गुरुवार, 4 अप्रैल 2019

व्यंग्य लोकतंत्र का बाजार


व्यंग्य
लोकतंत्र का बाजार
दर्शक
कभी किसी पुरानी फिल्म का एक गाना था- बाबूजी तुम क्या क्या खरीदोगे, लालाजी तुम क्या क्या खरीदोगे? यहाँ हर चीज बिकती है मियाँजी तुम क्या क्या खरीदोगे!
चुनाव आते ही इस गाने के दृश्य कोंधने लगते हैं। यहाँ हर चीज बिकती है। टिकिट से लेकर वोटर तक, और विधायिकी से लेकर मंत्री पद तक। संस्कृत में एक श्लोक है-
यस्यास्ति वित्तं स नरः कुलीनः
स च विद्वान, श्रुतवान् गुणज्ञः ।
स एव वक्ता स च दर्शनीयः
सर्वे गुणाः कांचनमाश्रयन्ते ॥ 
अर्थात जिसके पास में धन है वही मनुष्य पण्डित है, श्रोता है, गुणी है, वही वक्ता है और वही सुदर्शन है। सारे गुण सोने में बसते हैं।
पूंजीवादी दलों में चुनाव की दुकानदारी टिकिट वितरण से शुरू होती है। सिनेमा या बस के टिकिट बेचने से अलग विधायकी के टिकिट बेचना लाभ का धन्धा होता है इसलिए इस नौकरी के लिए बहुत कोशिशें करनी पड़ती हैं। पार्टी में जितने गुट होते हैं उतने ही काउंटर खुल जाते हैं और टिकिट बेचने वाला रेलवे के टीटी की तरह कहीं छुप कर फोन बन्द कर बैठ जाता है और उसे वही तलाश पाता है जिसकी जरूरत बहुत ज्यादा होती है और जो टिकिट की कोई भी कीमत चुकाने के लिए तैयार दिखता है। यही कारण है टिकिटार्थियों में करोड़पतियों के अलावा कुछ बेबकूफ जरूर मिल जाते हैं किंतु टिकिट केवल करोड़पतियों को ही मिलता है। जो लोग पाँच साल तक अपने नेता के पीछे चिचियाकर खुद को टिकिट का पात्र मानने लगते हैं वे केवल उपहास के पात्र ही बनते हैं। इन पार्टियों में टिकिट देने का अन्य कोई फार्मूला नहीं होता सिवाय क्रेता की क्रयशक्ति के। जब टमाटर पचास रुपया किलो हो जाते हैं तो हर रोज मोलभाव करने वाले ग्राहक को सब्जी वाला हाथ लगाने से पहले ही भाव बताने लगता है।
टिकिट देने वाला कहता है कि इस बार कड़ी टक्कर है और चुनाव मँहगे हो गये हैं आप नहीं लड़ पाओगे, बीस करोड से कम वाले को तो सोचना भी नहीं चाहिए, सामने वाली पार्टी के पास बहुत पैसा है। जब टिकिटार्थी कहता है कि इतने की व्यवस्था तो मैंने कर रखी है। सुन कर वह कहता है कि कमजोर प्रत्याशियों को चुनाव लड़ाने के लिए पाँच करोड़ चन्दा भी पार्टी को देना पड़ेगा तो वह उसे भी मंजूर कर लेता है क्योंकि विधायक निधि से लेकर दुनिया भर की विधायक विकास योजनाएं उसकी आँखों में कोंधने लगती हैं। सवाल पूछने और उत्तर के समय अनुपस्थित हो जाने के भी तो पैसे मिलते हैं। फिर लाइसेंस परमिटों आदि के कमीशन, टैक्सों के फंसे हुए केसों में प्रस्तावित रिश्वत आदि की बड़ी बड़ी राशियां दिखने लगती हैं, सरकार बनने पर मंत्री पद और राज्यसभा के चुनाव में रोकड़ा। तो वह चुनावी चन्दा भी मंजूर कर लेता है। फिर वितरक दूसरे गुट के टिकिट वितरकों से भी मामला क्लीअर कराने को कहता है ताकि ज्यादा बड़ी राशि आफर करने वाले के प्रति अन्याय न हो जाये। अब जब चुनाव चल रहे हैं तो कमजोर प्रत्याशियों के लिए मदद तो हर जगह लगती ही है, भले ही कोई प्रत्याशी कमजोर न हो।
गत दिनों एक प्रत्याशी द्वारा अपने प्रदेश अध्यक्ष से बातचीत का एक आडियो वायरल हुआ था जिसमे एक प्रत्याशी कहता हुआ सुना गया कि वोटर बहुत हरामी हो गया है और मोदी की रैली में जाने से लेकर हर बात के पैसे मांगने लगा है। वोटर भी क्या करे! वह देखता है कि चुनावी जुमलों का तो कोई मतलब है नहीं इसलिए प्रत्याशी नेता की कमाई में से ही जो कुछ मिल जाये वही लोकतंत्र के पर्व की ईदी है सो वसूल लो, नहीं तो बात गयी फिर पाँच साल के लिये। कुछ दलितों के वोट बेचते हैं, तो कुछ यादवों के, कुछ कुर्मियों, पटेलों के तो कुछ कुश्वाहा, आदिवसियों के। कोई वोट काटने के लिए किसी प्रत्याशी के पक्ष में खड़े होने के पैसे ले रहा है, तो कोई खड़े होकर बैठ जाने के पैसे ले रहा है। कुछ दल बदलने के पैसे ले रहे हैं तो कुछ टिकिट के लिए खर्च किये गये पैसे मिल जाने पर दल न बदलने के लिए पैसे ले रहे हैं। सेलिब्रिटीज अपनी फिल्म के डायलाग सुनाने के लिए पैसे ले रहे हैं तो मीडिया वाले सर्वेक्षणों में जिताने हराने के पैसे ले रहे हैं। पण्डित अनुष्ठान करने के पैसे ले रहे हैं तो कुछ नये मन्दिर मस्जिदें बनने लगती हैं।   
लोकतंत्र के पर्व का मेला लगा है और कोई न कोई कुछ न कुछ बेच रहा है। अब ऐसे में अगर आप किसी जनहितैषी काम की उम्मीद करेंगे तो दोष तो आपका ही होगा। जब बाजार है तो क्रयबिक्रय ही होगा।         

