रविवार, 30 जुलाई 2017

व्यंग्य ........... और अब लेखक मोदी

व्यंग्य
........... और अब लेखक मोदी
दर्शक
यही कमी रह गयी थी सो वो भी पूरी हुयी जाती है। अब प्रधानमंत्री मोदी का लेखक अवतार सामने आने वाला है। बचपन में मगर पकड़ने वाले बहादुर मोदी जी खुद को चाय बेचने वाला तो बताते हैं, पर कोई ऐसा सामने नहीं आया जिसने उनके हाथ की चाय पी हो। पिछले दिनों तो वे जिस भी प्रोफेशन के कार्यक्रम में जाते थे तो यह कहते थे कि बचपन में मैं यही बनना चाहता था। गज़ब तो यह हुआ कि आईएएस अधिकारियों की सभा में भी कह दिया कि आप लोगों के साथ मेरा इतना साथ हो चुका है अगर में राजनीति की जगह आईएएस हो गया होता तो अब तक इसके बड़े कैडर पर पहुँच गया होता।
बहरहाल मोदीजी की किताब आने वाली है। और यह किताब शिक्षा व्यवस्था पर आने वाली है। पर शायद मैं इसे गलत वर्गीकृत कर रहा हूं, यह शिक्षा व्यव्स्था पर नहीं अपितु कह सकते हैं लाइफ मैनेजमेंट पर है। शिक्षा तो ज्ञान प्राप्ति के लिए भी ली जा सकती है किंतु यह पुस्तक बच्चों को परीक्षा के तनाव से बचाने के नुस्खों पर है। आप मजाक में मत लीजिए किंतु ऐसी पुस्तक लिखने के लिए देश में मोदी जी से अधिक सुपात्र और कौन हो सकता है जिसने परीक्षा के लिए कभी तनाव मोल नहीं लिया। मुख्य मंजिल सफलता है और जिसके लिए अगर डिग्री की जरूरत भी हो तो उसके लिए परीक्षाओं का तनाव लेना क्यों जरूरी है? राहत इन्दौरी का एक शे’र है-
क्या जरूरी है कि ग़ज़लें भी खुद लिखी जायें
खरीद लायेंगे कपड़े कपड़े सिले सिलाये हुये
मूल लक्ष्य है सफलता, वह जैसे भी मिले, इसलिए तनाव मत लो! और जो लेते हैं वे मोदी की किताब पढ कर तनाव मुक्त हो लें।
राम भरोसे को नौकरी के लिए बीए की डिग्री की तुरंत जरूरत थी सो उसने नकली डिग्री बेचने वाले का पता लगाया, और बिल्कुल असली इंतजाम वाली डिग्री खरीद लाया और नौकरी कर ली। जाँच वगैरह सब हुयी पर सब ठीक निकला क्योंकि डिग्री बेचने वाले ने सारी व्यवस्था की हुयी थी। कुछ दिनों बाद जब उसे प्रमोशन की चिंता सताने लगी सो उसने सोचा कि एम.ए. कर लिया जाये। ठीक समय पर उसने विश्वविद्यालय में बीए की डिग्री के आधार पर फार्म भर दिया। पर जाँच में बीए की नकली डिग्री पकड़ ली गयी, बड़ी मुश्किल पेश आयी और वह मुँहमांगी रकम देकर मुश्किल से छूट पाया। गुस्से में वह बीए की डिग्री बेचने वाले के पास गया और सारी घटना बतायी तो वह बोला कि तुम तो मूर्ख हो। तुम्हें एम.ए. का फार्म भरने की क्या जरूरत थी, जैसे बीए की डिग्री खरीद कर ले गये थे, वैसे ही एम.ए. की ले जाते।
तनाव मुक्ति का इससे अच्छा उपाय और क्या हो सकता है? वह तो अच्छा हुआ कि मोदी ने किताब लिखने का फैसला कर लिया, नहीं तो राम भरोसे को लिखना पड़ती।
अयोध्या वाले मामले में गिरफ्तार लालकृष्ण अडवाणी को झाँसी के पास माताटीला के रैस्ट हाउस में रखा गया था। उनकी देखरेख करने वाले एक अधिकारी साहित्यकार थे। उनसे बातचीत में उन्होंने अडवाणीजी की तारीफ करते हुए कहा कि अदवाणीजी बातचीत कम से कम करते हैं और अधिक से अधिक समय पढने में बिताते हैं। मैं प्रभावित हुआ और यह बात मैंने कामरेड शैली को बतायी। शैली जी हँसे और बोले बात तो सच है कि वे पढते रहते हैं पर वे स्वेट मार्टिन जैसों की ‘सफल कैसे हों’ जैसी किताबें पढते हैं। यह बात सच थी।
एक प्रकाशक ने पिछले दिनों बताया था कि पुस्तक मेलों में साहित्य नहीं अपितु कैरियर, कम्प्टीशन, कुकिंग, गार्डनिंग, और ज्योतिष की किताबें ज्यादा बिकती हैं। अगर लेखकों को पुरस्कार, और सरकारी पुस्तकालयों की खरीद न हो तो साहित्य वही छपेगा जिस पर रायल्टी खत्म हो चुकी है।

