मंगलवार, 17 मार्च 2015

व्यंग्य आँखों के लिए खराब समय



व्यंग्य
आँखों के लिए खराब समय
दर्शक
काका हाथरसी की एक कविता है- ईश्वर की भूल। इस कविता में वे ईश्वर की भूलें गिनाते हैं, जिनमें से एक यह है कि-
मुख मण्डल पर दोनों आँखें पास पास ही फिट कर दी हैं,
एक आँख आगे दे दी थी
एक आँख पीछे दे देते
तो क्या कुछ घाटा हो जाता
सर पर कोई चपत मार कर भाग जाए
तो क्या कर लोगे!
       अब का ज़माना आँखों के लिए बहुत बुरा है। सरकारें वैसे तो वर्ल्ड हैल्थ आर्गनाइजेशन से अनुदान लेने के लिए अन्धत्व निवारण के विभाग चलाती हैं किंतु वे चाहती यह हैं कि जनता सच को न देखे। गुलाम अली एक ग़ज़ल गाते हैं जिसकी एक पंक्ति है- तुम्हारा देखना देखा न जाये। सरकारों को भी लोगों का देखना पसन्द नहीं आता वे भी यही चाहती हैं कि लोग देखना बन्द कर दें। एक प्रधानमंत्री तो ऐसे हुए हैं जिनका तकिया कलाम ही था कि- हम देख रहे हैं, हमने देखा, हम देखेंगे आदि। इसका परोक्ष अर्थ था कि उल्लू के पट्ठो, हम तो देख रहे हैं तू तो अपनी आँखें मूंद ले।
गाँधीजी भी जापान की एक मूर्ति के हवाले से सन्देश देते थे कि बुरा न देखने के लिए तीन बन्दरों की मूर्ति के उस एक बन्दर की तरह आँखें बन्द कर लेना चाहिए। अरे भाई जब आँखें बन्द कर लोगे तो न अच्छा दिखाई देगा, न बुरा। अच्छे-बुरे का फैसला तो देखने सोचने के बाद ही हो सकता है।
पहले भी शासकों के एजेंट जो धार्मिक वेशभूषा में फिरते थे, लोगों को समझाते थे कि ईश्वर खुली आँखों से दिखाई नहीं देता। यही कारण है कि जब भी कोई ईश्वर को देखने का पाखण्ड करता नजर आता है, उसके नेत्र मुंदे होते हैं।
खुली आँखों से सच दिखाई देता है और जो सत्य नहीं है वह बन्द आँखों से ही दिखाई देगा।
अब के शासकों के संकट बहुत ज्यादा हैं। एक ओर तो जनता ने धार्मिक एजेंटों पर भरोसा करना बन्द कर दिया है क्योंकि उन में से कुछ तो उनके असल कारनामे देख लिए जाने के कारण खुद ही जेलों में बन्द कर दिये गये हैं, दूसरी ओर जनता की निगाहें कुछ ज्यादा ही चौकन्नी हो गयी हैं। इसलिए सरकारों ने अन्धत्व बढाने के विभाग खोल दिये हैं जिनका नाम जनसम्पर्क विभाग रख दिया है। इन विभागों का काम जनता की खबर देखू आँखों में विज्ञापन की धूल झौंकना है। जिसको जितना ज्यादा दिखाई देता है उसकी आँखों को उतनी ज्यादा धूल की जरूरत होती है। जैसे ही स्वास्थ विभाग की नाकामियों से स्वाइन फ्लू ने हजारों जानें लेना शुरू कर दीं वैसे ही अखबारों को सरकारों के फुल पेज के विज्ञापन जारी होना शुरू हो गये। इन विज्ञापनों में सूचना कम होती है पर नेता जी का बड़ा सा थोबड़ा इतना फैला रहता है कि अखबार पर खाने के लिए पराठां रखने के बाद अचार भी उनके थोबड़े से बाहर नहीं जा पाता। खबरें पढना बन्द करो थोबड़ा देखो। जैसे पुलिस वालों का अपराध कम करने का तरीका होता है कि रिपोर्टें ही कम से कम लिखी जायें, वैसे ही विज्ञापन पाने के बाद अफरे हुए अखबार बड़े गर्व से कहते हैं कि हम नकारात्मक खबरें नहीं देते। जिन्हें आँखें खोलने का काम करना चाहिए वे आँखें मूंदने का काम कर रहे हैं। जिन्हें व्यापम का सच बताना चाहिए वे मलाई खाकर सकारात्मक खबरें बनाने में लगे हैं।
