गुरुवार, 25 फ़रवरी 2021

व्यंग्य सोशल मीडिया पर अनसोशल नियंत्रण

 

व्यंग्य

सोशल मीडिया पर अनसोशल नियंत्रण

दर्शक

मैं कुछ कुछ गुस्से और कुछ उदासी अर्थात खीझा हुआ था कि तभी हुमकता हुआ राम भरोसे आ गया। मैंने कुढ कर पूछा- क्या हुआ, आज बहुत खुश नजर आ रहे हो?

“ क्यों नहीं आज बात ही खुशी की है” वह बोला

“ऐसी क्या बात हो गयी?” मैंने पूछा

“ आज भारत सरकार ने बहुत दिनों बाद एक सही कदम उठाया है”

“ऐसा क्या कर दिया तुम्हारी भारत सरकार ने?”

“उसने सोशल मीडिया के दुरुपयोग रोकने के लिए नये नियम बनाने की घोषणा की है”

“ क्या कोई नया मीडिया शुरू हुआ है?”

“ अरे भाई तुम सोशल मीडिया भी नहीं समझते. जिसका मतलब होता है फेसबुक, व्हाट’स एप्प, इंस्टाग्राम, ट्वीटर आदि “

“ इतनी बात तो आजकल बच्चे भी समझते हैं, और बच्चे ही ज्यादा समझते हैं, पर ये सब तो बहुत पुराने हो गये हैं”

“ हाँ उन्हीं पर तो जो सामग्री आ जा रही थी, उस पर नियंत्रण करने के लिए ही तो ये नियम बनाये जा रहे हैं”

“ अर्थात अब सूचनाओं के सम्प्रेषण पर सरकार का नियंत्रण रहेगा”

“ हाँ भाई हाँ इससे समाज में विकृति फैलाने वाली, देशद्रोही सामग्री पर नियंत्रण लग सकेगा” 

“ तो ऐसी सामग्री की सूची भी बनेगी, जिसे सरकार बनायेगी, या उसके द्वारा नियुक्त समिति बनायेगी जैसी किसानों के मुद्दे पर समिति गठित की गयी थी। फिर विपक्ष के हाथ से बचा खुचा मीडिया भी छिन जायेगा और आदतन यह सरकार विपक्ष की हर आवाज को देशद्रोही कह कर दबा सकेगी। कोर्ट के पास जाने का मतलब यही होगा कि – खाक हो जायेंगे हम तुमको खबर होने तक। अन्धभक्तों के लिए तो मोदी और अमितशाह ही देश हैं और उनकी आलोचना का मतलब ही देशद्रोह होता है। “

“ तुम जानते नहीं हो कि सोशल मीडिया पर कैसी कैसी गन्दी फिल्में और वीडियोज चलते हैं”

“हाँ वे भी चलते होंगे, पर उनके लिए तो बहुत पहले से कानून बनाने के विकल्प खुले हुए थे, और कर्नाटक में तो माननीय विधायक गण ऐसे वीडियोज देखते हुए कैमरे की आँख से देखे गये थे, जिन्हें आजतक कोई सजा नहीं मिली।“

“ तो तुम चाहते हो कि ऐसा कोई नियम कानून ही नहीं बने?” रामभरोसे ने तैश में आकर पूछा।

“ ऐसा नहीं, पर यह तो देखना होगा कि यह कानून जिस वर्तमान सरकार के हाथों में जायेगा, उसका चरित्र क्या है, वह इसका कैसा उपयोग करेगी? अगर सरकार ईमानदार होती तो शुरू के वर्षों में ही ले आती, और इसकी जाँच 2011 से करती। सोशल मीडिया के दुरुपयोग का प्रारम्भ किसी ने तो किया होगा! सब जानते हैं कि गाँधी से लेकर नेहरू समेत आज़ादी के सिपाहियों के झूठे किस्से किसने चलवाये! राहुल गाँधी को पप्पू बनाने और काँग्रेस को भ्रष्ट बताने में इसी सोशल मीडिया का हाथ था जिसे भाजपा का आईटी सैल ही चलाता था। जब प्रिंट मीडिया बिक गया था तो सरकार की सच्चाई सामने लाने वाला यही मीडिया था। सोशल मीडिया ने ही राजनीतिक सच्चाई को सामने रख कर किसान आन्दोलन को दुनिया का सबसे बड़ा आन्दोलन बनाया।“

