गुरुवार, 5 अक्तूबर 2017

व्यंग्य वीसी की सीवी

व्यंग्य
वीसी की सीवी
दर्शक
ये वीसी क्या होता है?
‘वाइस चांसलर’
‘वाइस क्या होता है?’
रामभरोसे को पता नहीं था इसलिए उसने तुरंत ही स्मार्ट फोन में शब्द खोला और अंग्रेजी से हिन्दी का विकल्प चुना। वी आई सी ई टाइप किया और सर्च दबाया। वहाँ लिखा था वाइस/ वाइसी , नाउन।...  और शब्दार्थ दिया था , नुकसान, पाप, पापाचरण, बाँक, बुराई, व्यसन, शरारत, शिकंजा, हानि, खराबी । उसे लगा कि कुछ गड़बड़ हो गई है इसलिए उसने चांसलर/चैंसलर भी सर्च किया। वहाँ बिल्कुल ठीक लिखा था – कुलाधिपति, राज पंडित आदि ।
अगर शब्दकोश के अनुसार कोई बीएचयू के वीसी का अर्थ निकाले तो क्या अर्थ होगा? अब जाकर उसे गूगल के अनुवाद का रहस्य पता चला।  
अगर फूल कागज या प्लास्टिक के न हों तो शाखा से ही निकलते हैं। वीसी भी अगर शाखा से निकले हों तो......... । बहरहाल बीएचयू के त्रिपाठीजी शाखा से ही निकले थे और इसीलिए वीसी बनाये गये थे। आजकल पदों पर प्रतिष्ठित करने में इकलौती प्रतिभा यही रह गयी है। शाखा से निकलो और शिखर् पर सवार हो जाओ। पद चाहे फिल्म इंस्टीट्यूट का हो या नैशनल बुक ट्रस्ट का, सब के सिर पर शाखा के फूल चढे हुये हैं।
आजकल फूल चढी समस्त संस्थाओं का एक ही फार्मूला हो गया है, या तो जो कुछ हम कह रहे हैं, उससे सहमत हो जाओ बरना देशद्रोही। वे अगर कहें कि सूरज पश्चिम से निकलता है तो स्वीकार करना पड़ेगा नहीं तो देश द्रोही की गाली सुनो। उनके अन्धे देशभक्त देशद्रोहियों को कैसे सहन करेंगे इसलिए एक के भोंकने की आवाज सुन कर भोंकेने लगते हैं। पूरे कैम्पस से भों भों सुनाई देने लगती है। भक्त किसी को कहीं भी मारने से पहले कह देते हैं कि वह गौमाँस खा रहा था। गौभक्त भी बाँहें चढा लेते हैं, कोई बहादुर नहीं पूछता कि माँस कहाँ हैं, या है तो कैसे जाना कि यह गौमाँस ही है। कोई ट्रेन में सीट नहीं दे तो कह दो कि गौमाँस क्यों खा रहे थे और मार पीट कर फेंक दो। दफ्तर में अफसर डांटे तो कह दो कि वह लंच में गौमाँस लाता है। गाली देकर कह दो कि बन्दे मातरम बोलना पड़ेगा। राष्ट्रभक्ति चण्डाल चौकड़ी की चेरी बन गई है। मीडिया से कह दो कि बस हनी प्रीत द्वारा बाबा से प्रीत करने के वीडियो को तरह तरह के कोणों से दिखाते रहो। सत्यकथाएं बेचने वाले मक्खियां मार रहे हैं क्योंकि रेलवे स्टेशन पर ग्राहक कहता है कि हनी प्रीत की कहानी वाली कोई पत्रिका हो तो वही दो।
भ्रष्टों पर कार्यवाही का दबाव बनाओ और उन्हें पार्टी में शामिल कर लो कार्यवाही किसी पर मत करो। जो शामिल नहीं हुए उन्हें डराते रहो। टूजी, थ्रीजी, जीजाजी, किसी पर कार्यवाही मत करो। पड़ोसियों का डर दिखाओ और हथियार खरीदते रहो। नक्स्लवादियों का डर दिखा कर जंगल में खनन माफिया की सुरक्षा में सुरक्षा बल लगा दो। बाँध बनाने से उजड़े ग्रामवासियों का पुनर्वास मत करो। बाबाओं को आगे कर चुनाव जीतो और अगर वे बदनाम हो जायें तो बाबा बदल दो। बेटे से बाप पर टिप्पणी लिखवा दो। यही अनुमान करके अकबर इलाहावादी लिख गये हैं-
हम ऐसी सब किताबें, काबिले ज़ब्ते समझते हैं
कि जिनको पढ कर बेटे बाप को खब्ती समझते हैं
                                                                                                                   

