सोमवार, 21 मई 2018

व्यंग्य ज्ञान का विस्फोट


व्यंग्य
ज्ञान का विस्फोट
दर्शक
देश में अचानक ही ज्ञान का विस्फोट हो गया है।
इस विस्फोट से ज्ञान का हाल वही हो गया है जैसा कि कभी दिल का हुआ करता था- इस दिल के टुकड़े हजार हुए कुई यहाँ गिरा, कुई वहाँ गिरा। आधे अधूरे, टूटे फूटे, झूठे अधझूठे ग्यान के टुकड़े बिखरे पड़े हैं। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि ज्ञान का विप्लव होने लगा है। जबसे विप्लव देव त्रिपुरा के मुख्यमंत्री बने हैं तब से रोज कोई न कोई ज्ञान की किरिच किसी न किसी को चुभ ही जाती है। धन्य हैं वे काँग्रेसी जो पहले तृणमूली हुये और फिर बिना किसी सौदे के उनका ह्रदय परिवर्तित हुआ और वे एकात्म मानववाद से प्रभावित होकर भाजपाई बन गये। बिना पैसा खर्च किये चुनाव लड़ा और विजय श्री प्राप्त कर के बिना लेन देन के हाई कमान थोपित उम्मीदवार श्री विप्लव देव की प्रतिभा से परिचित हुए और उन्हें मुख्यमंत्री के रूप में सिर माथे पर बिठा लिया। अब चुपचाप उसकी सब बातें सहन कर रहे हैं।
बस एक ही बौड़म काफी था इस देश को चौपट करने को
हर शाख पै बौड़म बैठा है, अंजामे गुलिस्तां क्या होगा?
बात कर्नाटक में चुनाव प्रचार की है। उन्हें अपने भाषणों में मतदाताओं को सम्बोधित करते समय हूंका भराने का शौक है। ऐसी ही एक सभा में जहाँ हिन्दी जानने वाले लोग सीमित संख्या में हैं वे तम्बाखू की धूल उड़ाते समय एक हथेली पर दूसरी हथेली मारने वाले अन्दाज में सवाल पूछ रहे थे कि – बहिनो और भाइयो इस देश को बरबाद किसने किया। मैं फिर पूछ रहा हूं कि इस देश को बर्बाद किसने किया, जानते हो किसने किया?
कन्नड़भाषी जनता को कुछ समझ में नहीं आ रहा था सो वह चिल्लाती रही- मोदी, मोदी , मोदी , मोदी, मोदी।
कश्मीर के एक शायर लियाकत ज़ाफरी फर्माते हैं-
हाय अफसोस कि किस तेजी से दुनिया बदली
आज जो सच है, कभी झूठ हुआ करता था
     जिन्हें पता है कि हजार साल पहले जहाँ बाबरी मस्जिद बनी वहाँ क्या था, उन्हें यह पता नहीं कि रवीन्द्र नाथ टैगोर ने किसको क्या और क्यों वापिस किया था। उन्हें पता नहीं कि नब्बे साल पहले जवाहर लाल भगत सिंह से मिलने गये थे अथवा नहीं। बहरहाल वे अयोध्या से जनकपुरी का लिंक मिला रहे हैं, जो अपनी ससुराल नहीं जाते।
उन्हें नहीं याद है कि 1941-42 में हिंदु महासभा मुस्लिम लीग के साथ बंगाल मे फजलुल हक़ सरकार में शामिल थी. श्यामा प्रसाद मुखर्जी उस सरकार में वित्त मंत्री थे, जिन्होंने सरकार के मंत्री के रूप में अंग्रेज सरकार को 26 जुलाई '42 को पत्र लिखकर कहा था कि... "युद्धकाल में ऐसे आंदोलन का दमन कर देना किसी भी सरकार का फ़र्ज़ है."। जिनके पास गाँधी नेहरू की चरण धूलि के बराबर भी ज्ञान नहीं है वे रोज धूल फेंकने की कोशिश कर रहे हैं।
उन्हें केवल इतना पता है कि अलीगढ मुस्लिम यूनीवर्सिटी के लिए जमीन राजा महेन्द्र प्रताप सिंह ने दी थी पर यह नहीं पता कि देश की पहली निर्वासित सरकार के अध्यक्ष भी वे ही थे जिनके प्रधानमंत्री बरकत उल्लाह खाँ थे और जो अपनी सरकार के साथ सहयोग जुटाने की अपेक्षा में लेनिन से मिलने मास्को गये थे। उन्हें तो यह भी नहीं पता कि 1957 के आम चुनाव में अटल बिहारी वाजपेयी को बलरामपुर से पराजित करने वाले भी राजा महेन्द्र प्रताप सिंह ही थे।
पंचतंत्र में गधे द्वारा शेर की खाल ओढ कर शेर होने का भ्रम देने की कहानी आती है, जिसमें यह भ्रम तब तक ही बना रहता है जब तक वह किसी दूसरे हमभाषी का स्वर सुन कर मुँह उठा उत्तर नहीं देने लगता। बोलने पर पता लग जाता है कि शेर की खाल कौन ओढे हुये है।
विज्ञान बताता है कि प्रकृति में बिजली चमकने और बादल गरजने की घटनाएं एक साथ घटती है पर तेज गति के कारण बिजली की चमक पहले दिख जाती है और बादलों की गरज बाद में सुनायी देती है। मतलब यह है कि चमक तभी तक बनी रहती है जब तक कि आप आवाज नहीं सुन लेते।
हमें बादलों की गरज लगातार सुनायी देने लगी है।    


