शनिवार, 25 अगस्त 2018

व्यंग्य नये शब्दकोश


व्यंग्य
नये शब्दकोश
दर्शक
एक कश्मीरी शायर लियाकत ज़ाफरी का शे’र है –
हाय अफसोस... कि, किस तेजी से दुनिया बदली
आज जो सच है, कभी झूठ हुआ करता था
कभी पुरानी फिल्मों में एक गाना चला था – सैंया झूठों का बड़ा सरताज निकला। लगता है कि दिल्ली की टाकीजों में पुरानी फिल्मों के पुनर्प्रदर्शन का कार्यक्रम चल रहा है। चुनी हुयी सरकारी पार्टी और उसके प्रवक्ता जो कहते हैं, उसे देखते हुए लगता है कि पाठ्यक्रम में इतिहास बदलने वाले दल ने जिस ढीठता के साथ शब्दार्थ बदलने शुरू कर दिये हैं तो अब कुछ दिनों में शब्दकोश बदलने की स्थिति आ जायेगी ताकि बयान का यथार्थ के साथ मेल हो सके। जब भाजपा नेता हिन्दू कहते हैं तो उसका अर्थ होता है भाजपा, संघ और उनके आनुषांगिक संगठन। इन पर लग रहे सारे आरोप हिन्दुओं पर लगते हैं। इनके यहाँ मारने वाला नाथूराम गोडसे हिन्दू है किंतु मरने वाले राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी हिन्दू नहीं है। जब जब भाजपा खतरे में होती है तो वह हिन्दू धर्म पर खतरा होता है, देश पर खतरा होता है। मोदी का मतलब मिलेट्री हो गया है। अगर उनके झूठ को पकड़ा जाता है तो उसे देश की सेना का अपमान बताया जाता है, जबकि देश की सेना का अपमान तो वे राजनीतिक पार्टियां करती हैं जो सत्तारूढ होने पर सेना के शौर्य को अपने नाम लिखवाने की कोशिश करती हैं। जब बघारी गयी शेखियों की कलई खुलने लगती है तो नकली लालकिला बना कर उससे भाषण देने वाला नेता ऐसी सर्जीकल स्ट्राइक करने लगता है जिसे वेद प्रताप वैदिक जैसे संघ समर्थक पत्रकार भी फर्जीकल स्ट्राइक कहने को विवश हो जाते हैं। वह तो गनीमत रही कि उन्हें नकली पाकिस्तानी सिर नहीं मिले बरना वे एक का दस करके दस का दम दिखा देते।
डीसीएम टोयेटा को रथ बना कर घूमने वाली पार्टी के नेता इतिहास, पुरातत्व ही नहीं महापुरुषों की जीवनी को भी उलट देना चाहते हैं. कबीर नानक के साथ गोरखनाथ आदि लोगों को मिला देते हैं और उसके लिए क्षमा भी नहीं मांगते।  मुकुट बिहारी सरोज इन्हीं के बारे में कह गये हैं-
ये जो कहें प्रमाण, करें वो ही प्रतिमान बने
इनने जब जब चाहा, तब तब नये विधान बने
कोई क्या सीमा नापे, इनके अधिकारों की
ये खुद जनम पत्रियां लिखते हैं सरकारों की
इनके जितने भी मकान थे, वे सब आज दुकान हैं
इन्हें प्रणाम करो,
ये बड़े महान हैं।
अगर कोई हिन्दुत्व के नाम पर इनके कट्टरवादी आचरण की तुलना पाकिस्तान से करते हुए देश को हिन्दू पाकिस्तान बनाने का आरोप लगाता है तो वे उसे हिन्दुत्व की निन्दा बताते हुए साधारण समझ वालों को भटकाने भड़काने का काम करते हैं। झूठे फालोअर, झूठी सदस्यता, झूठा बहुमत, झूठी भीड़, झूठा विकास, झूठा सुधार, झूठे खतरे, सब कुछ झूठ झूठ और झूठ।
राहत इन्दौरी कहते हैं –
कुछ और काम उसे याद ही नहीं शायद
मगर वह झूठ बहुत शानदार बोलता है     

व्यंग्य डांडिया का मौसम


व्यंग्य
डांडिया का मौसम
दर्शक
मैंने कहा कि डांडिया का मौसम आ गया है। इतना सुनते ही राम भरोसे मेरे ऊपर लगभग डंडा लेकर दौड़ पड़ा। बोला तुम्हें भारतीय संस्कृति की बिल्कुल समझ नहीं है और पता ही नहीं है कि डांडिया कब, कहाँ कैसे खेला जाता है, बस अपने को बुद्धिजीवी प्रदर्शित करने के लिए लगे रहते हो कुछ भी पेलने।
“ पर मेरा वह मतलब नहीं था..........”। मैंने सफाई देना चाही
“ तो क्या मतलब था? डांडिया माने डांडिया जिसमें हर खेलने वाले के हाथ में दो दो लकड़ियां होती है जो टकराने पर आवाज करती हैं और उन्हें घूम घूम कर ऐसी ही लकड़ियां रखने वाले लोगों से एक लय में टकराना होता है, उसे डांडिया कहते हैं. यह नव रात्रि के अवसर पर देवी पूजा के दौरान देवी की भक्ति के गीत गा गा कर खेला जाता है। यह गुजराती लोक संस्कृति का नृत्य गीत है जो अब पूरे देश में खेला जाने लगा है” राम भरोसे ने अपना सारा ज्ञान एक साथ उंडेल दिया।
“ बस करो भाई, इतना ज्ञान तो मुझे भी है, पर कुछ बातें प्रतीकों में भी कही जाती हैं। पता नहीं आजकल क्यों मिर्ची खाये बैठे रहते हो और बात समझने से पहले ही मोबलिंचिंग करने लगते हो।“ मैंने शांतिपूर्वक कहा।
‘ अच्छा समझाओ, क्या समझाते हो. तुम लोगों को तो आजकल गुजरात की कोई बात नहीं सुहाती और हर डील में मोदी शाह या हर्षद मेहता तलाशने लगते हो, फिर भी बोलो”।
“ देखो भाई डंडा लेकर तो तुम्हीं दौड़ते हो जिसे अपनी सांस्कृतिक भाषा में दण्ड कहते हो व जिसके संचालन का  प्रशिक्षण तुम्हें सुबह शाम शाखा में सिखाया जाता है। मैं तो यह कहना चाह रहा था कि पहले विधानसभा और फिर लोकसभा के चुनाव आ गये हैं और चुनाव आयोग ने इसे पर्व का सही नाम दिया है। चुनावी पार्टियों के नेताओं के लिए यह पर्व ही होता है। उनके लिए राजनीति का मतलब ही चुनाव होता है, जिससे सत्ता पाने की उम्मीदें जगती हैं, और ऐसी कुर्सी के लिए मुँह में पानी आने लगता है जिससे कमाई होती है।“ मैंने धैर्य से अपनी बात समझानी चाही।
“वो तो सब ठीक है पर चुनाव में अभी समय है, और इसमें ये डांडिया क्या है?” उसने सवाल किया।
“सुनो भाई, जिन लोगों के लिए यह पर्व है. तो फिर उसे मनाने के तरीके भी होंगे। उन तरीकों में डांडिया भी एक है। जैसे ही पर्व का महूर्त निकलता है वैसे ही उत्साह का संचार हो जाता है। कार्यकर्ता अपनी अपनी वर्दियां सिलवाने लगते हैं क्योंकि होने से दिखना ज्यादा महत्वपूर्ण होता है। कहा जाता है भक्त तुलसी दास की विनय पर जब उनके भगवान राम उन्हें दर्शन देने आये तो उन्होंने यह कहते हुए सिर झुकाने से इंकार कर दिया कि –
तुलसी मस्तक तब नवै, जब धनुष बान लिउ हाथ
व्यक्ति की पहचान उसकी वर्दी से होती है, बिना उचित वर्दी के भक्त भगवान तक को नहीं पहचानता। मीरा बाई तक कहती हैं कि
जाके सर मोर मुकुट मेरो पति सोई
सो कार्यकर्ता खादी की वर्दी में भगवे या तिरंगे दुपट्टे डाल कर तैयार होने लगते हैं। एक ही दुकान पर कमल के फूल और पंजे के निशान वाली सामग्रियां बिकने लगती हैं व दिखने वाले स्थान पर स्तेमाल होने वाली समस्त पोषाकों, ध्वजों, गाड़ियों, थैलों, पर चुनाव चिन्ह नजर आने लगते हैं।“ मैंने भी अपने हिस्से का ज्ञान उड़ेल दिया।
“ वह तो ठीक है किंतु यह डांडिया क्या है?”
“ बता रहा हूं. चुनाव से पहले चुनाव के लिए टिकिट जुटाना होता है और यह टिकिट अपने ही लोगों से टकरा कर जुटाना होता है। हाई कमान के सामने अपनी ही पार्टी के अपने समान नेताओं से टकराने के लिए उनके चरित्र का चित्रण करना होता है और उन्हें पराजित करने के बाद फिर चुनाव में विपक्षी दल के नेता से टकाराना पड़ता है। इस दौरान अपने दल का टिकिट वंचित नेता भीतर भीतर विरोधी दल के प्रत्याशी का सहयोग करता है व विरोधी दल में टिकिट वंचित नेता अपना सहयोग करता है। चुनाव जीत जाने पर अगर सरकार बन जाती है तो फिर मंत्री बनने के लिए अपने ही दल के विधायकों से मंत्री पद के लिए टकराना होता है। इस तरह घूम घूम कर अपने और पराये से डंडियां टकाराने का मौसम आ गया लगता है।“
राम भरोसे मुँह फुला कर चला गया।       