        सच्चाई न देखो- को -बुरा न देखो- कहा जा रहा है। गाँधी जी का कोई भी बन्दर यह नहीं कहता कि बुरा मत करो, बस न देखो, न सुनो, और न कुछ बोलो।  
भागलपुर में कभी पुलिस ने कथित अपराधियों की आँखों में तेजाब डालने का काम किया था जिसे गंगाजल कहा जाता था। आजकल विज्ञापनजल डाला जा रहा है जिसे डलवाने के लिए अपने को जनता का प्रहरी, जनता की आवाज बताने वाले अखबार लाइन लगाये खड़े रहते हैं।     

व्यंग्य शांतता, पप्पू चिंतनरत आहे



व्यंग्य
शांतता, पप्पू चिंतनरत आहे
दर्शक
       कभी कभी पुराने लोगों की बातें भी अचानक असर कर जाती हैं। प्राचीन कवि कह गये हैं-
बिना विचारे जो करे सो पाछे पछताय
काम बिगारे आपनौ, जग में होत हँसाय
       पप्पू के दिमाग में एक रात अचानक ये पंक्तियां कौंध गयीं और उसे लगा कि उसकी असफलता के पीछे शायद यही कारण है कि उसने विचार नहीं किया। अगर बाई द वे कभी कुछ करने का अवसर आ गया तो तो चिंतन कहाँ हैं। फिर वह सो नहीं सका। उसे लगा कि चिंतन करना चाहिए। अब सवाल था कि चिंतन कैसे करना चाहिए, काहे का करना चाहिए, किस समय करना चाहिए, कितना करना चाहिए, कब करना चाहिए, कहाँ करना चाहिए........? उसे चिंतन से सम्बन्धित ढेर सारे सवालों ने चिंतन में डाल दिया।
चिंतन में मुद्रा की भी बड़ी भूमिका होती है। मैं बता दूं कि यहाँ मुद्रा से आशय स्वर्ण मुद्राओं वाली मुद्राओं से नहीं है। उसे अपने पिता के नाना का ख्याल आया जिनके ढेर सारे फोटो उसने चिंतन वाली मुद्रा में ही देखे थे। वे तीन उंगलियां मोड़े कुहनी को मेज पर टिका कर एक खड़ी उंगली को गाल पर टिकाये चिंतन मुद्रा में नजर आ रहे थे। कुछ लेखकों के चित्रों का भी खयाल आया जो ऊपर की ओर देखते हुए चिंतन रत थे, गोया ऊपर वाले से सीधे साक्षात्कार कर रहे हों या सोच रहे हों कि कहीं छत तो नहीं गिर जायेगी।
कुछ साधू-सन्यासी चिंतन करने के लिए हिमालय की ओर जाते थे। मुझे लगता है कि पहाड़ पर चिंतन करने का कारण अगर ठंडक में मच्छरों का कम होना नहीं होता होगा तो यह भी हो सकता होगा कि वहाँ देवदार वृक्षों की तरह ऊंचे ऊंचे विचार ही आते होंगे। हो सकता है कि सादा जीवन उच्च विचार जैसे मुहावरे का जन्म भी ऐसे ही उच्च स्थल पर चिंतन रत विचारवान लोगों को देख कर हुआ होगा। हिमालय की ओर न जाकर चिंतन करने वालों के पास हमेशा डीएमके वालों जैसे विचार ही आते हैं।  
       पप्पू, राजकुमार सिद्दार्थ की तरह बिना बताये चिंतन के लिए निकल पड़े क्योंकि यशोधरा की तरह कोई यह कहने वाला भी नहीं था कि- सखि वे मुझ से कह कर जाते। सो उन्होंने किसी से नहीं कहा। उनके जिन अनुयायियों को कभी यह चिंता नहीं हुयी थी कि उनका नेता बिना चिंतन के ही नेतृत्व करने में जुता हुआ है वे तक परेशान होने लगे। वे जानते हैं कि उन्हें तो बस एक मूर्ति की जरूरत होती है जिसकी प्रतिष्ठा करके वे अपने मन्दिर में स्थापित कर दें। मूर्ति अगर चिंतन करने लगे तो उनका चिंतित होना तो बनता है। मूर्ति सामने होती तो कहते कि अपको चिंतन- विंतन करने की जरूरत नहीं वो तो हम सब कर लेंगे, आप तो विराजे रहो।
