शुक्रवार, 27 नवंबर 2015

व्यंग्य बिहार में चुनाव

व्यंग्य
बिहार में चुनाव
दर्शक
      फिल्म निर्माण एक धन्धा है इसलिए इन दिनों कई फिल्म निर्माता अपनी फिल्मों को रिलीज होने से रोके हुए हैं। वैसे तो लेखक को लिखने के बाद पुस्तक प्रकाशन की और फिल्म निर्माताओं को फिल्म प्रदर्शन की जल्दी होती है पर वे सीने पर पत्थर रखे हुए वक्त के गुजरने का इंतज़ार कर रहे हैं ताकि बिहार के विधान सभा चुनाव गुजर जायें। फिल्में सामाजिक संवेदनाओं से पैसा नहीं कमातीं अपितु मनोरंजन से कमाती हैं। इन दिनों चुनाव की चर्चाएं इतनी स्वादिष्ट हैं कि दर्शक टीवी छोड़ कर सिनेमा जाना ही नहीं चाहता। टीवी से उसकी यह चिपकन उसकी लोकतांत्रिक चेतना का विकास नहीं है अपितु उसकी मनोरंजन प्रियता के कारण है।
      बिहार की राजनीति में वैसे तो पहले से ही लालू प्रसाद थे अबकी बार नरेन्द्र मोदी और आ गये तो मजा दुगना हो गया। किसी जमाने में अटल बिहारी हिन्दू महा सभा के राष्ट्रीय अध्यक्ष बृज नारायण बृजेश की तर्ज पर आम सभाओं में चुटकले सुनाते हुए बताते थे कि मैडम इन्दिरा गाँधी ने कहा है कि वे नहले पर दहला मारेंगीं, तो मैं कहता हूं कि मैं बेगम पर इक्का मारूंगा। पब्लिक को मजा आ जाता था। वे कहते कि श्रीमती गाँधी कहती हैं कि अटलजी जब दोनों हाथ उठा कर भाषण देते हैं तो मुझे हिटलर की याद आती है, पर मुझे भाषण देने का वे ऐसा कोई तरीका नहीं बतातीं जिसमें टाँग उठा कर भाषण दिया जाता हो। उनकी इस बात पर खाया पिया मध्यम वर्ग निहाल हो जाता था। अनुमान है कि कभी साहित्यिक समारोह माने जाने वाले कवि सम्मेलनों में चुटकलेबाजी की शुरुआत इसी दौर से शुरू हुयी। अटल जी विपक्ष में रहने और सरकार के गरिमापूर्ण पद पर रहने का भेद समझते थे इसलिए उन्होंने पद की जिम्मेवारी समझने के बाद कभी चुटकलेबाजी नहीं की। दूसरी तरफ अब पदों को ऐसे नेतृत्व ने हथिया लिया है जो रहीम के अनुसार नल के नीर की तरह जितने ऊपर चढते हैं उतना ही नीचे गिरने लगते हैं। गुजरात में तेजी से अलोकप्रिय होती भाजपा सरकार को बचाने के लिए केशू भाई पटेल को हटा कर मोदी को आजमाया गया था जिन्होंने ठीक चुनाव के पहले ‘गोधरा उपरांत’ ड्रामा खेलकर खुली उत्तेजना पैदा की और उसका ताज़ा चुनावी लाभ उठाना चाहा। पर जब तत्कालीन चुनाव आयुक्त लिंग्दोह ने सद्भाव का वातावरण निर्मित होने तक चुनाव टालने की गैर भाजपा दलों की अपील मान ली तो मोदी जी उनके नाम को विच्छेद करके उच्चारित करने लगे। कहने लगे कि मैडम सोनिया से उनकी मुलाकात शायद चर्च में होती होगी। उन्हीं दिनों धर्मांतरण रोकने के नाम पर चर्चों पर हमले होने लगे। मोदी जी ने सोनिया गाँधी और राहुल गाँधी के उदय को जर्सी गाय और बछड़े का ही रूपक नहीं दिया था अपितु मुसलमानों के लिए पाँच बीबी और पच्चीस बच्चे कह कर खिल्ली भी उड़ायी। शिष्ट और सौम्य लोग इसे राजनीतिक गन्दगी कह कर चुप हो गये किंतु लालू प्रसाद जैसे लोग समझते थे कि ‘शठे शाठ्यम समाचरेत’ अर्थात खल जाने खल की ही भाषा। तुम डाल डाल हम पात पात।
जरा कुछ और अपना कद तराशो
बहुत नीची यहाँ ऊँचाइयां हैं
      बिहार में भाजपा को ऐसा गठबन्धन बनाना पड़ा जिनका संसार कुँएं के घेरे से ज्यादा नहीं था।  सो खुले छुपे सारे गठबन्धनियों में मुख्यमंत्री पद प्रत्याशी ही भरे पड़े थे। मौसम विज्ञानी रामविलास पासवान ने अपने सारे बेटे दामाद भाई भतीजों को टिकिट देने के बाद सोचना पड़ा कि खानदान इतना छोटा क्यों है। यही हाल मुख्यमंत्री पद के दूसरे उम्मीदवार जीतन राम माँझी के साथ हुआ। परोक्ष समर्थन करने वाले पप्पू यादव तो घोषणा किये बैठे हैं कि उनके दल के समर्थन बिना बिहार में कोई सरकार बन ही नहीं सकती। जीवन भर भाजपा के कारनामों का बोझ ढोने वाले सुशील मोदी को बाहुबली गिरिराज सिंह पीछे कर दिये। रथयात्री अडवानी को कलैक्टर के रूप में गिरफ्तार करने वाले ईमानदार आई ए एस आर के सिंह को अडवानी ने गृहमंत्री बनने पर अपने मंत्रालय में उपसचिव बनाया था, उन्हें ही चिदम्बरम ने गृह सचिव बनाया था, नितीश कुमार ने मुख्य सचिव के रूप में बिहार रोड कार्पोरेशन सौंपा था उन्हें मोदी ने बिहार से सांसद बना कर उम्मीद की थी कि वे उनकी जबान खरीद लेंगे। पर-
चाहे सोने के फ्रेम में जड़ दो
आइना झूठ बोलता ही नहीं
उन्होंने ही कह दिया कि बड़े बड़े अपराधियों को दो करोड़ रुपयों में टिकिट बेचे गये हैं और वे उनके लिए प्रचार नहीं करेंगे। शत्रुघ्न सिन्हा शत्रु बन गये और ‘उगलत निगलत पीर घनेरी’ देने लगे।
      मोदी ने मदारीगीरी की तो लालू ने उनकी मिमक्री करके उनसे भी ज्यादा मजा पैदा कर दिया और अरहर के दाल सत्तर से अस्सी नब्बे सौ तक ही नकल कर पाये पर जनता ने उसे दो सौ तक पहुँचा दिया व हर घर में जिस बच्चे को जहाँ तक गिनती आती थी वह नीलामी करने लगा। भाइयो बैनो, भाइयो बैनो तो इतना हुआ कि भैया बैनों की माँ तक दुखी हो गयी। मोहन भागवत की आरक्षण समीक्षा से निबटें, कि अरुण शौरी की काऊ प्लस काँग्रेस से निबटें, कि तोगड़िया से निबटें, कि शिव सेना की काली स्याही से निबटें, पाकिस्तान का पासपोर्ट काटते खट्टर काका से निबटें कि गाय बकरी से निबटें। सारे जुमले फेल होते देख कर खिसियाये हुए नेता की शक्ल बहुत मनोरंजक हो जाती है।