    

बुधवार, 13 सितंबर 2017

व्यंग्य ‘डे’ का दिन और एमपी की झाँकी

व्यंग्य
‘डे’ का दिन और एमपी की झाँकी
दर्शक
कुछ सेवक ऐसे सेवक होते हैं, जो अपनी सेवा शर्तों के अनुसार तय शुदा काम और किये गये अनुबन्ध के काम तो नहीं करते पर इसके अलावा चौबीस घंटों में अठारह घंटे काम करने का दावा करते हैं, व भक्तों से इसके लिए जय जयकार कराते रहते हैं।
एक कहानी इस प्रकार है- एक बार जंगल में एक बन्दर को मंत्री चुन लिया गया। जब उसके पास एक शिकायत लेकर एक खरगोश आया तो उसने इस डाल से उस डाल पर और उस डाल से इस डाल पर लगातार छलांगे लगाना शुरू कर दिया। ऐसा करते करते जब काफी समय हो गया तो खरगोश को शक हुआ। उसने कहा कि हुजूर मेरे काम का क्या हुआ? बन्दर बोला काम हुआ या नहीं, पर मेरे प्रयास में कोई कमी हो तो बताओ! ऐसा कह कर वह बन्दर फिर से इस देश से उस देश........ क्षमा करें, इस डाल से उस डाल पर छलांगे लगाने लगा।
उसे अपने छप्पन इंची सीने के साथ अठारह घंटे काम जो करना था।
विवेकानन्द के दिये हुए ऎतिहासिक भाषण को 125 साल हो गये। यह भाषण इतने ही सालों से वैसे का वैसा ही है, न 124वें साल में बदला था न 160वें साल में बदलेगा भले ही उसके बहाने अपने मन की बात कहने वाले बदल जायें और भाषण की व्याख्याएं बदल जायें। छात्रों के हाकी मैच वाले लेख की तरह के एक लेख याद कर लो, जब भी किसी विषय पर लेख लिखने को कहा जाये तो कोई सन्दर्भ निकाल कर उसमें हाकी मैच पिरो दिया जाये क्योंकि हमें तो वही याद है। चाहे पिकनिक हो या ताजमहल की यात्रा हाकी मैच की जगह निकल ही आती है। विवेकानन्द के भाषण की जयंती पर भी प्रधानसेवक को सफाई की याद आ गयी और जेएनयू में हुये छात्रसंघ चुनाव में उनकी छात्र इकाई की पराजय के कारण कैम्पस की याद भी आ गई। यह याद नहीं आया कि पिछले सौ दिनों में सीवर की सफाई करते हुए देश में 39 लोग अकाल मौत मर गये। ये ऐसे सैनिक हैं जो बिना हथियारों, अर्थात सुरक्षा उपकरणों के सबसे बुरी मानी जाने वाली गन्दगी को अपने हाथों से साफ करते हैं। इन बहादुरों को शहीद का दर्जा भी नहीं दिया जा सकता।
हमारे प्रधानसेवक ने इसी अवसर पर कहा कि हम हर रोज कोई न कोई डे मनाते हैं, तो इसी तर्ज पर पंजाब डे, केरल डे, आदि क्यों नहीं मनाते। इस दिन हम उसी प्रदेश की तरह के कपड़े पहिनें, खाना खायें, सांस्कृतिक कार्यक्रम करें आदि।
उनकी इस बात को सुन कर राम भरोसे बहुत उत्साहित हो गया और भागा भागा मेरे पास आया। बोला हम एमपी डे मनायेंगे। उत्तर में मैंने अपनी औकात के अनुसार प्रतिक्रिया दी कि पहले एमएलए डे से शुरू करो। उसने माथा ठोक कर कहा कि एमपी यानि कि मध्य प्रदेश। मैंने कहा ठीक है प्रारूप बताओ। बोला कि दशहरा मैदान में एक मेला लगायेंगे जिसमें कई झांकिया होंगीं। पहली झाँकी व्यापम की होगी जिसमें पीएमटी से लेकर विभिन्न परीक्षाओं में इम्पोर्टेड बच्चे दूसरे के नाम से परीक्षा दे रहे होंगे। नेताओं के निजी सचिव और रिश्तेदार नोट गिन रहे होंगे, कुछ आत्महत्या कर रहे होंगे, कुछ को मार दिया जा रहा होगा। वगैरह। दूसरी झाँकी किसानों पर गोली चलाती बहादुर पुलिस की होगी तो तीसरी झाँकी जेल से भाग कर आत्मसमर्पण करने की कोशिश में मारे जा रहे कैदियों की होगी। तीसरी झाँकी अस्पताल में मोतियाबिन्द के आपरेशन के लिए आये मरीजों के अन्धे होकर जाने की होगी, तो चौथी झाँकी पेटलाबाद की होगी, पांचवीं झाँकी खाली पड़ी मानवाधिकार आयोग और लोकायुक्त की कुर्सियों की होगी। छठवीं झाँकी पत्रकारिता विश्वविद्यालय की गौशाला की होगी, सातवी झाँकी ..................
अरे बस भी करो भाई कितनी झाँकियां निकालोगे! एमपी अजब है सबसे गज़ब है।  