मोदी जी ने सही कहा था कि उनके खून में व्यापार है। पुस्तक लिखने के लिए उन्होंने सही विषय चुना और अच्छा किया कि गैर सरकारी प्रकाशक चुना। ममता बनर्जी भी तो अपनी पेंटिंग्स ऐसे ही बेचती रही हैं, पता नहीं आजकल दार्जलिंग या बशीरहाट क्या पेंट कर रही हैं!   

व्यंग्य कफन की दुनिया

व्यंग्य
कफन की दुनिया
दर्शक
रजनीश ने कहा है कि जब भी किसी की मृत्यु की बात होती है तो आदमी गम्भीर हो जाता है। उसके दहशत में आ जाने का कारण यह होता है कि उसे अपनी मौत याद आ जाती है। बकलम कृष्ण बिहारी नूर वह जानता है-
मौत ही ज़िन्दगी की मंज़िल है / दूसरा कोई रास्ता ही नहीं
पर चचा गालिब पहले ही इस बैचैनी को भाँप गये थे और उन्होंने सवाल कर दिया था-
मौत का एक दिन मुअइन है / नींद क्यों रात भर नहीं आती
बहरहाल मौत की संवेदनशीलता का लाभ लेते हुए कवियों शायरों ने खूब बाज़ार सजाये हैं। नीरज का मृत्युगीत ऐसा ही था जिसने कठोर से कठोर व्यक्ति को द्रवित कर दिया था। वही नीरज व्यक्ति की धन लिप्सा पर कठोर टिप्पणी करते हुए कहते हैं कि-
सोने का ये रंग छूट जाना है
हर किसी का संग छूट जाना है
और जो रखा हुआ तिजोरी में
वो भी तेरे संग नहीं जाना है
आखिरी सफर के इंतज़ाम के लिए
जेब इक कफन में भी लगाना चाहिए
कफन की यही जेब अब राजनेताओं की धनलिप्सा पर टिप्पणी करते हुए कही जाये तो गलत नहीं होगी, पर यदि यह वस्तुगत [आब्जेक्टिव] से विषयगत [सब्जेक्टिव] हो जाती है तो फिर विवाद बन जाती है। फिर यह हमारी जेब तुम्हारी जेब बन जाती है। तुम्हारी जेब हमारी जेब से बड़ी क्यों? नितीश ने भाजपा से गलबहियां करने की शर्मिंदगी से बचने के लिए लालू प्रसाद एंड फेमिली की धनलिप्सा पर कहा कि कफन में जेब नहीं होती। इसके जबाब में हाजिर जबाब और चुटीली टिप्पणियों के लिए मशहूर लालू प्रसाद ने कहा कि नितीश के कफन में तो झोला है। यह जाट के सिर पर खाट और तेली के सिर पर कोल्हू वाली कहानी हो गई। तुक मिले न मिले पर बोझ तो लगेगा।
जेब से याद आया कि भारत देश में सिले हुए कपड़े पहिनने का चलन मुगल काल से प्रारम्भ हुआ। इससे पहले तो लपेटे जाने वाले कपड़ों का चलन था। कफन भी उसी काल का प्रोडक्ट है। मुहरों या सिक्कों की पोटली होती थी जिसे टेंट में खोंसा जाता था। महिलाओं को सम्पत्ति का अधिकार नहीं था इसलिए उनके जो कपड़े बनाये गये उनमें जेब नहीं होती थी। कभी किसी सिक्के को सुरक्षित रखने के लिए उसे धोती की गांठ में बांधना पड़ता था।
लालू की जेब तलाशी तो सीबीआई ने लेकर सबको बता दी, पर पता नहीं उन्होंने नितीश का झोला कहाँ से देख लिया। वैसे अपने झोले का पता तो नरेन्द्र मोदी ने बता दिया था, और कहा था वे तो फकीर आदमी हैं, जब जी चाहेगा, झोला उठा कर चल देंगे। यह फकीराना अन्दाज़ भी अज़ीब है, जो सब कुछ छोड़ सकता है, पर झोला नहीं छोड़ सकता। इस झोले में क्या है, और यह कहाँ तक जायेगा? युधिष्टर तो अपने कुत्ते को स्वर्ग में साथ ले गये थे, अब हो सकता है कि कुत्ते की जगह झोला आ गया हो।