व्यंग्य तूल देना और तेल लगाना


व्यंग्य
तूल देना और तेल लगाना
दर्शक
भगवा वेषधारी अजय सिंह विष्ट जो खुद को योगी बताते हुए अपना नाम योगी आदित्यनाथ बताते हैं, ने कहा है  कि माब लिंचिंग को ज्यादा ही तूल दिया जा रहा है। योगी के शब्दों के सही अर्थ जानने के लिए मैंने शब्दकोश खोला और तूल का अर्थ देखा अर्थ था तूल, माने कपड़ा, लम्बाई, कोमल पंख, प्रसार, रुई, सविस्तार विवरण ।
मैं धन्य हो गया। अगर कपड़ा के अर्थ में लें तो मृतक को कफन देने की परम्परा है। अजय सिंह विष्ट ने भी भले ही गोरखपुर अस्पताल में मारे गये बच्चों को कफन न दिया हो किंतु उनके परिवार वालों ने तो तूल देना जरूरी समझा होगा। आखिर मोब लिंचिंग में एक दो नही दर्जनों लोग मारे गये हैं। बताइए योगी जी इन्हें तूल दें या न दें! हाल ही में दिवंगत नीरज जी लिख गये हैं-
पर ठहर वो जो वहाँ लेटे हैं फुटपाथों पर
लाश भी जिनके कफन तक न यहाँ पाती है
और वो झोंपड़े छत भी है न जिनके सर पर
छाते छप्पर ही जहाँ जिन्दगी सो जाती है
पहले इन सब के लिए एक इमरत गढ लूं 
फिर तेरी मांग सितारों से जड़ी जायेगी
अगर तूल का अर्थ लम्बाई या विस्तार मान कर चला जाये तो आपको थोड़े में समझ में कहाँ आता है। अगर कानून व्यवस्था की हमारी बातें आपको तूल लगती हैं तो सम्बित पात्रा की बातें क्या लगती हैं जो टीवी डिबेट में कभी विषय पर बात ही नहीं करता अपितु विषय को टालने और समय खत्म करने के लिए यहाँ वहाँ की बातें ही करता रहता है।
साम्प्रदायिकता के प्रसार के लिए जिन निर्दोषों को अकारण बेमौत मार दिया गया उनके जख्मों पर थोड़ी सी रुई या किसी चिड़िया का कोमल पंख जरूर रखना चाहूंगा और इस तरह तूल देना जरूरी समझते हैं। हम लोग आपकी तरह योगी नहीं इंसान हैं इसलिए हमारी सच्चाई और वादा निभाना ही हमारी पूंजी है। आपकी तरह नहीं कि पिछले साल शपथ लेते समय कहा था कि 15 जून तक सड़कों के सारे गड्ढे खतम कर देंगे पर इस साल की 15 जून भी निकल गयी और सड़कों पर और अधिक गड्ढे हो गये। सड़कें तो सड़कें हाल ही में कैराना चुनाव के समय उद्घाटित हुये एलीवेटिड रोड तक में इतना पानी भरने लगा है नावें चलने की नौबत आ गयी है। इस रोड का उद्घाटन भी आपके प्रिय प्रधान मंत्री ने किया था पर मैं उनके कर कमलों को दोष नहीं देता। वे तो नसीब वाले प्रधान मंत्री हैं जो हावर्ड से हार्ड वर्क की तुकें मिलाते रहते हैं और धमकाते रहते हैं कि झोला उठायेंगे और चल देंगे।
बहरहाल एक दो बातें आप में और प्रधानमंत्री जी में समान हैं। आप अपने को योगी कहते हैं और वे अपने आप को फकीर बतलाते हैं। आपने भी एक बार संसद में रोकर दिखाया था और प्रधानम्ंत्री जी भी भरी सभा में इसी तरह का अभिनय करते हुए बताते रहे हैं कि नोटबन्दी करके उन्होंने कैसे कैसे लोगों से दुश्मनी मोल ले ली है, वे उन्हें जिन्दा नहीं छोड़ेंगे। गरीब आदमी सोचता है कि जब देश का प्रधानमंत्री ही ‘कैसे कैसे’ लोगों से सुरक्षित नहीं है तो हमारी क्या विसात। क्या दुनिया में दूसरा कोई ऐसा देश होगा जिसके प्रधानमंत्री को पता हो कि उसे कौन से लोग जिन्दा नहीं छोड़ने वाले हैं और वह उनके खिलाफ कुछ भी न करे। या हो सकता है कि समझौता हो गया हो। शायद यही कारण है कि नोटबन्दी की बन्दी भी हो गयी कई लाख करोड़ बर्बाद भी हो गये और कुछ भी हासिल नहीं हुआ। भोपाल जैसे शहर में नाबालिग बच्चे तक नोट छाप रहे हैं।
बहरहाल आपके कहे अनुसार खुले आम हो रही हत्याओं पर भी तूल न दें तो क्या तेल दें। तेल की बिक्री बढेगी तो प्रधानमंत्री से जुड़े तेल उत्पादक अडानी आदि को फायदा पहुँचेगा। वैसे भी हमारे यहाँ शनिवार को तेल चढाने की परम्परा है। पर आपसे विनम्र अनुरोध है कि या तो तेल लगाना बन्द कर दो या योगी के कपड़े उतार कर फेंक दो। बेचारे भोले भाले लोग अभी भी इनका सम्मान करते हैं।
हमारे मित्र भवानी शंकर ने इमरजैंसी के दौरान लिखा था-
रात आती है जब मुहल्ले में / लोग कपड़े उतार देते हैं       