      फिर आ गयीं मीसा दीदी उन्होंने बता दिया कि भले ही लालू की बेटी हैं पर रिश्ते में तो मोदी की दादी हैं जिन्होंने नानी याद दिलाने से पहले उनकी पत्नी और माँ को याद करा दिया। हर रोज नया मनोरंजन हो रहा हो तो फिल्में देखने कौन जायेगा। फिल्म निर्माताओ अभी आठ नवम्बर का इंतज़ार करो।   

व्यंग्य वो जिनका रखा हुआ है

व्यंग्य
वो जिनका रखा हुआ है
वीरेन्द्र जैन
पहले दो तरह के संस्कृतिकर्मी हुआ करते थे। एक् वे जिन्हें मिल गया था, और दूसरे वे जो उसके लिए हींड़ते रहते थे। हींड़ना नहीं समझते हैं।
अगर आप बुन्देलखण्ड में नईं रये हैं तो हींड़ना नहीं समझ सकते हैं। वैसे तो यह तरसने जैसा शब्द है किंतु उससे कुछ भिन्न भी है। तरसने वाला तो तरसने को प्रकट भी कर देता है जैसे बकौल कैफ भोपाली-
हम तरसते ही, तरसते ही, तरसते ही रहे
वो फलाने से, फलाने से, फलाने से मिले
किंतु हींड़ने वाला तरसता भी है और प्रकट भी नहीं करता। मन मन भावै, मुड़ी हिलावै वाली मुद्रा बुन्देलखण्ड में ही मिलती है। और यही मुद्रा क्या दूसरी अनेकानेक मुद्राएं भी बुन्देलखण्ड की मौलिक मुद्राएं हैं। ये अलग बात है कि बुन्देलखण्डियों ने उनका पेटेंट नहीं करवाया है। इन्हीं मुद्राओं के कारण ही इस क्षेत्र में हिन्दी व्यंग्य के भीष्म पितामह हरिशंकर परसाई जन्मते हैं, रागदरबारी जैसा उपन्यास इसी क्षेत्र के अनुभवों पर ही लिखा जाता है, और बरामासी जैसा उपन्यास किसी दूसरे क्षेत्र के जीवन पर सम्भव ही नहीं हो सकता।
बात निकलेगी तो फिर दूर तलक जायेगी, पर यह तो बात न होकर गैस हो गयी कि निकलने भर की देर थी और इतनी दूर तक चली आयी। पर यह गैस नहीं है, इसलिए ज़िन्न को वापिस बोतल में ठूंसते हैं।
तो जी हाँ मेरा मतलब पुरस्कारों से ही था जो कभी कुछ लोगों को मिल जाता था और बहुत सारे लोग उनको तरसते रहते थे। तरसने वाले अपनी झेंप दो तरह से मिटाते थे। एक तरफ तो वे कहते थे कि पुरस्कारों का कोई महत्व नहीं है, बेकार की चीज हैं, दूसरी तरफ वे कहते थे ये तो चापलूसी से मिलते हैं, सरकार के चमचों को मिलते हैं, साहित्य के नाम पर नहीं विचारधारा के नाम पर मिलते हैं, जब सरकार बदलेगी तो वह हमारी प्रतिभा को पहचानेगी आदि। पर सरकारें आती जाती रहीं किंतु पुरस्कारों और उन लोगों का रिश्ता कम ही बन सका। ऐसे लोग तत्कालीन सरकार का विरोध करते थे उसे जम कर गालियां देते थे व अपने आप को संत होने का दिखावा जैसा करते थे, पर निगाहें हमेशा पुरस्कारों पर लगी रहती थीं । वे गुपचुप रूप से आवेदन करते रहते थे। सिफारिशें करवाते थे, क्योंकि सरकार प्रतिभा को पहचान ही नहीं रही थी अर्थात पुरस्कार नहीं दे रही थी। किंतु जब उन्हें भूले भटके मिल जाता था तो वे सारा विरोध भूल कर ले आते थे।
