गुरुवार, 15 दिसंबर 2016

व्यंग्य-- कैश लैस से लैश कैश तक

व्यंग्य
कैश लैस से लैश कैश तक
दर्शक
जो लोग डन्डे को दण्ड कहते हैं, स्कूल को शिशु मन्दिर कहते हैं, यूनीफार्म को गणवेश कहते हैं, रोड शो को पथ संचलन कहते हैं, डीसीएम टोयटा को रथ, डिमोनेटाइजेशन को विमुद्रीकरण कहते हैं, वे भी कैश लैस और लैश कैश की संस्कृतनिष्ठ हिन्दी नहीं कर पाये। संघ परिवारी असल में इतिहास से एक कालखण्ड को विलोपित कर देना चाहते हैं, इसलिए उस कालखण्ड की भाषा, संस्कृति, वास्तु आदि सब को भुला देना चाहते हैं ताकि ‘हिन्दुस्तानियों’ को भाषा का संकट रहे। राहुल गाँधी बड़ी मुश्किल में तो असहिष्णुता बोलना सीख पाये थे और फिर ये विमुद्रीकरण आ गया।
मैंने कुछ दिनों हिप्नोटिज्म के प्रशिक्षण को देखने की कोशिश की थी, जिसमें प्रशिक्षक प्रशिक्षु को [ अगर यह ज्यादा संस्कृत्निष्ठ हो गया हो तो उन्हीं की भाषा में समझें कि मास्टर सब्जेक्ट को ] कुछ अंक भूल जाने का आदेश देता है और उसके आदेश के प्रभाव में वह गिनती में से आदेशित अंक भूल जाता है। मैंने जब यह दृश्य देखा था तब प्रशिक्षक ने सब्जेक्ट को आठ का अंक भूल जाने का आदेश दिया था और फिर दीवार पर लगे कलैंडर में से तारीखें पढने के लिए कहा था। मैं देख कर सचमुच चकित रह गया था कि वह सात तक तो धड़ल्ले से पढ लेता था और आठ आने पर अटक जाता था। संघ परिवार भी चाहता है कि लोग इतिहास के उस कालखण्ड को भूल जायें जिसे इतिहासकारों ने मुगल पीरिय़ड के रूप में वर्णित किया है। यही कारण है कि वे जनता को इस तरह से हिप्टोनाइज करने में लगे हुए हैं कि वे मुगल पीरियड को या तो बिल्कुल ही भूल जायें या फिर उसकी कथित बुराइयां ही याद रखें। पृथ्वीराज चौहान से सीधे गुरू जी के चरणों में गिरते हैं और बीच में याद भी करते हैं तो राणाप्रताप, शिवाजी, या गुरु गोबिन्द सिंह को याद करते हैं।
हिटलर के विचार, उसकी पोषाक, उसके ध्वज प्रणाम, से उन्हें कोई आपत्ति नहीं है किंतु औरंगजेब रोड के नाम पर सड़क भी नहीं हो सकती। भोपाल को भोजपाल करने के लिए एक नकली बुत खड़ा कर देंगे। उनके अखबार का नाम या तो ‘आर्गनाइजर’ होगा या ‘पाँचजन्य’। जब हिन्दुस्तान की जनता अंग्रेजों से लड़ रही थी तब वे मुसलमानों, और कम्युनिष्टों से लड़ने की शिक्षा दे रहे थे। अब जब वे कैश लैश से जूझ रहे थे तब उन्हें फकीर होना याद आना चौंकाता है।
वैसे मोदीजी फकीर का भेष पहले भी धारण कर चुके हैं। यह भेष उन्होंने तब धारण किया था जब इमरजैंसी में गिरफ्तारी का डर पैदा हो गया था। तुलसी दास को पहले ही आशंका थी कि कभी ऐसा होगा इसलिए उन्होंने लिख दिया था-
नारि मुई गृह संपति नासी। मूड़ मुड़ाइ होहिं संन्यासी
[इस दोहे की पहली पंक्ति में जातियां थीं इसलिए हमने भी विलोपित कर दीं, जो फिर भी जिज्ञासु हैं वे तुलसी दास को पढ लें]
कहने वाले तो यह भी कहते हैं कि उस दौरान मोदी अमेरिका चले गये थे पर वे उस कालखण्ड को भी विलोपित कर देना चाहते हैं और सन्यासी के भेष में ही अपने रंगीन फोटो प्रचारित कराते हैं। सन्यासी के लिए तो सबै भूमि गोपाल की। फकीर होना वैराग का नहीं सुविधा का मामला हो गया है। जिन्हें दुनिया में धन वैभव मिलना कठिन हो जाता है वे स्वर्ग में तलाश करने लगते हैं। उधर कबीर के वंशज प्रसिद्ध गीतकार नईम जी की पंक्तियां दूसरी हैं-
काशी साधे नहीं सध रही, चलो कबीरा मगहर साधो


        