व्यंग्य आंखन देखी और आंखन अनदेखी


व्यंग्य
आंखन देखी और आंखन अनदेखी
दर्शक
कबीर दास जी कह गये हैं कि
जाका गुरु भी अंधला चेला खरा निरंध। 
अंधा अंधा ठेलिया दोनों कूप पड़ंत ।
कबीर अन्धत्व के कारण कुंए में गिर जाने की बात कहते हैं किंतु हर बारह साल में आने वाले कुम्भ में तो किसी को ठेलने की जरूरत नहीं पड़ती सब परम्परा के धक्के से अपने आप ही कूप पड़ंत होते जाते हैं। मजे की बात तो यह है कि अब गुरु और चेले दोनों की देखने वाली आँखें है और उस पर भी दोनों चश्मा चढाये हुये हैं। दोनों ही कुएं या नदी में गिर रहे हैं किंतु उसमें आँखों का कोई दोष नहीं है।
हमारे देश में अन्धत्व की कई श्रेणियां मानी गयी हैं, जिनमें अक्ल के अन्धे भी होते हैं। मानव जाति को जन्मजात अन्धी माना गया है। कहते हैं कि ये जो तुम्हें दिखायी दे रहा है वो तो सब माया है, और सच तो केवल वह है जो आँख बन्द कर लेने के बाद दिखायी देता है। फिर चाहे गठरी पर चोर की निगाहें लगी हों। अंतर्दृष्टि !
मन की आँखें खोल रे तोहे पिया मिलेंगे
वह सब कुछ जो दूसरा कोई नहीं देख सके और ना ही तुम किसी को दिखा सको वही सच है व जो साफ साफ दिख रहा है वह झूठ है।
पंचतंत्र की कहानी में अन्धों के हाथी की चर्चा है जिसमें हाथी के पूरे अंगों की चर्चा है किंतु हाथी के आँखों की चर्चा नहीं है बरना हाथी ने अगर हाथी ने अन्धों को थथोल लिया होता तो कहानी कहने वाला कोई नहीं होता।
हमारे पुराणों में भी अन्धों की अनेक कथाएं मिलती हैं। मजे की बात यह थी कि अनेक मामलों में जोड़े से अन्धे होते थे। श्रवण कुमार के माँ और बाप दोनों ही अन्धे थे और श्रवण कुमार की कांवर पर ऐसे आराम से यात्रा करते थे, जैसे स्लीपर में आरक्षण के साथ यात्रा कर रहे हों। श्रवण कुमार भी आज के सपूतों की तरह नहीं था अपितु कह  सकते हैं कि वह भी भक्ति में अन्धा था- मातृ पितृ भक्ति में अन्धा। आज के दौर का सपूत होता तो वह या तो खुद ही समझ जाता या उसके दोस्त समझा देते कि बेटे जब दोनों ही अन्धे हैं तो तू उन्हें किसी धाम की यात्रा करा दे वे तो हाथ जोड़ कर उसे ही वही धाम समझ लेंगे। तू काहे को अपना टैम खोटी कर रहा है।
 श्रवण कुमार की आँखें तो थीं और कान भी रहे होंगे तभी सुनते सुनते उसका नाम श्रवण कुमार पड़ा होगा, पर उसके दोस्त नहीं रहे होंगे। पुराने जमाने में भाई बन्धु, आदि रिश्ते तो होते थे किंतु दोस्त होने का इतिहास नहीं मिलता द्वापर में एक की चर्चा आती है पर वह सुदामा भी सहपाठी था दोस्त नहीं था। ऊधो को भी चमचा के बराबर ही माना जा सकता है दोस्त नहीं। महाभारत काल में भी धृतराष्ट्र अन्धे थे तो उनकी पत्नी गांधारी ने भी न्याय की देवी की तरह अपनी आंखों पर पट्टी बांध रखी थी और वह तब ही खुलती थी जब किसी बच्चे के शरीर को बज्र का बनाना होता था।
सूरदास ने तो यह साबित कर दिया कि आँखें न होने पर लिखी जाने वाली कविता का कवि सूर सूर्य समान हो सकता है और तुलसी शशि बने रह जाते हैं जो दोनों आँखें होने पर भी सांप को रस्सी समझ लेते हैं, और गंतव्य तक पहुंच जाते हैं।
 कबीरदास साफ साफ कहते थे कि मैं कहता आँखन की देखी। पर कबीर दास जी आजकल आई विटनैस का टोटा पड़ता जा रहा है और लगातार ‘ नो वन किल्लिड जेसिका’ हो रहा है।