रविवार, 27 अगस्त 2017

व्यंग्य बाबाओं की पार्टी

व्यंग्य
बाबाओं की पार्टी
दर्शक
बाबा शब्द में ही बहुत धोखा है। मुम्बई गोआ से आयातित बाबा माने बच्चा होता है इसलिए काँग्रेस के विरोधी राहुल के आगे या पीछे बाबा लगा कर खुश हो जाते हैं। पश्चिम से ऊपर उठने पर बाबा माने दादा हो जाता है, और यह दादा मुहल्ले कस्बे के गुंडों वाला दादा नहीं अपितु दादी के जोड़े वाला दादा होता है। जो लोग मार्ग दर्शक मण्डल वालों को उनके नाम से नहीं जानते उन्हें भी बाबा कह देते हैं। भंडारे में बैठे वृद्धाश्रम वाले मार्गदर्शक मण्डल वालों को कहा जाता है कि बाबा उठो अब काहे की टकटकी लगाये बैठे हो, अब कुछ नहीं आने वाला। वे फिर भी अडवाणी बने बैठे रहते हैं, इस उम्मीद में कि कबहुं दीनदयाल के भनक परेगी कान।
पुराने समय में जब आदमी गृहस्थी की जिम्मेवारियां नहीं निभा पाता था तो उम्र से पहले बाबा हो जाता था। तुलसी बाबा कह गये हैं कि ‘मूड़ मुढाये भये सन्यासी’ या कबीर कहते हैं कि ‘मन ना रंगायो, रंगायो जोगी कपड़ा’। यह स्वरूप बदल कर मजबूरी में बाबा भेष धारण करना होता है। चूंकि मजबूरी में होता था इसलिए मन कहीं और रमा होता था। केशवदास ने कहा ही है कि ‘केशव केशन असि करी, सो कछु ही न कहाय, चन्द्र वदन मन मोहिनी, बाबा कहि कहि जाय’। तब गोदरेज का हेयर डाई नहीं चलता था बरना केशव के बाल भी बाबा रामदेव या श्री श्री की तरह काले होते और वे कविता फविता लिखने की जगह रामरहीम की तरह राक स्टार बन गये होते। राम कथा पढने वाले लोग जानते हैं बाबा धोखा देने वाला भेष ही होता है, रावण सीता हरण के लिए इसी भेष में आया था। तब से ही धोखा देने की यह परम्परा चली आ रही है। पहले यह काम रिटेल में होता था पर अब इसके थोक व्यापारी बन गये हैं जिनकी फैक्टरियां चलने लगी हैं जिन्हें श्रद्धा से आश्रम कहते हैं। श्रद्धा समझते हैं न आप अरे वही आस्था वाली जिस पर हरियाणा में धारा 144 नहीं लग सकती। कभी बुद्ध ने समाज के प्रति विनम्रता सिखाने के लिए अपने शिष्यों को भिक्षु बनने का आदेश दिया था जिससे वे नगरी नगरी द्वारे द्वारे भिक्षा मांग कर पेट भरते थे। बाद में हर मांग कर खाने वाला हरामखोर खुद को बाबा बताने लगा।