फिर परीक्षा की घड़ी आयी। जो सचमुच जनता के लेखक थे, जिनका लेखन उनके पुरस्कारों से नहीं पहचाना जाता था, उन्होंने सरकार की निर्ममता, उदासीनता और तानाशाही प्रवृत्ति के विरोध में पुरस्कार वापिस लौटा दिया तो वे बड़े संकट में आ गये। जैसे तैसे तो मिला था, उसे लौटायें कैसे? हरिशंकर परसाई ने इसी संकट को आत्मालोचना के रूप में उस समय लिखा था जब ज्यां पाल सात्र ने नोबल पुरस्कार लौटा दिया था। उन्होंने लिखा, यह ज्याँ पाल सात्र बहुत बदमाश आदमी है, इसे नोबल पुरस्कार मिला तो इसने उसे आलू का बोरा कह कर लौटा दिया। ये मेरे चार सौ रुपये मरवाये दे रहा था। मुझे सागर विश्वविद्यालय से चार सौ रुपये का पुरस्कार मिला था किंतु सात्र की देखा देखी मेरे अन्दर भी उसे लौटा देने का जोर मारा और मैं भी उसे लौटाने वाला था किंतु सही समय पर अक्ल आ गयी और मैं पुरस्कार ले आया। उस पैसे से मैंने एक पंखा खरीदा जो आजकल ठंडी हवा दे रहा है जिससे आत्मा में ठंडक पहुँच रही है। मैं ठीक समय पर बच गया।
उदय प्रकाश इस दौर के सात्र हैं। उनके दुष्प्रभाव से जिनकी आत्मा बच गयी उसे ठंडक पहुँच रही है। उन्होंने ड्राइंग रूम में सजे पुरस्कारों को उठा कर अलमारी में रख दिया है। वे रात में अचानक उठ जाते हैं, और अलमारी खोल खोल कर देख लेते हैं कि रखा हुआ है या नहीं। इस साली आत्मा का कोई भरोसा नहीं कब आवाज देने लगे, कब जाग जाये और बेकार के जोश में कह दें कि- ये ले अपनी लकुटि कमरिया बहुतई नाच नचायो। बच्चों से कह रखा है कि कोई ऐसा वैसा आदमी आ जाये तो कह देना, आत्मा को ठंडक पहुँचाने हिल स्टेशन पर गये हैं और मोबाइल भी यहीं छोड़ गये हैं। कोई मिल भी जाता है तो कह देते हैं कि आजकल पितृपक्ष के कढुवे दिन चल रहे हैं, इन दिनों में कोई लेन देन का काम नहीं होता। फिर नवरात्रि का पावन पर्व आ गया, मुहर्रम आ गया बगैरह बगैरह। स्वास्थ नरम गरम चल रहा है। हत्याएं तो होती रहती हैं, पहले भी हुयी थीं, बगैरह बगैरह। इन दिनों दिमाग में कविताएं, कहानियां नहीं बहाने कौंधते रहते हैं। मुख्यधारा पुरस्कार लौटाने की चल रही है और इतनी मुश्किल से मिला हुआ कैसे वापिस कर दें? चाहे पूरी मानवता लुट पिट जाये, पुरस्कार नहीं छूटता।
एक कंजूस व्यापारी के पास डाकू आये और गरदन पर बन्दूक रख कर पूछा- बोलो जान देते हो या पैसा? व्यापारी बोला जान ले लो, पैसा तो मैंने बहुत मुश्किल से कमाया है।
वे मानवता की कीमत पर पुरस्कार को सीने से लगाये बैठे हैं। छूटता ही नहीं। 
वीरेन्द्र जैन                                                                          
2 /1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा सिनेमा के पास भोपाल म.प्र. [462023]
मोबाइल 9425674629
    


