गुरुवार, 12 मई 2016

व्यंग्य- डिग्री एक खोज- नरेन्द्र दामोदर दास

व्यंग्य
डिग्री एक खोज – नरेन्द्र दामोदर दास
दर्शक
राजस्थान सरकार ने स्कूल की पाठ्यपुस्तकों में से जवाहरलाल नेहरू का पाठ हटा दिया है।
यह मोदी युग है। जवाहरलाल नेहरू विद्वान थे और लेखक थे, प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन में वे मुख्य अतिथि के तौर पर बुलाये गये थे। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान जेल में उन्होंने अनेक पुस्तकें लिखी थीं उनमें से एक का नाम था- भारत एक खोज। नरेन्द्र मोदी को जब इमरजैंसी में जेल जाने का मौका आया तो पहले बताया गया था कि वे सन्यासी का रूप धर कर हिमालय चले गये थे, पर अब सामने आ रहा है कि उन्होंने इस दौरान डिग्रियां प्राप्त करने के लिए अध्ययन भी किया जिसके फलस्वरूप दिल्ली विश्व विद्यालय से तृतीय श्रेणी में बी.ए. किया। शायद अपने प्रधानमंत्री की श्रेणी की इसी शर्म के कारण विश्व विद्यालय ने उनकी डिग्री के बारे में बताने से इंकार कर दिया होगा, पर जिन खोजा तिन पाइयां वाले आर टी आई कार्यकर्ताओं ने अंततः उगलवा ही लिया। मोदीजी अगर लेखक होते तो वे लिखते, ‘डिग्री एक खोज’ ।  
पहले डिग्री न दिखाने का कोई कारण न बताते हुए और उत्तीर्ण होने के वर्ष में नजर आती भूल के बारे में विश्वविद्यालय ने कहा कि यूनीवर्सिटी से छोटी मोटी गल्तियां हो जाती हैं। उनकी पूरी शिक्षा से सम्बन्धित अंक सूची के कम्प्यूटराइजेशन, उत्तीर्ण होने के वर्ष, स्नातकोत्तर डिग्री में विषय आदि के बारे में भक्तों का कहना है कि भगवान पर शंका नहीं करना चाहिए। उसके सामने आँखें ही नहीं खोलना चाहिए।
माना तुम्हारी दीद के काबिल नहीं हूं मैं [यहाँ दीद की जगह डिग्री पढें]
पर मेरा शौक देख, मेरा इंतजार देख
उन्हें पत्नी बच्चों की माया पसन्द नहीं थी, नौकरी करनी नहीं थी, पर डिग्री चाहिए थी।
देश में एक बड़े व्यंग्य कवि हुए हैं स्व. श्री वासुदेव गोस्वामी, जो मध्य प्रदेश के दतिया में रहते थे। उन्होंने एक घटना सुनायी थी। एक व्यक्ति पढ नहीं पाया था पर उसके एक परिचित ने कहा कि अगर तुम्हारे पास बी ए की डिग्री होती तो मैं तुम्हारी नौकरी लगवा देता। उसे पता था कि राजधानी में कहीं कोई व्यक्ति नकली डिग्री बेचता है सो वह अपनी जमा पूंजी समेट कर राजधानी चला गया और बिल्कुल असली नजर आने वाली बी.ए. की डिग्री खरीद कर लाया जिसके सहारे उसकी नौकरी लग गई, आगे प्रमोशन भी हो गया। कुछ वर्ष बाद अगले प्रमोशन को ध्यान में रख कर उसने सोचा कि क्यों न एम.ए. कर लिया जाय, सो उसने एम.ए. का फार्म भर दिया। उस फार्म की स्क्रूटनी में उसकी बी.ए. की नकली डिग्री पकड़ में आ गई। पहले तो वह घबराया, पर उसकी नौकरी के अनुभव उसके काम आये और उसने ले देकर किसी तरह अपना फार्म वापिस करा लिया। मामला सुलट जाने के बाद वह राजधानी में नकली डिग्री बनाने वाले के पास गया और उससे बोला कि तुमने इतने सारे पैसे लेकर कैसी डिग्री दी कि मैं एम.ए. में भी नहीं बैठ सका व बड़ी मुश्किल से अपनी जान बचायी है।
आत्मविश्वास से भरा हुआ नकली डिग्री बनाने वाला बोला- तुम तो बेबकूफ हो! तुम्हें एम.ए. का फार्म भरने की क्या जरूरत थी! जैसे मुझ से बी.ए. की डिग्री लेकर गये थे वैसे ही एम.ए. की भी ले जाते तो तुम्हारा काम चल जाता।