       पप्पू कहाँ पर चिंतन कर रहे हैं इसका पता तो लगता है कि सुब्रम्ह्यम स्वामी को भी नहीं लग पाया जिन्हें सुनन्दा पुष्कर की मौत से लेकर दुनिया के सारे रहस्यों को पता होता है। चिंतन की यही तो कला होती है कि आदमी अचानक ज्ञान से भरा हुआ प्रकट हो और मैदान में आकर धमाका कर दे। इसी लिए पुराने चिंतकों ने इसे रहस्य कहा है, और रहस्य रखा है। सच भी है अगर आदमी भीड़ भाड़ में चिंतन करने लगे तो क्या खाक चिंतन कर पायेगा बस भाड़ ही झौंकता रहेगा। लोग तो सोते हुए आदमी से भी पूछते हैं- भैय्या सो रहे हो क्या? और जब वह उत्तर देता है- हाँ, तो कह कर चले जाते हैं कि अच्छा है सोओ, सोओ। अगर टोकने टाकने वाले हों तो चिंतन सम्भव होता ही नहीं है। कुछ तो ऐसे कर्मठ सिंह होते हैं जो हर विचार पर एक ही बात कहते हैं कि यह तो ठीक है, पर किया क्या? ऐसे चिंतन विरोधियों से दूर जाने का सोच अच्छा है।
करो पप्पू करो खूब चिंतन करो।
दर्दमन्दाने मोहब्बत क्या करें
रोने धोने से भी आखिर जाएं क्या      

व्यंग्य ओबामा का स्तीफा



व्यंग्य
ओबामा का स्तीफा
दर्शक
       व्हाइट हाउस में वह काली रात थी जब अमेरिका के राष्ट्रपति ओबामा ज़िद पर अड़े हुये थे और मिशेल ओबामा उन्हें मनाने की हर चन्द कोशिश कर रही थीं।
‘मैं तो दे ही रहा हूं’ उन्होंने फिर कहा
देखिए यह किसी भी दृष्टि से ठीक नहीं है’ मिशेल बोलीं
‘क्यों ठीक नहीं है, तुम्हें हिन्दी फिल्में देखने का शौक नहीं इससे तुम्हें पता नहीं है कि उनमें एक दोस्त दूसरे दोस्त के लिए क्या क्या नहीं कर देता, संगम, याराना, शोले, और न जाने कितनी फिल्में दोस्ती पर बनी हैं और तो और खुद दोस्ती नाम से भी फिल्म बनी है। मेरी दोस्ती मेरा प्यार, यारी है ईमान मेरा यार मेरी ज़िन्दगी, बगैरह ढेर सारे गाने मौजूद हैं, कहो तो सुनाऊँ जैसा कि मैंने हिन्दुस्तान से विदाई लेते समय सुनाया था’ ओबमा बोले।
मिशेल ने हिन्दुस्तानी बीबियों और माँओं की तरह डाँटते हुए कहा-‘ तुम मोदी की दोस्ती में बहुत बिगड़ते जा रहे हो, हिन्दी फिल्में देखने लगे हो’ हिन्दुस्तान में हर बीबी और माँ को लगता है कि उसका पति और बेटा तो ठीक है पर उसकी सारी बुराइयों की जड़ उसके दोस्त हैं।
‘देखो मिशेल तुम्हें और मोदी दोनों को हिन्दुस्तान की संस्कृति के बारे में कुछ भी पता नहीं है, वहाँ दोस्त जैसा कुछ भी नहीं होता था। वहाँ भाई होता था, बाप होता था , दादा होते थे, चाचा होता था, ताऊ होते थे, यहाँ तक कि साला, जीजा, मामा, फूफा, बगैरह होते थे पर वे रिश्तेदार होते थे, जाति के लोग होते थे, दोस्त कोई नहीं होता था। दोस्ती तो हिन्दुस्तान में नया विचार है, और अगर किसी ने मुझे दोस्त कहा है तो उसके लिए मैं जान भले ही न दूं, पर स्तीफा तो दे सकता हूं ओबामा ने समझाया।