व्यंग्य अध्यापकों की औकात

व्यंग्य
अध्यापकों की औकात
दर्शक
देवनागरी का अक्षर ज्ञान देने वाली पुस्तकों में कभी ‘अ’ से अध्यापक नहीं पढाया गया। वैसे तो सरकारी स्कूलों के अध्यापकों और ज्यादातर छात्रों को अनार का फल देखने और स्वाद चखने का अवसर तभी मिलता है जब डाक्टर सलाह देता है, पर बिना देखे हुए भी उन्हें ‘अ’ से अनार पढना पड़ता है। अपने अतीत से आलोकित होने वाले संगठनों की शासन अवधि में शासकों को सर्व शिक्षा अभियान हजम नहीं हो सकता। वे कहते हैं कि यह क्या कि सभी जातियों और धर्मों के लोगों को पकड़ पकड़ के पढा रहे हैं। वे जिस पुरातन काल के उपासक है उसमें अगर कोई दलित आदिवासी गुरु की मिट्टी की मूरत बना के भी शिक्षा ले लेता था तो गुरू राजकुमारों के कैरियर के लिए उसका अंगूठा कटवा लेते थे। शम्बूक तपस्या कर लेता था तो उसका सिर काट दिया जाता था।
ऐसे ही गुरू सम्मान के योग्य थे। वे ही गुर्रूर, ब्रम्हा गुर्रूर् विष्णु गुर्रूर देवो महेश्वरा थे। साक्षात परम ब्रम्ह वे ही थे।
 यह कोई बात हुयी कि सबको घेरो, पढाओ, कापी किताबें दो, स्कूल ड्रैसें दो, साइकिल दो और मध्यान्ह भोजन कराओ। ये सारी शरारतें सरकारों के बामपंथियों के दबाव में चलने के दौर में ही पैदा हुयीं। सबको पढाओ, तो सबके लिए स्कूल का बोर्ड लगाओ, कहीं कहीं तो भवन भी बनवाओ, और फिर उन स्कूलों में अध्यापक भरती करो, उनको वेतन दो। अतीत के अध्यापक तो दक्षिणा में संतुष्ट हो लेते थे, और गुरु पत्नी गुरु पुत्र को दूध की जगह आटा घोल कर पिला देती थी। पर अब ये अध्यापक के बच्चे पेट भरने लायक वेतन मांगने लगे हैं। इनकी हिम्मत इतनी बढ गयी।
तमतमा रहे हैं नन्द किशोर चौहान। चना चबेना खाने लायक दाना डाला गया था और ये रोटी के साथ दाल भी मांग रहे हैं। अगर सरकार इसी सब राजस्व लुटा देगी तो अपने ठेकेदारों को क्या लुटायेगी जो उन्हें उचित हिस्सा चन्दे में देते हैं। रघुनन्दन शर्मा कह रहे हैं कि किसी अध्यापक नेता को विधायकी का टुकड़ा क्या डाल दिया अब सारे नेता विधायकी के लिए नेतागिरी कर रहे हैं। अगर ये ही नेतागिरी करने लगे तो व्यापम कौन करेगा। हम क्या घास छीलेंगे। पुलिस, आरएएफ, सीआरएफ, होमगार्ड, सब बुला लो और मनने दो इन गुरुओं की दनादन गुरु पूर्णिमा।
अध्यापकों की सामाजिक हैसियत के बारे में एक अध्यापक अपनी शर्मिन्दगी को सुना रहे थे। उन्होंने बताया कि गाँवों में महिलाएं शौच के लिए बाहर जाती है और सुरक्षा की दृष्टि से वे सामूहिक रूप से सड़क के किनारे बैठ जाती हैं। जैसे ही कोई वहाँ से गुजरता है तो वे संकोच और शर्म से उठ कर खड़ी हो जाती हैं। ऐसे ही एक शाम जब वह अध्यापक वहाँ से गुजरे और एक युवती उठ कर खड़ी होने लगी तो एक प्रौढा ने उसको बैठे रहने का निर्देश देते हुए कहा कि- रहने दे, रहने दे, वो तो मास्टर है। भले ही शिक्षा में अनुशासन का अलग महत्व हो किंतु ऐसे मास्टर का अनुशासन बच्चों पर क्या खाक रहेगा!
अब चौहान कुछ भी कहते रहें किंतु इन दिनों अध्यापक अब रहीम को यह पढाते हुए अलग व्याख्या करते हैं  कि 
दुर्बल को न सताइए, जाकी मोटी हाय 
मरे खाल की श्वांस ते लौह भसम हो जाय

तो उनकी श्वासें तेज तेज चलने लगती हैं। और वे सोचने लगते हैं कि उन्हें तो केवल लकडी की कुर्सी ही जलाना है, जो वैसी ही ज़र्ज़र हो चुकी है।    