व्यंग्य वीर- वीरांगनाएं मैदान छोड़ छोड़ कर भाग रहे हैं



व्यंग्य
वीर- वीरांगनाएं मैदान छोड़ छोड़ कर भाग रहे हैं
दर्शक
दिनकर जी ने कहा था कि ‘ सिंहासन खाली करो कि जनता आती है ‘। पर क्या करें कि सिंहासनारूढों से ये सिंहासन छोड़ा ही नहीं जाता। मन मार के खाली करना पड़ता है। जो खाली कर देते हैं या कहें कि जिन्हें खाली कर देना पड़ता है, वे भी अपने त्याग की गाथाएं गाने लगते हैं। जिसने सोच लिया कि अब जाना ही पड़ेगा तो वह त्यागी के नाम से बचा रहना चाहता है। देखो, मुझे देखो, यह मैं ही हूं कि जिसने सिंहासन खाली कर दिया। कुछ दिनों पहले मध्यप्रदेश के मामा ने कहा था कि वे मध्य प्रदेश को छोड़ कर कहीं नहीं जाने वाले वे यहीं रह कर नर्मदा मैय्या की सेवा में अपना पूरा जीवन गुजार देंगे। उनके कथन का आशय यह था कि विधानसभा चुनाव में अगर भाजपा जीती तो मुख्यमंत्री मैं ही बनूंगा। इस पद के लिए ही तो उमा भारती को छिटकाया था, बाबूलाल गौर को उचटाया था, कैलाश विजयवर्गीय को हटाया था, प्रभात झा और अरविन्द मेनन को झटकाया था, अपने ‘अमितशाह’ नन्दू भैय्या को बैठाया था, सो क्या सौ सौ चूहे खाने वाली बिल्ली बन के दिल्ली जाने के लिए किया था। रानी झांसी ने जिस जोश से नहीं कहा होगा कि अपनी झांसी नहीं दूंगी, उससे ज्यादा तेजी से उन्होंने कहा कि अपनी कुर्सी नहीं दूंगा। पर बकौल राहत इन्दौरी- किरायेदार हैं जाती मकान थोड़ी है! सो खाली करना पड़ा।  
हिन्दुस्तान की आज़ादी से पहले जब जब सत्ता परिवर्तन हुआ, तब तब या तो राजाओं का सिर काट दिया गया या उन्हें जेल में डाल दिया गया पर जिस गाँधी की इन दिनों 150वीं जन्मशताब्दी मनायी जा रही है उनके बारे में कवियों ने कहा है कि –
धरती पे लड़ी तूने अजब ढंग की लड़ाई
दागी न कहीं तोप न बंदूक चलाई
दुश्मन के किले पर भी न की तूने चढ़ाई
वाह रे फ़कीर खूब करामात दिखाई
चुटकी में दुश्मनों को दिया देश से निकाल
साबरमती के सन्त तूने कर दिया कमाल