व्यंग्य सलाहकार का स्तीफा


व्यंग्य
सलाहकार का स्तीफा
दर्शक
मैंने अखबार से हवा करते हुए राम भरोसे से पूछा- यार पानी कब बरसेगा!
वह मुँह में दही जमाये बैठा रहा, जैसे उसके होंठ चिपक गये हों।
‘क्या हुआ आज क्या मौनव्रत है? मेरे मनमोहन” मैंने उसे छेड़ा
‘नहीं, मैंने सलाह देना बन्द कर दिया है’ वह मुँह फेर कर बोला
‘अरे ऐसा जुल्म न करो, तुम्हारी सलाह पर तो ये दुनिया चल रही है बरना न जाने किधर भटक जाती। जब तुम्हीं चले परदेश, लगा कर ठेस ओ प्रीतम प्यारा, दुनिया में कौन हमारा। ‘ मैंने एक भजन के बोलों को भजन की तरह ही गाने की असफल कोशिश की।
‘ तुम कुछ भी कह लो पर ये सलाह वलाह बहुत हो गयी, मेरी भी पारिवारिक जिम्मेवारियां हैं, जिन्हें निभाना है”
मुझे लगा कि वह देश के आर्थिक सलाहकार अरविन्द सुब्रम्यन की तरह बात कर रहा है। उनकी भी कुछ पारिवारिक जिम्मेवारियां थीं सो वे मोदी सरकार को अधर में छोड़ कर चले गये। ‘ये ले अपनी लकुटि कमरिया, बहुतहि नाच नचायो’ ।
ये पारिवारिक जिम्मेवारियां भी अब अर्थशास्त्रियों को बहुत आने लगी हैं। हर चीज का समय होता है। बबलू की मम्मी को एक खास समय में याद आता है कि बाजार में कैरी आने लगी है सो उसका अचार डाल लेने का यही सही समय है। मुन्नी को अच्छे स्कूल में एडमीशन कराना है। प्याज चार रुपये किलो बिक रही है सो दस बीस किलो ले के डाल लो बरना तो प्याज के भाव पर तो सरकारें पलट जाती रही हैं। कहाँ सरकार की आर्थिक सलाहकारी ढोते रहें। सरकार भी ऐसी कि न कुछ जानती है न मानती है। तुलसी बाबा पहले ही प्रशंसा में कह गये हैं कि – सबसे भाले मूढ, जिन्हें न व्यापे जगत गति।
रिजर्व बैंक के गवर्नर राजन को भी पारिवारिक जिम्मेवारियां याद आ गयी होंगीं सो उन्होंने भी कह दिया कि सम्हालो अपना बही खाता और अमितशाह की को-आपरेटिव बैंक के किसी मैनेजर को सम्हलवा दो हमसे नहीं होगा। यही बात नीति आयोग के उपाध्यक्ष अरविन्द पनगढिया को याद आ गयी होगी सो उन्होंने भी छाता उठा कर जूते पहने और जयराम जी की करते हुए निकल लिये। मोदी जी की कुण्डली में जरूर यह लिखा होगा कि अरविन्द नाम के लोगों से दूरी बनाये रखना।
वैसे पता नहीं ये अर्थशास्त्री अपना पद और जिम्मेवारियां छोड़ के जाने के लिए परिवार को क्यों बीच में लाते हैं! मोदी जी ने तो बीच में लाने के झंझट से बचने के लिए परिवार ही छोड़ दिया था पर इसके बाद भी वे कहते हैं कि मैं तो फकीर आदमी हूं अपना झोला उठाऊंगा और चल दूंगा। ऐसे में तो शत्रुघ्न से शत्रु बन चुके शत्रुघ्न सिंहा की फिल्म का गाना गाने के लिए ही उनके मोदी मोदी कहने वाले भक्त रह जायेंगे कि- हमें इस हाल में किसके..... सहारे ... छोड़ जाते हो!  
ये रामभरोसे भी पट्ठा हमेशा ऊंचे लोगों की नकल करता है, डर लगता है कि कहीं अपनी पत्नी के बारे में यह न कह दे कि इससे तो मेरी शादी ही नहीं हुयी थी। पूछेंगे तो बड़के बड़के लोगों के बयानों का उदाहरण देने लगेगा। कल के दिन मुरली मनोहर जोशी की तर्ज पर यह न कह दे कि कोरी कापी पर नम्बर कैसे। यह तो कांग्रेस की भाषा हुयी जो कहती है कि इन्होंने कुछ भी नहीं किया केवल हमारे द्वारा शुरू किये गये कामों का उद्घाटन भर किया है। वे भी यह नहीं बताते कि अच्छे अच्छे काम यूपीए के किस घटक की सलाह पर हुये थे।
अचानक कमल हातवी का शे’र याद आ गया है-
अरे ये काफिले वालो अगर रहबर नहीं बदला
तो फिर शिकवा न करना मील का पत्थर नहीं बदला      

