व्यंग्य
मार्ग
दर्शक मण्डल
दर्शक
होता
है। कभी कभी होता है। अपने आप पर भी सन्देह होने लगता है, अपने नाम पर सन्देह होने
लगता है। आइने के सामने खड़े होकर सोचना पड़ता है कि इस आदमी को कहीं देखा है। पिछले
दिनों ऐसा ही हुआ। दर्शक को दर्शक होने पर सन्देह हुआ और उसने शब्दकोष उठा कर
दर्शक का अर्थ तलाशा। शब्दकोष में लिखा हुआ था दर्शक अर्थात अवलोकक , देखने वाला।
संतोष
हुआ कि जो समझ रहा था वही है कोई भूल नहीं है। दर्शक माने देखने वाला तो
फिल्म-दर्शक माने फिल्म देखने वाला था। कैसा संयोग है कि जिस समय मैं शब्दकोष देख
के रखने ही जा रहा था कि उसी समय समाचार आया कि भाजपा के नये अध्यक्ष अमित शाह ने
रथयात्री लालकृष्ण अडवाणी और दूसरे रथयात्री मुरली मनोहर जोशी को भी संसदीय बोर्ड
से निकाल बाहर कर मार्ग दर्शक बना दिया है। अपने भाषायी गणित से मैंने हिसाब लगाया
कि इसी गुंताड़े से मार्ग-दर्शक माने मार्ग देखने वाला होगा। अगर इसी वाक्य का
सीसेट विरोधी आन्दोलनकारियों की हिन्दी में अनुवाद किया जाये तो होगा रास्ता देखने
वाला। मैं सीसेट विरोधी आन्दोलनकारियों की दूरदृष्टि पर लोटपोट हो गया। सचमुच अगर
ऐसा अनुवाद हो तो कितने सही अर्थ तक पहुँचा जा सकता है, और क्षेत्रीय भाषाओं वाले
भी बड़े अधिकारी बन कर वही सब कुछ कर सकते हैं जिसे अंग्रेजी जानने वालों ने अपना
विशेष अधिकार बना रखा है।
रास्ता
देखने को रास्ता नापना भी कहा जा सकता है। रथयात्रियों से
लगता है कि यही कह दिया गया है। पुराणों के द्वापर में जो रथ के
सारथि बने थे वे ही लाल कृष्ण, मुरली मनोहर कलयुग में रथयात्री बन गये थे। गुजरात
के बाद अब मध्य प्रदेश में भी उन्हीं बत्रा जी की पुस्तकें पढायी जाने वाली हैं
जिनमे लिखा है कि मोटरयान सबसे पहले हमारे देश में बने थे क्योंकि पुराणों में अनाश्व
रथ अर्थात बिना घोड़ों के रथ की चर्चा आयी है। उस काल के अम्बानियों की भी तलाश चल
ही रही होगी। हो सकता है कि आगे उनके इतिहासकार रथयात्रियों के रास्ता नापने की भी
कोई कथा या दृष्टांत निकाल लायें, जैसे युधिष्टर ने अंत में द्रोपदी, भाइयों, और
कुत्ते समेत हिमालय का रास्ता नापा था ।
आजकल
इतिहास निर्माता शब्द का भी अर्थ बदलने का समय आ गया है। जिस तरह से ‘पुरातत्व
सामग्री’ निर्माण के नये उद्योग खुल गये हैं इसी तरह से इतिहास गढने वाले ‘इतिहास
निर्माता’ होने वाले हैं। भवानी प्रसाद मिश्र के गीत फरोश की तरह-
जी, छंद और बेछंद पसंद
करें,
जी अमर गीत और वे जो तुरत मरें!
ना, बुरा मानने की इसमें बात,
मैं ले आता हूँ, कलम और दवात,
इनमें से भाये नहीं, नये लिख दूँ,
जी, नए चाहिए नहीं, गए लिख दूँ!
मैं नए, पुराने सभी तरह के
गीत बेचता हूँ,
जी हाँ, हुजूर मैं गीत बेचता हूँ
मैं तरह-तरह के गीत बेचता हूँ।
मैं किसिम-किसिम के गीत बेचता हूँ!
जी अमर गीत और वे जो तुरत मरें!
ना, बुरा मानने की इसमें बात,
मैं ले आता हूँ, कलम और दवात,
इनमें से भाये नहीं, नये लिख दूँ,
जी, नए चाहिए नहीं, गए लिख दूँ!
मैं नए, पुराने सभी तरह के
गीत बेचता हूँ,
जी हाँ, हुजूर मैं गीत बेचता हूँ
मैं तरह-तरह के गीत बेचता हूँ।
मैं किसिम-किसिम के गीत बेचता हूँ!
जी,
गीत जनम का
लिखूँ मरण का लिखूँ,
जी, गीत जीत का लिखूँ, शरण का लिखूँ,
यह गीत रेशमी है, यह खादी का,
यह गीत पित्त का है, यह बादी का!
कुछ और डिजाइन भी हैं, यह इलमी,
यह लीजे चलती चीज़, नई फ़िल्मी,
यह सोच-सोच कर मर जाने का गीत,
यह है दुकान से घर जाने का गीत!
जी नहीं, दिल्लगी की इसमें क्या बात,
मैं लिखता ही तो रहता हूँ दिन-रात,
तो तरह-तरह के बन जाते हैं गीत,
जी, रूठ-रूठ कर मन जाते हैं गीत,
जी, बहुत ढेर लग गया, हटाता हूँ,
गाहक की मर्ज़ी, अच्छा जाता हूँ,
या भीतर जाकर पूछ आइए आप,
है गीत बेचना वैसे बिलकुल पाप,
क्या करूँ मगर लाचार
हार कर गीत बेचता हूँ!
जी हाँ, हूँ हुजूर हूँ मैं गीत बेचता हूँ,
मैं किसिम-किसिम के गीत बेचता हूँ!
जी, गीत जीत का लिखूँ, शरण का लिखूँ,
यह गीत रेशमी है, यह खादी का,
यह गीत पित्त का है, यह बादी का!
कुछ और डिजाइन भी हैं, यह इलमी,
यह लीजे चलती चीज़, नई फ़िल्मी,
यह सोच-सोच कर मर जाने का गीत,
यह है दुकान से घर जाने का गीत!
जी नहीं, दिल्लगी की इसमें क्या बात,
मैं लिखता ही तो रहता हूँ दिन-रात,
तो तरह-तरह के बन जाते हैं गीत,
जी, रूठ-रूठ कर मन जाते हैं गीत,
जी, बहुत ढेर लग गया, हटाता हूँ,
गाहक की मर्ज़ी, अच्छा जाता हूँ,
या भीतर जाकर पूछ आइए आप,
है गीत बेचना वैसे बिलकुल पाप,
क्या करूँ मगर लाचार
हार कर गीत बेचता हूँ!
जी हाँ, हूँ हुजूर हूँ मैं गीत बेचता हूँ,
मैं किसिम-किसिम के गीत बेचता हूँ!
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