यही कमाल दुहराया जाने वाला है और सूंघने वालों ने सूंघ भी लिया है सो पहले से ही वैराग्य दिखाने लगे हैं। साध्वी की वेषभूषा में रह कर गाली बारूद के गोले छोड़ने वाली ने सबसे पहले चुनाव न लड़ने की घोषणा उसी तरह से की जैसे कि उन्होंने झांसी से सांसद बनते ही तीन महीन के अन्दर अलग बुन्देलखण्ड प्रांत बनवाने की घोषणा की थी। उसके बाद उनके प्रतियोगी सुषमा स्वराज जिन्होंने सोनिया गाँधी के विधिवत प्रधानमंत्री बनने की स्थिति में उमा जी के साथ साथ सिर मुंडाने, चने खा कर रहने, जमीन पर सोने आदि की घोषणा की थी, कह दिया कि वे अगला चुनाव नहीं लड़ेंगी। हो सकता है कि वे बेटी और पति के साथ ललित मोदी जैसे मुवक्किल की मदद के लिए उतरना चाहती हों। एक और भगवाधारी सांसद सावित्री बाई फुले ने तो एक जग जाहिर ज्ञान का इलहाम होने की बात बतायी कि मोदी सरकार को आरएसएस चला रहा है व मन की बात नहीं बोलने दी जाती। इसी बहाने पर उन्होंने पार्टी के साथ साथ सांसद पद से भी स्तीफा फेंक मारा। शत्रु तो पहले से ही शत्रु बन गये थे और यशवंत सिन्हा और अरुण शौरी जैसों का हाथ अपनी पीठ पर पा रहे थे। सुब्रम्यम स्वामी तो जब भी मौका देखते तो एकाध चपत लगा ही देते हैं और वादे के अनुसार वित्तमंत्री न बनाये जाने का बदला ले लेते हैं। अडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, शांता कुमार आदि तो मन ही मन कहते रहते हैं कि बुड्ढा होगा तेरा बाप। शिवसेना तो तीसरा तलाक भी बोल चुकी है और मुआवजे की लड़ाई लड़ रही है। बिहार के उपेन्द्र कुशवाहा तो पूर्ण तलाक दे ही चुके हैं। उत्तर प्रदेश में राजभर की पार्टी ने द्रोपदी की तरह केश खोल ही लिये है। उत्तरपूर्व की उम्मीदें खत्म हो चुकी हैं। नवीन पटनायक की बहिन ने पद्मश्री ठुकरा दी है। दिल्ली में सूपड़ा साफ होने जा रहा है और हरियाणा में रामरहीम का आशीर्वाद तो जेलरों को मिल रहा है। उत्तर प्रदेश के तीनों उपचुनाव हर गये। राजस्थान, छत्तीसगढ, और मध्य प्रदेश में सरकारें बदल गयी हैं। तेलंगाना में विधायकों की संख्या आधी बची है। जम्मू कश्मीर की बहिन जी तो अब मायावती की तरह व्यवहार कर रही हैं।
संघ पहले दिन सिखाता है कि हिन्दू बड़े वीर थे और दूसरे दिन सिखाता है कि मुसलमान उन पर बहुत अत्याचार करते थे। स्वयंसेवकों को हँसाने के लिए वे और भी कई बातें बताते रहते हैं। लगता है चुनाव आते आते अमितशाह मोदी को बशीर बद्र का वह शेर पढते मिल सकते हैं-
शान के लोग कम रह गये
एक तुम एक हम रह गये    