व्यंग्य न्याय को सजा


व्यंग्य
न्याय को सजा
दर्शक
अकबर इलाहाबादी खुद मुंसिफ थे, और मजहब से मुसलमान भी थे। पर वे शायर भी थे जिस कारण वे भोक्ता होने के साथ दृष्टा भी थे और सृष्टा भी थे। जिन लोगों को यह बात दार्शनिक सी लग रही हो उन्हें उनकी ‘हिन्दी’ में समझा दूं कि एक नागरिक होने के कारण वे भुगतते भी थे अर्थात भोक्ता थे और एक रचनाकार होने के कारण वे अपने सुख दुख से निरपेक्ष होकर घटनाओं को देखते भी थे व फिर उन दृश्यों की अपनी रचनाओं में पुनर्सृष्टि भी करते थे। रचनाकार अपनी आँखों पर बिना पट्टी बाँधे जितना निरपेक्ष होकर देखेगा वह खुद को मिला कर मानवीय कमजोरियों पर उतना ही तंज अर्थात व्यंग्य करेगा। अकबर इलाहाबादी मतलब “ हंगामा है क्यों बरपा, थोड़ी सी जो पीली है / डाका तो नहीं डाला, चोरी तो नहीं की है” वाले। उन्होंने खुद ही लिखा है-
हमने सोचा था कि हाकिम से करेंगे फरियाद
वो भी कमबख्त तेरा चाहने वाला निकला
न्याय के प्रति कुछ ऐसा ही अनुभव आजकल देश को हो रहा है। जगजीत सिंह एक गज़ल गाते थे जिसमें कहा गया था कि –
मेरा मुंसिफ ही मेरा कातिल है
क्या मेरे हक़ में फैसला देगा
ऐसा ही एक शे’र अमीर कजलबाश का है जिसमें वे कहते हैं-
उसी का शहर, वही मुद्दई, वही मुंसिफ
हमें यकीन हमारा कुसूर निकलेगा
जब न्यायपालिका और कार्यपालिका एक हो जायेंगी तो न वकील, न अपील, न दलील शेष रह जाती है। न खाता न बही, जो हम कहें वही सही। कभी नीरज जी ने लिखा था-
ओढ कर कानून का चोगा खड़ी चंगेजशाही
न्याय का शव तक कचहरी में नजर आता नहीं है
मुश्किलों का खर्च इतना बढ गया है ज़िन्दगी में
जन्मदिन पर भी खुशी कोई मना पाता नहीं है
राहत इन्दौरी अपनी बेचैन कर देने वाली शायरी में लिखते हैं-
इंसाफ जालिमों की हिमायत में जायेगा
ऐसा हुआ तो कौन अदालत में जायेगा
न्याय से बेउम्मीदी ही हिंसा को जन्म देती है। जब व्यवस्था न्याय नहीं कर पाती तब व्यक्ति खुद ही निबटने लगता है।
मुकुट बिहारी सरोज कह गये हैं –
आज सत्य की गतिविधियों पर पहरे हैं
क्योंकि स्वार्थ के कान जन्म से बहरे हैं
ले दे के अपनी बिगड़ी बनवा लो तुम
निर्णायक इन दिनों बाग में ठहरे हैं
कानून उनका, न्यायाधीश उनके, प्रासीक्यूश्न उनका, गवाहों को सुरक्षा देने न देने का फैसला उनका, सबूतों की फाइलें गायब कराने की सुविधाएं उनको, और फिर कहते हैं कि हमें न्याय पर पूरा भरोसा है। जो मामला न्यायालय में चला गया वह आसाराम हो जाता है कि बाहर ही नहीं निकलना। अब उस पर बोल भी नहीं सकते बरना न्याय का अपमान हो जायेगा। प्रकरणों के सड़ते रहने से न्याय का अपमान नहीं होता पर उस पर बात करने से हो जाता है। कैलाश गौतम कह गये हैं-   
कचहरी शरीफों की खातिर नहीं है
उसी की कसम लो जो हाज़िर नहीं है
है बासी मुहं घर से बुलाती कचहरी
बुलाकर के दिन भर रुलाती कचहरी

मुकदमें की फाइल दबाती कचहरी
हमेशा नया गुल खिलाती कचहरी
कचहरी का पानी जहर से भरा है
कचहरी के नल पर मुवक्किल मरा है
अदालतों में न्याय मिले संविधान का शासन हो , आइए ऐसा सपना देखें सपना देखने में क्या जाता है। वेणु गोपाल कहते हैं कि शुरुआत एक सपने से भी हो सकती है।