व्यंग्य सम्पर्क फार समर्थन


व्यंग्य
सम्पर्क फार समर्थन
दर्शक
भाजपा के बड़े से लेकर छोटे नेता समर्थन के लिए सम्पर्क करने निकल पड़े हैं।
जो नेता जितना बड़ा है वह उतने ही बड़े सेलीब्रिटीज के दरवाजे पर खड़ा है। उसने अपने आने की पहले से सूचना दे कर रखी है ताकि लोग अपने कुत्तों को बाँध कर रखें। वे अपनी उपलब्धियां बखानेंगे। चूंकि उपलब्धियां इतनी ज्यादा हैं कि उन्हें खुद याद नहीं रहतीं हैं इसलिए उन्होंने पुस्तिका छपवा कर रखी है। उसे दे देते हैं। खुद पढ लें।
हरिशंकर परसाई, बसंत के आगमन पर लिखे लेख में लिखते हैं कि बसंत आ गया। अब कवि कविताने लगेंगे। ‘हा बसंत आया, प्रिय बसंत आया..... आदि। जिस प्रिय को गा कर बताना पड़े कि बसंत आ गया है, उस प्रिय से तो शत्रु अच्छा।‘
जिस जनता को घर घर जा कर और पुस्तिका बाँट कर बताना पड़े कि तुम्हारा इतना विकास हो गया। उस विकास का क्या फायदा। विकास कोई छुपा हुआ बल थोड़े है कि याद दिलाने पर ही महसूस हो। जिसका विकास जब जब और जहाँ जहाँ हो जाता है वह तो खुद ही बोलता है।
अमित शाह को बड़ी जिम्मेवारी मिली है। उन्हें उन लोगों से समर्थन मांगना है जो वोट देने ही कभी कभी जाते हैं। उनका और उनके मार्गदर्शकों का भूगोल ज्ञान ऐसा है कि एक फौजी के यहाँ जाना था पर उसी नाम के दूसरे फौजी के यहाँ पहुँच जाते हैं। लता जी का पता याद करके पहुँचते हैं पर वे बीमार होती हैं और मिजाजपुर्सी कराने के लिए भी तैयार नहीं होतीं। बड़े बेआबरू होकर कूचे से निकल आते हैं।
रोचक यह है कि जो पार्टियां खुद ही सरकार में शामिल हैं उन्हें तक नहीं पता कि कितना विकास हो गया इसलिए उन्हें समर्थन जारी रखना चाहिए। इसके लिए भी उन्हें उनके दर पर बताने जाना पड़ता है। जब शिव सेना के किले पर ढोक देते हैं तो वे सुबह सुबह ही अपने अखबार में उनकी खबर ले लेते हैं। कुछ अखबार खबर देने का काम कम ‘खबर लेने’ का काम ज्यादा करते हैं। शायद शिवसेना के मातोश्री में अमित शाह जैसे भाजपा पार्टी की ओर से नहीं जाते इसलिए वे उद्धव से अकेले में बात करते हैं। देवेन्द्र फड़नवीस, मुख्यमंत्री महाराष्ट्र उद्धव के बेटे के पास बाहर बैठे रहते हैं। फिर डिनर होता है। सर्वे भवंतु सुखिना, सर्वे संतु निरामयाः।
मृत्यु का मामला बहुत संवेदनशील होता है, और इसका सहारा लेकर सदियों से ब्लैकमेल किया जा रहा है। शादी करने के लिए तैयार न होने वाले बेटे को माँ डराती है और कहती है कि क्या मैं पोते का मुँह देखे बिना ही मर जाऊंगी! माँ की मौत की आशंका से घबराया बेटा शादी के लिए तैयार हो जाता है। बाद में माँ दशकों तक अपनी बहू के साथ सास बहू का सीरियल चलाती रहती है। इसी तरह नेता भी अपने प्रिय वोटरों को डराता रहता है। नोटबन्दी की असफलता के बाद मंच से आँसू बहाते हुए कहता है कि मैंने कैसे कैसे लोगों से दुश्मनी मोल ले ली है, वे लोग मुझे ज़िन्दा नहीं छोड़ेंगे। जनता सम्वेदनशील होकर नोटबन्दी की तकलीफें सहन कर लेती है। नेता कोई रिपोर्ट नहीं लिखाता, सुरक्षा एजेंसियां जाँच नहीं करतीं। धीरे धीरे सब भूल जाते हैं। जब फिर संकट आता है तो नक्सलवादी और दलित आन्दोलनकारी एक कर दिये जाते हैं। वे चिट्ठी भेजते हैं और उस चिट्ठी का प्रिंटआउट तकिये के नीचे छुपा कर पुलिस के आने की प्रतीक्षा करते रहते हैं। पुलिस आकर उन्हें मय सबूत के गिरफ्तार कर लेती है। जब रिपोर्ट लिखायी जाती है तो दिल्ली के उस नेता का नाम नहीं होता है। पहले भी ऐसा होता रहा है। सरकार पर संकट माने कि देश पर संकट।
भेड़िया आया, भेड़िया आया, हमेशा नहीं चलता। दुर्भाग्य से कभी सच में भेड़िया आ जाता है तब मुश्किल होजाती  है।             

व्यंग्य फिजीकल फिटनैस


व्यंग्य
फिजीकल फिटनैस
दर्शक
         “फिट होने का क्या मतलब होता है?” सवाल राम भरोसे का था इसलिए उसका पेचीदा होना जरूरी था, और पेचीदा सवाल का सीधा सीधा उत्तर हो ही नहीं सकता।
“ फिट होने का मतलब होता है किसी बने बनाये सांचे में ठीक तरह से समाने के लिए, समाने वाली वस्तु को घटाना-बढाना” मैंने अपने तईं सरल सा उत्तर देने का भरपूर प्रयास किया।
“इसका मतलब सांचा महत्वपूर्ण है, जड़ है, ठोस है, और उसमें समाने के लिए तैयार वस्तु कम महत्वपूर्ण है। यदि हम बाज़ार से एक लीटर दूध लाते हैं तो उसको नापने वाला लीटर दूध से ज्यादा महत्वपूर्ण है……” राम भरोसे बोला।
मैं अचकचा गया और भूल चुके कर्ता, क्रिया. कर्म, विशेषण आदि याद करने लगा पर जब नहीं याद आये तो उससे कहा महाराज आप सीधे सीधे बात क्यों नहीं करते। अपनी बात कहने के लिए तरह तरह के सवाल क्यों पूछते हो, असली बात पर आइए।
वह आ गया।    बोला ये जो फिजीकल फिटनैस होती है इसका सांचा पैंट शर्ट होगी जिसमें समो जाने पर आदमी फिट माना जाता है। पर जब हम बाज़ार जाते थे तब सेल में बिक रही शर्ट को पहिन कर देखते थे और साथ गये दोस्त से पूछते थे कि फिट तो आ रही है न,! उसकी हाँ सुन कर ही उसका रेट देखते थे और फिर अपनी जेब देखते थे। जब सारी चीजें फिट होती थीं तब शर्ट खरीद लेते थे। इसमें तो सांचा नहीं देखते थे।
“ इसमें सांचा तुम्हारा बेडौल शरीर होता था, राम भरोसे! और माल शर्ट होती थी।“ मैंने विद्वता बगरायी।
“ अर्थात ये परस्पर बदल सकते हैं, कभी गाड़ी नाव पर, तो कभी नाव गाड़ी पर ! “
उसने मुझे बिलबिचवा दिया, इसलिए अपनी बुद्धिमत्ता के सम्मान की रक्षा में मैंने हाँ कह दी।
“ तो मोदी मंत्रिमण्डल के सदस्य जो फिजीकल फिटनैस - फिजीकल फिटनैस खेल रहे हैं उसमें भी कभी फिटनैस उनके कपड़ों और शरीर के बीच होगी तो कभी कपड़ों के अनुरूप शरीर गढने की कोशिशों के बीच होगी। कभी मंत्री पद के लिए फिट है, कभी पद मंत्री के लिए फिट है जैसे उमा भारती और स्मृति ईरानी के मंत्रिमण्डल का परिवर्तन “ उसने कहा।
“अर्थात?”
“ जैसे गडकरी जी को जब उनकी नाप के कपड़े मिल जायें तो उन्हें फिट माना जायें तो उन्हें फिट माना जाये और जब राज्यवर्धन सिंह के कपड़ों के अनुसार उनकी देह हो जाये तब उन्हें फिट माना जाये। पर गिरिराज सिंह, निरंजन ज्योति आदि को कब फिट माना जायेगा? “
“ उनके मामले में फिजीकल फिटनैस नहीं चलेगी, जब वे मानसिक रूप से फिट होंगे तब फिट माने जायेंगे”
मोदी सरकार के घोषणापत्र में भले ढेर सारी फालतू बातें लिखी हों किंतु सरकार तो मंत्रिमण्डल के सदस्यों द्वारा फिटनैस का चैलेंज स्वीकारने की तैयारी के लिए काम कर रही है। राफेल का सौदा इसीलिए किया ताकि फिजीकली फिट रह सकें। डीजल पैट्रोल के रेट का चैलेंज कोई स्वीकार नहीं कर रहा। बेरोजगारों को रोजगार देने का चैलेंज कोई स्वीकार नहीं कर रहा। हर हाथ को काम तो छोड़ दीजिए हर स्कूल को शिक्षक देने का चैलेंज भी कोई स्वीकार नहीं कर रहा। हर गाँव को सड़क और हर घर को पानी देने का चैलेंज भी कोई स्वीकार नहीं कर रहा।
कुछ मंत्री पुश अप करके भले ही फिट होने का वीडियो सोशल मीडिया पर डाल दें पर सरकार यह न समझे कि वह फिट है। राहत इन्दौरी कहते हैं-
आज जो साहबे मसनद हैं, कल नहीं होंगे
किरायेदार हैं, जाती मकान थोड़े है    
       