‘पर वो हिन्दुस्तानी सलाहकार तो बता रही थी कि हिन्दुस्तान में पुराने जमाने में श्री किर्शना का एक फ्रेंड होता था सुडामा’ मिशेल बोलीं
‘ओह नो मिशेल, वो उसका फ्रेंड नहीं होता था, वो सहपाठी था, क्लासफैलो जिसे गुरुभाई भी कहते हैं, फ्रेंड होते तो वहाँ फ्रेन्डशिप डे मनाया जाता जबकि वहाँ सिस्टर डे होता है जब बहिन भाई को धागा बाँधता है, करवा चौथ होता है जब वाइफ हस्बेंड के लिए फास्ट करता है, डैड फादर मदर के लिए भी डे होता है, गुरू यानि टीचर का भी डे होता है, पर फ्रेंड के लिए कोई डे नहीं होता था। फ्रेंडशिप तो अंग्रेजों के जाने के बाद शुरू हुआ है और मोदी उसकी इज्जत कर रहा है, हाय कितना प्यारा लगता है जब वह कहता है- बराक माई फ्रेंड। हमें भी उसका वैसा ही जबाब देना चाहिए’     
‘चलो माने लेते हैं, पर उसकी पार्टी का एक राज्य के एक चुनाव में सूफड़ा साफ हो जाने से तुम क्यों स्तीफा दे रहे हो, उसकी पार्टी के चुनाव प्रचारक दें, राज्य के अध्यक्ष दें, जिलाओं के अध्यक्ष दें, राष्ट्रीय अध्यक्ष दें, प्रवक्ता दें मुख्यमंत्री पद प्रत्याशी दें और अधिक से अधिक खुद मोदी दे दें जिन्होंने धुंआधार प्रचार किया था, पर आप क्यों दे रहे हैं
‘तुम नहीं समझोगी दोस्ती का मतलब, उसने मुझे भीगती बरसात और हाड़ कंपाने वाली सर्दी में गणतंत्र दिवस समारोह में इसी कारण से तो मुख्य अतिथि बनवाया था। मेरी बराबरी करने के लिए इतनी बार ड्रैसें बदलीं जितनी तो मलाइका अरोरा ने ‘डाली की डोली’ के एक गाने में नहीं बदलीं, और वह नौलखा सूट जिसमें सोने की धारियों से उसका नाम बुना गया था। क्या कहने! कितना हैंडसम लग रहा था मेरा मोदी फ्रेंड। उसने जो काम वर्षों पहले छोड़ दिया था उसे फिर से किया और मेरे लिए चाय बनायी, तथा बार बार मुझे मेरे पहले नाम से बराक बराक कह कर बुलाया-। जब ऐसा फ्रेंड संकट में है तो उसे अकेला कैसे छोड़ दूं अब वहाँ ऐसी पार्टी सत्ता में आ गयी है जो लोकयुक्त बना कर उसे धन देने वालों को नहीं छोड़ेगी, इसी दौरान स्विस बैंकों के नाम उजागर हो गये जिन्हें पिछले आठ –नौ महीनों से सरकार दबा कर रखे हुये थी ’
ओबामा अवसाद में हैं, वे सोच रहे हैं कि उनके कारण ही उनके मित्र को नीचा देखना पड़ा इसलिए स्तीफा दे ही देना चाहिए दूसरी ओर मिशेल परेशान हैं कि अगर स्तीफा दे दिया तो मेरा क्या होगा, इधर भाजपाई सोच रहे हैं कि अच्छा बदला लिया। खाँसने वाले ने नाक में दम कर दिया है और ये मीडिया वाले चैन नहीं लेने दे रहे हैं। और लाओ किरन बेदी को जो बलिवेदी साबित हुयी हैं।

व्यंग्य मैं मैं और सिर्फ मैं अर्थात बकरी



व्यंग्य
मैं मैं और सिर्फ मैं अर्थात बकरी
दर्शक
आत्ममुग्धता की कोई सीमा होती है। पर नरेन्द्र मोदी के लिए कोई सीमा नहीं। भोपाल के एक प्रसिद्ध शायर का शे’र है-
खुदा मुझको ऐसी खुदाई न दे
कि अपने सिवा कुछ दिखाई न दे