व्यंग्य फ्री हैंड


व्यंग्य
फ्री हैंड
दर्शक
रामभरोसे मिठाई का डिब्बा लेकर आया था। मैंने पूछा क्या हुआ तो खुशी उफनाते हुए बोला “बेटे की नौकरी लग गयी है”
अरे बधाई हो। पर, तुम तो उसे बहुत गालियां देते रहते थे कि किसी बात पर ध्यन नहीं देता। यह तो अच्छी बात हुयी। यह भी बताओ कि यह कैसे सम्भव हुआ!
“ मैंने उस पर पूरा ध्यान दिया। मेरी ही बजह से वह इस नौकरी में सफल हो सका” वह बोला ।
“ पर तुम तो एक बार कह रहे थे कि तुमने थक हार कर उससे हाथ खींच लिये फ्री हैंड दे दिया है, पर आज तुम अपनी ही पीठ थपथपा रहे हो।“
“अरे वह तो ज़ुमला था। वह भरोसा बढाने का खेल था। मोदीजी ने भी तो पहले सेना को फ्री हैंड दिया था किंतु सेना द्वारा बम गिराते ही अपनी सरकार की तारीफ में कसीदे पड़ने लगे थे।“
मोदी मोदी करने वाले लोग हर काम में मोदी होने लगते हैं। मैंने राम भरोसे से पूछा- तुम्हारी जाति क्या है रामभरोसे?
“ अच्छा तुम यह समझ रहे हो कि मेरे नालायक बेटे को आरक्षण के कारण नौकरी मिल गयी है सो सुन लो कि मैं आरक्षित वर्ग में नहीं आता हूं। ब्राम्हण हूं, पूरा पूरा ब्राम्हण, सरयूपारि ब्राम्हण...”
“अरे वो बात नहीं, और जहाँ तक आरक्षण का सवाल है सो अब मोदी जी ने उसमें भी भेद मिटा दिया है। कोटे वाले सारी जातियों में आ गये हैं, और मैं तो वैसे भी आरक्षण के पक्ष में हूं, मैं तो दूसरे कारण से पूछ रहा था”
“मैं सब समझता हूं, किस कारण से पूछ रहे थे?”
“ वो मातादीन के पैर धुलवाने थे”
“ कौन मातादीन, और उससे मेरा क्या सम्बन्ध, और फिर तुम मेरी जाति क्यों पूछ रहे थे?”
“ बात यह है कि मातादीन सफाई कर्मचारी है और जब से मोदी जी ने चार सफाई कर्मचारी के पैर धोये हैं तब से हर सफाई कर्मचारी इसी प्रतीक्षा में है कि उसके पैर धुलवाने के लिए कोई मोदी, नहीं तो, उनका भक्त आयेगा और पैर धोयेगा। मैं सोच रहा था कि तुम ब्राम्हण भी हो और मोदी भक्त भी हो सो तुम्हें यह पावन अवसर दिलवा दूं। वैसे भी चुनाव आने वाले हैं और हो सकता है इस नौटंकी से तुम्हें टिकिट मिल जाये, वोट मिल जायें, तुम सांसद बन जाओ, और फिर तुम्हारे मजे हो जायें। छत्तीसगढ से एक नेता थे वे घर वापिसी के लिए ईसाई बन चुके आदिवासियों के पैर धोकर उन्हें हिन्दू बनाते थे और सांसद से मंत्री बन गये थे। मंत्री बनने के बाद रिश्वत में मिली नोटों की गिड्डियां सर माथे लगाते हुए कहते थे कि पैसा खुदा तो नहीं पर खुदा से कम भी नहीं।“
रामभरोसे गुस्से में उठा और अपना मिठाई का डिब्बा भी उठा कर ले गया।     