सोमवार, 21 मई 2018

व्यंग्य ज्ञान का विस्फोट


व्यंग्य
ज्ञान का विस्फोट
दर्शक
देश में अचानक ही ज्ञान का विस्फोट हो गया है।
इस विस्फोट से ज्ञान का हाल वही हो गया है जैसा कि कभी दिल का हुआ करता था- इस दिल के टुकड़े हजार हुए कुई यहाँ गिरा, कुई वहाँ गिरा। आधे अधूरे, टूटे फूटे, झूठे अधझूठे ग्यान के टुकड़े बिखरे पड़े हैं। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि ज्ञान का विप्लव होने लगा है। जबसे विप्लव देव त्रिपुरा के मुख्यमंत्री बने हैं तब से रोज कोई न कोई ज्ञान की किरिच किसी न किसी को चुभ ही जाती है। धन्य हैं वे काँग्रेसी जो पहले तृणमूली हुये और फिर बिना किसी सौदे के उनका ह्रदय परिवर्तित हुआ और वे एकात्म मानववाद से प्रभावित होकर भाजपाई बन गये। बिना पैसा खर्च किये चुनाव लड़ा और विजय श्री प्राप्त कर के बिना लेन देन के हाई कमान थोपित उम्मीदवार श्री विप्लव देव की प्रतिभा से परिचित हुए और उन्हें मुख्यमंत्री के रूप में सिर माथे पर बिठा लिया। अब चुपचाप उसकी सब बातें सहन कर रहे हैं।
बस एक ही बौड़म काफी था इस देश को चौपट करने को
हर शाख पै बौड़म बैठा है, अंजामे गुलिस्तां क्या होगा?
बात कर्नाटक में चुनाव प्रचार की है। उन्हें अपने भाषणों में मतदाताओं को सम्बोधित करते समय हूंका भराने का शौक है। ऐसी ही एक सभा में जहाँ हिन्दी जानने वाले लोग सीमित संख्या में हैं वे तम्बाखू की धूल उड़ाते समय एक हथेली पर दूसरी हथेली मारने वाले अन्दाज में सवाल पूछ रहे थे कि – बहिनो और भाइयो इस देश को बरबाद किसने किया। मैं फिर पूछ रहा हूं कि इस देश को बर्बाद किसने किया, जानते हो किसने किया?
कन्नड़भाषी जनता को कुछ समझ में नहीं आ रहा था सो वह चिल्लाती रही- मोदी, मोदी , मोदी , मोदी, मोदी।
कश्मीर के एक शायर लियाकत ज़ाफरी फर्माते हैं-
हाय अफसोस कि किस तेजी से दुनिया बदली
आज जो सच है, कभी झूठ हुआ करता था
     जिन्हें पता है कि हजार साल पहले जहाँ बाबरी मस्जिद बनी वहाँ क्या था, उन्हें यह पता नहीं कि रवीन्द्र नाथ टैगोर ने किसको क्या और क्यों वापिस किया था। उन्हें पता नहीं कि नब्बे साल पहले जवाहर लाल भगत सिंह से मिलने गये थे अथवा नहीं। बहरहाल वे अयोध्या से जनकपुरी का लिंक मिला रहे हैं, जो अपनी ससुराल नहीं जाते।
उन्हें नहीं याद है कि 1941-42 में हिंदु महासभा मुस्लिम लीग के साथ बंगाल मे फजलुल हक़ सरकार में शामिल थी. श्यामा प्रसाद मुखर्जी उस सरकार में वित्त मंत्री थे, जिन्होंने सरकार के मंत्री के रूप में अंग्रेज सरकार को 26 जुलाई '42 को पत्र लिखकर कहा था कि... "युद्धकाल में ऐसे आंदोलन का दमन कर देना किसी भी सरकार का फ़र्ज़ है."। जिनके पास गाँधी नेहरू की चरण धूलि के बराबर भी ज्ञान नहीं है वे रोज धूल फेंकने की कोशिश कर रहे हैं।
उन्हें केवल इतना पता है कि अलीगढ मुस्लिम यूनीवर्सिटी के लिए जमीन राजा महेन्द्र प्रताप सिंह ने दी थी पर यह नहीं पता कि देश की पहली निर्वासित सरकार के अध्यक्ष भी वे ही थे जिनके प्रधानमंत्री बरकत उल्लाह खाँ थे और जो अपनी सरकार के साथ सहयोग जुटाने की अपेक्षा में लेनिन से मिलने मास्को गये थे। उन्हें तो यह भी नहीं पता कि 1957 के आम चुनाव में अटल बिहारी वाजपेयी को बलरामपुर से पराजित करने वाले भी राजा महेन्द्र प्रताप सिंह ही थे।
पंचतंत्र में गधे द्वारा शेर की खाल ओढ कर शेर होने का भ्रम देने की कहानी आती है, जिसमें यह भ्रम तब तक ही बना रहता है जब तक वह किसी दूसरे हमभाषी का स्वर सुन कर मुँह उठा उत्तर नहीं देने लगता। बोलने पर पता लग जाता है कि शेर की खाल कौन ओढे हुये है।
विज्ञान बताता है कि प्रकृति में बिजली चमकने और बादल गरजने की घटनाएं एक साथ घटती है पर तेज गति के कारण बिजली की चमक पहले दिख जाती है और बादलों की गरज बाद में सुनायी देती है। मतलब यह है कि चमक तभी तक बनी रहती है जब तक कि आप आवाज नहीं सुन लेते।
हमें बादलों की गरज लगातार सुनायी देने लगी है।    