रामभरोसे का ऊँट की तरह ऊपर उठा मुँह, गधे की तरह लटक गया था। 

व्यंग्य परजीवी

 

व्यंग्य

परजीवी

दर्शक

बौखलाया हुआ आदमी कुछ भी कह सकता है। उसके शब्द और उन शब्दो के अर्थ से ज्यादा उसकी बौखलाहट ही ध्यान देने लायक होती है। किसी नाशायर ने कहा है कि –

इन हसीनाओं से जब भी बात कर

अक्ल को रख दे उठा कर ताक पर

सिर्फ होठों की ही जुम्बिश देखिए 

जाइए मत बात पर अलफाज पर

एक बार एक प्रदेश के मुख्य सचिव को किसी कार्यक्रम का मुख्य अतिथि बनाया गया था, तब शुभकामनाएं देते हुए अपने भाषण में उन्होंने कहा कि मैं इस विषय पर कुछ भी नहीं जानता जिस पर आपका कार्यक्रम चल रहा है और मैं किसी मूर्ख नेता की तरह व्यवहार नहीं कर सकता जो कुछ भी नहीं जानता है और सब कुछ जानने का दावा करता है।

एक नेता ने अपनी बौखलाहट में आन्दोलनकारियों को आन्दोलनजीवी कह दिया तो उसके गुलामों को छोड़ कर सब ने इतनी छीछालेदर की कि अगर वह मोटी चमड़ी का ना होता तो उसकी इज्जत जगह जगह से छिल चुकी होती और उससे खून रिस रहा होता। मैं दूसरों के दिये जख्मों पर नमक छिड़कने में बिल्कुल भरोसा नहीं करता हूं इसलिए मैं उसके द्वारा बांटी गयी दूसरी उपाधि पर बात करना चाहता हूं। वैसे गणतंत्र दिवस पर उपाधियां बांटना सरकार की ड्यूटी में शामिल है और अब तो ऐसे ऐसे लोगों को उपाधियां मिलने लगी हैं जिन्हें पोस्टमैन तक नहीं पहचानता। इन सरकारी सम्मानों के साथ साथ ये निजी तौर पर भी उपाधियां बांटते रहते हैं। किसी को देशद्रोही, गद्दार, नक्सलवादी, खालिस्तानी, टुकड़े टुकड़े गैंग, अर्बन नक्सल, अलगाववादी, आतंकवादी, स्यूडो सेक्युलर, पाकिस्तानी, चीनी आदि आदि को पद्मश्री, पद्मभूषण, पद्मविभूषण, भारत रत्न की तरह देते रहते हैं। अब इस सूची में आन्दोलनजीवी और परजीवी शब्द भी जुड़ गये हैं। आन्दोलनजीवी पर आपका बहुत ध्यान आकर्षित हो चुका होगा, इसलिए मैं आपका ध्यान परजीवी पर आकर्षित करना चाहता हूं।

परजीवी ना त्रेताजीवी होता है ना द्वापरजीवी। वह वर्तमान में जीता है। वह लाठी को दण्ड नहीं कहता, ना ही नेकर कालीटोपी वाली ड्रैस को गणवेश ही कहता है। परजीवी वह जीव भी नहीं होता जिसके पर लगे होते हैं, पर वह अपने हौसलों के परों से आसमान में उड़ता है। ऐसा करते समय वह एक ऊंचाई से अपने वर्तमान की सच्चाइयों का परीक्षण करता है”

“कुछ काम करो, कुछ काम करो

जग में रह कर कुछ नाम करो”

लिखने वाले मैथिली शरण गुप्त जी ने ही लिखा है –

“शानदार था भूत भविष्यत भी महान है, अगर सम्हालें उसे आप जो वर्तमान है”

एक दार्शनिक ने कहा है कि महापुरुषों के चरण चिन्हों पर चलने के झांसे में मत आना क्योंकि महापुरुष कभी बने बनाये रास्तों की जमीन पर चरण चिन्ह बनाते नहीं चलते। वे तो अनंत आकाश में अपने बनाये मार्ग पर उड़ते हैं, और आकाश में कोई चिन्ह नहीं बनते। उनके मार्ग पर चलने के लिए अपने अन्दर पर [पंख] पैदा करने होते हैं। अर्थात परजीवी का एक अर्थ अपने परों से अपने मार्ग पर चलने वाला हुआ। गौतम बुद्ध ने इसे ही ‘अप्प दीपो भव’ कहा है।