देश में लोकतंत्र के मन्दिर संसद भवन पर पहला हमला भाजपा ने ही करवाया था पर तब इस दल का नाम जनसंघ था। सबसे पहले इन बाबाओं पर उसकी ही दिव्यदृष्टि पड़ी और उन्होंने इन्हें जोड़कर गौरक्षा के नाम पर हमला करवा दिया। गुलजारी लाल नन्दा तब गृहमंत्री हुआ करते थे जो गुरुओं के प्रति विशेष प्रेम रखते थे। कहा जाता है कि जब चिमटे त्रिशूलों वाले इन कथित बाबाओं ने संसद के गार्डों पर हमला कर के सदन में घुसने की कोशिश की तो गार्डों को मजबूरन गोली चलाना पड़ी थी जिसमें कई भिक्षुक घायल हो गये थे और जो बाद में काल के गाल में भी समा गये थे। तब से इन बाबाओं की पगडंडी के सहारे भाजपा ने संसद की ओर रास्ता बनाना शुरू कर दिया था क्योंकि उनके लिए राजमार्ग बहुत कठिन था।
मैं मैकदे की राह से होकर गुजर गया
बरना सफर हयात का बेहद तबील था
काँग्रेस अगर एक बाबा की पार्टी है तो भाजपा अनेक बाबाओं की पार्टी है, जिसमें से कुछ बाबाओं को तो वे मार्गदर्शक मण्डल में भी भेज चुके हैं। पंचतंत्र में भी एक कथा आती है जिसमें एक गुरु ने चेलों का शोषण करने के लिए उनके बीच में प्रतियोगिता पैदा कर दी थी व दबाने के लिए एक एक पैर आवंटित कर दिया था। वे कभी एक के काम की तारीफ करते थे तो कभी दूसरे की। एक दिन अपनी पूरी सेवा के बाबजूद जब दूसरे शिष्य को उपेक्षा सहनी पड़ी तो उसने सोते हुए गुरू की दूसरी टांग पर पत्थर पटक दिया। जब दूसरे शिष्य ने उसे आवंटित टांग का यह हाल देखा तो उसने अपने प्रतियोगी को आवंटित टांग का भी वही हाल किया। बहरहाल गुरू जी की दोनों टांगें उनकी कूटनीति में चली गयीं। भाजपा के बाबा भी कभी निरंजन ज्योति के रूप में प्रकट होते हैं, तो कभी साक्षी महाराज के रूप में, कभी उमा भारती के रूप में कभी रामदेव, रामरहीम, आशाराम, वगैरह वगैरह के रूप में।
बाबाओं की पार्टी देश को बाबा बना के छोड़ देगी।  