मोदीजी सीखने के मामले में तो शुरू से ही लगनशील रहे हैं। उन पर उनके किसी भक्त ने एक चित्र कथा ‘बाल नरेन्द्र’ के नाम से लिखी है जिसमें बताया गया है कि वे गेंद खेलने के शौकीन थे व नदी किनारे गेंद खेलते समय मगर के बच्चे को पकड़ कर ले आये थे।
[इसी अभ्यास के कारण शायद बड़े होकर वे अमित शाह को पकड़ कर ले आये होंगे]
चाय बेचते बेचते उन्होंने हिन्दी सीख ली तो सन्यासी रहते हुए बी.ए. करना कौन सी बड़ी बात है। जब नकली लाल किले पर चढ चुनाव लड़ कर असली लाल किले तक पहुँचा जा सकता है तो बी.ए, एम.ए. की डिग्रियों की क्या बात करे हो! 

मंगलवार, 3 मई 2016

व्यंग्य चाण्डाल योग में डर

व्यंग्य
चाण्डाल योग में डर  
दर्शक
रामभरोसे फिर संकट में है वह तय नहीं कर पा रहा है। लगता है ऐसा ही संकट पहले भी आया होगा जब लिखा गया होगा कि-
गुरु गोबिन्द दोऊ खड़े काके लागूं पाँव
पर उस समय तो गुरु ने गोबिन्द की तरफ इशारा करके लाज रख ली पर अब तो मामला ही पलट गया है। शंकराचार्य स्वरूपानन्द जी कह रहे हैं कि खबरदार जो साँई के मन्दिर की ओर देखा भी। रामभरोसे भक्त आदमी है, भगवान को ‘बेनीफिट आफ डाउट’ दे के चलता है। हाथ जोड़ने में क्या जाता है! अगर सचमुच हुआ तो फिर क्या रास्ता है! इसलिए ‘हमारी भी जय जय, तुम्हारी भी जय जय, न हम हारे न तुम हारे’ गाते हुए चलता है। सर्व धर्म समभाव इसी को कहते हैं, कि सबसे डर कर रहो।
बड़ी अड़चन है, साँई तो मूर्ति के रूप में विराजमान हैं पर शंकराचार्य तो साक्षात सामने हैं अपना धर्म दण्ड लिये हुये। साँई में उसका मन रमता है पर वह शंकराचार्य और उसके भक्तों से डरता है। पिछले दिनों मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री सिंहस्थ के सफल आयोजन के लिए उनसे आशीर्वाद लेने गये थे और घबराया हुआ मुँह लेकर निकले थे। शंकराचार्य ने कह दिया था कि यह सिंहस्थ चाण्डाल योग में पड़ रहा है जिसमें शासक या शासन का बड़ा नुकसान सम्भव है। मुक्ति के लिए सवालाख पाठ करवाना पड़ेगा। पता नहीं सिंहस्थ के बजट में इसका प्रावधान है या नहीं। कई वर्ष पहले इन्हीं मुख्य मंत्री ने बारिश के लिए यज्ञ करवाने हेतु महाराष्ट्र से पण्डित बुलवाये थे जिससे पण्डितों के पक्ष में धन की वर्षा तो हुयी थी। इस वर्ष तो पूरा मराठवाड़ा ही सूखे की चपेट में हैं बेचारे पण्डित बिना दक्षिणा के अपने गाँव में भी यज्ञ नहीं करते होंगे। कुछ ही दिनों बाद संघ ने उनके संगठन सचिव को बदल दिया जो टिकिट खिड़की पर बैठता था। पूरी भाजपा में प्रसन्नता की ऐसी लहर दौड़ गयी जैसे आईपीएल मैच फ्री में देखने के लिए गेट खोल दिये गये हों।