व्यंग्य बाबाओं के देश में


व्यंग्य
बाबाओं के देश में
दर्शक
रेडियो मिर्ची पर गाना बज रहा है- जोगी जब से तू आया मेरे द्वारे .................
यह उस जमाने का गाना है कि जब जोगी या जोगी बने लोग द्वारे तक ही आते थे। अब तो ऐसे जोगी हैं जो खुद लिविंग रूम में घुस जाते हैं और घर के लोगों को द्वारे पर भेज देते हैं। मुखिया का काम न्याय करना होता था इसलिए आज का मुखिया सबसे पहले खुद के लिए विचार करता है। उत्तर प्रदेश के योगी ने न्याय करते हुए सबसे पहले अपने ऊपर चल रहे सभी मुकदमे वापिस ले लिये और फिर मुज़फ्फरनगर जैसे मामलों तक में अपने वालों पर चल रहे मुकदमे वापिस ले लिये। जो पुलिस वालों की पूछ्ताछ पर संसद तक में टसुए बहा कर दिखा रहा था उसके राज में पूरे प्रदेश की जनता धार धार रो रही है।
किंतु, वे कह रहे हैं कि हमने तो पहले ही चिल्ला चिल्ला कर कहा था कि ‘बेटी बचाओ, बेटी बचाओ’ , पर आपने नहीं सुनी तो क्या कर दें जिम्मेवार आप हैं। बसों में लिखा रहता है कि सवारी अपने सामान की रक्षा खुद करें हमारी कोई जिम्मेवारी नहीं है। पुलिस भी कहती है कि विधायक कुछ भी करे उसके खिलाफ रिपोर्ट नहीं लिखी जा सकती। जिद करने पर आरोपी पुलिस थाने में ही इतना पिटवाता है कि आदमी मर जाता है। मर जाने पर उस पढे लिखे आदमी का अंगूठा खाली कागजों पर लगवा लिया जाता है। अरे जब मुखिया के पास पुलिस है और उसके हथियारों में गोलियां हैं तो अदालतों की क्या जरूरत, कर दो एनकाउंटर। दोषी मरे या निर्दोष, इंस्पेक्टर मातादीन कह ही गये हैं कि सब में एक ही परमात्मा का बास है सो अंततः मरना परमात्मा को ही है, फिर देह का आधार नम्बर कया देखना। सब आधार नम्बर एक दिन चित्रगुप्त के खातों से लिंक होने हैं।  
लोकतंत्र के खिलाफ भाजपा बाबा कार्ड चलाने में भाजपा का कोई सानी नहीं है। अपने जनसंघ रूप में उसने गौ रक्षा के नाम पर 1967 में संसद पर बाबाओं से हमला करवा दिया था जो लम्बे लम्बे चिमटे लेकर संसद भवन में घुसने जा रहे थे और मजबूरन उन गृहमंत्री गुलजारी लाल नन्दा की पुलिस को गोली चलवना पड़ी थी, जो बाबाओं का बड़ा सम्मान करते थे। मध्यप्रदेश में जब प्रबन्धन के सहारे चुनाव जीतने की घोषणा करने वाले दिग्विजय सिंह के मुकाबले भाजपा को कोई उपाय नहीं दिखा था तो उन्होंने बाबा कार्ड चल कर साध्वी भेष में रहने वाली उमा भारती को दाँव पर लगा कर देखा। संयोग से पांसे सीधे पड़ गये और भाजपा की सरकार बन गयी। किंतु बाबा तो दाँव लगाने के लिए होते हैं सो उन्हें हटाने के हथकण्डे आजमाये। उनके दुर्भाग्य से कर्नाटक हाईकोर्ट का फैसला उनके पक्ष में नहीं आया इसलिए उन्हें जाना पड़ा।
बाबा रामदेव से गलबहियां कीं तो योगासनों की लोकप्रियता मुफ्त में मिल गयी और बल्ले बल्ले हो गयी। आम चुनाव में तो उमा भारती, साक्षी महाराज, निरंजन ज्योति, चान्द नाथ, जैसे कई बाबाओं ने सदन में संख्या बल में वृद्धि करवायी। हरियाणा में रामरहीम को करोड़ों देकर फिल्में बनवायीं पर मीडिया और अदालतों ने उसे जेल भिजवा दिया। अब रही सही कसर मध्य प्रदेश में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह ने पूरी कर दी। नर्मदा यात्रा में बाहर के बाबाओं पर सरकारी धन लुटा कर लोकल वालों को अंगूठा दिखा दिया गया था सो उन्होंने यात्रा में हुए घपलों की जाँच हेतु जन जागरण यात्रा निकालना चाही। सरकार को लगा कि अब तो जाते जाते पोल खुल जायेगी सो उसने बाबाओं को राज्यमंत्री का दर्जा दे कर साधना के लिए राजधानी आवंटित कर दी। अब सरकारी गैस्ट हाउस पर धूनियां रमायी जाने लगी हैं। कुछ दिनों में बन्द किये जाने वाले हजारों स्कूलों में यज्ञ हवन होने लगेंगे और अस्पतालों में झाड़ फूंक करने वाले व ज्योतिषी बैठने वाले हैं। जय हो।      