सोमवार, 5 दिसंबर 2016

व्यंग्य मुद्रा बहुठगनी हम जानी

व्यंग्य
मुद्रा बहुठगनी हम जानी
दर्शक
बहुत जल्दी एक संशोधन आ सकता है कि हिन्दी में जहाँ जहाँ माया लिखा हो वहाँ वहाँ मुद्रा समझा जाये। उदाहरार्थ – माया मिली न राम – को मुद्रा मिली न राम समझा जाये। चार पाँच घंटे बैक की लाइन में लगे रह कर खाली हाथ लौटने वाला ग्राहक जिसको अपनी मेहनत की कमाई भी निकालने का अधिकार नहीं है क्योंकि सरकार काले धन वालों से उचित कर नहीं वसूल कर पा रही। घरेलू महिलाओं का दोतरफा नुकसान हुआ है। एक तरफ तो उनका गुप्त धन निकल गया और दूसरी ओर जहाँ से यह पैदा होता है वे स्त्रोत सूख गये हैं।
विमुद्रीकरण हमारी भारतीय संस्कृति में देह और आत्मा की धारणा के अनुसार ही हुआ है। आत्मा अमर है, पर देह बदलती रहती है। मुद्रा का स्वरूप बदलता रहता है पर काला धन वही का वही रहता है। नीरज जी कहते हैं-
खोता कुछ भी नहीं यहाँ पर, केवल जिल्द बदलती पोथी
जैसे रात, उतार चाँदनी, पहने सुबह धूप की धोती
चाल बदल कर जाने वालो
वस्त्र बदल कर आने वालो
कुछ चेहरों के खो जाने से, दर्पन नहीं मरा करता है।
नई पंक्तियां होंगीं कि ‘नोट का रंग बदल जाने से काला धन नहीं मरा करता करता है।
 गुलाबी रंगत की साड़ी पहिन लेने से काले धन की आत्मा थोड़े ही बदल जायेगी। आत्मा तो अमर है, न वह मरती है न जलती है न कटती है केवल चोला बदलती है। थोड़े दिनों के लिए बाथरूम में चली जाती है और फिर कपड़े बदल कर इठलाती इतराती हुयी पूछती है कि कैसी लग रही हूं? यह सवाल सवाल की तरह नहीं होता क्योंकि इसका एक ही उत्तर सुना जा सकता है।
भागवत में कथा आती है कि अपने वस्त्र उतार कर नदी में स्नान करती गोपियों के वस्त्र लेकर कृष्ण कदम्ब के पेड़ पर बैठ जाते हैं। नहाने के बाद अपने वस्त्र न पाकर गोपियां बहुत परेशान होती हैं। नये कन्हैया भी मुद्रा रूपी वस्त्रों को ऐसे ही छुपा देते हैं और जनता रूपी गोपियों की परेशानियां देख कर प्रसन्न होते हैं। हमारे पाँच सौ के कहाँ गये, हमारे हजार के कहाँ गये! जनता गिड़गिड़ाती है कि भगवन हम नग्न हो गये हैं, हमारे कपड़े दे दो।
 नीरज जी ही लिखते हैं-
माखन चोरी कर तूने, कम तो कर दिया बोझ ग्वलिन का
लेकिन मेरे श्याम बता, अब रीती गागर का क्या होगा!
युग युग चली अमर की मथनी, तब झलकी घट में चिकनाई
पिरा पिरा कर साँस उठी जब, तब जाकर मटकी भर पाई
एक कंकरी तेरे कर की, किंतु न जाने आ किस दिशि से
पलक मारते लूट ले गई, जनम जनम की सकल कमाई
लेकिन, हे, न शिकायत तुझ से, केवल इतना ही बतला दे
मोती [यहाँ मुद्रा पढें] सब चुग गया हंस तो मानसरोवर का क्या होगा?
मुद्रा, योग और ध्यान की भी होती है। जैसे बगुला पानी में एक टांग पर भगत की मुद्रा में खड़ा रहता है और मछलियों का शिकार करता है। उसी तरह कई बगुला भगत स्थान स्थान पर तरह तरह की मुद्राएं बदलकर शिकार करने में लगे हुए हैं। हमारी भाषा और साहित्य इन मुद्राओं की चर्चाओं से भरा हुआ है। मुँह में राम बगल में छुरी भी ऐसी ही एक मुद्रा की अवस्था को दर्शाता है। ‘राम नाम जपना, पराया माल अपना’ भी जप की एक मुद्रा की ओर संकेत करता है।  मुकुट बिहारी सरोज अपने ‘असफल नाटकों के गीत’ में लिखते हैं-
नामकरण कुछ और गीत का, खेल रहे दूजा
प्रतिभा करती गई दिखाई, लक्ष्मी की पूजा
असफल, असम्बद्ध निर्देशन, दृश्य सभी फीके
स्वयं कथानक कहता है, अब क्या होगा जी के   
दुष्यंत कुमार जी भी लिख गये हैं-
ये रोशनी है वास्तव में एक छल लोगो
कि जैसे जल में झलकता हुआ महल लोगो
दरख्त है तो परिन्दे नजर नहीं आते
जो मुस्तेहक है वही हक से बेदखल लोगो

      जिन्हें चिंतित होना चाहिए वे निश्चिंत हैं और जिन्हें निश्चिंत होना चाहिए वे चिंतित व परेशान हैं। 