जब सरकार के पास पुलिस, फौज, बीएसएफ, आरपीएफ, होमगार्ड, पीएसी, आदि न जाने कितने बल होते हैं, तो किसानों के साथ मजदूर, कर्मचारी, दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक, महिलाएं आदि हर तरह के शोषित एक साथ आते हैं और एक दूसरे की मदद करते हैं तो इन सहयोगियों के एक दूसरे के काम आने को परजीवी नहीं कहा जा सकता। वे तो पहले ही गाते रहे हैं-
हम क्या गोरे क्या काले, सब एक हैं, एक हैं

हम जुल्म से लड़ने वाले सब एक हैं, एक हैं    

व्यंग्य निशान और निशान साहब

 

व्यंग्य

निशान और निशान साहब

दर्शक

कभी हम लोग नारे लगाते थे-

लाल किले पर लाल निशान

मांग रहा है हिन्दुस्तान

उस दौर के कवि ऐसी ही कविताएं व नारे लिख सकते थे, क्योंकि वे हिन्दुस्तान को इसी तरह का देख रहे थे। दुष्यंत कुमार ने लिखा था-

कल वो मेले में मिला था चीथड़े पहिने हुये

मैंने पूछा नाम तो बोला कि हिन्दुस्तान है

इतिहास बताता है कि बाद में जनसंघ का तर्पण करने के बाद उसकी राख से एक पार्टी ने जन्म लिया या कहें कि पुनर्जन्म लिया और अपना नाम भाजपा रखा। भाजपा अर्थात भारतीय जनता पार्टी। महापुरुषों से लेकर नाम तक चुराने वाले स्ंगठन ने भारतीय जनसंघ का भारतीय चुराया और 1977 में झाडूमार जीत दर्ज कराने वाली जनता पार्टी से बाकी का हिस्सा लेकर भारतीय जनता पार्टी बन गयी। फिर उसने वामपंथियों का नारा चुरा कर नया नारा गढा-

लाल किले पर कमल निशान

मांग रहा है हिन्दुस्तान

[ हिन्दुस्तान यहाँ भी मांगता ही रहा और निशान का पोस्टर लगाने वाली जगह लाल किला ही रहा]

आते आते 2021 आया तो कृषि कानूनों के खिलाफ किसान आन्दोलन हुआ, जिसमें पंजाब के सिखों ने केन्द्रीय भूमिका निभायी। किंतु अब हिन्दुस्तान मांगने वाला नहीं था अपितु अपने अधिकार लड़ कर छीनने वाला था। उसके संघर्ष के तरीके भी नये थे इसलिए उसने मनुष्यों के साथ साथ मशीन को भी अपने आन्दोलन का साथी बनाया। अपने लाल झंडे पर कभी हंसिया हथोड़े का प्रतीक चिन्ह बनाने वालों ने ट्रैक्टर रैली निकालने का नया प्रयोग किया। जब खेती के तरीके बदलते हैं तो किसान के संघर्ष के प्रतीक भी बदलेंगे। इस समय सरकार भाजपा की थी जो पीछे की ओर देखने की आदी थी, और इतना पीछे देखती थी कि इतिहास का मुगल काल, उसकी भाषा व उस दौर में विकसित संस्कृति, सबको नकार देना चाह्ती थी। उसे ट्रैक्टर रैली के विचार ने भौंचक्का कर दिया। पहले ही दिल्ली की सीमाओं पर किसान जम चुके थे और वे भिखमंगे नहीं थे। वे सुदामा की तरह अपने तन्दुल की पोटली अर्थात अपना राशन साथ लेकर आये थे व उन्हें डंडे मारने वाले पुलिस वालों को भी पानी पिला कर, कृष्ण सुदामा का दृश्य रच रहे थे।