व्यंग्य विधायक बाजार आनलाइन

व्यंग्य
विधायक बाजार आनलाइन
दर्शक

जब से आन लाइन मार्केटिंग शुरू हुयी है तब से आदमी नित्य क्रियाओं के लिए जाने के अलावा अपनी देहरी नहीं लाँघता। वैसे तो विद्या बालान ने मोदी जी के आग्रह पर घर घर शौचालय बनवा दिये हैं, और उनके घर भी शौचालय बनवा दिये जिनके पास घर ही नहीं था, पर क्या करें आदत भी कोई चीज होती है। वे आदत बदलने की भी सोच सकते थे बशर्ते नलों में जरूरत के मुताबिक पानी आता होता, इसलिए पर्यावरण का संतुलन बनाये रखना होता है।
अब हर आर्डर आनलाइन होता है और हर डिलीवरी आन डोर होने लगी है। जो चाहिए वह एक घंटे में हाजिर है जिसके भुगतान के लिए कुत्ता घसीटी की तरह, बस कार्ड घसीटना पड़ता है और खाते से पैसे कट जाते हैं, बशर्ते उसमें हों। हर सुपर बाज़ार ग्राहकों को तरह तरह की छूट देते हैं, विशेष रूप से उन वस्तुओं पर जो उनके यहाँ बिकती नहीं हैं। कभी कभी तो एक की खरीद पर एक फ्री मिलता है।
कुछ ग्राहक दुकानदार को बहुत प्रिय होते हैं, क्योंकि वे मोलभाव नहीं करते। सुपर बाजार में इसीलिए दुकानदार और मालिक के सम्बन्ध खराब नहीं होते क्योंकि मोलभाव कर ही नहीं सकते, सब पर बारकोड का कोढ लगा हुआ होता है। पिछले दिनों रिटेल ट्रेड में विदेशी निवेश का प्रतिशत बढाने वाली भाजपा को समझ में आया कि सुपर बाजार में सब वस्तुएं नहीं मिलतीं, विधायक तो खुद खरीदने जाना पड़ता है। उन्होंने आन लाइन आर्डर करना चाहा पर नहीं मिले। मजबूरन ठेकेदार को ठेका दिया, पर एक विधायक कम रह गया। बड़ी निराशा हुयी। दिगम्बर होकर खेत में हल चलाया, फिर भी बरसात नहीं हुयी। सचेत हो गये, अगली बार से आन लाइन टेंडर निकालने की सोच रहे हैं। डाइरेक्ट डील, नो बिचौलिया।
नये युधिष्टर का नया कुत्ता
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युधिष्टर के कुत्ते की कहानी बहुत प्रसिद्ध है। वे जब बिना रथ के अपनी अंतिम यात्रा पर पत्नी और भाइयों के साथ निकले तो उनके साथ एक सातवां प्राणी और था और वह था युधिष्टर का कुत्ता। वह सदा की तरह उनके साथ साथ चला। जब स्वर्ग के लिए उन्हें ले जाने देवदूत आये तो उन्होंने कहा कि मेरा कुत्ता भी मेरे साथ जायेगा। देवदूत असमंजस में थे, क्योंकि युधिष्टर कोई बिल क्लिंटन तो थे नहीं कि कुत्ते गाँधीजी की समाधि राजघाट तक चले जायें, और फिर वह तो स्वर्ग था। पर युधिष्टर अड़ गये, बोले जायेंगे तो कुत्ते को साथ लेकर जायेंगे। अंततः स्वर्ग के नियम बदले गये और स्वर्ग में कुत्ते का प्रवेश होने लगा। तब से ऐसी परम्परा पड़ी कि प्रत्येक राजनेता अपने कुत्तों को साथ लेकर चलने लगा।
अब यह परम्परा और सुधर रही है, कुत्तों का प्रभाव इतना बढ गया है कि वह युधिष्टर के बिना ही स्वर्गों के दौरे करने लगा है व उनकी ही तरह गार्ड आफ आनर प्राप्त कर रहा है। जब जब जहाँ जहाँ सफाई दिखने लगे तो समझ लेना कि युधिष्टर का कुत्ता आ रहा होगा।
कुत्ते और युधिष्टर का तो ठीक है पर इन स्वर्ग के देवदूतों को क्या हुआ है?
बलि के लिए पूजा
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जब बड़े जोर शोर से नर्मदा मैय्या का सरकारी पूजा पाठ चल रहा था तब उन्हें भी लगा होगा कि अभी तक तो ये सब हुआ नहीं, पर अब क्यों? जरूर दाल में कुछ काला है। अब जब पुजारी के भेष वाले लोग गाँव के गाँव की बलि देने पर उतर आये हैं तब समझ में आता है कि बलि के लिए पूजा की गयी थी।
सारी बलियां पूजा के बहाने पेट और मुँह के स्वाद से जुड़ी होती हैं। नईम जी की गज़ल का एक शे’र है-
आप झटका, हलाल के कायल