व्यंग्य बाय फ्रेंड और लड़कियों के प्रति अत्याचार


व्यंग्य
बाय फ्रेंड और लड़कियों के प्रति अत्याचार
दर्शक
भाजपा के लोगों का जबाब नहीं, ऐसी ऐसी तरकीबें जानते हैं कि जी करता है दांतों तले उंगली तो क्या पूरा पंजा दबा लें चाहे वह कांग्रेस का ही पंजा क्यों न हो। मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री की पेशी भी प्रदेश को इस उच्च स्तर पर पहुंचने के लिए दिल्ली में होती रहती है। अभी मध्य प्रदेश के एक और विधायक ने प्रदेश में बेटी बचाने की चिंता में एक सूत्र दिया कि लड़्कियों पर अत्याचार का एक कारण यह है कि वे बाय फ्रेंड बनाती हैं। शायद पाँच साल, तीन साल, विक्षिप्त लड़कियों के साथ हो रहे अत्याचारों के बारे में उनकी यही सोच काम करती है। दर असल यह उसी क्रम को आगे बढाती है जिस क्रम में भाजपा के एक पूर्व विधायक ने कहा था कि मौसमों की मार से बचने के लिए हनुमान चालीसा का पाठ करना चाहिए। लगता है कि भविष्य में ओले कृषि बीमा का भुगतान करने से पहले बीमा कम्पनियां क्लेम फार्म में एक कालम यह भी जोड़ेंगी जिसमें पूछा जायेगा कि कृषक का धर्म क्या है, वह शैव [शिव की पूजा करने वाला] शाक्त [ शक्ति अर्थात देवी की पूजा करने वाला] या वैष्णव [ विष्णु के अवतारों की पूजा करने वाला] है। अगर किसान वैष्णवों में राम के दूत हनुमान की स्तुति में लिखा हनुमान चालीसा का पाठ नहीं करता तो उसे जरूरी सावधानी न बरतने के कारण बीमा राशि नहीं दी जायेगी।
राम भरोसे स्वप्न देखता है कि धीरे धीरे सारी कृषि भूमि केवल हनुमत उपासकों के पास पहुँच जायेगी और देश हिन्दू राष्ट्र बन जायेगा।
योगी द्वारा खाली की गयी सीट पर भले ही इंजीनियर निषाद समाजवादी टिकिट पर जीत जाते हों और जीत कर बाबा साहब भीम राव अम्बेडकर के अन्दाज में हिन्दू धर्म छोड़ने की घोषणा करते हों, किंतु उनके अध्यक्ष पहलवान मुलायम पुत्र अखिलेश यादव गर्व से कहते हैं कि वे योगी से ज्यादा बड़े हिन्दू हैं। वे नवरात्रि के पूरे नौ दिन तक अन्न नहीं खाते जबकि राज्यसभा चुनावों में तिकड़म के सहारे मिली जीत की खुशी में योगी बेसन से बने मोतीचूर के लड्डू खाते दिखते हैं। राजनीति में अब मूल्यांकन इसी आधार पर होगा कि कौन नौ दिन फलाहार करता है और कौन फल प्राप्त करके लड्डू खाता है। हो सकता है कि कल के दिन दलाल मीडिया के टुकड़खोर ये कहने लगें कि योगी जी ने जो लड्डू खाया था वह बेसन का बना हुआ नहीं था अपितु गाजर से बना हुआ था। मीडिया में सरकारी विज्ञापनों की बाढ आयी हुयी है।
मध्य प्रदेश में ऐसा पहले भी हो चुका है। भगवा भेष में रहने वाली राजनेता उमा भारती जो साध्वी भी कहलाती हैं ने हनुमान जी के बर्थडे पर केक चढाया था जिसके फोटो समाचार पत्रों में छपवाये गये थे। तत्कालीन मुख्यमंत्री ने अपने गुप्तचर ज्ञान से बताया था कि केक में अंडा था व वैष्णव देवता को अंडे वाला केक चढा कर उन्होंने उनका अपमान किया है। उमा भारती के गुप्तचरों ने जब पुष्ट कर लिया कि भक्तों द्वारा पूरा परसाद उदरस्थ किया जा चुका है तब बयान दिया कि उस केक में अंडा नहीं था। देश के दो बड़े राजनीतिक दलों में कई दिनों तक इस बात पर बहस हुयी कि केक में अंडा था या नहीं?
अम्बेडकर का नाम भजने वाली मायावती ने धमकी तो कई बार दी कि वे हिन्दू धर्म छोड़ देंगीं, पर छोड़ा कभी नहीं। उनसे आगे बढ कर तो कर्नाटक की कांग्रेसी सरकार ने यह बहस केन्द्र में ला दी है कि लिंगायत हिन्दू हैं या नहीं। आरएसएस आदिवासियों को हिन्दू बनाने के लिए अभियान चला रही है वहीं उनके लिंगायतों पर खतरा नजर आने लगा है और भाजपा को उनकी काट नहीं मिल रही है। चौबे जी छब्बे बनने चले थे दुबे बन कर लौटे। याद है, मन्डल ने कमंडल को फुटबाल बना कर छोड़ दिया था।
मोदी के आदर्श देश अमेरिका तक के स्कूलों में होने वाले गोलीकांडों से बचने के लिए नुकील पत्थर रखवाये जा रहे हैं ताकि वक्त जरूरत मासूम बच्चे उनका स्तेमाल कर सकें। इस पूंजीवादी दुनिया में सब पत्थर युग में लौट रहे हैं।      