भाजपा संघर्ष की नहीं षड़यंत्र की राजनीति करने की आदी रही, चाहे दलबदल से सरकारें बनाने की बात हो, या दंगे करा के ध्रुवीकरण कराने की बात हो, भारतीय राजनीति की कालिमा का बड़ा हिस्सा उसी के खाते में आता है। विडम्बना यह थी कि इस बार उनके पसन्दीदा विषय हिन्दू-मुसलमान की जगह सिख आ गये थे जिन्हें वे हिन्दुओं के खाते में डाल कर मन और जन दोनों को बहलाते रहते थे, और जो जरूरत पड़ने पर सबको को लंगर छकाते थे।

‘राम की चिड़ियां, राम के खेत / खा लो चिड़ियां भर भर पेट ।

राष्ट्रीय षड़यंत्रकारी संगठन ने यहाँ भी मार्ग तलाशा और आन्दोलन के बीच से ही एक गद्दार तलाश लिया जो प्रधानमंत्री, गृहमंत्री, सांसदों से लेकर उनके माँ [सौतेली] और बाप के बगल में बैठ कर् खुद को तोप समझने लगा था। उसने आन्दोलन का सहारा लेकर घुसपैठे के सहारे भीड़ को मार्ग भटका दिया। भूल भुलैयों में भटक कर वे लाल किले पहुंच गये, जहाँ सरकार की पुलिस घरातियों की तरह उनका इंतजार कर रही थी। लाल किले और निशान मांगने के रिश्ते में इस भाजपा के एजेंट ने सिखों का झंडा निशान साहब ही फहरा दिया। इससे उसके एक पंथ दो काज हो गये। किसानों के संघर्ष का झंडा पीछे रह गया और सिख बनाम हिन्दू की पुरानी दरार उभारने का मौका भी मिल गया।

अपनी सरकार बचाने में देश को गर्त में डाल रहे हैं।

व्यंग्य कठिन दुश्मन

 

व्यंग्य

कठिन दुश्मन

दर्शक

देश के पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रसाद सिंह की एक कविता है-

तुम मुझे क्या खरीदोगे

मैं तो मुफ्त हूं

मुफ्त आदमी को खरीदना सबसे कठिन काम होता है। दिल्ली घेरे किसान ऐसे ही मुफ्त लोग हैं, वे ऐसे लोग हैं जिनकी आदत सरकार को नहीं है। वह तो समझती रही है कि अगर कोई विरोध करने आयेगा तो उसकी जन्मपत्री खोल कर ईडी, सीबीआई, आईडी, एनएसए, नारकोटिक्स किसी न किसी स्कैम की झलक दिखा कर चुप करा देंगे। अपने पलतू मीडिया से किसी को देशद्रोही बता देंगे, किसी को खालिस्तानी, पाकिस्तानी, किसी को गद्दार, नक्सलवादी, माओवादी, टुकड़े टुकड़े गैंग, अफज़ल गैंग, वगैरह वगैरह। किसी को ठंड का दण्ड दे देंगे तो कोई लू लपट, बरसात से हिम्मत हार जायेगा। जो ऐसे नहीं हारेगा तो उसे लालच के लिजलिजे लेपन से चिपका लेंगे। आन्दोलन के नेता को सरकारी पार्टी में ले लेंगे, विधायक, सांसद, मंत्री, कार्पोरेशन के अध्यक्ष, आयोग के सदस्य आदि आदि लपेट देंगे। बिल्कुल ऐसे जैसे बलगम में मक्खी फंस जाती है।

पर ये तो कर्री बिद गयी है। कोई युक्ति काम नहीं कर रही। इनके समर्थन में चुनावी पार्टियां तो हैं ही, इनके साथ लाल लाल झंडे वाले भी हैं जो सचमुच में ना खाते हैं, ना खाने देते हैं। ये ना हिन्दू मुस्लिम के झांसे में आते हैं ना फाइव स्टार होटल से मंगवाया तुम्हारा लंच खाते हैं। और कभी तुम्हारी चाय भी पीते हैं तो पहले अपने साथ लाया हुआ खाना तुम्हें खिला देते हैं। हमने तुम्हारी चाय पियी, तो तुम हमारा नमक खाओ। जनता देख रही है कि तुम नमक खा कर भी धोखा देने से बाज नहीं आ रहे हो।