बुधवार, 16 सितंबर 2015

व्यंग्य साहित्यकार हिन्दी और सोम रस



व्यंग्य
साहित्यकार हिन्दी और सोम रस


दर्शक
रामभरोसे के यहाँ कथा हो रही थी, पर उसने अपने सबसे निकट के पड़ोसी और सबसे अच्छे मित्र को नहीं बुलाया। जब ज्यादा चड़ोत्री के लालच में कथावाचक पंडितजी ने कारण जानना चाहा तो वे गोल कर गये और बात बदल दी। पर पंडितजी को खटका लग गया कि जिसे रामभरोसे का सबसे अच्छा दोस्त और पड़ौसी समझते थे, उसे क्यों नहीं बुलाया। एक दिन जब वह अकेले में मिल गया तो उन्होंने पूछ ही लिया। उत्तर में उसने साफ कह दिया कि रामभरोसे ने बुलाया तो था किंतु मैं पूड़ी खीर पंजीरी खाने को नहीं आ सकता। पंडितजी समझ गये कि ये उनमें से हैं जो बिना पैग लगाये दावत को अदावत समझते हैं। पंडितजी कुटिलिता से मुस्कराये ही थे कि उसने  सुना दिया-
शेख साहब मुकाबला कैसा
आपका हम शराबनोशों से
कितने अस्मतफरोश बेहतर हैं
आप जैसे खुदा फरोशों से
पंडितजी ने शर्मिन्दिगी महसूस की। किंतु सभी तो एक जैसे नहीं होते हैं। जनरल वी के सिंह को तो आप जानते ही होंगे। वही वी के सिंह जो किसी बहादुरी के कारण नहीं अपितु अपने जन्म की गलत तारीख के कारण चर्चा में आये और 56 इंच से थोड़ा कम सीना फुलाये घूमते हैं। कहते हैं कि –बदनाम भी होंगे तो क्या नाम न होगा। इसी तरह नामी होने का का लाभ उठा कर उन्होंने राजनीति में हाथ मार लिया। प्राथमिक प्रवेश के लिए पहले उन्होंने  अन्ना और रामदेव के चक्कर काटे पर शरण उन्हें भाजपा में ही मिली।
भाजपा पहाड़ी पर बसे उस गाँव जैसा है जहाँ कानून से भागे हुए बहुत सारे लोग फरारी काटते हैं।
इन्हीं जनरल साहब की पुरानी हैसियत का लाभ उठा कर भाजपा ने अपनी एक सीट तो बढा ली, पर झुक कर आये व्यक्ति को जनरल से भाजपा का सिपाही बना दिया। जब अपने कद के पद के बिना बेरोजगारी से परेशान जनरल के होते हुए पुराने सैनिकों ने सरकार को नाकों चने चबवा दिये तो प्रधान मंत्री ने उन्हें हिन्दी हिन्दी खेलने में लगा दिया गया।    
  जनरल की जनरल नौलेज जिसे हिन्दी में सामान्य ज्ञान कहा जाता है, थोड़ी कमजोर है और उन्हें इतना ही पता है कि लेखक जब सेमिनारों में जमा होते हैं तो वे दारू पीते हैं और लड़ने लगते हैं। जिस जनरल को दारू पीकर लड़ने वालों से डर लगने लगता है उस शांतिदूत जनरल को सलाम करने का मन होता है। पता नहीं जनरल को उनके 56 इंची सीनों ने बताया या नहीं कि वे भी लेखकों की लड़ाई से बहुत डरते हैं, यही कारण है कि उन्हें चेहरा छुपा कर बहादुर बने लोगों द्वारा छुप कर मार दिये जाने पर न तो अफसोस जाहिर करते हैं और न ही किसी जाँच का झूठा भरोसा ही देने की कोशिश करते हैं। नरेन्द्र दाभोलकर हों, गोबिन्द पनसारे हों या कलबुर्गी हों वे भी लड़ाई लड़ रहे थे जो अज्ञान के खिलाफ थी, अन्धविश्वास के खिलाफ थी, अवैज्ञानिकता के खिलाफ थी। कलम के सिपाही प्रेमचन्द ने भी लेखकों को राजनीति के आगे आगे चलने वाली मशाल बताया है। अमिताभ बच्चन और प्रसून जोशियों को लेखकों के ऊपर थोपने वालों को तो चरण सेवक ही पसन्द आते हैं।
बहरहाल हिन्दी को वैष्णवों की भाषा बनाने की कोशिश करने वाले न तो उसे चेतना की भाषा बना सकते हैं, न ज्ञान की, न विज्ञान की। ‘हिन्दी-हिन्दू-हिन्दुस्तान का नारा देने वाले न उसे आंचलिक और प्रादेशिक भाषाओं से गलबहियां करने दे सकते हैं और न ही परिवर्तनकारी चेतना के लिए आन्दोलन की भाषा बनने दे सकते हैं। उनका काम तो व्यापम और ललित गेट वालों के दागों को भाषा की भावुक चादर से ढकना है। 1967 के भाषा आन्दोलन पर धूमिल ने सही कहा था-
उन्होंने भूख की जगह भाषा को रख दिया है।    