व्यंग्य मूर्ति भंजन का खेल


व्यंग्य
मूर्ति भंजन का खेल  
दर्शक
लेनिन की मूर्ति और त्रिपुरा के चुनाव परिणाम का क्या सम्बन्ध हो सकता है जब न तो लेनिन चुनाव में खड़े हों और न ही चुनाव जीतने हारने वालों ने चुनाव में लेनिन की स्मृति का स्तेमाल ही किया हो। लेनिन की मूर्ति कोई चमत्कारी मूर्ति तो थी नहीं कि उसके दर्शन मात्र से किसी राजनीतिक दल को कोई फायदा मिलता हो जैसे कि देवी देवताओं के बारे में प्रख्यात है और उनके पहले दर्शन के लिए हर साल सैकड़ों कुचल जाते हैं व उनकी लाशों पर पैर रख कर पीछे वाले दर्शनों हेतु आगे पहुँच जाते हैं।
लेनिन की मूर्ति कोई डायन की मूर्ति भी नहीं थी कि रात में बच्चे डर जाते हों या औरतों बच्चों पर टोना टोटका होता हो। और ऐसी गलतफहमी थी भी तो यह काम इससे पहले भी करा के देख सकते थे। माणिक सरकार की सरकार कोई औरतों बच्चों को डराने वाली सरकार तो थी नहीं। पर  मूर्ति तोड़ दी गयी, भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव राम माधव के प्रोत्साहन से तोड़ दी गई, जिस पर राज्यपाल की किलकारी सुनाई दी। नादान बच्चों के खेल की तरह बड़े बड़े नेताओं ने तालियां पीटीं और जिम्मेवार पदों पर बैठीं कुर्सियां मुस्कियाती रहीं। जब प्रोत्साहित बच्चों का यह खेल और आगे बड़ा तथा उन्होंने दूसरी मूर्तियां तोड़ीं तो खतरा दिखने लगा, दूसरी ओर के बच्चों ने भी उनके बच्चों की तरह व्यवहार करना शुरू कर दिया, जिससे उनके बच्चों की मूर्तियां टूटने लगीं। बच्चों की लड़ाई में बड़े बड़ों के सिर फूट जाते हैं, सो सर्वधर्म समभाव की तरह सारी मूर्तियों को न तोड़े जाने के सन्देश सुनाई देने लगे। त्रिपुरा की नई सरकार के मुख्यमंत्री को माणिक सरकार के पैर छूने और राम माधव को उन्हें शपथ समारोह में आमंत्रित करने के लिए भेजा गया। इतना ही नहीं अपने मार्गदर्शक मंडल को समारोह में लाइन में लगवाया गया जहाँ उनका अपमान कर संदेश दिया गया कि हमारे बच्चे तो अपने बुजर्गों का भी अपमान करते हैं। दादा तुम बड़े दिल के हो इन्हें माफ कर देना आगे से ये ऐसा नहीं करेंगे। उसके बाद कोई मूर्ति नहीं टूटी जो इस बात का प्रमाण है कि सब कुछ इन्हीं के इशारों पर चल रहा था। यह बच्चों का खेल नहीं था अपितु बच्चों से खेल करवाया जा रहा था।  
प्रसंगवश याद आया कि एक थे समाजवादी नेता राम मनोहर लोहिया, जो कभी जवाहरलाल नेहरू के बड़े भक्त थे व उन्हीं से प्रभावित होकर राजनीति में आये थे। हमारे स्वतंत्रता संग्राम में गाँधीजी व भगत सिंह के बाद सबसे बड़ा कद नेहरूजी का ही था। लोहियाजी ने लोकतंत्र आने के बाद जयप्रकाश नारायण के साथ काँग्रेस छोड़ दी और विपक्षी की तरह सामने आये। वे यह जानते हुए भी कि हारना निश्चित है, नेहरूजी के विरुद्ध चुनाव लड़ते थे। इस बहाने उन्होंने अपना कद बहुत बड़ा लिया था। विचारक और चिंतक लोहिया, नेहरूजी की आलोचना में बहुत हल्के स्तर पर उतर आते थे व उनके कुत्ते के खर्च से लेकर प्रधानमंत्री के लिए बनवाये जाने वाले मूत्रालय के खर्च तक का विश्लेषण करने लगते थे। पता नहीं अगर वे आज होते तो हमारे आज के परिधान मंत्री की काजू की रोटियों और सूट बूट पर कितनी ऊर्जा खर्च कर देते। उसी दौर में नेहरू मंत्रिमण्डल में एक उपवित्तमंत्री तारकेशवरी सिन्हा होती थीं, जो न केवल सुदर्शनीय थीं अपितु उन्हें इतनी शायरी कण्ठस्थ थी कि अपनी हर बात के समर्थन में कोई शे’र कह के ध्यानाकर्षित कर लेती थीं। तारकेश्वरी जी एक बार लोहिया जी को कनाट प्लेस में मार्केटिंग करते हुए टकरा गयीं तो लोहियाजी उन्हें हाथ पकड़ कर काफी हाउस में ले गये जहाँ आम लोगों के बीच जाने में वे बहुत घबराती थीं। लोहियाजी बोले जब लोकतंत्र में नेता जनता के बीच जाने में डरेगा तो लोकतंत्र कैसे जिन्दा रहेगा।
तारकेश्वरीजी ने अपने संस्मरण में लिखा कि उस दिन मैंने लोहियाजी से पूछा कि आप इतने बड़े विचारक हैं किंतु जब नेहरूजी की आलोचना पर उतरते हैं तो इतने हल्के स्तर पर क्यों आ जाते हैं जबकि अन्यथा आप इस स्तर की बात नहीं करते। लोहिया जी का उत्तर था कि तारकेश्वरी यह मूर्ति पूजकों का देश है और इसने नेहरूजी की भी मूर्ति बना कर पूजा करना शुरू कर दिया है। अगर ऐसा हुआ तो लोकतंत्र नहीं बचेगा, इसलिए मैं नेहरू को मूर्ति बनने से बचाना चाहता हूं और इस बनती हुयी मूर्ति पर चोट करता रहता हूं, ताकि नेहरू के कार्यों पर विचार हो सके।
भाजपा के हिंसा पसन्द लम्पटों ने लेनिन की मूर्ति तोड़ते समय ऐसा नहीं चाहा था किंतु वामपंथी समझदारों ने लेनिन के विचारों पर चर्चा करके उनको सही उत्तर दिया है। विचारों की मूर्तियां हथोड़ों से नहीं टूटतीं।       

