सोमवार, 21 मई 2018

व्यंग्य न्याय को सजा


व्यंग्य
न्याय को सजा
दर्शक
अकबर इलाहाबादी खुद मुंसिफ थे, और मजहब से मुसलमान भी थे। पर वे शायर भी थे जिस कारण वे भोक्ता होने के साथ दृष्टा भी थे और सृष्टा भी थे। जिन लोगों को यह बात दार्शनिक सी लग रही हो उन्हें उनकी ‘हिन्दी’ में समझा दूं कि एक नागरिक होने के कारण वे भुगतते भी थे अर्थात भोक्ता थे और एक रचनाकार होने के कारण वे अपने सुख दुख से निरपेक्ष होकर घटनाओं को देखते भी थे व फिर उन दृश्यों की अपनी रचनाओं में पुनर्सृष्टि भी करते थे। रचनाकार अपनी आँखों पर बिना पट्टी बाँधे जितना निरपेक्ष होकर देखेगा वह खुद को मिला कर मानवीय कमजोरियों पर उतना ही तंज अर्थात व्यंग्य करेगा। अकबर इलाहाबादी मतलब “ हंगामा है क्यों बरपा, थोड़ी सी जो पीली है / डाका तो नहीं डाला, चोरी तो नहीं की है” वाले। उन्होंने खुद ही लिखा है-
हमने सोचा था कि हाकिम से करेंगे फरियाद
वो भी कमबख्त तेरा चाहने वाला निकला
न्याय के प्रति कुछ ऐसा ही अनुभव आजकल देश को हो रहा है। जगजीत सिंह एक गज़ल गाते थे जिसमें कहा गया था कि –
मेरा मुंसिफ ही मेरा कातिल है
क्या मेरे हक़ में फैसला देगा
ऐसा ही एक शे’र अमीर कजलबाश का है जिसमें वे कहते हैं-
उसी का शहर, वही मुद्दई, वही मुंसिफ
हमें यकीन हमारा कुसूर निकलेगा
जब न्यायपालिका और कार्यपालिका एक हो जायेंगी तो न वकील, न अपील, न दलील शेष रह जाती है। न खाता न बही, जो हम कहें वही सही। कभी नीरज जी ने लिखा था-
ओढ कर कानून का चोगा खड़ी चंगेजशाही
न्याय का शव तक कचहरी में नजर आता नहीं है
मुश्किलों का खर्च इतना बढ गया है ज़िन्दगी में
जन्मदिन पर भी खुशी कोई मना पाता नहीं है
राहत इन्दौरी अपनी बेचैन कर देने वाली शायरी में लिखते हैं-
इंसाफ जालिमों की हिमायत में जायेगा
ऐसा हुआ तो कौन अदालत में जायेगा
न्याय से बेउम्मीदी ही हिंसा को जन्म देती है। जब व्यवस्था न्याय नहीं कर पाती तब व्यक्ति खुद ही निबटने लगता है।
मुकुट बिहारी सरोज कह गये हैं –
आज सत्य की गतिविधियों पर पहरे हैं
क्योंकि स्वार्थ के कान जन्म से बहरे हैं
ले दे के अपनी बिगड़ी बनवा लो तुम
निर्णायक इन दिनों बाग में ठहरे हैं
कानून उनका, न्यायाधीश उनके, प्रासीक्यूश्न उनका, गवाहों को सुरक्षा देने न देने का फैसला उनका, सबूतों की फाइलें गायब कराने की सुविधाएं उनको, और फिर कहते हैं कि हमें न्याय पर पूरा भरोसा है। जो मामला न्यायालय में चला गया वह आसाराम हो जाता है कि बाहर ही नहीं निकलना। अब उस पर बोल भी नहीं सकते बरना न्याय का अपमान हो जायेगा। प्रकरणों के सड़ते रहने से न्याय का अपमान नहीं होता पर उस पर बात करने से हो जाता है। कैलाश गौतम कह गये हैं-   
कचहरी शरीफों की खातिर नहीं है
उसी की कसम लो जो हाज़िर नहीं है
है बासी मुहं घर से बुलाती कचहरी
बुलाकर के दिन भर रुलाती कचहरी

मुकदमें की फाइल दबाती कचहरी
हमेशा नया गुल खिलाती कचहरी
कचहरी का पानी जहर से भरा है
कचहरी के नल पर मुवक्किल मरा है
अदालतों में न्याय मिले संविधान का शासन हो , आइए ऐसा सपना देखें सपना देखने में क्या जाता है। वेणु गोपाल कहते हैं कि शुरुआत एक सपने से भी हो सकती है।

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