अब शंकराचार्य कह रहे हैं कि साँई की पूजा के कारण सूखा पड़ रहा है। वे साँई मन्दिर में धन की वर्षा होते देख कर पहले से ही कुपित थे। कैसे लोग हैं कि जनगणना में धर्म के नाम पर हिन्दू लिखायेंगे और सोना चढाने के लिए हिन्दू मुस्लिम दोनों के आराध्य साँई के मन्दिर में जायेंगे! क्या विडम्बना है। उन्होंने तो एक पोस्टर भी जारी कर दिया था जिसमें हनुमानजी पेड़ उखाड़ कर साँई को दौड़ा रहे हैं। जब तक साँई मन्दिर के चढावे की रकम और स्वर्णाभूषणों का खुलासा नहीं हुआ था तब तक वे चुप थे पर अब तो लग रहा है कि हिन्दू भक्तों की लूट हो रही है, वे कैसे सहन कर लें। अब तो कांटा भी चुभता है तो वह साँई पूजा के कारण चुभता है।
धर्म डरा के चलता है। डर न हो तो पूरी दुनिया धर्म को ठेंगे पर रख कर चले। नर्क के ऐसे ऐसे भयानक पोस्टर छपवाये जाते हैं जैसे नर्क के दूत न हो आईएसआईएस के बगदादी के सिपाही हों। किसी को जलाया जा रहा है किसी को काटा जा रहा है, किसी को भेदा जा रहा है तो किसी को उल्टा लटकाया जा रहा है। इस लोक में जिससे डरते रहे हो वही नर्क में मिलेगा इसलिए डरो। मुसलमानों के नर्क में आग है तो ईसाइयों का नर्क बर्फीला है। एसी केवल स्वर्ग में लगे हैं। शंकराचार्य ने महिलाओं को डराया कि शनि शिगणापुर मन्दिर में महिलाओं का प्रवेश भी दुर्भाग्य साबित होगा। शनि एक क्रूर ग्रह है और उसकी पूजा से महिलाओं के खिलाफ बलात्कार जैसे अपराध बढ़ेंगे। डरो डरो और डरो।
धर्म की सबसे बड़ी समस्या है कि लोगों ने डरना बन्द कर दिया है। इमरजैंसी के दौरान शोले फिल्म आयी थी जिसमें डायलाग था कि जो डर गया वो मर गया। इसी फिल्म का जब यह डायलाग पोपुलर हुआ कि अब रामपुर वालों ने डरना बन्द कर दिया है तब इमरजैंसी हटाना पड़ी थी। अब जब कन्हैया जगह जगह से जूते चप्पल इकट्ठा करते हुए कहता है कि मुझे डराना बन्द कर दो मैं डरने वाला नहीं हूं तब वे पिस्तौल और कारतूस के साथ बस में चिट्ठी छोड़ जाते हैं, अब तो डरेगा। और तो और सोनिया गाँधी तक ने हेलीकाप्टर सौदे में नाम आने पर कहा में दरने वाली नईं ऊं, मुझे दराना बन्द कर दो।
      मैंने रामभरोसे को मंत्र दिया है- डर लगे तो गाना गा।