व्यंग्य ‘कूट’ नीति का जातिवाद


व्यंग्य
‘कूट’ नीति का जातिवाद
दर्शक
पत्रकारों और पदाधिकारियों का रिश्ता हमेशा से ही तल्ख रहा है। पदाधिकारी हमेशा से ही पत्रकारों की पूजा करते रहे हैं, पहले पत्रम पुष्पम से करने की कोशिश करते हैं और जब वे कम पड़ जाते हैं तो पादुका प्रहार से उनका सम्मान होता है। हमारे कस्बे में भी यह परम्परा रही है जिसमें कोआपरेटिव बैंक, भूमि विकास बैंक, के बाद नेताओं के खाने पीने की जगह केवल नगर पालिका ही बचती थी जिसके कामों की रिपोर्टिंग से ही पत्रकारों का पेट पलता था। पर जब नगरपालिका अध्यक्ष द्वारा तय किये गये लिफाफे से पत्रकारों का पेट नहीं भरता था तब नगरपिता अपने पत्रकार पुत्रों को सुधारने के लिए उनकी ठुकाई- पिटाई की व्यवस्था करता था। पिटाई से पहले गाली देने और धमकी देने की परम्परा है ताकि कलम का सिपाही अगर डर सके तो डर जाये। नगरपालिका में सबसे अधिक कर्मचारी सफाई कर्मचारी होते हैं जो मेहतर जाति से आते हैं। अपनी धमकी को और गहरी करने के लिए नगरपालिका अध्यक्ष कहता था कि – इस साले की समझ में नहीं आया तो इसको मेहतरों से पिटवाऊंगा।
पिटने और मेहतरों से पिटने में गुणात्मक अंतर होता था। सामान्य व्यक्ति से पिटने में तो केवल शारीरिक चोट लगती थी किंतु मेहतरों से पिटने में भावनात्मक चोट भी लगती थी, स्वाभिमान आहत होता था। कई न डरने वाले लोग तो इसी धमकी से डर जाते थे।
हमारे देश के आईएएस आईपीएस अधिकारी भी कुछ इसी तरह के अपमान बोध से ग्रस्त हो गये लगते हैं।
चलिए सीधे विषय पर आते हैं। राम भरोसे जैसे विश्वस्त सूत्रों ने बताया कि वह पिछले दिनों उस कमरे में रुका हुआ था जिसके बगल में आम आदमी पार्टी की कार्यकारिणी की बैठक चल रही थी। विषय था पार्टी का विकास। एक सदस्य ने कहा कि वैसे तो हम लोग भी भाजपा और काँग्रेस जैसे ही हैं, नई आर्थिक नीति का विरोध नहीं करते, भ्रष्टाचार के खिलाफ ऊंची ऊंची छोड़ते हैं, मजदूरों किसानों के पक्ष में कोई आन्दोलन नहीं करते और जो कुछ करने का दिखावा करते है, सिर्फ मौखिक करते हैं, फिर भी हमारा वैसा विकास नहीं हो रहा जैसा भाजपा का हो रहा है और उससे निराश होकर काँग्रेस का हो जाता है। सवाल के उत्तर में जवाब आया कि भाजपा कूट नीति का स्तेमाल करती है, हमें भी उसका प्रयोग करना चाहिए।
इस विचार का प्रायोगिक पक्ष यह हुआ कि अगले ही दिन कार्यकारिणी की बैठक बुलवायी गयी और काफी बहस के बाद देर रात प्रदेश के मुख्य सचिव को बुलवाया गया व निर्णयानुसार नीति का प्रयोग करते हुए उन्हें कूट दिया गया। यह बड़ा अपमान था। वैसे तो अधिकारी विभिन्न राज्यों में सत्तारूढ दल के कर कमलों और कमल गट्टों से यह सम्मान प्राप्त करते ही रहते हैं किंतु आम आदमी पार्टी के कार्यकर्ताओं द्वारा पिटना तो मेहतरों से पिटना हुआ। इससे पूरे देश के अधिकरियों की भावनाएं आहत हुयीं। जिस पार्टी की एक ऐसे राज्य में सरकार है जिसे पूर्ण राज्य का दर्जा ही प्राप्त नहीं है, उससे पिटना बहुत दुखद है। न जिसके पास अपनी पुलिस है, न नगरनिगम पर उसका नियंत्रण है, न राज्य की भूमि पर उसका कोई अधिकार है उससे पिटना तो दुखद होगा ही। जमींदार से पिटना और उसके कारिंदे से पिटना बराबर कैसे हो सकता है। बिहार में डीएम को पीट पीट कर मार डाला जाता है, भाजपा का मुख्यमंत्री उल्टा लटका देने की धमकी दे तो आत्मा आहत नहीं होती, किसान अगर मन्दसौर में थप्पड़ मार दें तो चुपचाप ट्रान्सफर करा लेते हैं, हरियाना में मंत्री आईपीएस को बाहर निकल जाने को कहता है तो दूसरे आईपीएस दुखी नहीं होते, अगर किसी आईएएस की लड़की को सत्तारूढ पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष की बेटा अपहरण कर लेता है तो वो उसका व्यक्तिगत मामला होता है, उससे एसोशिएसन को कोई मतलब नहीं रहता, उससे कोई अपमान नहीं होता। किसी आईपीएस को जो एक आईएएस का पति भी होता है को रेत माफिया ट्रैक्टर से कुचल देता है व उसी राज्य के मंत्री का बेटा आरोपियों की वकालत में बैठकें करता है तो न आईएएस दुखी होते हैं, न आईपीएस क्योंकि मामला दिल्ली और आप पार्टी का नहीं होता।
का रहीम हरि को घट्यो, जो भृगु मारी लात। ब्राम्हण की लात तो हरि भी खा लेते हैं, पर शम्बूक तपस्या भी नहीं कर सकता। एक्लव्य अगर धनुष चलाने में पारंगत भी हो जाये तो उसका अंगूठा काट लिया जाता है। 
       