जान तो लोगो मेरी जाना है    

रविवार, 30 जुलाई 2017

व्यंग्य ........... और अब लेखक मोदी

व्यंग्य
........... और अब लेखक मोदी
दर्शक
यही कमी रह गयी थी सो वो भी पूरी हुयी जाती है। अब प्रधानमंत्री मोदी का लेखक अवतार सामने आने वाला है। बचपन में मगर पकड़ने वाले बहादुर मोदी जी खुद को चाय बेचने वाला तो बताते हैं, पर कोई ऐसा सामने नहीं आया जिसने उनके हाथ की चाय पी हो। पिछले दिनों तो वे जिस भी प्रोफेशन के कार्यक्रम में जाते थे तो यह कहते थे कि बचपन में मैं यही बनना चाहता था। गज़ब तो यह हुआ कि आईएएस अधिकारियों की सभा में भी कह दिया कि आप लोगों के साथ मेरा इतना साथ हो चुका है अगर में राजनीति की जगह आईएएस हो गया होता तो अब तक इसके बड़े कैडर पर पहुँच गया होता।
बहरहाल मोदीजी की किताब आने वाली है। और यह किताब शिक्षा व्यवस्था पर आने वाली है। पर शायद मैं इसे गलत वर्गीकृत कर रहा हूं, यह शिक्षा व्यव्स्था पर नहीं अपितु कह सकते हैं लाइफ मैनेजमेंट पर है। शिक्षा तो ज्ञान प्राप्ति के लिए भी ली जा सकती है किंतु यह पुस्तक बच्चों को परीक्षा के तनाव से बचाने के नुस्खों पर है। आप मजाक में मत लीजिए किंतु ऐसी पुस्तक लिखने के लिए देश में मोदी जी से अधिक सुपात्र और कौन हो सकता है जिसने परीक्षा के लिए कभी तनाव मोल नहीं लिया। मुख्य मंजिल सफलता है और जिसके लिए अगर डिग्री की जरूरत भी हो तो उसके लिए परीक्षाओं का तनाव लेना क्यों जरूरी है? राहत इन्दौरी का एक शे’र है-
क्या जरूरी है कि ग़ज़लें भी खुद लिखी जायें
खरीद लायेंगे कपड़े कपड़े सिले सिलाये हुये
मूल लक्ष्य है सफलता, वह जैसे भी मिले, इसलिए तनाव मत लो! और जो लेते हैं वे मोदी की किताब पढ कर तनाव मुक्त हो लें।
राम भरोसे को नौकरी के लिए बीए की डिग्री की तुरंत जरूरत थी सो उसने नकली डिग्री बेचने वाले का पता लगाया, और बिल्कुल असली इंतजाम वाली डिग्री खरीद लाया और नौकरी कर ली। जाँच वगैरह सब हुयी पर सब ठीक निकला क्योंकि डिग्री बेचने वाले ने सारी व्यवस्था की हुयी थी। कुछ दिनों बाद जब उसे प्रमोशन की चिंता सताने लगी सो उसने सोचा कि एम.ए. कर लिया जाये। ठीक समय पर उसने विश्वविद्यालय में बीए की डिग्री के आधार पर फार्म भर दिया। पर जाँच में बीए की नकली डिग्री पकड़ ली गयी, बड़ी मुश्किल पेश आयी और वह मुँहमांगी रकम देकर मुश्किल से छूट पाया। गुस्से में वह बीए की डिग्री बेचने वाले के पास गया और सारी घटना बतायी तो वह बोला कि तुम तो मूर्ख हो। तुम्हें एम.ए. का फार्म भरने की क्या जरूरत थी, जैसे बीए की डिग्री खरीद कर ले गये थे, वैसे ही एम.ए. की ले जाते।
तनाव मुक्ति का इससे अच्छा उपाय और क्या हो सकता है? वह तो अच्छा हुआ कि मोदी ने किताब लिखने का फैसला कर लिया, नहीं तो राम भरोसे को लिखना पड़ती।
अयोध्या वाले मामले में गिरफ्तार लालकृष्ण अडवाणी को झाँसी के पास माताटीला के रैस्ट हाउस में रखा गया था। उनकी देखरेख करने वाले एक अधिकारी साहित्यकार थे। उनसे बातचीत में उन्होंने अडवाणीजी की तारीफ करते हुए कहा कि अदवाणीजी बातचीत कम से कम करते हैं और अधिक से अधिक समय पढने में बिताते हैं। मैं प्रभावित हुआ और यह बात मैंने कामरेड शैली को बतायी। शैली जी हँसे और बोले बात तो सच है कि वे पढते रहते हैं पर वे स्वेट मार्टिन जैसों की ‘सफल कैसे हों’ जैसी किताबें पढते हैं। यह बात सच थी।
एक प्रकाशक ने पिछले दिनों बताया था कि पुस्तक मेलों में साहित्य नहीं अपितु कैरियर, कम्प्टीशन, कुकिंग, गार्डनिंग, और ज्योतिष की किताबें ज्यादा बिकती हैं। अगर लेखकों को पुरस्कार, और सरकारी पुस्तकालयों की खरीद न हो तो साहित्य वही छपेगा जिस पर रायल्टी खत्म हो चुकी है।

मोदी जी ने सही कहा था कि उनके खून में व्यापार है। पुस्तक लिखने के लिए उन्होंने सही विषय चुना और अच्छा किया कि गैर सरकारी प्रकाशक चुना। ममता बनर्जी भी तो अपनी पेंटिंग्स ऐसे ही बेचती रही हैं, पता नहीं आजकल दार्जलिंग या बशीरहाट क्या पेंट कर रही हैं!   