व्यंग्य लोकतंत्र और प्रशांत किशोर

व्यंग्य
लोकतंत्र और प्रशांत किशोर
दर्शक
राम भरोसे को भी कभी कभी सनक सवार हो जाती है। बोला मुझे चुनाव लड़ना है।
मैंने उसे ठंडा पानी पिलाया, और पूछा- तबियत तो ठीक है?
वह और भड़क गया, जैसे मैंने पानी नहीं पैट्रोल पिला दिया हो। वह यह कह कर जाने लगा कि तुम्हें मेरी कोई भी इच्छा हजम नहीं होती। अब कभी नहीं आऊंगा।
 मैंने उसकी इच्छा पूरी करते हुए उसे रोक लिया और कहा- अरे यार तुम पूरी बात सुने बिना ही रूठने लगते हो, मैं तो आगे पूछना चाहता था कि तुम्हारे पास चुनाव लड़ने के संसाधन हैं?
“हाँ, क्यों नहीं, मेरे पास बहुसंख्यकों का धर्म है, मेरी जाति के लोग ज्यादा हैं, पैसा है जिससे गुंडे, मीडिया, और वोट, सब खरीदे जा सकते हैं। इससे ज्यादा और क्या चाहिए?” वह बोला।
“ चाहिए, चाहिए, अब चुनाव लड़ने के लिए इतने भर से काम नहीं चलता। अब चुनाव लड़ने के लिए एक प्रशांत किशोर की भी जरूरत पड़ती है। लोकतंत्र उस मोड़ पर आ गया है कि जिसके पास प्रशांत किशोर होगा वही चुनाव जीतेगा।“
“ ये प्रशांत किशोर क्या है?” उसका मुँह जिज्ञासा में प्रश्नवाचक चिन्ह बन गया था।
अब मैं सवार हो गया- “ तुम्हें प्रशांत किशोर तक नहीं पता, और चले हो चुनाव लड़ने! पहले अपनी जी के तो करैक्ट करो! अब ये भी मत पूछने लगना कि जी के क्या होती है, जी के का मतलब होता है, जनरल नौलेज। पर तुम भी क्या करो, अंग्रेजी में कहा गया है कि कामन सैंस इज नाट सो कामन! बेटे तुम्हें पता नहीं कि देश भर में जिस तरह ‘फाग’ चल रहा है, उसी तरह चुनावों में प्रशांत किशोर चल रहा है। दल चाहे भाजपा हो या राजद जेडी[यू] गठबन्धन या काँग्रेस ही क्यों न हो सब प्रशांत किशोर के शरणागत हैं। चुनाव चाहे देश के हों या प्रदेश के हों, बिहार के हों या असम के हों, पर अटक से कटक तक, केरल से कन्याकुमारी तक प्रशांत किशोर ही चाहिए। प्रशांत किशोर विचारों की ताकत का उपहास है। प्रशांत किशोर रंग गंध विहीन है, वह निर्मल जल की तरह है। पानी रे पानी तेरा रंग कैसा, जिसमें मिला दो लगे उस जैसा, रे पानी............। गाँधी, लोहिया दीनदयाल, प्रशांत किशोर ले गया सबका माल।“ 
 राम भरोसे की चिंता का समय शुरू हो गया अब। वह हुड़ुपचुल्लू जैसा दिखने लगा। पर पीड़ा आनन्द से सराबोर होकर मेरे चेहरे पर प्रसन्नता छा गयी।    
जिस तरह चुनावों की कुंजी प्रशांत किशोरों के हाथ में रहती है उसी तरह मध्य प्रदेश के वर्तमान  मुख्यमंत्री की जान अरविन्द मेननों के हाथों में होती है। केन्द्र को पता होता है कि किसकी गरदन मरोड़ने से कौन चिल्लायेगा। समय आया और मरोड़ दी। ट्रांसफर अरविन्द मेनन का हुआ, पर अपने सारे कार्यक्रम निरस्त करके नागपुर हैडक्वार्टर पर ढोक देने मुख्यमंत्री पहुँच गये। रंगे हुए कपड़े केवल लाभ ही नहीं पहुँचाते, नुकसान भी कर सकते हैं। शंकराचार्य स्वरूपानन्द पहले ही कह गये थे कि यह कुम्भ चाण्डाल योग में हो रहा है जिसमें शासक और शासन को नुकसान की सम्भावना रहती है। जब राम मन्दिर के सहारे चुनावी वैतरणी पार करते अच्छा लगता है तो पागल बाबा, बाल्टीबाबा, पायलट्बाबा, कम्प्यूटर बाबा, साइलेंट बाबा, गोल्डन बाबा, नेपाली बाबा, रुद्राक्ष बाबा, जटाधारी बाबा, बर्फानी बाबा, के श्रापों से कैसे बच सकते हैं। जब साँई की पूजा से सूखा पड़ने का सिद्धांत सामने आने लगता है तो धार्मिक आस्थाओं वाली भीड़ विरोधियों का वोट बैंक नजर आने लगती है। तृप्ति देसाई, और कन्हैया चुनौती देते लगते हैं।
ऐसे माहौल में रामभरोसे बिना प्रशांत किशोर के चुनाव में उतरने की सोच रहा है तो वह उस किसान जैसा क्यों नहीं लगेगा जो अपने खेत के नीम के पेड़ से लटक जाता है।


