व्यंग्य
आँखों के लिए खराब
समय
दर्शक
काका हाथरसी की एक
कविता है- ईश्वर की भूल। इस कविता में वे ईश्वर की भूलें गिनाते हैं, जिनमें से एक
यह है कि-
मुख
मण्डल पर दोनों आँखें पास पास ही फिट कर दी हैं,
एक
आँख आगे दे दी थी
एक
आँख पीछे दे देते
तो क्या कुछ घाटा हो जाता
तो क्या कुछ घाटा हो जाता
सर
पर कोई चपत मार कर भाग जाए
तो क्या कर लोगे!
तो क्या कर लोगे!
अब
का ज़माना आँखों के लिए बहुत बुरा है। सरकारें वैसे तो वर्ल्ड हैल्थ आर्गनाइजेशन से
अनुदान लेने के लिए अन्धत्व निवारण के विभाग चलाती हैं किंतु वे चाहती यह हैं कि
जनता सच को न देखे। गुलाम अली एक ग़ज़ल गाते हैं जिसकी एक पंक्ति है- तुम्हारा देखना
देखा न जाये। सरकारों को भी लोगों का देखना पसन्द नहीं आता वे भी यही चाहती हैं कि
लोग देखना बन्द कर दें। एक प्रधानमंत्री तो ऐसे हुए हैं जिनका तकिया कलाम ही था
कि- हम देख रहे हैं, हमने देखा, हम देखेंगे आदि। इसका परोक्ष अर्थ था कि उल्लू के
पट्ठो, हम तो देख रहे हैं तू तो अपनी आँखें मूंद ले।
गाँधीजी भी जापान की
एक मूर्ति के हवाले से सन्देश देते थे कि बुरा न देखने के लिए तीन बन्दरों की
मूर्ति के उस एक बन्दर की तरह आँखें बन्द कर लेना चाहिए। अरे भाई जब आँखें बन्द कर
लोगे तो न अच्छा दिखाई देगा, न बुरा। अच्छे-बुरे का फैसला तो देखने सोचने के बाद
ही हो सकता है।
पहले भी शासकों के
एजेंट जो धार्मिक वेशभूषा में फिरते थे, लोगों को समझाते थे कि ईश्वर खुली आँखों
से दिखाई नहीं देता। यही कारण है कि जब भी कोई ईश्वर को देखने का पाखण्ड करता नजर
आता है, उसके नेत्र मुंदे होते हैं।
खुली आँखों से सच
दिखाई देता है और जो सत्य नहीं है वह बन्द आँखों से ही दिखाई देगा।
अब के शासकों के
संकट बहुत ज्यादा हैं। एक ओर तो जनता ने धार्मिक एजेंटों पर भरोसा करना बन्द कर
दिया है क्योंकि उन में से कुछ तो उनके असल कारनामे देख लिए जाने के कारण खुद ही
जेलों में बन्द कर दिये गये हैं, दूसरी ओर जनता की निगाहें कुछ ज्यादा ही चौकन्नी
हो गयी हैं। इसलिए सरकारों ने अन्धत्व बढाने के विभाग खोल दिये हैं जिनका नाम जनसम्पर्क
विभाग रख दिया है। इन विभागों का काम जनता की खबर देखू आँखों में विज्ञापन की धूल
झौंकना है। जिसको जितना ज्यादा दिखाई देता है उसकी आँखों को उतनी ज्यादा धूल की
जरूरत होती है। जैसे ही स्वास्थ विभाग की नाकामियों से स्वाइन फ्लू ने हजारों
जानें लेना शुरू कर दीं वैसे ही अखबारों को सरकारों के फुल पेज के विज्ञापन जारी
होना शुरू हो गये। इन विज्ञापनों में सूचना कम होती है पर नेता जी का बड़ा सा थोबड़ा
इतना फैला रहता है कि अखबार पर खाने के लिए पराठां रखने के बाद अचार भी उनके थोबड़े
से बाहर नहीं जा पाता। खबरें पढना बन्द करो थोबड़ा देखो। जैसे पुलिस वालों का अपराध
कम करने का तरीका होता है कि रिपोर्टें ही कम से कम लिखी जायें, वैसे ही विज्ञापन
पाने के बाद अफरे हुए अखबार बड़े गर्व से कहते हैं कि हम नकारात्मक खबरें नहीं
देते। जिन्हें आँखें खोलने का काम करना चाहिए वे आँखें मूंदने का काम कर रहे हैं। जिन्हें
व्यापम का सच बताना चाहिए वे मलाई खाकर सकारात्मक खबरें बनाने में लगे हैं।
सच्चाई
न देखो- को -बुरा न देखो- कहा जा रहा है। गाँधी जी का कोई भी बन्दर यह नहीं कहता
कि बुरा मत करो, बस न देखो, न सुनो, और न कुछ बोलो।
भागलपुर में कभी
पुलिस ने कथित अपराधियों की आँखों में तेजाब डालने का काम किया था जिसे गंगाजल कहा
जाता था। आजकल विज्ञापनजल डाला जा रहा है जिसे डलवाने के लिए अपने को जनता का
प्रहरी, जनता की आवाज बताने वाले अखबार लाइन लगाये खड़े रहते हैं।