सोमवार, 16 मार्च 2015

व्यंग्य मायके में सम्मान



व्यंग्य
मायके में सम्मान
दर्शक
       सावन का मौसम है इसमें रक्षा बन्धन का त्योहार आता है। जिनके यहाँ नहीं आता है उनके घर या तो अखबार नहीं आता होगा या टीवी के कर्यक्रम नहीं देखते होंगे। सारे त्योहार टीवी पर इतने धूमधाम से मनाये जाते हैं कि देशी से देशी लोगों को शर्म आने लगती है कि उन्हें त्योहार मनाना नहीं आता। इन दिनों त्योहार मनाने का अर्थ है खरीददारी। इस त्योहार पर आप कितने हीरे जड़ित गहने, घर, कपड़े, नई कार, स्कूटर, मोटरसाइकिल, मोबाइल, लैपटाप, नयी डिजाइन का फ्रिज, टीवी, बगैरह बगैरह क्या खरीद सकते है, और नकद नहीं खरीद सकते तो किश्तों में ले सकते हैं। यदि आप ऐसा कुछ नहीं कर सकते हैं तो क्या खाक त्योहार मनायेंगे! पहले के पंडित ऐसा मानते थे कि पितृ पक्ष के दिन कढुवे दिन होते हैं और इन दिनों में कुछ खरीदा नहीं जा सकता, पर बाज़ार ने पंडितों को ही खरीद लिया और पिछले कई वर्षों से मैं देख रहा हूं कि समाचार पत्रों में कोई न कोई पंडित यह कहता हुआ मिल जायेगा कि पितृपक्ष में भी खरीददारी पर कोई मनाही नहीं है।
       सावन के मौसम में ससुराल गयी लड़कियों को मैके की याद आती है क्योंकि झूला तो वहीं डलता है, ससुराल में तो चूल्हा जलता है, झूला नहीं डलता। पिता की सम्पत्ति में जब बेटियों को हिस्सा देने के लिए हिन्दू कोड बिल लाया गया था तब हिन्दू हित रक्षक जनसंघ ने ही उसका विरोध किया था। वे नहीं चाहते कि बेटियों को उनका हिस्सा मिले। सानिया मिर्ज़ा को भी जब तेलंगाना सरकार ने ब्रांड एम्बेसडर बनाया तो भी भाजपा को बुरा लगा।
       भाजपा नेत्रियों को भी अपनी मातृभूमि से कभी समर्थन नहीं मिला। सुषमा स्वराज हरियाना और दिल्ली से हारती रहीं, और जीतने के लिए उन्हें मध्य प्रदेश में शरण मिली। उमा भारती को भी टीकमगढ ने हरा दिया था व उत्तरप्रदेश के चरखारी व झांसी से जीत सकीं। वसुन्धरा राजे दतिया भिंड लोकसभा क्षेत्र से हार गयी थीं पर अपनी ससुराल के राज्य में जाकर न केवल जीतीं अपितु मुख्यमंत्री भी बनीं। हेमा मालिनी क्या किसी दक्षिण के राज्य से जीत सकती थीं जो मथुरा के जाटलैंड से चरणसिंह के पोते को हरा कर जीत गयीं। मुसलमानों के हाथ काट देने की धमकी देने वाले वरुण गाँधी की माँ भी दिल्ली या पंजाब से नहीं अपितु आँवला या पीलीभीत से जीतीं। सास की बहू भी दिल्ली से नहीं जीत सकी थी और स्मृति  ईरानी कपिल सिब्बल से हार गयी थीं। इसलिए भाजपा नेत्रियां तो बाबुल का देस भूल ही चुकी हैं।
सानिया मिर्ज़ा को दुखी होने की जरूरत नहीं क्योंकि अब ऐसी भाजपा मायके का महत्व क्या समझेगी।     

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