व्यंग्य कर्ज उतारने वाले और न उतारने वाले

व्यंग्य
कर्ज उतारने वाले और न उतारने वाले
दर्शक
जबलपुर के एक अच्छे गज़लगो हुआ करते थे जिनका नाम भवानी शंकर था। उनकी गज़ल की किताब पर दुष्यंत कुमार ने टिप्पणी लिखी थी। वे म.प्र. सरकार में वरिष्ठ इंजीनियर थे, बताया गया है कि एक दिन वे अचानक अंतर्ध्यान हो गये और फिर नहीं लौटे। बिल्कुल वैसे ही जैसे कि मेरे एक और नाटक कार मित्र विनायक कराड़े जो रिजर्व बैंक नागपुर में थे वे भी अचानक गायब हो गये थे और नहीं लौटे। वे मुक्तिबोध द्वारा प्रारम्भ किये गये अखबार ‘नया खून’ से जुड़े रहे थे। यह प्रसंग इसलिए याद आ गया कि अचानक मुझे भवानी शंकर का एक शे’र याद आया-
उम्र भर लोग चाय पी पी कर
दूध वाले का बिल चुकाते हैं
अब आप पूछेंगे कि यह शे’र क्यों याद आया। आपका सवाल वाजिब है क्योंकि हिन्दी फिल्म का एक बहुत वैज्ञानिक दृष्टिकोण वाला गाना है- दिल से दिल मिलने का कोई कारण होगा, बिना कारण कोई बात नहीं बनती-  सो यह शे’र मुझे मोदीजी के असम में दिये गये उस भाषण को सुन कर याद आया कि मैंने अपना जीवन असम की चाय बेच कर शुरू किया था और अब उसका कर्ज उतारने का समय आ गया है। यह समय भी शायद किरण रिजजू ने नास्त्रेदम की भविष्यवाणी पढ कर बताया होगा कि देश का नेता कर्ज कब उतारेगा।
मोदीजी उसी पार्टी के नेता हैं जिस पार्टी ने भारतमाता के दूध का कर्ज उतारने का आवाहन करते हुए हजारों दलित और पिछड़े लोगों को साम्प्रदायिकता की आग में झौंक दिया पर उसके सवर्ण नेतृत्व ने कभी कर्ज उतारने के लिए कुछ भी नहीं किया। किसी भी सवर्ण भाजपा नेता का कोई सम्बन्धी उस आग में नहीं झुलसा जिसे वे अपने वोटों की राजनीति के लिए लगाते रहते हैं। संघ की कथित देशभक्ति से प्रेरित होकर एक प्रतिशत सवर्ण युवकों के सेना में भर्ती होने के आंकड़े नहीं मिलते। सेना में बलिदान देने वाले अधिकतर गरीब दलित और पिछड़ी जातियों के युवा होते हैं। इन्हीं युवाओं के बलिदान को भुना कर इनके सपूत सत्ता के ऎशगाहों में सुख भोगते रहते हैं।
मैंने कुछ साल बैंक में भी नौकरी की है और जानता हूं कि जान बूझ कर कर्ज न चुकाने वाला कर्जदार किश्त देने की जगह नया ऋण प्रस्ताव ले कर आता है और कहता है कि संसाधनों की कमी के कारण मेरा पिछला व्यवसाय सफल नहीं हो सका इसलिए अगर पिछला ऋण वसूल करना हो तो उतना ही ऋण और देना पड़ेगा। मोदी जी को भी चाय का ऋण चुकाने की याद तब आयी जब असम में चुनाव के लिए समर्थन का नया ऋण चाहिए था। यह किसी साहूकार के कर्जदार का विनम्र आग्रह नहीं था अपितु देश के बैंकों का कर्ज हड़पने वाले माल्याओं की धमकी की तरह था कि अगर पिछला कर्ज वसूलना हो तो नया कर्ज दो बरना ठेंगा ले लो। पुराने लोकगीत में नायिका कहती थी कि मैं मैके चली जाऊंगी तुम देखते रहियो। अब बैंकों का मोटा कर्जदार कहता है कि मैं लन्दन चला जाऊंगा, तुम देखते रहियो-  और इतराता हुआ लिन्दन चला जाता है। राजीव गाँधी तो दशकों पहले सरकार की सीमा तय कर गये थे कि हम देख रहे हैं, हमने देखा, हम देखेंगे, [क्योंकि इससे अधिक हम कर भी क्या सकते हैं] । पिछली सरकार ने ललित मोदी को भगाया था इस सरकार ने माल्या को भगा दिया, और हम देख रहे हैं।
नाज है उनको बहुत सब्र मुहब्बत में किया
पूछिए सब्र न करते तो और क्या करते

 वोट लेने के बाद वादों पर कह दिया जाता है कि वह तो ज़ुमला था। अब चाय का ऋण उतारना क्या जुमला नहीं हो सकता? असम की जनता कह सकती है कि – यही तुम्हार बहुत सेवकाई, भूषन, वसन न लेव चुराई।         