इनके मन में न्यायपालिका का जो सम्मान है सो तुम उसका दुरुपयोग करने में भी नहीं चूके। जाने कब से कह रहे थे कि न्यायपालिका चले जाओ। किसान नहीं गये। फिर भी मगरमच्छों के आंसुओं ने जो समितियां बनवायीं उससे समझ में आ गया कि समितियों में न्यायपालिका की निष्पक्ष भावना वाला कोई नहीं है। तुम समितियां बनवा लो फैसले कर लो चाहे सड़कों को खोद दो या ठंडे पानी की बौछारें कर दो, वे तो सविनय अवज्ञा करके बैठे हैं, क्योंकि तुमने बेईमानी से कानून बनवा लिये और जिनके हित में बनवाये हैं, उनके बारे में लगातार झूठ बोल रहे हो। घोड़े के आगे गाड़ी बाँध रहे हो। किसान भोला और भला हो सकता है, किंतु मध्यम वर्ग के अन्धभक्तों की तरह मूर्ख नहीं। वो जानता है कि जे एन यू पर किसने हमला कराया था, सीएए आन्दोलनकारियों के बीच गोली चलाने वाला कहाँ से आया था।दिल्ली में मुँह बाँधे दंगाई कहाँ से आये थे और मुजफ्फरनगर योगी क्यों गये थे। पहले उनसे हिंसा कराते हो और फिर कानून के डर से डराते हो।

अब तक 56 लोगों ने अपनी जानें दे दीं और उनके प्रति श्रद्धांजलि देते हुए दूसरा कोई किसान डरा नहीं। वे निहत्थे हैं, और उनके मुँह से गाली भी नहीं निकल रहीं। वे तो अपना चूल्हा चौका लेकर बैठे हैं, अपने ट्रैक्टर ट्राली के नीचे अपना चूल्हा जला कर खा रहे हैं और तुम्हारे पुलिस वालों को भी पानी पिला रहे हैं। तापने के लिए तुम्हारे किसान बिलों की प्रतियां तो हैं ही।

धरती उनकी माँ है, हेमा नहीं। याद आया कि तुमने पंजाब की माँओं, दादियों के खिलाफ कंगनाओं को लगा दिया। कृषि कानूनों के पक्ष के लिए हेमा को लगा दिया जिन्हें बोलना नहीं आता और अभी तक दूसरे के लिखे डायलौग बोलने की आदी रही हैं। वे पंजाब के आन्दोलनकारियों को कृषि कानून समझा रही हैं। निदा फाजली ने कहा है कि –

कभी कभी यूं ही हमने अपने दिल को बहलाया है

जिन बातों को खुद नहिं समझे, औरों को समझाया है   

कृषि कानूनों के खिलाफ आन्दोलनकारियों के खिलाफ सात सौ सभाएं करने की घोषणा करने वाले अमित शाह अब खट्टर को समझा रहे हैं कि किसानों के खिलाफ सभाएं नहीं करें।

जान एलिया का एक शे’र है-

चारासाजों की चारासाजी से, दर्द बदनाम तो नहीं होगा

तुम दवा दे तो रहे हो. पर बतलाओ, मुझको आराम तो नहीं होगा

व्यंग्य गया साल , नया साल

 

व्यंग्य

गया साल , नया साल

दर्शक

एक साल में दो साल नहीं रह सकते, इसलिए एक को विदा करने के बाद ही दूसरा आता है। जब लोग रामराज्य की जी खोल कर प्रशंसा करते हैं, उससे ही पता चलता है कि उनके पिता द्वारा छोड़ा गया राज्य कितना खराब रहा होगा जिसे उनके बाद पादुकाओं के राज्य ने और सत्यानाश कर दिया होगा। वो तो जब उस सिंहासन पर राम चन्द्र जी विराजमान हुये तब वह शासन शुरू हुआ जिसे रामराज्य कहते हैं, ऐसा पौराणिक आख्यान है। गोस्वामी तुलसीदास जी तो कह गये हैं कि-