व्यंग्य न्याय को सजा


व्यंग्य
न्याय को सजा
दर्शक
अकबर इलाहाबादी खुद मुंसिफ थे, और मजहब से मुसलमान भी थे। पर वे शायर भी थे जिस कारण वे भोक्ता होने के साथ दृष्टा भी थे और सृष्टा भी थे। जिन लोगों को यह बात दार्शनिक सी लग रही हो उन्हें उनकी ‘हिन्दी’ में समझा दूं कि एक नागरिक होने के कारण वे भुगतते भी थे अर्थात भोक्ता थे और एक रचनाकार होने के कारण वे अपने सुख दुख से निरपेक्ष होकर घटनाओं को देखते भी थे व फिर उन दृश्यों की अपनी रचनाओं में पुनर्सृष्टि भी करते थे। रचनाकार अपनी आँखों पर बिना पट्टी बाँधे जितना निरपेक्ष होकर देखेगा वह खुद को मिला कर मानवीय कमजोरियों पर उतना ही तंज अर्थात व्यंग्य करेगा। अकबर इलाहाबादी मतलब “ हंगामा है क्यों बरपा, थोड़ी सी जो पीली है / डाका तो नहीं डाला, चोरी तो नहीं की है” वाले। उन्होंने खुद ही लिखा है-
हमने सोचा था कि हाकिम से करेंगे फरियाद
वो भी कमबख्त तेरा चाहने वाला निकला
न्याय के प्रति कुछ ऐसा ही अनुभव आजकल देश को हो रहा है। जगजीत सिंह एक गज़ल गाते थे जिसमें कहा गया था कि –
मेरा मुंसिफ ही मेरा कातिल है
क्या मेरे हक़ में फैसला देगा
ऐसा ही एक शे’र अमीर कजलबाश का है जिसमें वे कहते हैं-
उसी का शहर, वही मुद्दई, वही मुंसिफ
हमें यकीन हमारा कुसूर निकलेगा
जब न्यायपालिका और कार्यपालिका एक हो जायेंगी तो न वकील, न अपील, न दलील शेष रह जाती है। न खाता न बही, जो हम कहें वही सही। कभी नीरज जी ने लिखा था-
ओढ कर कानून का चोगा खड़ी चंगेजशाही
न्याय का शव तक कचहरी में नजर आता नहीं है
मुश्किलों का खर्च इतना बढ गया है ज़िन्दगी में
जन्मदिन पर भी खुशी कोई मना पाता नहीं है
राहत इन्दौरी अपनी बेचैन कर देने वाली शायरी में लिखते हैं-
इंसाफ जालिमों की हिमायत में जायेगा
ऐसा हुआ तो कौन अदालत में जायेगा
न्याय से बेउम्मीदी ही हिंसा को जन्म देती है। जब व्यवस्था न्याय नहीं कर पाती तब व्यक्ति खुद ही निबटने लगता है।
मुकुट बिहारी सरोज कह गये हैं –
आज सत्य की गतिविधियों पर पहरे हैं
क्योंकि स्वार्थ के कान जन्म से बहरे हैं
ले दे के अपनी बिगड़ी बनवा लो तुम
निर्णायक इन दिनों बाग में ठहरे हैं
कानून उनका, न्यायाधीश उनके, प्रासीक्यूश्न उनका, गवाहों को सुरक्षा देने न देने का फैसला उनका, सबूतों की फाइलें गायब कराने की सुविधाएं उनको, और फिर कहते हैं कि हमें न्याय पर पूरा भरोसा है। जो मामला न्यायालय में चला गया वह आसाराम हो जाता है कि बाहर ही नहीं निकलना। अब उस पर बोल भी नहीं सकते बरना न्याय का अपमान हो जायेगा। प्रकरणों के सड़ते रहने से न्याय का अपमान नहीं होता पर उस पर बात करने से हो जाता है। कैलाश गौतम कह गये हैं-   
कचहरी शरीफों की खातिर नहीं है
उसी की कसम लो जो हाज़िर नहीं है
है बासी मुहं घर से बुलाती कचहरी
बुलाकर के दिन भर रुलाती कचहरी

मुकदमें की फाइल दबाती कचहरी
हमेशा नया गुल खिलाती कचहरी
कचहरी का पानी जहर से भरा है
कचहरी के नल पर मुवक्किल मरा है
अदालतों में न्याय मिले संविधान का शासन हो , आइए ऐसा सपना देखें सपना देखने में क्या जाता है। वेणु गोपाल कहते हैं कि शुरुआत एक सपने से भी हो सकती है।

व्यंग्य बाबाओं के देश में


व्यंग्य
बाबाओं के देश में
दर्शक
रेडियो मिर्ची पर गाना बज रहा है- जोगी जब से तू आया मेरे द्वारे .................
यह उस जमाने का गाना है कि जब जोगी या जोगी बने लोग द्वारे तक ही आते थे। अब तो ऐसे जोगी हैं जो खुद लिविंग रूम में घुस जाते हैं और घर के लोगों को द्वारे पर भेज देते हैं। मुखिया का काम न्याय करना होता था इसलिए आज का मुखिया सबसे पहले खुद के लिए विचार करता है। उत्तर प्रदेश के योगी ने न्याय करते हुए सबसे पहले अपने ऊपर चल रहे सभी मुकदमे वापिस ले लिये और फिर मुज़फ्फरनगर जैसे मामलों तक में अपने वालों पर चल रहे मुकदमे वापिस ले लिये। जो पुलिस वालों की पूछ्ताछ पर संसद तक में टसुए बहा कर दिखा रहा था उसके राज में पूरे प्रदेश की जनता धार धार रो रही है।
किंतु, वे कह रहे हैं कि हमने तो पहले ही चिल्ला चिल्ला कर कहा था कि ‘बेटी बचाओ, बेटी बचाओ’ , पर आपने नहीं सुनी तो क्या कर दें जिम्मेवार आप हैं। बसों में लिखा रहता है कि सवारी अपने सामान की रक्षा खुद करें हमारी कोई जिम्मेवारी नहीं है। पुलिस भी कहती है कि विधायक कुछ भी करे उसके खिलाफ रिपोर्ट नहीं लिखी जा सकती। जिद करने पर आरोपी पुलिस थाने में ही इतना पिटवाता है कि आदमी मर जाता है। मर जाने पर उस पढे लिखे आदमी का अंगूठा खाली कागजों पर लगवा लिया जाता है। अरे जब मुखिया के पास पुलिस है और उसके हथियारों में गोलियां हैं तो अदालतों की क्या जरूरत, कर दो एनकाउंटर। दोषी मरे या निर्दोष, इंस्पेक्टर मातादीन कह ही गये हैं कि सब में एक ही परमात्मा का बास है सो अंततः मरना परमात्मा को ही है, फिर देह का आधार नम्बर कया देखना। सब आधार नम्बर एक दिन चित्रगुप्त के खातों से लिंक होने हैं।  
लोकतंत्र के खिलाफ भाजपा बाबा कार्ड चलाने में भाजपा का कोई सानी नहीं है। अपने जनसंघ रूप में उसने गौ रक्षा के नाम पर 1967 में संसद पर बाबाओं से हमला करवा दिया था जो लम्बे लम्बे चिमटे लेकर संसद भवन में घुसने जा रहे थे और मजबूरन उन गृहमंत्री गुलजारी लाल नन्दा की पुलिस को गोली चलवना पड़ी थी, जो बाबाओं का बड़ा सम्मान करते थे। मध्यप्रदेश में जब प्रबन्धन के सहारे चुनाव जीतने की घोषणा करने वाले दिग्विजय सिंह के मुकाबले भाजपा को कोई उपाय नहीं दिखा था तो उन्होंने बाबा कार्ड चल कर साध्वी भेष में रहने वाली उमा भारती को दाँव पर लगा कर देखा। संयोग से पांसे सीधे पड़ गये और भाजपा की सरकार बन गयी। किंतु बाबा तो दाँव लगाने के लिए होते हैं सो उन्हें हटाने के हथकण्डे आजमाये। उनके दुर्भाग्य से कर्नाटक हाईकोर्ट का फैसला उनके पक्ष में नहीं आया इसलिए उन्हें जाना पड़ा।
बाबा रामदेव से गलबहियां कीं तो योगासनों की लोकप्रियता मुफ्त में मिल गयी और बल्ले बल्ले हो गयी। आम चुनाव में तो उमा भारती, साक्षी महाराज, निरंजन ज्योति, चान्द नाथ, जैसे कई बाबाओं ने सदन में संख्या बल में वृद्धि करवायी। हरियाणा में रामरहीम को करोड़ों देकर फिल्में बनवायीं पर मीडिया और अदालतों ने उसे जेल भिजवा दिया। अब रही सही कसर मध्य प्रदेश में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह ने पूरी कर दी। नर्मदा यात्रा में बाहर के बाबाओं पर सरकारी धन लुटा कर लोकल वालों को अंगूठा दिखा दिया गया था सो उन्होंने यात्रा में हुए घपलों की जाँच हेतु जन जागरण यात्रा निकालना चाही। सरकार को लगा कि अब तो जाते जाते पोल खुल जायेगी सो उसने बाबाओं को राज्यमंत्री का दर्जा दे कर साधना के लिए राजधानी आवंटित कर दी। अब सरकारी गैस्ट हाउस पर धूनियां रमायी जाने लगी हैं। कुछ दिनों में बन्द किये जाने वाले हजारों स्कूलों में यज्ञ हवन होने लगेंगे और अस्पतालों में झाड़ फूंक करने वाले व ज्योतिषी बैठने वाले हैं। जय हो।      