व्यंग्य चैनल और नल


व्यंग्य
चैनल और नल
दर्शक
मेरे घर नल नहीं आ रहे थे।
अब यही बात मैंने संघी राम भरोसे से कही तो वह आदतन बहस को दूसरी दिशा में मोड़ देता हुआ बोला। “ भाई नल तो अपनी जगह स्थिर है, वह ना तो कहीं से आता है और ना ही कहीं जाता है। हाँ यह बात अलग है कि उसमें से कभी कभी जल आता है और ज्यादातर नहीं आता। अब तुम, जो अपने आप को बुद्धिजीवी कहते हो, से तो यह उम्मीद कर सकता हूं कि तुम सही भाषा बोलोगे।“
मुझे गुस्सा आ गया। वैसे ही आज नल में जल न आने का तीसरा दिन था और बकौल किसी अनुभवी शायर के-
पानी आने की बात करते हो
दिल जलाने की बात करते हो
हमने दो दिन से मुँह नहीं धोया
तुम नहाने की बात करते हो
सो मैं तो पानी के बिना ‘जल बिन मीन’ की तरह छटपटा रहा था, और वह भाजपा के प्रवक्ता की तरह व्याकरण की ओर बात को मोड़ ले गये। वश में होता तो मैं राम भरोसे को पाकिस्तान भिजवाने लगता।
“तुम्हें कोई काम धाम है या ऐसे ही दूसरे की तकलीफों का मजाक बनाते रहते हो। जाके पांव न फटी बिंवाई, वो क्या जाने पीर पराई। तुम्हें कोई तकलीफ तो हैं नहीं इसलिए तुम क्या जानो हमारी तकलीफ!” मैंने कहा  
अब राम भरोसे गम्भीर मुद्रा धारण कर के बोला- तुम कैसे कह रहे हो कि मुझे कोई तकलीफ नहीं है। मैं भी तकलीफ में हूं और मेरी तकलीफ तुम से कम नहीं है।
“क्या तकलीफ है तुम्हें?” मैंने गुस्से से पूछा
       “तुम से ज्यादा! .....तुम्हारे यहाँ नल नहीं आ रहे तो हमारे घर पर चैनल नहीं आ रहे। बीबी बच्चे सब हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं और हम तो हाथ पर लात धरे बैठे रहते हैं। जानते हो आजकल नल के बिना तो चल सकता है पर चैनल के बिना जीवन नहीं चल सकता। सब जानते हैं कि न्यूज चैनल नंगा झूठ बोलते हैं, पर मजाल है कि कोई न्यूज देखना छोड़ दे। चिल्ला चिल्ला कर बोलने वाले एंकर एंकरनियों ने तो नोटबन्दी के बाद दो हजार के नोटॉं में जाने कौन सी चिप लगवा दी थी और जमीन में गाड़ देने के बाद भी उसका पता चल जाने की घोषणा करवा दी थी। रोज जाने कहाँ कहाँ के भूत प्रेत, झाड़फूंक वालों के अड्डे दिखाते रहते हैं। मंत्र तंत्र ज्योतिष भविष्य फल आदि बखानते रहते हैं। ऐसे ऐसे धार्मिक चैनल कि जिन्हें देख कर उल्टी आती है, सब झेल लेते हैं पर फिर भी घर में चैनल तो चाहिए ही चाहिए, क्योंकि सास बहू में परम्परागत कटुता वे ही कायम रखे हुए हैं। सरकार और सेना तक को नहीं पता होता कि कहाँ क्या हुआ पर टीवी पर युद्ध छिड़ जाता है। वीडियो गेम्स के सहारे जाने कहाँ कहाँ बम गिरा आते हैं और दुश्मन देश को नेस्तनाबूद करवा देते हैं। जितनी संख्या से देश के लोगों की आत्मा को ठंडक पहुंचती है उतने पाकिस्तानी मरवा दिये जाते हैं। एंकर जितनी जोर जोर से चीखता है उतना ही टीआरपी बढा हुआ मान लेता है। चूंकि गीता के अनुसार आत्मा तो अजर अमर अविनासी होती है, और जिन्दा भी मरा हुआ ही होता है, इसीलिए तो समझदार साधुओं ने आत्मा की चिंता करना छोड़ दिया है, उसे तो तुम्हारा बाप भी नहीं मार सकता। अब सारे साधु  केवल शरीर की ही चिंता करते हैं। आत्मा अपनी चिंता खुद कर लेती है। पर यह तभी सम्भव है जब चैनल आते रहें।
मैं उसके भाषण के प्रभाव में नल न आने की चिंता भूल गया था।  
  

