और कहीं का रोड़ा लेकर भानुमती की तरह कुनबा जोड़ रहे हो। पर मुझे रोजगार के विकल्प के रूप में पकौड़े बनाने की सलाह कुछ कुछ ऐसी ही लगी। आम चुनाव की सभाओं में जब ये लाखों बेरोजगार सभा दर सभा मोदी-मोदी चिचिया रहे थे तब ही बता देते कि दो करोड़ रोजगार देने के वादे पूरे करने की योजना पकौड़े बनाने से शुरू होगी। अफसोस तो इसी बात का है कि यह सलाह बहुत देर से मिली। बेरोजगार तो समझते थे कि इनके पास कोई जादू की छड़ी है, जिसके घुमाने से रोजगार वाटर आफ इंडिया की तरह सतत झरते रहेंगे, पर ये तो पकौड़ा बनाने की सलाह देने लगे। अगर कोई गलतफहमी भी थी तो चुनाव परिणामों के बाद टकटकी लगाये लोगों को तब बता देते। वे विधानसभा चुनावों में समझ लेते। पर तब भी नहीं बताया कि रास्ता कहाँ से जाता है।
 कहावत है कि – बासी रोटी में खुदा के बाप का क्या! अगर पकौड़े ही तलने थे तो उसके लिए मोदी सरकार को लाने की क्या विवशता थी। पकौड़ों का स्वाद तो गैरभाजपा शासन काल में भी वैसा ही आता है। अम्बानी की गैस, अडानी का तेल, रामदेव का बेसन और मसाले तब भी वैसे ही मिल रहे थे। पर पकौड़ों को रोजगार की राह में शार्टकट की तरह वैसा ही थमा दिया गया, जैसा किसी ने कहा है-
मैं मैकदे की राह से होकर गुजर गया
बरना सफर हयात का बेहद तबील था
तर्क और बहस तो तब काम करते हैं जब आपको बोलने दिया जाये। झूठ के नक्कारखानों में सत्य की तूती सुनी ही नहीं जा सकती। आप अपने ज्ञान, अपनी समझ, अपने विवेक का अचार डाल लीजिए, यही बेहतर है, ताकि सनद रहेगी वक्त जरूरत पर काम आयेगा। यह समय ही नियंत्रित सूचनाओं का है। राहत इन्दौरी कहते हैं कि –
कौन जालिम है यहाँ, जुल्म हुआ है किस पर
क्या खबर आयेगी, अखबार को तय करना है
अपने घर में हमें अब खाना पकाना क्या है
ये भी हम को नहीं सरकार को तय करना है
गाँधी खारिज, नेहरू खारिज, अम्बेडकर खारिज, पटेल का स्वरूप बदल दो। सब का इतिहास बदल दो। जोर जोर से चिल्लाते रहो, और सूरज को पश्चिम से निकलवाते रहो। फिर से राम मन्दिर, फिर से गाय, फिर से तीन तलाक, फिर से घर वापिसी, फिर से लव जेहाद, फिर से पाकिस्तान भेजने के सन्देश, फिर से तीन सौ सत्तर,। सब समस्याओं पर परदा डालने की कोशिशें, निदा फाज़ली ने कहा है-
ये इल्म का सौदा, ये रिसाले, ये किताबें
इक शख्स की ये याद भुलाने के लिए हैं
पर भूखे पेट, खाली हाथ ये सब कब तक चलेगा। इसी फिर फिर की फिरकी में फिर से दो तक पहुँच सकते हैं।  



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