शनिवार, 5 सितंबर 2015

व्यंग्य हार्दिक नहीं आत्मीय अभिनन्दन



व्यंग्य
हार्दिक नहीं आत्मीय अभिनन्दन
दर्शक
मुझे विश्वस्त सूत्रों से ज्ञात हुआ है कि भोपाल में आयोजित होने वाले अगले विश्व हिन्दी सम्मेलन में सम्मेलन में अतिथियों का हार्दिक स्वागत नहीं किया जायेगा अपितु आत्मीय स्वागत हो सकता है। इस सम्मेलन में एक प्रस्ताव लाया जा सकता है जिसमें कहा जा सकता है कि शब्दकोष में नीचे एक फुटनोट लगा दिया जाये कि जहाँ जहाँ –हार्दिक- शब्द लिखा हो उसे आत्मीय पढा जाये। हर आमो-खास को इत्तिला दी जाती है कि सरकार का हार्दिक शब्द से कोई सम्बन्ध नहीं है और अगर पहले कभी रहा भी हो तो सरकारी पार्टी की नीतियों के अनुसार उसने पहले ही हार्दिक से सम्बन्ध विच्छेद कर लिया था। अश्वत्थामा हतो, नरो व कुंजरो की तरह चाहे वह व्यक्ति हो या शब्द । व्यक्तिवाचक संज्ञा हो या भाव वाचक।
राजनीति में शब्द बहुत परेशान करने लगे हैं। अब अरविन्द केजरीवाल को ही देखो उन्होंने आप पार्टी बना ली। दिल्ली के विधानसभा चुनाव में भाजपा चुनाव कार्यकर्ता जहाँ जहाँ वोट मांगने जाते थे, तो लोग कहते थे कि आपको ही वोट देंगे। ऐसा करके उन्होंने अपना वचन निभाया भी और उन्होंने आप को सत्तर में से सड़सठ सीटें दे दीं। भाजपा के प्रचारक समझते रहे कि दिल्ली में उम्मीद की नई किरन बेदी फूटेगी पर दिल्ली की जनता तो उन्हें आक्सफोर्ड यूनीवर्सिटी में पढाते हुए देखना चाहती थी। यह पता नहीं चला कि चुनाव हारने के बाद वे कितनी बार आक्सफोर्ड में पढाने गयीं हैं, या अब तक अपना सबक ही तैयार कर रही हैं। बहरहाल एक सबक तो उन्होंने ले लिया कि आगे कभी चुनाव नहीं लड़ेंगीं।
चुनाव प्रचार के दौरान मोदीजी ने व्यापारियों को सम्बोधित करते हुए अपने बारे में कहा था कि व्यापार तो उनके खून में है। भले ही वे शेष कही बातों पर खरे न उतरे हों सबके खातों में पन्द्रह लाख न जमा करवा पाये हों, किंतु इस बात पर खरे उतरे हैं। सबसे पहले तो उन्होंने ओबामा से मुलाकत के समय पहना सोने की धारियों से नरेन्द्र मोदी लिखा हुआ सूट नीलाम किया और फिर तो जगह जगह बोली ही लगाते दिखे। बिहार में जैसी बोली लगायी वह तो दुनिया के किसी भी प्रधानमंत्री के इतिहास में न लगी और न लगेगी। भूतो न भविष्यति। पचास हजार करोड़ दूं कि साठ हजार करोड़ दूँ, साठ हजार करोड़ दूँ कि सत्तर हजार करोड़ दूँ और इसी तरह करते करते उन्होंने खुद ही बोली को सवा लाख करोड़ पर तोड़ा। क्या होती है सरकार की मंत्री परिषद और काहे की बैठक? न खाता न बही जो मोदी कह दें वही सही। विकास के पैकेज की बोली लगाने के बाद खून में व्यापार वाले अब बीमा बेच रहे हैं। इस रक्षा बन्धन को अपनी बहिन को बारह रुपये वाला बीमा देना है या तीन सौ तीस वाला देना है। जल्दी बोलो- एक, दो, तीन। बाज़ार वाले परेशान हैं कि अब तक वे ही हर त्योहार को सामान खरीदने का शुभ अवसर बताते थे पर एक और आ गया सरकारी विज्ञापनों के दम पर बारह रुपये और तीन सौ तीस का बीमा बेचने वाला।
एक विज्ञापन में मोदी जी किसी माँ की आँखों को धुएं के चूल्हे से बचाने के लिए गैस सब्सिडी छुड़वाते नज़र आते हैं जैसे गैस सिलेंडर वे बूढी माँ को मुफ्त में दे देंगे और गैस के पैसे भी नहीं लेंगे। मुझे तो यह पता है कि आजकल सारे गैस एजेंसी वाले बैनर लगाये हुए हैं कि गैस कनैक्शन उपलब्ध है, [गाँठ में पैसे हों तो आओ और ले जाओ,] पर लोगों की जेब में पैसे ही नहीं हैं। बहरहाल एक सच यह भी है कि आँखें खराब करने के लिए केवल चूल्हे का धुँआ ही इकलौता कारण नहीं है अपितु यज्ञ के धुएँ से भी आँखों पर वैसा ही असर पड़ता है, जो अक्सर ही मोदी जी की पार्टी के लोग अपने विरोधियों को सद्बुद्धि देने के लिए भी करने लगे हैं। आँखें तो चुनावी लाभ की प्रत्याशा में फैलाये गये साम्प्रदायिक दंगों के बीच की गयी आगजनी से भी खराब होती हैं। कहा जाता है कि प्याज के रस से बाबा रामदेव अपनी आँख की दवा दृष्टि बनाते और बेचते हैं अर्थात प्याज के रस से निकले आँसू आँखों की गन्दगी को बाहर निकाल देते थे, पर अब वह भी सम्भव नहीं क्योंकि गरीब की रसोई से प्याज दूर हो गया है।   
    