व्यंग्य बाय फ्रेंड और लड़कियों के प्रति अत्याचार


व्यंग्य
बाय फ्रेंड और लड़कियों के प्रति अत्याचार
दर्शक
भाजपा के लोगों का जबाब नहीं, ऐसी ऐसी तरकीबें जानते हैं कि जी करता है दांतों तले उंगली तो क्या पूरा पंजा दबा लें चाहे वह कांग्रेस का ही पंजा क्यों न हो। मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री की पेशी भी प्रदेश को इस उच्च स्तर पर पहुंचने के लिए दिल्ली में होती रहती है। अभी मध्य प्रदेश के एक और विधायक ने प्रदेश में बेटी बचाने की चिंता में एक सूत्र दिया कि लड़्कियों पर अत्याचार का एक कारण यह है कि वे बाय फ्रेंड बनाती हैं। शायद पाँच साल, तीन साल, विक्षिप्त लड़कियों के साथ हो रहे अत्याचारों के बारे में उनकी यही सोच काम करती है। दर असल यह उसी क्रम को आगे बढाती है जिस क्रम में भाजपा के एक पूर्व विधायक ने कहा था कि मौसमों की मार से बचने के लिए हनुमान चालीसा का पाठ करना चाहिए। लगता है कि भविष्य में ओले कृषि बीमा का भुगतान करने से पहले बीमा कम्पनियां क्लेम फार्म में एक कालम यह भी जोड़ेंगी जिसमें पूछा जायेगा कि कृषक का धर्म क्या है, वह शैव [शिव की पूजा करने वाला] शाक्त [ शक्ति अर्थात देवी की पूजा करने वाला] या वैष्णव [ विष्णु के अवतारों की पूजा करने वाला] है। अगर किसान वैष्णवों में राम के दूत हनुमान की स्तुति में लिखा हनुमान चालीसा का पाठ नहीं करता तो उसे जरूरी सावधानी न बरतने के कारण बीमा राशि नहीं दी जायेगी।
राम भरोसे स्वप्न देखता है कि धीरे धीरे सारी कृषि भूमि केवल हनुमत उपासकों के पास पहुँच जायेगी और देश हिन्दू राष्ट्र बन जायेगा।
योगी द्वारा खाली की गयी सीट पर भले ही इंजीनियर निषाद समाजवादी टिकिट पर जीत जाते हों और जीत कर बाबा साहब भीम राव अम्बेडकर के अन्दाज में हिन्दू धर्म छोड़ने की घोषणा करते हों, किंतु उनके अध्यक्ष पहलवान मुलायम पुत्र अखिलेश यादव गर्व से कहते हैं कि वे योगी से ज्यादा बड़े हिन्दू हैं। वे नवरात्रि के पूरे नौ दिन तक अन्न नहीं खाते जबकि राज्यसभा चुनावों में तिकड़म के सहारे मिली जीत की खुशी में योगी बेसन से बने मोतीचूर के लड्डू खाते दिखते हैं। राजनीति में अब मूल्यांकन इसी आधार पर होगा कि कौन नौ दिन फलाहार करता है और कौन फल प्राप्त करके लड्डू खाता है। हो सकता है कि कल के दिन दलाल मीडिया के टुकड़खोर ये कहने लगें कि योगी जी ने जो लड्डू खाया था वह बेसन का बना हुआ नहीं था अपितु गाजर से बना हुआ था। मीडिया में सरकारी विज्ञापनों की बाढ आयी हुयी है।
मध्य प्रदेश में ऐसा पहले भी हो चुका है। भगवा भेष में रहने वाली राजनेता उमा भारती जो साध्वी भी कहलाती हैं ने हनुमान जी के बर्थडे पर केक चढाया था जिसके फोटो समाचार पत्रों में छपवाये गये थे। तत्कालीन मुख्यमंत्री ने अपने गुप्तचर ज्ञान से बताया था कि केक में अंडा था व वैष्णव देवता को अंडे वाला केक चढा कर उन्होंने उनका अपमान किया है। उमा भारती के गुप्तचरों ने जब पुष्ट कर लिया कि भक्तों द्वारा पूरा परसाद उदरस्थ किया जा चुका है तब बयान दिया कि उस केक में अंडा नहीं था। देश के दो बड़े राजनीतिक दलों में कई दिनों तक इस बात पर बहस हुयी कि केक में अंडा था या नहीं?
अम्बेडकर का नाम भजने वाली मायावती ने धमकी तो कई बार दी कि वे हिन्दू धर्म छोड़ देंगीं, पर छोड़ा कभी नहीं। उनसे आगे बढ कर तो कर्नाटक की कांग्रेसी सरकार ने यह बहस केन्द्र में ला दी है कि लिंगायत हिन्दू हैं या नहीं। आरएसएस आदिवासियों को हिन्दू बनाने के लिए अभियान चला रही है वहीं उनके लिंगायतों पर खतरा नजर आने लगा है और भाजपा को उनकी काट नहीं मिल रही है। चौबे जी छब्बे बनने चले थे दुबे बन कर लौटे। याद है, मन्डल ने कमंडल को फुटबाल बना कर छोड़ दिया था।
मोदी के आदर्श देश अमेरिका तक के स्कूलों में होने वाले गोलीकांडों से बचने के लिए नुकील पत्थर रखवाये जा रहे हैं ताकि वक्त जरूरत मासूम बच्चे उनका स्तेमाल कर सकें। इस पूंजीवादी दुनिया में सब पत्थर युग में लौट रहे हैं।      