कफन में जेब नहीं हो सकती, पर जेब में कफन हो सकता है। यह तो पता नहीं कि जो लोग सिर पर कफन बाँध कर किसी पवित्र लक्ष्य को लेकर निकलते थे, उनका कफन पगड़ी ही बना रहा या कभी काम में भी आया। समाज के लिए काम करने वाले शायद यह अपेक्षा भी नहीं रखते थे इसलिए अपना कफन पहले से ही तैयार रखते थे। कुछ दशक पूर्व तक तो ऐसे कफनों में जेब नहीं होती थी पर भविष्य में तो अमेजन और फ्लिपकार्ट जैसी कम्पनियां तरह तरह के डिजायन वाले कफन आन लाइन उपलब्ध कराने लगें, आदमी मरने से पहले आर्डर कर सकते हैं। हो सकता है कि कुछ लोग तो कफन के सौन्दर्य पर इतने मुग्ध हो जायें कि मरने का पैकेज तलाशने लगें। 

व्यंग्य राष्ट्रपति स्वयंवर

व्यंग्य
राष्ट्रपति स्वयंवर
दर्शक
जो लोग पिछले जमाने के गौरव का बखान करने में ही अपना ये जमाना बरबाद करने पर तुले हैं, वे भी पुराने समय के स्वयंवर की ज्यादा बात नहीं करते जिसमें लड़कियों को वालिग होने का प्रमाणपत्र दिखाये बिना ही अपना पति चुनने का अधिकार था, और इस काम के लिए उन्हें घर से भागने की जरूरत नहीं थी अपितु उनके पूज्य पिता खुद ही गाजे बाजे के साथ स्वयंवर का आयोजन करते थे। अब हाल यह है कि राजस्थान में लड़की द्वारा चुने हुए पति को उसके माँ बाप ने पीट कर मार डाला और उसकी माँ थाने पर जाकर कहती है कि उसे इसका कोई दुख नहीं है। ऐसे समाज का निर्माण किसने किया है कि बेटी के स्वयं वर चयन से माँ बाप की नाक कटती है किंतु हत्या कर के हवालात की हवा खाने और जेल जाने से कुछ भी नहीं कटता। ऐसा वातावरण बनाने वाले कौन लोग हैं? यह सवाल पूछने पर दोहरे चरित्र के सभी लोग कहते हैं कि मैं नहीं हूं, पर अगर वे नहीं हैं तो ऐसी घटनाओं का विरोध करने वालों के स्वर में स्वर क्यों नहीं मिलाते? जब पनसारे, कलबुर्गी आदि की हत्याएं होती हैं तो उनकी आवाज विरोध में क्यों नहीं उठती। जो तटस्थ हैं समय गिनेगा उनका भी अपराध।
भाषा की दृष्टि से सरकार और संसद दोनों ही स्त्रीलिंग हैं जो पति के चयन का काम स्वयं करती हैं। चाहे वह सभापति हो या राष्ट्रपति हो। यह मौसम राष्ट्रपति के चयन का है। पर जिनका पति चुना जाना है उन जनप्रतिनिधियों से कुछ पूछा ही नहीं गया। एक फिल्म में उत्पल दत्त अपने विशिष्ट अन्दाज में अपनी बेटी से कहते हैं- तुम उससे शादी