व्यंग्य सपनों की दुनिया में



व्यंग्य

सपनों की दुनिया में

दर्शक
रामभरोसे जब भी गम्भीर होने की कोशिश करता है तो गधे जैसा लगने लगता है। आज वैसा ही मुखौटा धारण कर के प्रकट हुआ और बिना किसी राम-राम दुआ-सलाम के सीधे सवाल किया- ये सपना क्या है?
मुझे लगा कि आज तो राम भरोसे दार्शनिक हुआ जा रहा है सो मैंने भी उसी तरह की थूथर बनाते हुए अपनी छोटी छोटी आँखें और छोटी छोटी कर लीं जिसे मैथिली शरण गुप्त की भाषा में ‘नेत्र निमीलित एक निमेष’ कहा गया है और मीर की भाषा में ‘नीम बाज आँखें’ कहा गया है। जब भी मैं इस दशा को पहुँचता हूं तो मुझे दूसरों की कविताएं याद आने लगती हैं। तुरंत नीरज जी, रामकथा की मंथरा की जिभ्या पर बिराज गयी सरस्वती की तरह आ गये और मैंने सुनाना शुरू किया-
सपना क्या है, नयन सेज पर सोया हुआ आँख का पानी
और टूटना है उसका ज्यों, जागे कच्ची नींद जवानी
सुनते ही रामभरोसे दुर्वासा होगया और किसी विज्ञापित टूथ पेस्ट के माडल की तरह झटके से चेतना में झनझना कर प्रवेश करते हुए चिल्लाया- अबे चुप्प ।
मैं सकते में आ गया।
वह फिर उसी तेज तर्रार स्वर में बोला- मैं सपना चौधरी के बारे में पूछ रहा हूं और तुम दर्शनशास्त्री बनने की कोशिश कर रहे हो। तुम्हारे जैसे लोगों के बारे में ही सरोज जी ने कहा था-
सिर पर लिए वितान फिर रहे हैं
मेघों के मानिन्द घिर रहे हैं
लेकिन ये रीते के रीते हैं
क्योंकि धरा से दूर तिर रहे हैं
मैं एक सकते से निकल ही नहीं पाया था कि दुबारा सकते में आ गया। फिर थोड़ा संयत होकर बोला – अच्छा तो तुम इसी मृत्यु लोक के भरत खण्डे में ही विचर रहे हो! मुझे तुम्हारी सुनिश्चित समय बताने वाली शकल देख कर गलतफहमी हो गयी थी। देखो मुझे महिलाओं में जितनी भी रुचि है, उसे मैं एक भले भारतीय की तरह प्रकट नहीं होने देता। अपनी लम्पटता को छुपा कर रखना ही हमारा राष्ट्रीय चरित्र है, और यही कारण है किसी ने अभी तक मुझे पाकिस्तान भेजने की बात नहीं की। रही बात सपना चौधरी की सो जितना मैं जानता हूं कि वह हरियाणा की मशहूर डांसर है और नौटंकी के दर्शकों जैसे लोगों के बीच ठुमके लगा कर अपनी युवा देह की लचक को प्रदर्शित करती है। हरियाणा से सटे इलाकों में बेहद लोकप्रिय है।
“इतना तो मुझे भी पता है और मैं भी वे ही अखबार पढता, व वे ही चैनल देखता हूं जिन्हें तुम देखते हो, पर मैं जानना चाह रहा था कि राजनीति में इसका क्या योगदान है या क्या भूमिका है?”
खुद को ज्ञानी मानने की भूमिका में आते ही मैं सकते से बाहर निकला और किसी पढे लिखे बुद्धिजीवी की तरह बोला - “ अभिनय और नृत्य कला से जनित लोकप्रियता को कार्पोरेट पोषित राजनीतिक दलों की जन विरोधी नीतियों के बाबजूद मतदाताओं की भावनाओं को सहला कर वोट झटक लेने की जो भूमिका पिछले अनेक सालों से वैजयंती माला, हेमा मालिनी, जयाप्रदा, रेखा और  जया बच्चन, किरण खेर, दीपिका चिखलिया, स्मृति ईरानी आदि निभाती आ रही हैं, उसी विधा का पेपरबैक संस्करण सपना चौधरी हैं।“ 
“ पर ये महिला बिना चुनाव जीते ही राजनीतिक दल बदल रही है और ये दल कितने दीवालिया हो चुके हैं कि उसे अपना सदस्य बताने और उम्मीदवार बनाने की होड़ लगाये हुए हैं, दूसरी ओर इनके अडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, शांता कुमार, जैसे लोग टकटकी लगाये टिकिट टपकने की आस में टाप रहे हैं। ये क्या हो रहा है?”
मैं पुनः दार्शनिक सा होते हुए बोला – रामभरोसे तुम्हारा यह लोकतंत्र भी तो एक सपना है, देखते रहो। बहरहाल जयाप्रदा को भाजपा में शामिल होने के पाँच घंटे के अन्दर ही टिकिट देने पर एक शे’र याद आ रहा है –
जब मिली आँख, होश खो बैठे
कितने हाजिरजबाब हैं वे लोग