पर मोदी जी ने यह शे’र नहीं सुना। सुना भी होगा तो अमित शाह से कहा होगा कि या तो शायर का इंतजाम करा दो या खुदा का। ये कैसे शे’र लिखता है! अरे आदमी जब नरेन्द्र मोदी हो जाता है तो उसे अपने सिवा कुछ भी दिखाई देना बन्द हो जाता है। वह जो कपड़े पहिनता है उस पर भी अपना ही नाम लिखा होता है। पता चला है कि ऐसे व्यक्ति घर की सारी रामनामियां भी बर्तन बेचने वालियों को देकर बर्तन खरीद लेते हैं और उन पर भी अपना नाम खुदवा लेते हैं। आखिर वे ऐसे कपड़े क्यों ओढें जिन पर किसी और का नाम लिखा हो। सुना है हुस्नी मुबारक भी ऐसे ही कपड़े पहिनते थे जिनकी धारियों पर उन्हीं का नाम लिखा होता था। सारे तानाशाहों के शौक एक जैसे होते हैं, और अंत भी। ऐसा आदमी किसी की शोकसभा तक में जाना पसन्द नहीं करता क्योंकि वहाँ सब केवल मृतक के बारे में बातें कर रहे होते हैं।
किसी भी तानाशाह को चित्र प्रदर्शनी में जाना पसन्द नहीं आता वह सिर्फ आइना देखना पसन्द करता है और जैसी कि एक घटना है कि जब शकील बदाँयुनी ने लिखा कि-
दीवाना बना देगी तुझको तिरी तनहाई
न मिल किसी से लेकिन आइना तो देखा कर
तो हसरत जयपुरी ने लिखा था कि-
आइना भी उन पै शैदा हो गया
एक दुश्मन और पैदा हो गया
आत्ममुग्ध लोग कई बार तो अपने अक्स को भी अपने बराबर मानने को तैयार नहीं होते। सारे पोस्टरों से अटल, अडवाणी, सब गायब केवल एक चेहरा एक नाम। चारों ओर सिर्फ बौने बौने और बौने। लोगों ने अपने जूतों की एड़ियां निकलवा दीं। जिनके बाल खड़े होते थे उनने खोपड़ियां राजनाथ सिंह की तरह सफाचट करवा लीं।
जरा कुछ और अपना कद तराशो
बहुत नीची यहाँ ऊँचाइयां हैं
बुन्देली में एक कहावत है जिसका अर्थ यह निकलता है कि अगर ओछी प्रवृत्ति के किसी व्यक्ति के पास लोटे जैसी साधारण सी उपलब्धि भी हो जाती है तो वह उसके प्रदर्शन के लिए बार बार शौच जाने का प्रयास करता है ताकि लोगों को अपनी उस उपलाब्धि को दर्शा सके। जाहिर है कि यह कहावत उस समय की है जब घर घर शौचालय बनवाओ का अभियान नहीं चला था ये बात और है कि इस अभियान के चल जाने के बाद भी लोग जाते तो वहीं हैं जहाँ उनके बाप दादे जाते रहे थे। अमेरिका के राष्ट्रपति ओबामा ने अगर दो बार कपड़े बदले तो मोदी ने तीन बार बदले और एक से एक चटक रंग के पहिने। स्कूल के अध्यापक भले ही उनके पद को – परिधान मंत्री- में बदल  जाने को वर्तनी की गलती मानें, पर मोदी तो जादूगरों के वाटर आफ इंडिया की तर्ज पर हर आइटम के बाद कपड़े बदलने का कार्यक्रम कर डालते हैं। प्रोटोकाल जाये तेल लेने, गणतंत्र दिवस की परेड में जब राष्ट्रपति परेड से सलामी लेते हैं तो मोदी जी भी सलामी लेने लगते हैं। हवाई अड्डे पर अमेरिका के राष्ट्रपति को लेने पहुँच जाते हैं, उनके लिए चाय बनाते हैं, पता नहीं चला कि उन्हें हवाई अड्डे पर देखकर सीड़ियों से उतरते हुए ओबामा ने मिशेल से ऐसा क्या कहा था कि बालों से ढके उनके चेहरे से मुस्कराहट दूर तक फैल गयी थी।
गाँधीजी अब नहीं हैं किंतु उनकी बकरियां अब जगह जगह चर रही हैं।  
वीरेन्द्र जैन                                                                           
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