व्यंग्य मूर्ति भंजन का खेल


व्यंग्य
मूर्ति भंजन का खेल  
दर्शक
लेनिन की मूर्ति और त्रिपुरा के चुनाव परिणाम का क्या सम्बन्ध हो सकता है जब न तो लेनिन चुनाव में खड़े हों और न ही चुनाव जीतने हारने वालों ने चुनाव में लेनिन की स्मृति का स्तेमाल ही किया हो। लेनिन की मूर्ति कोई चमत्कारी मूर्ति तो थी नहीं कि उसके दर्शन मात्र से किसी राजनीतिक दल को कोई फायदा मिलता हो जैसे कि देवी देवताओं के बारे में प्रख्यात है और उनके पहले दर्शन के लिए हर साल सैकड़ों कुचल जाते हैं व उनकी लाशों पर पैर रख कर पीछे वाले दर्शनों हेतु आगे पहुँच जाते हैं।
लेनिन की मूर्ति कोई डायन की मूर्ति भी नहीं थी कि रात में बच्चे डर जाते हों या औरतों बच्चों पर टोना टोटका होता हो। और ऐसी गलतफहमी थी भी तो यह काम इससे पहले भी करा के देख सकते थे। माणिक सरकार की सरकार कोई औरतों बच्चों को डराने वाली सरकार तो थी नहीं। पर  मूर्ति तोड़ दी गयी, भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव राम माधव के प्रोत्साहन से तोड़ दी गई, जिस पर राज्यपाल की किलकारी सुनाई दी। नादान बच्चों के खेल की तरह बड़े बड़े नेताओं ने तालियां पीटीं और जिम्मेवार पदों पर बैठीं कुर्सियां मुस्कियाती रहीं। जब प्रोत्साहित बच्चों का यह खेल और आगे बड़ा तथा उन्होंने दूसरी मूर्तियां तोड़ीं तो खतरा दिखने लगा, दूसरी ओर के बच्चों ने भी उनके बच्चों की तरह व्यवहार करना शुरू कर दिया, जिससे उनके बच्चों की मूर्तियां टूटने लगीं। बच्चों की लड़ाई में बड़े बड़ों के सिर फूट जाते हैं, सो सर्वधर्म समभाव की तरह सारी मूर्तियों को न तोड़े जाने के सन्देश सुनाई देने लगे। त्रिपुरा की नई सरकार के मुख्यमंत्री को माणिक सरकार के पैर छूने और राम माधव को उन्हें शपथ समारोह में आमंत्रित करने के लिए भेजा गया। इतना ही नहीं अपने मार्गदर्शक मंडल को समारोह में लाइन में लगवाया गया जहाँ उनका अपमान कर संदेश दिया गया कि हमारे बच्चे तो अपने बुजर्गों का भी अपमान करते हैं। दादा तुम बड़े दिल के हो इन्हें माफ कर देना आगे से ये ऐसा नहीं करेंगे। उसके बाद कोई मूर्ति नहीं टूटी जो इस बात का प्रमाण है कि सब कुछ इन्हीं के इशारों पर चल रहा था। यह बच्चों का खेल नहीं था अपितु बच्चों से खेल करवाया जा रहा था।  
प्रसंगवश याद आया कि एक थे समाजवादी नेता राम मनोहर लोहिया, जो कभी जवाहरलाल नेहरू के बड़े भक्त थे व उन्हीं से प्रभावित होकर राजनीति में आये थे। हमारे स्वतंत्रता संग्राम में गाँधीजी व भगत सिंह के बाद सबसे बड़ा कद नेहरूजी का ही था। लोहियाजी ने लोकतंत्र आने के बाद जयप्रकाश नारायण के साथ काँग्रेस छोड़ दी और विपक्षी की तरह सामने आये। वे यह जानते हुए भी कि हारना निश्चित है, नेहरूजी के विरुद्ध चुनाव लड़ते थे। इस बहाने उन्होंने अपना कद बहुत बड़ा लिया था। विचारक और चिंतक लोहिया, नेहरूजी की आलोचना में बहुत हल्के स्तर पर उतर आते थे व उनके कुत्ते के खर्च से लेकर प्रधानमंत्री के लिए बनवाये जाने वाले मूत्रालय के खर्च तक का विश्लेषण करने लगते थे। पता नहीं अगर वे आज होते तो हमारे आज के परिधान मंत्री की काजू की रोटियों और सूट बूट पर कितनी ऊर्जा खर्च कर देते। उसी दौर में नेहरू मंत्रिमण्डल में एक उपवित्तमंत्री तारकेशवरी सिन्हा होती थीं, जो न केवल सुदर्शनीय थीं अपितु उन्हें इतनी शायरी कण्ठस्थ थी कि अपनी हर बात के समर्थन में कोई शे’र कह के ध्यानाकर्षित कर लेती थीं। तारकेश्वरी जी एक बार लोहिया जी को कनाट प्लेस में मार्केटिंग करते हुए टकरा गयीं तो लोहियाजी उन्हें हाथ पकड़ कर काफी हाउस में ले गये जहाँ आम लोगों के बीच जाने में वे बहुत घबराती थीं। लोहियाजी बोले जब लोकतंत्र में नेता जनता के बीच जाने में डरेगा तो लोकतंत्र कैसे जिन्दा रहेगा।
तारकेश्वरीजी ने अपने संस्मरण में लिखा कि उस दिन मैंने लोहियाजी से पूछा कि आप इतने बड़े विचारक हैं किंतु जब नेहरूजी की आलोचना पर उतरते हैं तो इतने हल्के स्तर पर क्यों आ जाते हैं जबकि अन्यथा आप इस स्तर की बात नहीं करते। लोहिया जी का उत्तर था कि तारकेश्वरी यह मूर्ति पूजकों का देश है और इसने नेहरूजी की भी मूर्ति बना कर पूजा करना शुरू कर दिया है। अगर ऐसा हुआ तो लोकतंत्र नहीं बचेगा, इसलिए मैं नेहरू को मूर्ति बनने से बचाना चाहता हूं और इस बनती हुयी मूर्ति पर चोट करता रहता हूं, ताकि नेहरू के कार्यों पर विचार हो सके।
भाजपा के हिंसा पसन्द लम्पटों ने लेनिन की मूर्ति तोड़ते समय ऐसा नहीं चाहा था किंतु वामपंथी समझदारों ने लेनिन के विचारों पर चर्चा करके उनको सही उत्तर दिया है। विचारों की मूर्तियां हथोड़ों से नहीं टूटतीं।