सोमवार, 16 मार्च 2015

व्यंग्य थुक्का फज़ीहत



व्यंग्य
थुक्का फज़ीहत
दर्शक
शैलेन्द्र ने तीसरी कसम फिल्म में गीत लिखा था- पान खाय सैंया हमार।
       सैय़ा हमार हो या तुमार, जब वह एकसौबीस नम्बर की बाबा तम्बाखू वाला पान खायेगा तो पीक भी उगलेगा। और जहाँ जगह मिलेगी वहाँ उगलेगा। सो वह मलमल के कुर्ते पर भी लाल लाल पीक उगल देता है क्योंकि पीक के लिए सबको पीकदान नहीं मिलता। वैदिक ज्ञानियों को जब पीक उगलना होती है तो वे किसी ऐसी वैसी चीज पर थोड़े ही उगलते हैं, उन्हें तो कोई बड़ी चीज ही चाहिए। 2047 में जब आज़ादी की शताब्दी मनायी जा रही होगी तब उस समय का राजू गाइड दिल्ली की कुछ इमारतें दिखाते हुए सैलानियों को बतायेगा कि ये इमारतें सफेद खादी जैसे संगमरमर से बनायी गयी थीं पर हमारे देश के कुछ गुप्तदूत पत्रकारों ने अपनी उगलन क्रिया से इन्हें लाल कर दिया।
       ऐसे गुप्तदूत पत्रकार पेडन्यूज पर हमेशा अपने नेत्र मूंद कर रखते हैं बरना उन्हें लोकतंत्र के चौथे खम्भे पर ही इतना थूकना पड़ता कि कश्मीर 2014 जैसे बाढ के हालात पैदा हो जाते, पर वे उस पर छींकते तक नहीं हैं। कार्पोरेट की सीमेंट से बना चौथा खम्भा शेष तीन खम्भों के साथ वैसा ही व्यवहार करना जानता है जैसे कि स्वान टांग उठा कर खम्भों के साथ करते हैं। वह खुद को पूज्यनीय बनाये रखना चाहता है। हम चाहे जो कहते रहें और करते रहें, पर तुम बोलोगे तो हम थूक देंगे। तुम्हारे पाँव, पाँव, हमारे पाँव चरन, वाह भैय्या श्यामाचरण! चौथा खम्भा गौ-ब्राम्हण जैसा अभयदान प्राप्त मानता है खुद को। उसे वैसा मानना भी चाहिए था अगर वह उन मानदण्डों पर खरा उतरता, पर एक मछली सारे तालाब को गन्दा कर देती है उस पर जब ढेर सारी मछलियां गन्दी हो जाती हैं तो समुद्र तक को अपनी स्वच्छता संकट में मालूम देने लगती है। तेलंगाना के मुख्यमंत्री को तो इतनी बदबू आने लगी कि वे उन्हें दस मीटर तक दफनाने की धमकी देने लगे हैं। उन्हें लगता है कि गहराई कम रह जाने पर वे फिर से तकलीफ पैदा कर सकते हैं। 
       पिछले दिनों रामभरोसे अपने दोस्त के साथ मुगल गार्डन घूमने गया था पर गेट पर ही उसके दोस्त का जरूरी फोन आ गया सो उसने रामभरोसे को सलाह दी कि वह पहले अन्दर चला जाये और वह भी पीछे-पीछे आ जायेगा। जब वह अन्दर घुसा तो उसने राम भरोसे को लौटता हुआ पाया। कारण जानने पर रामभरोसे ने बतलाया कि अन्दर तो बड़ी खराब हालत है गार्डन में जगह जगह डिब्बे लगे हुए हैं जिन पर लिखा है- यहाँ थूकिये- यहाँ थूकिये! अरे भाई मैं तो परेशान हो गया आखिर कितनी जगह थूकता, मेरा थूक ही सूख गया, तो मैंने तय किया कि अब नहीं थूकूंगा, पर जहाँ इस निर्णय पर पहुँचा वहीं देखा कि एक पुलिस वाला खड़ा हुआ था। इसलिए मैं दौड़ कर बाहर भाग आया। सवाल उठता है कि अब जिन लोगों ने संसद पर थूकने का तय किया है उन्हें इतनी बड़ी संसद को कवर करने में कितनी तकलीफ होगी। वे यह काम एक ही दिन में करेंगे या पूरे पाँच साल तक अखण्ड कार्यक्रम चलेगा? वे यह काम लोकसभा से शुरू करेंगे या राज्यसभा से? पहल विपक्ष के नेता से करेंगे या सत्तारूढ दल के नेता से?
हम पर दर्द का पर्वत टूटा, तब हमने दो चार कहे
रब उन पर क्या बीती होगी, जिनने शे’र हजार कहे
       बिन माँगे सलाह देना मेरी आदत है सो दे रहा हूं कि देश में अब सारे काम आभासी भी होने लगे हैं, जैसे किसी के पास लालकिले पर भाषण देने का अधिकार नहीं होता तो वह नकली लालकिले से भाषण देते देते असली तक पहुँच जाता है, सो जिसे असली संसद पर थूकने की इच्छा में कुछ असुविधा महसूस हो रही हो वह एक गोल डिब्बे पर संसद लिख कर उसे पीकदान बना ले तो उसका गुस्सा थुक जायेगा और शब्द के साथ सम्मान बचा रहेगा। अभी तो लोगों ने उसी को थूकदान बना लिया है           

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