व्यंग्य अशांता कुमार



व्यंग्य
अशांता कुमार
दर्शक
       भाजपा में कुछ दिनों पहले लगाने लगा था कि मरघट वाली शांति छायी हुयी है और हिन्दुओं का खून खौलाने के लिए जो लोग लगातार सब्सिडी वाली गैस जलाये रखते थे उन्होंने गैस सब्सिडी वापिस कर दी है। सारे फुदकने वाले मैंढक सुसुप्तावस्था को प्राप्त हो गये लगते थे। किंतु सुसुप्तावस्था का भी एक मौसम होता है। जब धन की व्यापक बारिश होने लगी हो तो दादुर कैसे चुप रह सकते थे। सोने से सारा सोना लुट सकता है। जब नींद पूरी हो चुकी हो तो कोई कब तक करवटें बदलता रहे। इसीलिए चादरों के नीचे कुलबुलाहटें शुरू हो गयीं।
सच्चाई यह है कि जग सब रहे थे, पर संकेत कोई नहीं दे रहा था- जो बोले सो दरवाजा खोले। सभी गणेश वाहनों के सामने एक ही प्रश्न था कि बिल्ली के गले में घंटी कौन बाँधे! बाहर कुत्तों के भौंकेने की रिकार्डिंग लगा दी गयी थी  और अन्दर ब्लैक कैट्स, कमांडो बन कर गश्त कर रहीं थीं। बूढों को ज्यादा बूढा बता कर डरा दिया गया था, बहुएं यह कहते हुए ताने देने लगी थीं कि इन्हें बड़ी जवानी चढ रही है, सीधी तरह घर में बैठ कर राम का नाम नहीं लिया जाता। बाहर निकल कर आयेंगे तो कहेंगे कि घुटने पिरा रहे हैं थोड़ा तेल गरम कर दो। मार्ग दर्शक मंडल का सम्मानजनक प्रतीक क्या दे दिया, रस्ता नापने चल देते हैं। रथयात्रा में क्या कम रस्ता नापा था! अब घर में बैठें और मन ही मन, मन की बातें करते रहें। एकाध बुड्ढे को तो समझ में आ गया कि उन्हें ब्रेन डैड मान लिया गया है। अब समस्त बुजुर्ग तो मध्य प्रदेश के उन बुजुर्ग सांसद की तरह नहीं हो सकते जो मुख्य सचिव जैसे पद पर रहने के बाद भाजपा में आये थे व दो बार सांसद चुने गये थे, पर जिन्हें पार्टी से उपेक्षा पाकर आत्महत्या करना पड़ी थी। सुर्खियों और फ्लैश लाइटों के बीच रह कर जवानी काट देने के बाद बुढापे में निष्क्रिय हो जाना सब के बूते की बात तो नहीं होती।  मुक्तिबोध की कविता भूल-गलती का सा दृश्य –
खामोश !! सब खामोश मनसबदार शाइर और सूफ़ी, अल गजाली, इब्ने सिन्ना, अलबरूनी आलिमो फाजिल सिपहसालार, सब सरदार हैं खामोश !!
सब से पहले बाहर वालों ने कोयल की तरह कूक मारी। गोबिन्दाचार्य ने भूमि अधिकरण कानून को लूट का कानून बताया। फिर वे अरुण शौरी बोले जिन्हें राजनाथ सिंह की अध्यक्षता के समय हम्पी डम्पी और एलिस इन वंडरलेंड की याद आयी थी, उन्होंने अब कहा कि पार्टी को तीन तिलंगे चला रहे हैं जिनके नाम मोदी अमित शाह और जैटली हैं। बाकी सब खामोश हैं। फिर अभयदान प्राप्त बुजुर्ग जेठमलानी बोले कि उनका मोह भंग हो गया है और किसी भ्रष्ट सरकार को ही भ्रष्ट न्यायधीशों की जरूरत होती है। इस खामोशी में अन्दर से जो कोई सबसे पहले बोला वह ‘खामोश’ कहने के लिए ही जाना जाने वाला कलाकार था जिसका कुछ भी दाँव पर नहीं लगा हुआ था।
मोह गया माया गई, मनुआ बेपरवाह,
जाको कछु नहिं चाहिए, सो ही शाहनशाह    
एक बच्चा ही ताली बजा कर राजा को नंगा कह सकता है। इससे जब जगार मच गयी तो चादर के नीचे नीचे से आवाजें आने लगीं। हिम्मत जुटायी पुराने होम सेक्रेटरी ने जिनको पुराने पुलिस के दिनों का भ्रम था और भाजपा में सम्मलित होकर भी जिनके अन्दर शर्म शेष रह गयी थी, कहा कि किसी भगोड़े की पक्षधरता सरकार के लिए ठीक नहीं। अडवाणी जी बोले कि ऐसी दशा में मैं होता तो स्तीफा दे देता।
स्बसे अधिक अशांत तो तो शांताकुमार हो गये उन्होंने तो पार्टी के न बोल पाने सदस्यों की ओर से पार्टी अध्यक्ष को चिट्ठी ही लिख दी कि व्यापम के भार से सारे पार्टी कार्यकर्ताओं के सिर शर्म से झुक गये हैं। जब उनकी चिट्ठी को पुंगी बना कर यथास्थान फाइल करा दिया गया तो उन्होंने उसे लीक करा दिया। उस लीकेज से जो बदबूदार गैस निकली तो चारों दिशाओं में बदबू बिखेर गयी। वे चाहते थे कि मंत्री पद नहीं तो पार्टी के आंतरिक लोकपाल की ही जिम्मेवारी दे दी जाती। वैसे पिछला अनुभव उनका भी अच्छा नहीं था। उनकी बहुत फूं फाँ के बाद भी अनुशासन समिति के अध्यक्ष रहे शांता कुमार के कहने पर येदुरप्पा को नहीं हटाया गया था। भाजपा ने तो उन की बात पर ध्यान देना तब से ही छोड़ दिया था जब गुजरात में मुसलमानों के नरसंहार के बाद मोदी के लिए उन्होंने कहा था कि लाशों पर राजनीति करने की वजाय वे होते तो तत्काल त्यागपत्र दे देते। वैसे वे वैंकैया नायडू और राजनाथ सिंह के विभागों पर टिप्पणी करके खुद भी बर्खास्तगी झेल चुके हैं। बाद में हलचल ऐसी तेज हुयी कि शांता कुमार पर भी पंजाब के पूर्व मंत्री ने आरोप लगा दिया कि उन्होंने अपने चुनाव के दौरान जो पैसा पंजाब से लिया था उसका हिसाब पार्टी को नहीं दिया।
       मध्य प्रदेश में मलाईदार विभागों से लाभ न पा सकने वाले कार्यकर्ता व्यापम की रक्षा हेतु सक्रिय नहीं हो पा रहे हैं। वे कह रहे हैं कि मलाई दूसरे खायें और लठैती हम करें- खीर में सौंझ महेरी में न्यारे।
       निरंतर जागते जा रहे अशांता कुमारों की भाजपा में पहले भी शांति नहीं सन्नाटा था और अब वह भी टूट रहा है।       