व्यंग्य कफन की दुनिया

व्यंग्य
कफन की दुनिया
दर्शक
रजनीश ने कहा है कि जब भी किसी की मृत्यु की बात होती है तो आदमी गम्भीर हो जाता है। उसके दहशत में आ जाने का कारण यह होता है कि उसे अपनी मौत याद आ जाती है। बकलम कृष्ण बिहारी नूर वह जानता है-
मौत ही ज़िन्दगी की मंज़िल है / दूसरा कोई रास्ता ही नहीं
पर चचा गालिब पहले ही इस बैचैनी को भाँप गये थे और उन्होंने सवाल कर दिया था-
मौत का एक दिन मुअइन है / नींद क्यों रात भर नहीं आती
बहरहाल मौत की संवेदनशीलता का लाभ लेते हुए कवियों शायरों ने खूब बाज़ार सजाये हैं। नीरज का मृत्युगीत ऐसा ही था जिसने कठोर से कठोर व्यक्ति को द्रवित कर दिया था। वही नीरज व्यक्ति की धन लिप्सा पर कठोर टिप्पणी करते हुए कहते हैं कि-
सोने का ये रंग छूट जाना है
हर किसी का संग छूट जाना है
और जो रखा हुआ तिजोरी में
वो भी तेरे संग नहीं जाना है
आखिरी सफर के इंतज़ाम के लिए
जेब इक कफन में भी लगाना चाहिए
कफन की यही जेब अब राजनेताओं की धनलिप्सा पर टिप्पणी करते हुए कही जाये तो गलत नहीं होगी, पर यदि यह वस्तुगत [आब्जेक्टिव] से विषयगत [सब्जेक्टिव] हो जाती है तो फिर विवाद बन जाती है। फिर यह हमारी जेब तुम्हारी जेब बन जाती है। तुम्हारी जेब हमारी जेब से बड़ी क्यों? नितीश ने भाजपा से गलबहियां करने की शर्मिंदगी से बचने के लिए लालू प्रसाद एंड फेमिली की धनलिप्सा पर कहा कि कफन में जेब नहीं होती। इसके जबाब में हाजिर जबाब और चुटीली टिप्पणियों के लिए मशहूर लालू प्रसाद ने कहा कि नितीश के कफन में तो झोला है। यह जाट के सिर पर खाट और तेली के सिर पर कोल्हू वाली कहानी हो गई। तुक मिले न मिले पर बोझ तो लगेगा।
जेब से याद आया कि भारत देश में सिले हुए कपड़े पहिनने का चलन मुगल काल से प्रारम्भ हुआ। इससे पहले तो लपेटे जाने वाले कपड़ों का चलन था। कफन भी उसी काल का प्रोडक्ट है। मुहरों या सिक्कों की पोटली होती थी जिसे टेंट में खोंसा जाता था। महिलाओं को सम्पत्ति का अधिकार नहीं था इसलिए उनके जो कपड़े बनाये गये उनमें जेब नहीं होती थी। कभी किसी सिक्के को सुरक्षित रखने के लिए उसे धोती की गांठ में बांधना पड़ता था।
लालू की जेब तलाशी तो सीबीआई ने लेकर सबको बता दी, पर पता नहीं उन्होंने नितीश का झोला कहाँ से देख लिया। वैसे अपने झोले का पता तो नरेन्द्र मोदी ने बता दिया था, और कहा था वे तो फकीर आदमी हैं, जब जी चाहेगा, झोला उठा कर चल देंगे। यह फकीराना अन्दाज़ भी अज़ीब है, जो सब कुछ छोड़ सकता है, पर झोला नहीं छोड़ सकता। इस झोले में क्या है, और यह कहाँ तक जायेगा? युधिष्टर तो अपने कुत्ते को स्वर्ग में साथ ले गये थे, अब हो सकता है कि कुत्ते की जगह झोला आ गया हो।