व्यंग्य बेरोजगारी उन्मूलन के अभिनव प्रयोग


व्यंग्य
बेरोजगारी उन्मूलन के अभिनव प्रयोग
दर्शक
वे मुँह के जबर हैं। उनके पास मंच भी है और लाउडस्पीकर भी। लोगों के सुनने की क्षमता उनके शोर मचाने की क्षमता से बहुत कम है।
किसी शायर ने किसी सन्दर्भ में कहा है –
बस इसी बात का गिला है मुझे / तू बहुत देर से मिला है मुझे
मुझे शे’र सुन कर पकौड़े की याद आ गयी। रामभरोसे कह सकता है कि लाहौल बिला कूवत, कहीं की ईंट और कहीं का रोड़ा लेकर भानुमती की तरह कुनबा जोड़ रहे हो। पर मुझे रोजगार के विकल्प के रूप में पकौड़े बनाने की सलाह कुछ कुछ ऐसी ही लगी। आम चुनाव की सभाओं में जब ये लाखों बेरोजगार सभा दर सभा मोदी-मोदी चिचिया रहे थे तब ही बता देते कि दो करोड़ रोजगार देने के वादे पूरे करने की योजना पकौड़े बनाने से शुरू होगी। अफसोस तो इसी बात का है कि यह सलाह बहुत देर से मिली। बेरोजगार तो समझते थे कि इनके पास कोई जादू की छड़ी है, जिसके घुमाने से रोजगार वाटर आफ इंडिया की तरह सतत झरते रहेंगे, पर ये तो पकौड़ा बनाने की सलाह देने लगे। अगर कोई गलतफहमी भी थी तो चुनाव परिणामों के बाद टकटकी लगाये लोगों को तब बता देते। वे विधानसभा चुनावों में समझ लेते। पर तब भी नहीं बताया कि रास्ता कहाँ से जाता है।
 कहावत है कि – बासी रोटी में खुदा के बाप का क्या! अगर पकौड़े ही तलने थे तो उसके लिए मोदी सरकार को लाने की क्या विवशता थी। पकौड़ों का स्वाद तो गैरभाजपा शासन काल में भी वैसा ही आता है। अम्बानी की गैस, अडानी का तेल, रामदेव का बेसन और मसाले तब भी वैसे ही मिल रहे थे। पर पकौड़ों को रोजगार की राह में शार्टकट की तरह वैसा ही थमा दिया गया, जैसा किसी ने कहा है-
मैं मैकदे की राह से होकर गुजर गया
बरना सफर हयात का बेहद तबील था
तर्क और बहस तो तब काम करते हैं जब आपको बोलने दिया जाये। झूठ के नक्कारखानों में सत्य की तूती सुनी ही नहीं जा सकती। आप अपने ज्ञान, अपनी समझ, अपने विवेक का अचार डाल लीजिए, यही बेहतर है, ताकि सनद रहेगी वक्त जरूरत पर काम आयेगा। यह समय ही नियंत्रित सूचनाओं का है। राहत इन्दौरी कहते हैं कि –
कौन जालिम है यहाँ, जुल्म हुआ है किस पर
क्या खबर आयेगी, अखबार को तय करना है
अपने घर में हमें अब खाना पकाना क्या है
ये भी हम को नहीं सरकार को तय करना है
गाँधी खारिज, नेहरू खारिज, अम्बेडकर खारिज, पटेल का स्वरूप बदल दो। सब का इतिहास बदल दो। जोर जोर से चिल्लाते रहो, और सूरज को पश्चिम से निकलवाते रहो। फिर से राम मन्दिर, फिर से गाय, फिर से तीन तलाक, फिर से घर वापिसी, फिर से लव जेहाद, फिर से पाकिस्तान भेजने के सन्देश, फिर से तीन सौ सत्तर,। सब समस्याओं पर परदा डालने की कोशिशें, निदा फाज़ली ने कहा है-
ये इल्म का सौदा, ये रिसाले, ये किताबें
इक शख्स की ये याद भुलाने के लिए हैं
पर भूखे पेट, खाली हाथ ये सब कब तक चलेगा। इसी फिर फिर की फिरकी में फिर से दो तक पहुँच सकते हैं।  