व्यंग्य आदेश का आकार



व्यंग्य
आदेश का आकार
दर्शक
पता नहीं क्यों बात बात में अतीत की ओर लौट कर पुराणों में वर्तमान समय की चुनौतियों का हल तलाशने वाले, गणेश की मूर्ति में मानव धड़ पर लगे हाथी के सिर को शल्य चिकित्सा का अग्रदूत समझने वाले,  कथित सांस्कृतिक परिवार के लोग भावना का महत्व नहीं समझते और स्थूल को पकड़ कर बैठ जाते हैं। हमारे पुराणों में एक कथा आती है कि एक व्यक्ति अपनी गरीबी से तंग आकर चोरी करने के लिए निकला तो उसे रास्ते में शिव मन्दिर मिला। वहाँ जब उसे चुराने को और कुछ नहीं मिला तो उसने उस मन्दिर का घंटा चुराने का फैसला किया। घंटा ऊँचाई पर लगा था इसलिए उसने पैरों को शिव पिण्डी पर जमाया और घण्टा उतार लिया। इसी बीच वह व्यक्ति चुराते हुए वह पकड़ लिया गया और उसे तुरंत मृत्युदण्ड दिया गया क्योंकि उन दिनों आज की तरह की न्याय व्यवस्था नहीं थी कि बीस साल में फैसला हो और वह भी विवादास्पद रहे। कथा कहती है कि उसके मरने के बाद जब वह अंतिम उच्चतम न्यायालय में पहुँचा तो उसे स्वर्ग दिया गया। इस फैसले पर जब एक दूत ने धर्मराज से सवाल किया तो उन्होंने बताया कि लोग तो पिण्डी पर एकाध फूल, बेलपत्र आदि चढा कर अपने कर्तव्य की इतिश्री मान लेते हैं किंतु उसने तो अपना सर्वस्य ही पिण्डी पर चढा दिया था इसलिए उसकी भावनाओं  का महत्व है और उन्हें ही देखते हुए उसे स्वर्ग में स्थान मिला।
यह कहानी भावनाओं के सम्मान को दर्शाती है। भाजपा मध्य प्रदेश काँग्रेस के नेताओं द्वारा किये गये कामों की आलोचना करते हुए उसके भावनात्मक पक्ष की उपेक्षा कर रही है। भाजपा नेता अपने ऊपर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों के जबाब में प्रतिआरोप लगा रहे हैं कि काँग्रेस शासन काल में सिगरेट की पन्नियों पर नियुक्तियां हो जाती थीं। उनकी निगाह में कागजों के आकार का बड़ा महत्व है। दूसरे प्रतिआरोपों की तरह उनका यह आरोप थोड़ा सा भिन्न है। यह कागज की गुणवत्ता पर प्रकाश फेंकता है। अगर साहित्यिक आलोचनाओं में यही पद्धति विकसित हो जाये तो कैसा रहे? जिस साहित्यकार को महान बताना हो तो कह देंगे कि वह टैब्लाइज्ड आकार की कागज़ पर लिखता था और जिसको कमतर बताना हो तो कह देंगे कि इसे तो लैटर साइज के कागज़ पर लिखने की आदत थी। सम्भावनाएं देखते हुए ए-4, लीगल, और जूनियर लीगल के रूप में बताया जा सकता है। कागज़ की क्वालिटी की चर्चा की जा सकती है।  
गोपालदास नीरज कहते हैं-
कांपती लौ, ये सियाही, ये धुँए का जल
ज़िन्दगी मेरी इन्हीं गीत बनाने में कटी
कौन समझे मेरी आँखों की नमी का मतलब
ज़िन्दगी वेद थी पर ज़िल्द बंधाने में कटी
जिन पर प्रवेश परीक्षाओं और भरती घोटालों के करोड़ों रुपयों के आरोप लगे हैं, वे इस बात को मुद्दा बना रहे हैं कि सिगरेट की पन्नियों पर नियुक्तियां दी गयीं। जिस समय ये नियुक्तियां दी जा रही थीं, पता नहीं उस समय भाजपा वाले चिलम पी रहे थे या हुक्का! खबरें तो ये भी हैं कि उस समय भी ये हैसियत के अनुसार जूठे दोने चाट कर खुश हो लेते थे। अभी भी अवसर देख कर काँग्रेस से भाजपा, और भाजपा से काँग्रेस में आना जाना ऐसे लगा रहता है जैसे सावन के महीने में लड़कियां मैके आती जाती रहती हैं। गोत्र अलग अलग हैं, पर जात तो एक ही है। उचित मौके पर काँग्रेस से उचटकर भाजपा में जाने वाले सीधे सांसद व मंत्री पद पर ही चिपकते हैं और बेदाग हो जाते हैं। टकराव ईमानदारी और भ्रष्टाचार का नहीं है अपितु भ्रष्टाचार की प्रतियोगिता में आगे पीछे होने का है। तुम डाल डाल हम पात पात।
नईम साहब की पंक्तियां हैं-
वो तो ये है कि आबो-दाना है
बरना ये घर कसाई खाना है
आप झटका, हलाल के कायल
जान तो लोगो मेरी जाना है
सो पन्नियों पर लिखने वालों की सराकर हो या परचों के सौदे करने वालों की सरकार हो, जान तो निरीह जानवर की तरह जनता की ही जाना है।