व्यंग्य केन्द्र की सरकार और बाबाओं की दरकार

व्यंग्य
केन्द्र की सरकार और बाबाओं की दरकार
दर्शक
राम भरोसे मेरा ऐसा शुभ चिंतक है कि हमेशा मेरा नाम आगे रखना चाहता है, विशेष रूप से जब खतरे के हालात हों। अग्रो अग्रो ब्राम्हणः, नदी नारा वर्जते। पिछले कई वर्षों से वह मेरी योग्यता की प्रशंसा करते हुए कहता है कि मुझे प्रधानमंत्री बनने के लिए प्रयास करना चाहिए। आधार पूछने पर कहता है कि तुम्हारी जन्मकुण्डली में वियोग की प्रबलता है, इसलिए तुम इस पद के लिए सुयोग्य हो।
‘ ज्योतिष में मेरा भरोसा नहीं’  मैं प्रगतिशीलता की श्रेष्ठता के दम्भ वाला सिर ऊपर उठाते हुए कहता हूं।
‘वह ठीक है पर ज्योतिष तो अपना काम करता है, वह तुम्हारे भरोसे के भरोसे थोड़े ही बैठा रहता है’
‘पहले के जमाने में वियोगी कवि हुआ करते थे, प्रधानमंत्री नहीं’
‘अब जमाना बदल गया है’
‘पर मैं प्रधानमंत्री नहीं बन सकता, नहीं बन सकता, नहीं बन सकता, समझे!
      पर तुम क्यों नहीं बन सकते, क्यों नहीं बन सकते, क्यों नहीं बन सकते! तुम अन्डर एज नहीं हो, दीवालिया नहीं हो, सजाओं से बचे हुए हो, और घोषित रूप से पागल भी नहीं हो, इसलिए प्रधानमंत्री बनने की सारी पात्रताएं तुममें हैं। 
‘एक पात्रता मुझ में नहीं है’
‘वह क्या?’
‘मेरे पास कोई बाबा नहीं है, और बाबा से मेरा मतलब यहाँ छोटे बच्चे से नहीं है.’
      ‘तो किस से है? ‘
      ‘बाबा से मेरा मतलब बाबाजी से है। हमारे जगत गुरु देश के प्रत्येक प्रधानमंत्री के पास कोई न कोई बाबा होना अनिवार्य होता है, एक बार भले ही उसके पास सचिव न हो, पर बाबा होना जरूरी है। श्रीमती इन्दिरा गाँधी के पास धीरेन्द्र ब्रम्हचारी थे, तो नरसिम्हा राव के पास चन्द्रा स्वामी थे। अटल बिहारी के आसाराम के साथ डांस करते हुए वीडियो वायरल हुये हैं।  चन्द्रशेखर तो खुद ही भोंडसी आश्रम के बाबा हो गये थे। चरनसिंह के साथ बाबा राजनारयण जी जैसे राजनीतिक बाबा थे, जिन्होंने खुद उन्हें ही बाबा बना कर छोड़ दिया था। नरेन्द्र मोदी के पास तो बाबा, तीतर के दो आगे तीतर, तीतर के दो पीछे तीतर, आगे तीतर, पीछे तीतर की तरह लगे रहते हैं। पहले बाबा रामदेव लगे रहे, अब श्री श्री आ गये हैं। कई बाबाओं को तो उन्होंने सांसद पद पर सुशोभित करवा दिया है और कुछ को तो मंत्री बनवा दिया है। अब अगर मैं प्रधानमंत्री बन गया तो बाबा कहाँ से लाऊंगा?’
      ‘अरे बाबा तो खुद ही प्रधानमंत्री को तलाश लेते हैं’
      ‘तलाश लेते होंगे, पर बाबाओं की आपसी प्रतिद्वन्दिता भी ऐसी की तैसी करा देती रही है। इसीलिए तो कहावत बनी थी कि ज्यादा जोगी मठ उजाड़। आसाराम दवाइयां बेचता था सो उसकी प्रतियोगिता में रामदेव ने तो दवा के नाम पर पूरे हिन्दुस्तान को किराना स्टोर बना डाला। जंगल के जंगल जड़ से उखाड़ डाले। अब उनके धन्धे को चूना लगाने के लिए श्री श्री नाचने गाने लगे हैं। मुझे तो लगता है कि ये बाबा देश भर के किराना व्यापारियों की दुकानें बन्द करा के मानेंगे जहाँ से कभी कभी उधार भी मिल जाता था।‘
      रामभरोसे समझाने के अन्दाज़ पर उतर आया। बोला- अपनी शक्ल कितने दिन से आइने में नहीं देखी? तुम खुद ही मोदी की तरह बाबा दिखने लगे हो, मान जाओ और प्रधानमंत्री बन जाओ।‘

      मैंने विचार करने का भरोसा देकर उसे विदा किया। पर मैं दृढप्रतिज्ञ हूं कि भले ही किसी प्रधानमंत्री का बाबा बन जाऊं पर प्रधानमंत्री नहीं बनूंगा।    