व्यंग्य न्यूटन के बाप


व्यंग्य
न्यूटन के बाप
दर्शक
हम ऐसे जगत्गुरू हैं जिसे हमारे अलावा जगत में कोई नहीं जानता, कोई नहीं मानता।
जिसे न मानना हो न माने, हमें कौन सा तर्क करना या तर्क सुनना है। हम तो हैं, सो हैं। बकौल मुकुट बिहारी सरोज – बन्द किवार किये बैठे हैं, अब कोई आये समझाने ।
बात यह हुयी कि बहादुर राजपूतों की धरती राजस्थान के शिक्षा राज्य मंत्री वासुदेव देवनानी ने उवाचा कि गुर्त्वाकर्षण के सिद्धांत की खोज न्यूटन ने नहीं की अपितु हमारे ब्रम्हजीत द्वित्तीय ने की थी। अखबार में छपी इस खबर को लेकर रामभरोसे मेरे पास भागा भागा इस तरह आया जैसे कभी आर्कमडीज यूरेका यूरेका चिल्लाता हुआ भागा होगा। गनीमत यह थी कि राम भरोसे आर्कमडीज की तरह दिगम्बर दशा में दृष्टिगोचर नहीं था। बैठने से पहले ही उसने बोलना शुरू कर दिया। कहने लगा तुम तो मानते नहीं हो कि हमारा देश कभी ज्ञान विज्ञान का भण्डार था और आज जो खोजें हो रही हैं वे सब तो हम बहुत पहले कर चुके हैं।
‘ फिर वे खोजें कहाँ चली गयीं? ‘
’ वे तो आक्रांताओं ने नष्ट कर दीं’ वह बोला
‘ तो अब जो खोजें हो रही हैं, वे तो नई हैं, और उनका श्रेय तो उन खोजने वालों को मिलना चाहिए’ मैंने कहा।
‘पर पहले तो हमने खोजी थीं’ वह ढीठता से बोला
‘ चलो मान लिया, पर न तो हम फार्मूले को संरक्षित कर सके, न माडल को, और न यह कह पा रहे हैं कि जो नई खोज हुयी है वह हमारे फार्मूले को चुरा कर हुयी है, तो वह नई खोज हुयी और उसका श्रेय नये खोजने वाले को मिलना चाहिए।
‘ पर पहले तो हमने खोजा था’ वह उसी ढीठता के साथ बोलता गया
‘ अच्छा, एक बात बताओ कि अगर हम इतने पुराने खोजी लाल थे तो हमने और क्या क्या खोजा था ‘
‘बहुत खोजा था, क्या क्या बतायें ?’ वह तर्कहीन ढीठ की तरह ठेलने की कोशिश कर रहा था।
‘ काठ के उल्लू!’  मैंने किंचित क्रोधित होते हुए कहा ‘तुम लोग उसी पर अपना दावा क्यों करने लगते हो जिसे दूसरा कोई खोज लेता है। कोई नई वस्तु तो खोज कर बताओ तो दुनिया का कुछ भला हो। अगर तुमने महाभारत के संजय वाले टेलीविजन की पुनर्खोज कर ली होती तो आज एलजी, सैमसंग के माडल चीन और जापान से तो नहीं मंगाना पड़ते। तुमने जो पुराण कथाओं में पढ लिया उसके आधार पर दावा करने लगे। ऐसा ही दावा करने वाले एक ईसाई सज्जन कह रहे थे कि ईसाई धर्म तो त्रेता में भी था जिसका प्रमाण तुलसीदास की उस पंक्ति में मिलता है जिसमें उन्होंने कहा है – सर समीप गिरिजागृह सोहे।‘
रामभरोसे कुछ सोचते हुए बोला कि एक बात तो मुझे भी समझ में नहीं आती कि ये सारे दिव्य ज्ञान इन भाजपाइयों को ही क्यों प्राप्त होते रहते हैं। अडवाणीजी ने डीसीएम टोयटा को तो रथ का आकार देकर रथयात्रा की भावना में डुबो दिया किंतु रथ में डीसीएम टोयटा की ताकत डलवा कर नहीं हांक सके। ऐसे प्राचीन विज्ञान का क्या फायदा जिसे हम कभी स्तेमाल ही नहीं कर सकें।
‘हाँ अब समझे तुम श्रवण कुमार के बाप’ मैंने कहा
‘ तुमने मुझे श्रवण कुमार का बाप क्यों बोला?’ उसने किंचित क्रोध और किंचित जिज्ञासा के साथ कहा।
‘ इसलिए क्योंकि श्रवण कुमार अपने दृष्टिहीन माँ बाप को ऐसे ही बहला रहा होगा कि चारों धाम के दर्शन करा रहा है। जिन्हें दिखायी ही नहीं देता उन्हें तो किसी भी जगह चारों धाम बताये जा सकते हैं। ऐसे ही तुम हो।‘
‘ यह व्यर्थ की शंका है’ उसने कहा
‘अरे नहीं भाई, अभी शंकराचार्य की पादुकाओं की यात्रा निकली थी, उस दौरान बताया गया कि चारों धाम की स्थापना तो शंकराचार्य ने करवायी थी, फिर ये श्रवण कुमार कहाँ घुमा रहा था ?’
रामभरोसे जैसी तेजी में आया था वैसे ही तेजी से चला गया।