बुधवार, 1 जुलाई 2015

व्यंग्य आस्तीन के साँप



व्यंग्य
आस्तीन के साँप



दर्शक

साँप कोई मच्छर नहीं होते कि उनका कोई मौसम हो। वे हर मौसम में पाये जाते हैं ये बात अलग है कि बरसात में साँपों के निवास स्थल में पानी भरने लगता है इसलिए वे बाहर सूखे में निकलने लगते हैं। साँप वैसे तो दुनिया के हर भाग में पाये जाते हैं पर नाग पंचमी मना कर उनकी पूजा करने वालों में हम अद्वितीय हैं। हमारा प्राचीन देश साँपों से इतना जुड़ा रहा है कि हमारी मान्यता के अनुसार पृथ्वी भी भी एक साँप के सिर पर टिकी है और उसके साँस लेने के कारण ही भूकम्प आते हैं। हमारे देवता उसको डबलबैड बना कर उस पर लेटे रहते हैं और पैद दबवाते रहते हैं तो कुछ उन्हें गले में गहनों की तरह पहिने रहते हैं। हमारा साँप प्रेम इतना अधिक है कि हमारे यहाँ कुछ लोगों का फुल टाइम जाब साँप पालना होता है इसलिए उन्हें एक जाति के रूप में पहचाना जाता है और दुनिया हमें सँपेरों के देश के रूप में जानती रही है।   
समस्या यह है कि साँपों का विस्थापन होने लगा है वे बाँबियों की जगह आस्तीनों में रहने लगे हैं। उनसे उम्मीद की जाती है कि वे आस्तीनों में लहरा के चलने की जगह सीधे होकर प्रवेश करें और सीधे होकर ऐसे रहें कि किसी को पता नहीं चले। उनके आस्तीनों में होने का पता तभी चलता है जब वे डस लेते हैं। ऐसी ही एक घटना विकास का मुखौटा लगाये हमारी पुरातत्ववादी पार्टी में घटित हुयी और जब आस्तीन के साँप ने काट लिया तो शोर मचने लगा। जब तक वह डस नहीं लेता तब तक देवता रहता है। उसके सहारे स्वर्ग में स्थान सुरक्षित कराने के अनुष्ठान कराये जाते रहते हैं, पर मरखनी गाय को कोई नहीं पूजता।
साँपों ने हमारे पौराणिक और आधुनिक दोनों ही साहित्यों को बहुत समृद्ध किया है। सुप्रसिद्ध कवि वासुदेव गोस्वामी  ने साँप की तुलना भगवान से की है क्योंकि उनके अनुसार साँप में भी वही गुण हैं जो हम हम भगवान में देखते हैं। उनका कहना था कि साँप भी-
बिन पग चलै, सुने बिन काना, बिन कर कर्म करै विधि नाना
अर्थात वह भी बिना पाँवों के चलता है, बिना कानों  के सुनता है और बिना हाथों के विविध प्रकार के काम करता है, इसलिए भगवान है और इसीलिए पूजनीय है।
जब आस्तीन के साँप निकलने का मौसम आया तो वे जगह जगह से निकलने लगे। कीर्ति आज़ाद द्वारा संकेतों में बताये जाने के बाद भी सब समझ गये कि यह कौन है। और फिर तो कोने कोने से उनकी आवाजें आने लगीं। जो मैढकों की तरह सुसुप्तावस्था में सोये पड़े थे वे भी जरा से छींटे पड़ते ही उछलने लगे। किसी ने कहा कि भ्रष्ट सरकार ही भ्रष्ट ज्यूडिसियरी का चयन करती है तो कोई बोला कि भ्रष्ट भगोड़े को बचाने की कोई जरूरत नहीं। कोई राफेल विमानों का सौदा नहीं होने दे रहा तो कोई भूमि अधिग्रहण विधेयक में पलीता लगा रहा है। विभीषण जैसे भाई भी कहने लगे कि स्मृति ईरानी की डिग्री की जाँच होना चाहिए। शत्रुघ्न सिन्हा शत्रुवत व्यवहार करने लगे। हम्पी डम्पी इन वंडरलैंड आँय बाँय बकने लगे। सरकारी वकील पोल खोलने लगे कि उनसे आतंकियों को बचाने के लिए नरम रुख अपनाने को कहा जा रहा है। शिव सेना ने त्रिशूल निकाल लिये।
उन्हें पता ही नहीं था कि उनकी आस्तीनों में इतने पल रहे हैं और कितने सोये पड़े हैं। जनता को भी कहाँ पता था कि उसने किस को सिर पर बिठा लिया है। जनाब बकलम खुद साहब का दोहा है-
जिसको भी डसने लगें आस्तीन के साँप  
बेहतर है पहिना करें स्लीवलैस पोषाक

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