दैहिक दैविक भौतिक तापा

रामराज्य नहिं काहुहि व्यापा

अर्थात इस राज्य के बाद कोई ऐसी वैक्सीन खोज कर सबका टीकाकरण कर दिया गया था कि किसी को कोई दैहिक ताप ही नहीं व्यापा। वैक्सीन भी कम्पलसरी रही होगी। जब छूत के रोग फैलते हैं तो शतप्रतिशत टीकाकरण अनिवार्य हो जाता है, बरना बचे हुओं का रोग टीकित लोगों तक पहुंच सकता है। हमारे बचपन में चेचक का टीका करण प्रारम्भ हुआ था तब छात्रों ने टीकों से बचने के नये नये तरीके ढूंढ निकाले थे। अगर पता चल जाता था तो कई बच्चे स्कूल ही नहीं आते थे। जो घर से स्कूल के लिए निकलते थे वे घर और स्कूल के बीच में जाने कहाँ चले जाते थे कि दिल्ली से भेजे सरकारी रुपये का 15% ही पहुंच पाते थे। कुछ तो इतने जोर जोर से रोने लगते थे कि पूरा स्कूल थर्रा जाता था। एक बार तो एक बच्चे ने डर के मारे अपना पेंट और स्कूल की फट्टी दोनों ही गीली कर दी थीं। सुना है कि कोरोना का टीका आ गया है और उसका प्रयोग किया जा रहा है। कुछ लोग सोचते हैं कि प्रयोग दूसरों पर हो और सफल हो जाने पर सबसे पहले हमें लगे। बड़े बड़े नेता वैक्सीन लगवाते हुए फोटो खिंचवा रहे हैं, किंतु उन पर से भरोसा इतना कम हो गया है कि लोग सोचते हैं कि क्या पता विटामिन ‘बी काम्प्लेक्स’ का टीका लगवा के वैक्सीन का बता रहे हों। पिछले दिनों ‘आरोग्य सेतु’ के विज्ञापन कराये गये थे और बड़ी बड़ी सैलीब्रिटीज को झौंका गया था, किंतु देर सवेर उनमें से अनेक नेता कोरोना संक्रमित पाये गये थे। सैलीब्रिटीज खुद भी अस्पताले के बैड से फोटो भेज रह थे। बीमारी ऐसी फैली कि आरोग्य सेतु के सारे बैनर पोस्टर आदि तक खा लिये गये।

पहले तो देश के स्वास्थ मंत्री ने कहा कि यह मामूली सर्दी जुकाम है, पशुपालन मंत्री ने कहा कि गरमी आते ही सारा वायरस मर जायेगा। न.प्र, के प्रोटैम स्पीकर ने तो घोषणा कर दी थी कि 5 अगस्त को राम मन्दिर का शिलायांस होते ही सारा वायरस खत्म हो जायेगा। पर कुछ भी नहीं हुआ। लोग लगातार अस्पताल में जाते रहे और पीपीई किट में लिपटे वपिस आते रहे। मुल्ला, पंडित, आदि को चिंता सताने लगी कि बचे भी रहे तो उनकी दुकान का क्या होगा, खायेंगे क्या! लाक डाउन में आमदनी दस प्रतिशत रह गयी थी और भगवान पर भरोसा ज़ीरो परसेंट। कोरोना ने धर्म की दुकानों का भट्टा बैठा दिया। फेसबुक में हर तीसरी पोस्ट किसी  के मरने की होती है। विनम्र श्रद्धांजलि के टैम्प्लेट बन गये हैं, फोटो देखे और चिपका दिये। कई बार तो किसी के जन्मदिन के अवसर पर प्रकाशित पर भी विनम्र श्रद्धांजलि चला जाता है।

अब ऐसे में नये साल की शुभकामनाएं कैसे दें! यही दुआ करके निकाल दिया कि इस बीस का उन्नीस भले निकल जाये पर इक्कीस ना हो।                            

व्यंग्य गांधी जी का ठिकाना

 

व्यंग्य

गांधी जी का ठिकाना  

दर्शक

अब देश और दुनिया को पता चल रहा है कि भारत देश में जो एक चुनी हुयी सरकार चल रही है जिसकी एक मंत्रिपरिषद है और उसमें श्री नरेंद्र मोदी और श्री अमितशाह के अलावा दूसरे भी सदस्य हैं। अब पता चला है कि सरकार के कृषि मंत्रालय के एक मंत्री भी हैं और उनका नाम भी नरेन्द्र है, श्री नरेन्द्र सिंह तोमर। एक रेल मंत्री भी हैं जो कभी बजट प्रस्ताव भी बांच चुके हैं, एक रक्षा मंत्री भी हैं जिन्हें राफेल विमान पर नींबू मिर्ची बांधने के अलावा और कुछ भी आता है। लोग तो भूल ही गये थे कि एक प्रकाश जावेडकर भी हैं जिनके नाम के आगे सूचना प्रसारण मंत्री लिखा जाता है।

