सोमवार, 16 मार्च 2015

व्यंग्य मंत्रिमण्डल



व्यंग्य
मंत्रिमण्डल
दर्शक
       प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेन्द्र मोदी को लगता होगा कि सबसे कठिन काम मंत्रिमण्डल का गठन होता है। खुश होने वालों की तुलना में उदास होने वालों की संख्या बढ जाती है। भारत विजय अभियान के पूरा होने के बाद लगता है कि भारत को जीतना अपने संसदीय दल को जीतने से ज्यादा सरल काम है।
       बेचारे अडवाणीजी को जब संघ द्वारा प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी नहीं बनाया गया था तब भी उन्होंने सपना देखना नहीं छोड़ा था। वे सोच रहे थे कि मोदी के नाम पर बहुमत तो मिलेगा नहीं और एनडीए के घटक दल अपनी लाज बचाने के लिए उनके नाम पर ही सहमत होंगे, पर जब उनका यह सपना भी टूट गया तभी से लगातार उनके आँसू बह रह हैं, ये बात अलग है कि वे उन्हें खुशी के आँसू कह रहे हैं। मजबूरी यह है कि बेचारे पूर्व उप प्रधानमंत्री मोदी के नीचे उपप्रधान भी नहीं बन सकते। अनारकली को सलीम मरने नहीं देना चाहता और अकबर जीने नहीं देते।
       बेचारी सुषमाजी को जब से अडवाणीजी ने अपनी उम्र को बाधा बताये जाने पर वैकल्पिक उम्मीदवार के रूप में प्रस्तुत करने की कोशिश की थी और बाल ठाकरे ने उनके नाम का अनुमोदन कर दिया था, तब से ही संस्कृत में शपथ लेने का अभ्यास करने लगी थीं। पर जनता है कि जब फिसलती है तो फिसलती ही चली जाती है सो छींका उनके भाग्य से भी नहीं टूटा। चुनाव परिणाम आने के बाद से ही देश उनके चेहरे पर मुस्कान देखने को तरस गया। मजबूरी यह है कि वे वरिष्ठता के नाते मंत्रिमण्डल में सम्मलित होने से इंकार भी नहीं कर सकतीं। प्रधानमंत्री पद की प्रतियोगी को उप प्रधानमंत्री पद तो छोड़िये वित्त और गृह विभाग तक भी नहीं मिला, और मिला तो सबसे कठिन विदेश विभाग मिला। सो यहाँ भी मामला अडवाणी जी जैसा ही है। अडवाणीजी जिन आँसुओं को खुशी के बता देते हैं तो सुषमाजी को उन्हें पी जाना पड़ता है। उस पर तुर्रा यह है कि सोनिया गाँधी के खिलाफ सिर मुढाने की धमकी से लेकर हर मामले तक उनसे लगातार प्रतियोगिता करने वाली उमाभारती को केबिनेट मंत्री के रूप में उनके बराबरी पर बैठा दिया गया है।
       अपने को अडवाणीजी का हनुमान बताने वाले वैंक्य्या नायडू भी उसी मंत्रिमण्डल में सम्मलित हैं जिसमें उमाभारती बैठी हैं जिन्हें देखते ही उन्हें याद आ जाता है कि उनका अध्यक्ष पद क्यों गया था और बाद में उन्हें उपाध्यक्ष पद पर प्रतिष्ठित होना पड़ा था। विडम्बना यह थी कि सत्यभाषी वैंक्य्या जी ने अपनी पत्नी की बीमारी को अध्यक्ष पद से त्यागपत्र देने का कारण बताया तब साध्वी ने उनकी पत्नी की बीमारी का जो हैल्थ बुलेटिन जारी किया था उसे वैंक्य्या जी जीवन भर नहीं भूल सकते। वह तो गनीमत रही कि उन्हें स्वास्थ मंत्रालय नहीं दिया गया।
       वैसे तो उमाजी ने खुद को फायर ब्रांड सिद्ध करने के लिए कभी नरेन्द्र मोदी के बारे में भी कहा था कि वे विकास पुरुष नहीं अपितु विनाश पुरुष हैं और इसका वीडियो चुनावों के दौरान खूब दिखाया गया। बाद में उन्होंने कहा कि यह बयान उन्होंने अहमदाबाद में दिया था और अहमदाबाद से बड़ौदा तक आते आते जो विकास उन्होंने देखा तो वे चमत्कृत हो गयीं थीं और उन्होंने पूरे गुजरात से भाजश के अपने प्रत्याशी वापिस लेने की घोषणा कर दी थी। बहरहाल उनके ज्ञानार्जन से लोग जरूर चमत्कृत हो गये होंगे, विशेष रूप से अहमदाबाद वाले जिन्हें अपना विकास बड़ौदा से पीछे नजर आया था। शायद यही कारण रहा होगा कि गर्वीले गुजरात के छप्पन इंची सीने वाले शेर को अहमदाबाद से चुनाव लड़वाने के लिए कोई राजनीतिक व्यक्ति नहीं मिला और अमेरिका में शूटिंग कर रहे हास्य अभिनेता परेश रावल को बुला कर उम्मीदवार बनाना पड़ा। वैसे उमाजी के मंत्रिमण्डल में सम्मलित होने से सुषमाजी या वैंक्य्याजी कुछ भी सोचते हों पर अडवाणी जी के दूसरे भक्त मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान जरूर संतुष्ट हैं कि उनकी कुर्सी पर बुरी नजर वाला एक खतरा तो कम हुआ।
       मुण्डेजी का एक दुर्घटना में दुखद निधन हो गया बरना भाजपा के पूर्व अध्यक्ष गडकरीजी और मुण्डेजी का एक साथ एक ही मंत्रिमण्डल में होना भी आश्चर्य से देखा जाता। शायद यही कारण रहा होगा कि लोग मुण्डेजी को महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री के रूप में देखने लगे थे। गडकरीजी को संघ की इच्छा के विपरीत जिन मोदीजी ने दुबारा अध्यक्ष नहीं बनने दिया था उन्हीं के मंत्रिमण्डल में सम्मलित हो जाने से याददाश्त तो खत्म नहीं हो जाती।
       सुना तो था कि पूर्व विनिवेश मंत्री अरुण शौरी को भी मंत्रिमण्डल में सम्मलित किया जा रहा है पर जिस मंत्रिमण्डल में राजनाथ दूसरे नम्बर पर विराज गये हों तो उन्हें सार्वजनिक रूप से हम्पी डम्पी औए एलिस इन वन्डरलेंड कहने वाले को देखना भी कौतुकपूर्ण होता।
       बहरहाल मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति जुबिन ईरानी की पद से सम्बन्धित प्रतिभा और उस प्रतिभा को पहचानने की योग्यता के बारे में इतना कहा जा चुका है कि मैं अब क्या कहूं। आपात काल में दुष्यंत कुमार ने कहा ही था कि-
मैं बहुत कुछ सोचता रहता हूं पर कहता नहीं
बोलना भी है मना, सच बोलना तो दर किनार        
          

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