व्यंग्य
हाथ की सफाई की बात
दर्शक
एक
होता है चुनाव चिन्ह। जो लोग मतदान के अधिकार का प्रयोग अक्षरों के रास्ते करना
नहीं जानते वे भी दूर से चुनाव चिन्ह देख कर उस पर मुहर लगाते रहे हैं और अब तब तक
बटन दबा कर जब तक बकौल श्री लालू परसाद मशीन की चीं न बोल जाये, लोकतंत्र के
महादान में अपना योगदान करते रहे हैं। अपना पढने वाला चश्मा घर भूल आने वाले
साक्षर लोग भी चुनाव चिन्ह देख कर मतदान कर सकते हैं। सो सभी चुनाव लड़ने वाले
लोगों और उनकी पार्टी को एक चुनाव चिन्ह की आवश्यकता होती है। काँग्रेस के लोग कभी
संघियों से ज्यादा चतुर होते थे सो उन्होंने उनकी पार्टी द्वारा मांगे जा सकने
वाला चुनाव चिन्ह पहले ही उसी तरह हथिया लिया था, जिस तरह भाजपा ने 2014 के आम
चुनाव में काँग्रेस के प्रत्याशियों को हथिया लिया था। तब गौवंश से जुड़ी दो बैलों
की जोड़ी उनका चुनाव चिन्ह था। तब खेती भी हल बैलों से होती थी इसलिए ज्यादातर लोग
बैलों को पहचानते भी थे। आज तो बैल के नाम पर उन्हें शेयर बाज़ार का फनफनाता सांड़
नजर आता है। कुछ साल बाद उन्हें अपना चुनाव चिन्ह बदलने की जरूरत पड़ी तब भी
उन्होंने गौ माता को भाजपाइयों के हत्थे नहीं चढने दिया और अपना चुनाव चिन्ह गाय व
बछड़ा बना लिया। बछड़ा भी दूध पीता हुआ था जैसे काँग्रेस के लोग सरकार रूपी गाय का
दूध पीते रहते बड़े हुये हैं। कुछ वर्षों बाद काँग्रेस को फिर से चुनाव चिन्ह बदलना
पड़ा तो उन्होंने अपना चुनाव चिन्ह हाथ के पंजे को बना लिया जिसमें कभी बहुत स्पष्ट
भाग्य रेखा हुआ करती थी। एक बार इन्दिरा गाँधी ने बताया था कि देश के लोग कितने
नासमझ हैं, जब मैंने उनसे हाथ के पंजे पर मुहर लगाने की अपील की तो उन्होंने हमारी
बात तो मानी और हाथ के पंजे पर मुहर लगायी पर वह मतदान पत्र पर बना हाथ का पंजा
नहीं था अपितु उन्होंने अपने हाथ के पंजे पर मुहर लगा ली थी।
सो इसी गति
से हमारा लोकतंत्र आगे बढता भया और बढते बढते भाजपा ने हाथ की सफाई कर दी।
उन्होंने यह हाथ की सफाई भी हाथ की सफाई दिखाते हुए की। जैसे सारे जादूगार हाथ की
सफाई दिखा कर चीजों को गायब कर देते हैं वैसे ही उन्होंने काँग्रेस को साफ कर
दिया। वे जान गये थे कि अगर जेब साफ करना है तो हाथ की सफाई के साथ ध्यान बँटाने
का खेल खेलना होता है। जैसे टिकिट खिड़की पर लगी लम्बी लाइन में जेब कतरों का कोई
साथी कहता है कि अरे मेरी तो जेब कट गयी तो लाइन में लगे सारे लोगों का हाथ अपने अपने
बटुए वाली जेब पर जाता है जिसे जेबकतरे के लाइन से बाहर खड़े साथी देख लेते हैं और सुपात्र
के पीछे लग जाते हैं। सो हमारी वर्तमान सरकार भी लगातार ध्यान बँटाने में लगी हुयी
है। कभी इस मुँह से तो कभी उस मुँह से अपान वायु निकाल रहे हैं और लोगों का ध्यान
दूसरी तरफ मोड़ देते हैं।
हमारे सही
जन्मतिथि वाले जनरल ने किसानों की ज़मीन अधिग्रहण के सवाल और मौसम की मार के बाद
मुआवजा मार लेने की आवाज दबाने के लिए सीधे मीडिया को वह कह दिया जो वो सुनना नहीं
चाहता था। सो उसने अपना सारा ध्यान यह सिद्ध करने में लगा दिया कि वो, वो नहीं है
जो उसे बतलाया जा रहा है। आज से पचास साल पहले एक फिल्म आयी थी जिसमें एक गाना था-
औरत ने जन्म दिया मर्दों को, मर्दों ने उसे बाज़ार दिया, जब जी चाहा कुचला मचला, जब
जी चाहा दुत्कार दिया..........। जब इसी मीडिया ने कड़कड़े नोटों के बदले इस सरकार
को पैदा होने में मदद दी तो अब कैसे कह सकते हैं कि वो, वो नहीं है। कभी खुद को
मोदीजी का खास आदमी बताते हुए हाफिज सईद का साक्षात्कार लेने के नाम पर भेंट करने
वाले वैदिक ज्ञानी कह रहे हैं कि सभी वैसे नहीं हैं और कुछ की समझ तो देश के
राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री से भी ज्यादा है। जाहिर है कि वे खुद को इसी श्रेणी
में गिनते होंगे, तभी तो उन्होंने पाकिस्तान में खुद को पी एम का खास बताया था।
राजनीति में
प्रतिशत का बहुत महत्व होता है सो मंत्रीजी ने भी वैदिकजी की बात मानते हुए कह
दिया कि उनका मतल्ब सभी पत्रकारों से नहीं था वे तो केवल दस प्रतिशत पत्रकारों के
लिए कह रहे थे। यह बयान की कला है। इससे हर पत्रकार खुद को दस प्रतिशत में मानकर
शेष को नब्बे प्रतिशत का कह सकता है और इस तरह कोई भी प्रैस्टीट्यूट नहीं रह जाता
और सभी हो जाते हैं। सिंह साहब राजनीति की कला सीखते जा रहे हैं। हाथ की सफाई।
बहरहाल प्रतिशत कुछ भी हो पर जिन मीडिया वालों ने रजाई ओढ कर घी पिया है उन्हें
समझ लेना चाहिए कि ज्यादा चूं चपड़ करने पर जाते जाते उनकी जानकारी भी सार्वजनिक हो
सकती है।