किंतु न होते हुए भी राष्ट्रपति प्रणाली जैसी सरकार चल रही थी, भारत के प्रधानमंत्री अमेरिका के प्रेसीडेंट की तरह काम कर रहे थे। बस, मोदी और शाह, शाह और मोदी। अन्य जिनके नाम के आगे मंत्री लिख दिया गया था वे धन्य तो हो गये थे। उनकी जिम्मेवारी इतनी भर तय की गयी थी कि विभाग में कोई भूल हो जाने पर वे उत्तरदायित्व स्वीकार कर लें और दबाव बढने पर स्तीफा दे दें। किसी को मंत्री पद के लाभ देना होते थे सो गंगा मंत्रालय बना दिया जाता था, राज्यों में गौ कैबिनेट बना दी जाती थी। पर बुरा हो इन किसानों की जिन्होंने प्रधानमंत्री को बैकफुट पर ला दिया। प्रधानमंत्री को गंगा के किनारे क्रूज पर तबला बजाना पड़ा और यह उजागर करना पड़ा कि कोई है जिससे वे अपनी सारी बातें साझा करते हैं।

नये कृषि कानूनों के खिलाफ आन्दोलनों की आँच ने जमे जमाये मंत्रिमण्डल को पिघला दिया। मंत्री नाम के चेहरों को ढाल की तरह आगे कर दिया गया। वे कुम्भकरण की तरह जाग गये और चिराग घिसने के बाद सामने आये जिन्न की तरह बोलने लगे ‘हुक्म करें मालिक’। मालिक ने हुक्म दिया कि यह तुम्हारा विभाग है सो किसानों से बात करो। दूसरा कोई होता तो कहता कि बात तुमने बिगाड़ी है और मैं कैसे सम्हालूं जिसे फैसला लेने का कोई अधिकार ही नहीं। जब सब फैसले तुम्हीं ले रहे हो तो बात भी तुम्हीं करो। पर मंत्री पद की सुविधाओं के जारी रहने का सवाल था इसलिए तीन तीन मंत्री मिल कर भी असफल दर असफल वार्ताएं करते रहे। इसके बाद अमित शाह का प्रवेश होना लाजिमी था और वे आन्दोलन की कमजोर कड़ियो को बुला भेजते हैं, जो हाथ खड़े कर देते हैं, हम से नहीं हो पायेगा।

रामभरोसे के सपनों में गांधीजी आये और बोले एक कहानी सुनो। एक आदमी बहुत आस्तिक था और जैसा कि होता है उसके भगवान ने उसकी परीक्षा लेने की ठानी सो वह इतना गरीब हो गया कि भूखे मरने की नौबत आ गयी। उसने मन्दिर में जा कर भगवान से मांगा पर कई दिन तक कुछ भी नहीं मिला। वह अमीर अमीर भक्तों को देख देख कर जलता रहा। उसने तय किया कि क्यों ना भगवान के इन्हीं भक्तों से मांग लिया जाये। सो वह अन्दर से बाहर आ कर भीख मांगने लगा। शाम तक बैठा रहा, पर फिर भी कुछ ना मिला। निराश होकर वह मदिरालय के बाहर भीख मांगने बैठ गया। देर रात में एक आदमी शराब में धुत होकर निकला तो उसे भीख मांगते देख कर उसने जेब में हाथ डाला और सारे रुपये निकाल कर उसके कटोरे में डाल दिये और लड़खड़ाता चला गया। वह आदमी ऊपर हाथ उठा कर बोला – भगवान तू भी बहुत चालाक है, रहता कहीं और है और पता कहीं और का देता है।

“मैं समझा नहीं बापू कि आप इस कहानी से क्या कहना चाहते हैं?” रामभरोसे बोला

बापू बोले जो लोग हमारे नाम पर राजनीति करते हैं वे झूठे हैं मैं तो इन किसानों के दिलोदिमाग में रहता हूं, जो इतने दिनों से अहिंसक आन्दोलन चला रहे हैं।