गुरुवार, 4 अप्रैल 2019

व्यंग्य आंखन देखी और आंखन अनदेखी


व्यंग्य
आंखन देखी और आंखन अनदेखी
दर्शक
कबीर दास जी कह गये हैं कि
जाका गुरु भी अंधला चेला खरा निरंध। 
अंधा अंधा ठेलिया दोनों कूप पड़ंत ।
कबीर अन्धत्व के कारण कुंए में गिर जाने की बात कहते हैं किंतु हर बारह साल में आने वाले कुम्भ में तो किसी को ठेलने की जरूरत नहीं पड़ती सब परम्परा के धक्के से अपने आप ही कूप पड़ंत होते जाते हैं। मजे की बात तो यह है कि अब गुरु और चेले दोनों की देखने वाली आँखें है और उस पर भी दोनों चश्मा चढाये हुये हैं। दोनों ही कुएं या नदी में गिर रहे हैं किंतु उसमें आँखों का कोई दोष नहीं है।
हमारे देश में अन्धत्व की कई श्रेणियां मानी गयी हैं, जिनमें अक्ल के अन्धे भी होते हैं। मानव जाति को जन्मजात अन्धी माना गया है। कहते हैं कि ये जो तुम्हें दिखायी दे रहा है वो तो सब माया है, और सच तो केवल वह है जो आँख बन्द कर लेने के बाद दिखायी देता है। फिर चाहे गठरी पर चोर की निगाहें लगी हों। अंतर्दृष्टि !
मन की आँखें खोल रे तोहे पिया मिलेंगे
वह सब कुछ जो दूसरा कोई नहीं देख सके और ना ही तुम किसी को दिखा सको वही सच है व जो साफ साफ दिख रहा है वह झूठ है।
पंचतंत्र की कहानी में अन्धों के हाथी की चर्चा है जिसमें हाथी के पूरे अंगों की चर्चा है किंतु हाथी के आँखों की चर्चा नहीं है बरना हाथी ने अगर हाथी ने अन्धों को थथोल लिया होता तो कहानी कहने वाला कोई नहीं होता।
हमारे पुराणों में भी अन्धों की अनेक कथाएं मिलती हैं। मजे की बात यह थी कि अनेक मामलों में जोड़े से अन्धे होते थे। श्रवण कुमार के माँ और बाप दोनों ही अन्धे थे और श्रवण कुमार की कांवर पर ऐसे आराम से यात्रा करते थे, जैसे स्लीपर में आरक्षण के साथ यात्रा कर रहे हों। श्रवण कुमार भी आज के सपूतों की तरह नहीं था अपितु कह  सकते हैं कि वह भी भक्ति में अन्धा था- मातृ पितृ भक्ति में अन्धा। आज के दौर का सपूत होता तो वह या तो खुद ही समझ जाता या उसके दोस्त समझा देते कि बेटे जब दोनों ही अन्धे हैं तो तू उन्हें किसी धाम की यात्रा करा दे वे तो हाथ जोड़ कर उसे ही वही धाम समझ लेंगे। तू काहे को अपना टैम खोटी कर रहा है।
 श्रवण कुमार की आँखें तो थीं और कान भी रहे होंगे तभी सुनते सुनते उसका नाम श्रवण कुमार पड़ा होगा, पर उसके दोस्त नहीं रहे होंगे। पुराने जमाने में भाई बन्धु, आदि रिश्ते तो होते थे किंतु दोस्त होने का इतिहास नहीं मिलता द्वापर में एक की चर्चा आती है पर वह सुदामा भी सहपाठी था दोस्त नहीं था। ऊधो को भी चमचा के बराबर ही माना जा सकता है दोस्त नहीं। महाभारत काल में भी धृतराष्ट्र अन्धे थे तो उनकी पत्नी गांधारी ने भी न्याय की देवी की तरह अपनी आंखों पर पट्टी बांध रखी थी और वह तब ही खुलती थी जब किसी बच्चे के शरीर को बज्र का बनाना होता था।
सूरदास ने तो यह साबित कर दिया कि आँखें न होने पर लिखी जाने वाली कविता का कवि सूर सूर्य समान हो सकता है और तुलसी शशि बने रह जाते हैं जो दोनों आँखें होने पर भी सांप को रस्सी समझ लेते हैं, और गंतव्य तक पहुंच जाते हैं।
 कबीरदास साफ साफ कहते थे कि मैं कहता आँखन की देखी। पर कबीर दास जी आजकल आई विटनैस का टोटा पड़ता जा रहा है और लगातार ‘ नो वन किल्लिड जेसिका’ हो रहा है।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें