गुरुवार, 25 फ़रवरी 2021

व्यंग्य परजीवी

 

व्यंग्य

परजीवी

दर्शक

बौखलाया हुआ आदमी कुछ भी कह सकता है। उसके शब्द और उन शब्दो के अर्थ से ज्यादा उसकी बौखलाहट ही ध्यान देने लायक होती है। किसी नाशायर ने कहा है कि –

इन हसीनाओं से जब भी बात कर

अक्ल को रख दे उठा कर ताक पर

सिर्फ होठों की ही जुम्बिश देखिए 

जाइए मत बात पर अलफाज पर

एक बार एक प्रदेश के मुख्य सचिव को किसी कार्यक्रम का मुख्य अतिथि बनाया गया था, तब शुभकामनाएं देते हुए अपने भाषण में उन्होंने कहा कि मैं इस विषय पर कुछ भी नहीं जानता जिस पर आपका कार्यक्रम चल रहा है और मैं किसी मूर्ख नेता की तरह व्यवहार नहीं कर सकता जो कुछ भी नहीं जानता है और सब कुछ जानने का दावा करता है।

एक नेता ने अपनी बौखलाहट में आन्दोलनकारियों को आन्दोलनजीवी कह दिया तो उसके गुलामों को छोड़ कर सब ने इतनी छीछालेदर की कि अगर वह मोटी चमड़ी का ना होता तो उसकी इज्जत जगह जगह से छिल चुकी होती और उससे खून रिस रहा होता। मैं दूसरों के दिये जख्मों पर नमक छिड़कने में बिल्कुल भरोसा नहीं करता हूं इसलिए मैं उसके द्वारा बांटी गयी दूसरी उपाधि पर बात करना चाहता हूं। वैसे गणतंत्र दिवस पर उपाधियां बांटना सरकार की ड्यूटी में शामिल है और अब तो ऐसे ऐसे लोगों को उपाधियां मिलने लगी हैं जिन्हें पोस्टमैन तक नहीं पहचानता। इन सरकारी सम्मानों के साथ साथ ये निजी तौर पर भी उपाधियां बांटते रहते हैं। किसी को देशद्रोही, गद्दार, नक्सलवादी, खालिस्तानी, टुकड़े टुकड़े गैंग, अर्बन नक्सल, अलगाववादी, आतंकवादी, स्यूडो सेक्युलर, पाकिस्तानी, चीनी आदि आदि को पद्मश्री, पद्मभूषण, पद्मविभूषण, भारत रत्न की तरह देते रहते हैं। अब इस सूची में आन्दोलनजीवी और परजीवी शब्द भी जुड़ गये हैं। आन्दोलनजीवी पर आपका बहुत ध्यान आकर्षित हो चुका होगा, इसलिए मैं आपका ध्यान परजीवी पर आकर्षित करना चाहता हूं।

परजीवी ना त्रेताजीवी होता है ना द्वापरजीवी। वह वर्तमान में जीता है। वह लाठी को दण्ड नहीं कहता, ना ही नेकर कालीटोपी वाली ड्रैस को गणवेश ही कहता है। परजीवी वह जीव भी नहीं होता जिसके पर लगे होते हैं, पर वह अपने हौसलों के परों से आसमान में उड़ता है। ऐसा करते समय वह एक ऊंचाई से अपने वर्तमान की सच्चाइयों का परीक्षण करता है”

“कुछ काम करो, कुछ काम करो

जग में रह कर कुछ नाम करो”

लिखने वाले मैथिली शरण गुप्त जी ने ही लिखा है –

“शानदार था भूत भविष्यत भी महान है, अगर सम्हालें उसे आप जो वर्तमान है”

एक दार्शनिक ने कहा है कि महापुरुषों के चरण चिन्हों पर चलने के झांसे में मत आना क्योंकि महापुरुष कभी बने बनाये रास्तों की जमीन पर चरण चिन्ह बनाते नहीं चलते। वे तो अनंत आकाश में अपने बनाये मार्ग पर उड़ते हैं, और आकाश में कोई चिन्ह नहीं बनते। उनके मार्ग पर चलने के लिए अपने अन्दर पर [पंख] पैदा करने होते हैं। अर्थात परजीवी का एक अर्थ अपने परों से अपने मार्ग पर चलने वाला हुआ। गौतम बुद्ध ने इसे ही ‘अप्प दीपो भव’ कहा है।

जब सरकार के पास पुलिस, फौज, बीएसएफ, आरपीएफ, होमगार्ड, पीएसी, आदि न जाने कितने बल होते हैं, तो किसानों के साथ मजदूर, कर्मचारी, दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक, महिलाएं आदि हर तरह के शोषित एक साथ आते हैं और एक दूसरे की मदद करते हैं तो इन सहयोगियों के एक दूसरे के काम आने को परजीवी नहीं कहा जा सकता। वे तो पहले ही गाते रहे हैं-
हम क्या गोरे क्या काले, सब एक हैं, एक हैं

हम जुल्म से लड़ने वाले सब एक हैं, एक हैं    

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