व्यंग्य बज़ट में शायरी का योगदान

व्यंग्य
बज़ट में शायरी का योगदान
दर्शक
       मैं बहुत गम्भीरता से सोच रहा हूं कि अगर दुनिया मैं शायरी नहीं होती तो बज़ट का क्या होता। इतिहास बताता है कि बजट चाहे रेल का हो नून तेल का हो, उसमें शायरी का प्रयोग अनिवार्य है। देश के राष्ट्रपति पद को सुशोभित कर रहे श्री प्रणव मुखर्जी ने बहुत पहले उनके प्रधानमंत्री बनने की सम्भावनाओं के बारे में पूछने पर कहा था कि हिन्दी न आने के कारण वे प्रधानमंत्री नहीं बन सकते हैं। राष्ट्रपति बनने के लिए शायद ऐसी कोई आवश्यकता नहीं है। जब वे वित्त मंत्री रहे थे तब वे भी रवीन्द्रनाथ टैगोर की कविताओं का उपयोग अपने बज़ट भाषण में किया करते थे।  और तो और मनमोहन सिंह जी तक अपने बज़ट भाषण के पिंजरे में एकाध शे’र के लिए स्थान रखते थे।
पूरा हिन्दुस्तान भले ही भगवान भरोसे न चल रहा हो, पर रेल तो घोषित रूप से ‘प्रभु’ के भरोसे चल रही है। इन प्रभु ने भी इस बार रेल बजट में कविताओं को समुचित स्थान दिया और बकायदा अनुमति लेकर उनका उपयोग किया। हरिवंश राय बच्चन की कविता के लिए विज्ञापन शिरोमणि अमिताभ बच्चन से अनुमति ली जिसका उन्होंने उचित समय पर धन्यवाद भी दिया। अब पता नहीं कि विपक्षी दलों ने इसे बजट की गोपनीयता का उल्लंघन माना है या नहीं माना।
मेरा विचार है कि बजट वाले प्रत्येक विभाग में हिन्दी के ऐसे अधिकारियों को नियुक्त किया जाना चाहिए जो बजट भाषण में कविता के फूल पिरोने में कुशल हों। इससे नीरस बजट में कविता का रस आ जाने से वह ग्रहणीय हो सकता है। सादा खाने में जिस तरह चटनी का प्रयोग होता है उसी तरह नीरस बजट में शेरो-शायरी का प्रयोग होता है।
शब्दों का इतिहास रखने वाले लोग बताते हैं कि बजट शब्द चमड़े के थैले के लिए प्रयोग में आने वाले किसी भाषा के किसी शब्द से सशोधित होकर बना है। ये इतिहासकार इस बात को छुपा जाते हैं कि ये चमड़ा जनता की खाल उधेड़ कर तैयार जाता होगा।
कविता हमारी कला संस्कृति को प्रकट करती है। आर एस एस भी अपने आप को एक सांस्कृतिक संगठन बताती है पर वह दण्डों के अक्षरों से जिस तरह की रचनाएं देती है उन्हें देख कर लोगों को संस्कृति शब्द से ही चिढ होने लगती है। गनीमत है कि अभी तक उनके जगत में अटल बिहारी को छोड़ कर ऐसा कोई कवि नहीं हुआ है जिसकी कविताएं बजट भाषण में स्तेमाल की जा सकें। शायद यही कारण रहा होगा कि मोदी युग आने पर उनके चित्रों और जिक्रों को हटा दिया गया है। मेरे अँगने में तुम्हारा क्या काम है। जहाँ नफरत की आँधियां चलती हों, वहाँ कविता की बयार कैसे बह सकती है।
       वैसे भी बज़ट में कविताएं पिरोना कोई सरल काम नहीं है, झूठ के पुलन्दे में कविताओं के फुन्दने बाँधना मुश्किल काम है। जब रुपये की कीमत सरकार की लोकप्रियता की तरह दिन प्रति दिन गिर रही हो, सैंसेक्स किसी शराबी की तरह खड़े होने की कोशिश में बार बार भू लुंठित हो जाता हो, जब बाइस महीनों में सैंतीस देशों की यात्राएं करने वाले नसीबवाले प्रधानम्ंत्री के प्रभाव से विदेशी इनवेस्टमेंट पचहत्तर प्रतिशत गिर गया हो तब दो सौ रुपये किलो की दाल खाकर कविताओं के फूल कहाँ सजाये जा सकते हैं।

 हाँ कुछ फूल चढाये जरूर जा सकते हैं जैसे कि शवों पर चढाये जाते हैं।      

व्यंग्य हेडली जनवा

व्यंग्य
हेडली जनवा
दर्शक
कभी जब हम गर्व के साथ कहते थे कि भारतवर्ष गाँवों का देश है और उसी गर्व के साथ गाते थे कि- है अपना हिन्दुस्तन कहाँ, वह बसा हमारे गाँवों में। तब हर गांव में जनवा होते थे। जनवा नहीं समझते हैं ना........ अरे भाई जनवा माने जानकार। ये जनवा हर चीज जानते थे। गाँव वालों के लिए जो चीजें भगवान की माया में नहीं अट पाती थीं, वे उन्हें जानने की कोशिश करते थे और जनवा लोगों तक जाते थे, जिनके बारे में भरोसा था  कि वे सब कुछ जानते हैं। अगर कभी कभी किसी जनवा के ज्यादा अनुमान गलत निकल जाते थे तो उसे लाल बुझक्कड़ कह कर डिमोट कर दिया जाता था।
अब बात दूसरी हो गयी है। ये प्राचीन शल्य चिकित्सा पर गर्व करने वाले विकासवादी मोदी का युग है। यह स्मार्ट सिटी और बुलेट ट्रैन के साथ बीफ खाने वालों को मार दिये जाने का समर्थन करने वालों व उन्हें हरियाना की सीमा में न घुसने देने के फतवे जारी करने वाली सरकारों का युग हैं। अब ज्ञान जनवा नहीं गूगल बाबा देते हैं। पर एक दिन ऐसा भी आता है जब सेर को सवा सेर मिल जाता है। सो अब गूगल बाबा को हेडली बाबा मिल गये। आज कल हमारा जगदगुरु देश जो कुछ भी पूछना चाह रहा है वह हेडली बाबा से पूछता है। सवाल पूछने के लिए भी हमें एक उज्जवल निकम मिल गये हैं जो पेशे से तो सरकारी वकील हैं पर सवाल उस्ताद और जमूरे वाले अन्दाज में करते हैं। गिली गिली डम, गिली गिली डम।
उज्जवल जी को अगर आप नहीं जानते हों तो आपको याद दिला दूं कि ये वही उज्जवल निकम हैं जो कसाव को जादुई बिरयानी खिलवा चुके हैं और मोदी के चुनाव जीत जाने के बाद उन्होंने स्पष्ट किया कि कसाव ने न तो बिरयानी मांगी थी और न ही उसे खिलवायी गयी थी, वो तो उन्होंने यूं ही किसी पत्रकार के पूछने पर कह दिया था। निकम साहब ने यह खंडन तब भी नहीं किया जब पूरे देश के लोग कसाव को बिरयानी खिलवाने वाले देशद्रोहियों और उसे बिना न्याय का पूरा अवसर दिये मार डालने वाले लोगों के बीच होने वाले चुनाव में उतर चुके थे। बहरहाल ऐसे हरिश्चन्द्र निकम जी को अब पद्मश्री का सम्मान घोषित हो चुका है और कुछ ही दिनों बाद वे पद्मश्री का पट्टा गले में लटकाये नज़र आयेंगे।
हेडली कसाव के भी बास् रहे हैं पर सरकार ने उन्हें अभयदान दे दिया है। जिस कसाव के अपराध पर सजा को न्यायिक परिणिति तक पहुँचाने से पहले फाँसी दिलाने की मांग करने वाले लोगों ने ही हेडली की सजा को माफ करने का फैसला लिया। ये ही निकम साहब अब हेडली से वह सब भी पूछ रहे हैं जिसका उनके काम से कोई मतलब नहीं पर जिसके सहारे से सरकारी पार्टी विपक्षी पार्टी को देशद्रोही घोषित कर सकती है। उन्होंने हेडली बाबा से पूछा तुम्हारे मिशन में क्या कोई महिला सुसाइड बाम्बर थी तो वह कहता है कि फलाँ साहब, अलाँ साहब से कुछ बात तो कर रहे थे कि कोई मिशन था जो फेल हो गया था। यह सुनते ही निकम साहब खुश हो जाते हैं और नाम पूछते हैं जो उसे याद नहीं तो वे अमिताभ बच्चन बन कर आप्शन देते हैं और मनपसन्द नाम आने पर लाक कर देते हैं। अब भाजपा प्रवक्ता फड़फड़ा कर कहने लगते हैं कि इशरत जहाँ की एंनकाउंटर के नाम पर हुयी हत्या उचित थी। उसका विरोध करने वाले गद्दार हैं।

निकम साब ने हेडली बाबा से यह नहीं पूछा कि काला धन कब तक वापिस आयेगा? पन्द्रह पन्द्रह लाख कब तक खाते में आ जायेंगे, किसान आत्महत्या करना कब बन्द कर देंगे? व्यापम की जाँच में लिब्राहन आयोग ने बाबरी मस्ज़िद तोड़ने की जाँच में जितना समय लिया उससे अधिक समय लगेगा या कम? आदि। पता नहीं हेडली बाबा के आ जाने से सुब्रम्यम स्वामी खुश हैं या नहीं क्योंकि जनवा वे भी कम नहीं हैं।