नहीं कर सकती जिसे तुम चाहती हो, तुम्हें उससे शादी करना होगी जिसे मैं चाहता हूं। राष्ट्रपति का चयन करने से पहले लड़की से पूछा ही नहीं जाता अपितु उससे नाम छुपाया भी जाता है। जब बारात आये तब झरोखे से झाँक कर देख लेना। देश भर से आयी गठबन्धन की सुशील कन्याएं अपने पूज्य पिता के चयनित को पति परमेश्वर का दर्जा देने के लिए सिर झुकाये वरमाला लिए नामांकन अधिकारी के कार्यालय में चली जाती हैं। कभी जौहर महमूद की जोड़ी ही सारे काम कर लेती थी, यहाँ तक कि गोआ को आज़ाद भी करा लेती थी। ऐसी ही जोड़ी आजकल गुजरात से आकर दिल्ली में जम गयी है। यह जोड़ी किसी से पूछने और किसी को बताने की जरूरत नहीं समझती। इमरजैंसी के बारे में कहा जाता है कि जब लोगों से झुकने के लिए कहा गया तो वे लेट गये। ऐसे हालात अब भी आ गये हैं इसलिए इमरजैंसी की विधिवत घोषणा की जरूरत ही नहीं रही। राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार कौन होगा, यह किसी को पता नहीं था। नामांकन के खाली फार्मों पर विधायकों से हस्ताक्षर करा के मंगा लिये गये थे और सभी ने सिर झुका कर कर भी दिये थे। इन्दिरा गाँधी के समय में अटल बिहारी वाजपेयी कहा करते थे कि ये राष्ट्रपति इन्दिराजी के यहाँ से आये किसी भी कागज पर आँख मूंद कर दस्तखत कर देते हैं, मैं उनसे कहना चाहता हूं कि महामहिम उसे पढ तो लिया करो, कहीं ऐसा न हो कि वे आपके स्तीफे पर ही दस्तखत करा लें।
एक मार्गदर्शक मंडल है जो पिछले दिनों रस्ता देखता रहा कि कोई आकर उनसे औपचारिक रूप से ही पूछेगा कि बताइए राष्ट्रपति के रूप में कौन ठीक रहेगा पर वे रास्ते पर आँखें टांके देखते रहे, हर आहट पर खटकते रहे पर मार्ग दर्शन तो क्या दर्शन लेने देने ही कोई नहीं आया। कैफ भोपाली ने लिखा है –
कोई न, कोई न, कोई भी न आया होगा
मेरा दरवाजा हवाओं ने हिलाया होगा
घोषणा हो जाने के बाद उम्मीदवार इस तरह से आये जैसे सभी उम्मीदवार अपने वोटरों के पास आते हैं। नामांकन के बाद जब फोटो सेशन हुआ तो अडवाणी मोदी शाह के पीछे खड़े रहे, ठीक समय पर उम्मीदवार को वोटर का खयाल आ गया और उसने वोटर अडवाणी का लाचार हाथ अपने साथ में खड़ा कर दिया। मुनव्वर राना ने कहा है-
हमारे कुछ गुनाहों की सजा भी साथ चलती है
कि हम तनहा नहीं चलते, दवा भी साथ चलती है