व्यंग्य सेना और देश

व्यंग्य
सेना और देश
दर्शक
जिस तरह किसी देश को देश बनाने में एक सीमा की जरूरत होती है उसी तरह से उन सीमाओं को बनाये रखने के लिए एक सेना की जरूरत होती है।
सेना को बनाये रखने के लिए भी किसी चीज की जरूरत होती है जिसे सरकार कहते हैं। लोकतंत्र में सरकार को चेतना सम्पन्न जनता चुनती है पर अगर जनता की चेतना के पहले ही लोकतंत्र आ जाता है तो जनता को सरकार चुननी पड़ती है। जैसे कोई बीमार बच्चा दवाई नहीं खाता तो घर के सारे लोग उसके हाथ पाँव पकड़ कर उसका मुँह खोल कर जबरदस्ती दवा डाल देते हैं। इस क्रम में बच्चे का मुँह खोलते समय दवा पिलाने वाले का भी मुँह भी वैसा ही खुल जाता है और वह तब ही बन्द होता है जब बच्चा दवा पी लेता है। अब ठीक है। वोट लेने के बाद नेता भी ऐसे ही वोटर की पीठ थपथपा देता है, अब जाओ, हो गया।
लोकतंत्र के ये बीमार बच्चे पहले बहुत ठन-गन करते हैं इसलिए नकारा खाँटी नेताओं को इनके हाथ पाँव पकड़ने के लिए अपनी अपनी सेनाएं रखनी पड़ती हैं। बहुदलीय लोकतंत्र में दल से ज्यादा दलदल होता है इसलिए सेनाएं भी बहुत सारी होती हैं। भाजपा जैसे कुछ दल तो सेवकों जैसा मुखौटा लगा कर बन्दूक तलवार लाठी वाली सेना रखते हैं तो उनके नीचे कुछ श्री राम सेना, बजरंग दल आदि जैसी सेनाएं पलती रहती हैं। कुछ दलों ने तो अपने नाम में ही सेना जोड़ लिया है जैसे ‘शिव सेना’, ‘महाराष्ट्र नव निर्माण सेना’ दलित सेना, ब्राम्हण सेना रणवीर सेना, परशुराम सेना वगैरह, वगैरह। देश में इतनी सेनाएं हो गई हैं कि लोग उन सेनाओं से चिढने लगे हैं जो किसी की राजनीति चलाने के लिए स्थापित हो गई हैं।
सेनाओं का काम लड़ना होता है वे शांति बनाये रखने के नाम पर भी लड़ती हैं और अपना नाम पीस कीपिंग फोर्स रख लेती हैं। सैनिक बन्दूक की नली गले पर रख कर कहता है – साले शांति बनाये रखना नहीं तो गोली ऊपर से नीचे उतार दूंगा। अपनी अपनी संस्कृति के अनुसार कई बार सैनिक गोली नीचे कहाँ से निकलेगी यह भी बता देता है, ताकि कोई यह न कह सके कि पहले बताया नहीं।
देश की सेनाओं का महत्व कम करने में उन राजनीतिक दलों की सेनाओं का बड़ा हाथ है जो दलाली करते हुए भी सैनिक बने घूमते हैं। सेना तो दुश्मन से लोहा लेती है पर महाराष्ट्र की एक सेना तो देश की व्यापारिक राजधानी मुम्बई के व्यापारियों और फिल्म निर्माताओं से सोना लेती है। हम कह सकते हैं कि लोहा लेने वाली सेना और सोना लेने वाली सेना। जैसे अहिंसा धर्म की रक्षा करने वाले भी कई राजनीतिक सेनाओं को पालते पोसते रहते हैं उसी तरह निर्माण ही नहीं नव निर्माण करने वाली सेना भी महाराष्ट्र में है। ये उन अस्सी प्रतिशत गौ सेवकों की तरह हैं जिन्हें देश के प्रधानमंत्री ने गुंडे बतलाया है और यह जानते हुए भी कोई कार्यवाही करने की बात नहीं की। ये सैनिकों के नाम पर फिल्म निर्माताओं को दबाने का काम करते हैं। इन्हें कभी किसी फिल्म में कला नहीं दिखती केवल धार्मिक भावनाओं की ठेस दिखती है या पाकिस्तान दिखता है क्योंकि इसी सहारे इनका धन्धा चलता है। शत्रु देश पाकिस्तान के कलाकारों को साथ लेकर बनने वाली फिल्म का विरोध करके महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री की मध्यस्थता के साथ सौदा कर लिया जिसकी प्रकट शर्त यह थी कि वे सेना राहत कोष में पाँच करोड़ देकर फिल्म रिलीज कर सकते हैं पर अन्दर अन्दर क्या सौदा हुआ यह सामने नहीं आया। वह तो अच्छा रहा कि असली सेनाओं के अधिकारियों ने असली सैनिकों के कल्याण के लिए ऐसे किसी धन को लेने से साफ इंकार कर दिया।
इससे सेना और सेनाओं का फर्क स्पष्ट हुआ।