कफन में जेब नहीं हो सकती, पर जेब में कफन हो सकता है। यह तो पता नहीं कि जो लोग सिर पर कफन बाँध कर किसी पवित्र लक्ष्य को लेकर निकलते थे, उनका कफन पगड़ी ही बना रहा या कभी काम में भी आया। समाज के लिए काम करने वाले शायद यह अपेक्षा भी नहीं रखते थे इसलिए अपना कफन पहले से ही तैयार रखते थे। कुछ दशक पूर्व तक तो ऐसे कफनों में जेब नहीं होती थी पर भविष्य में तो अमेजन और फ्लिपकार्ट जैसी कम्पनियां तरह तरह के डिजायन वाले कफन आन लाइन उपलब्ध कराने लगें, आदमी मरने से पहले आर्डर कर सकते हैं। हो सकता है कि कुछ लोग तो कफन के सौन्दर्य पर इतने मुग्ध हो जायें कि मरने का पैकेज तलाशने लगें। 

व्यंग्य राष्ट्रपति स्वयंवर

व्यंग्य
राष्ट्रपति स्वयंवर
दर्शक
जो लोग पिछले जमाने के गौरव का बखान करने में ही अपना ये जमाना बरबाद करने पर तुले हैं, वे भी पुराने समय के स्वयंवर की ज्यादा बात नहीं करते जिसमें लड़कियों को वालिग होने का प्रमाणपत्र दिखाये बिना ही अपना पति चुनने का अधिकार था, और इस काम के लिए उन्हें घर से भागने की जरूरत नहीं थी अपितु उनके पूज्य पिता खुद ही गाजे बाजे के साथ स्वयंवर का आयोजन करते थे। अब हाल यह है कि राजस्थान में लड़की द्वारा चुने हुए पति को उसके माँ बाप ने पीट कर मार डाला और उसकी माँ थाने पर जाकर कहती है कि उसे इसका कोई दुख नहीं है। ऐसे समाज का निर्माण किसने किया है कि बेटी के स्वयं वर चयन से माँ बाप की नाक कटती है किंतु हत्या कर के हवालात की हवा खाने और जेल जाने से कुछ भी नहीं कटता। ऐसा वातावरण बनाने वाले कौन लोग हैं? यह सवाल पूछने पर दोहरे चरित्र के सभी लोग कहते हैं कि मैं नहीं हूं, पर अगर वे नहीं हैं तो ऐसी घटनाओं का विरोध करने वालों के स्वर में स्वर क्यों नहीं मिलाते? जब पनसारे, कलबुर्गी आदि की हत्याएं होती हैं तो उनकी आवाज विरोध में क्यों नहीं उठती। जो तटस्थ हैं समय गिनेगा उनका भी अपराध।
भाषा की दृष्टि से सरकार और संसद दोनों ही स्त्रीलिंग हैं जो पति के चयन का काम स्वयं करती हैं। चाहे वह सभापति हो या राष्ट्रपति हो। यह मौसम राष्ट्रपति के चयन का है। पर जिनका पति चुना जाना है उन जनप्रतिनिधियों से कुछ पूछा ही नहीं गया। एक फिल्म में उत्पल दत्त अपने विशिष्ट अन्दाज में अपनी बेटी से कहते हैं- तुम उससे शादी नहीं कर सकती जिसे तुम चाहती हो, तुम्हें उससे शादी करना होगी जिसे मैं चाहता हूं। राष्ट्रपति का चयन करने से पहले लड़की से पूछा ही नहीं जाता अपितु उससे नाम छुपाया भी जाता है। जब बारात आये तब झरोखे से झाँक कर देख लेना। देश भर से आयी गठबन्धन की सुशील कन्याएं अपने पूज्य पिता के चयनित को पति परमेश्वर का दर्जा देने के लिए सिर झुकाये वरमाला लिए नामांकन अधिकारी के कार्यालय में चली जाती हैं। कभी जौहर महमूद की जोड़ी ही सारे काम कर लेती थी, यहाँ तक कि गोआ को आज़ाद भी करा लेती थी। ऐसी ही जोड़ी आजकल गुजरात से आकर दिल्ली में जम गयी है। यह जोड़ी किसी से पूछने और किसी को बताने की जरूरत नहीं समझती। इमरजैंसी के बारे में कहा जाता है कि जब लोगों से झुकने के लिए कहा गया तो वे लेट गये। ऐसे हालात अब भी आ गये हैं इसलिए इमरजैंसी की विधिवत घोषणा की जरूरत ही नहीं रही। राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार कौन होगा, यह किसी को पता नहीं था। नामांकन के खाली फार्मों पर विधायकों से हस्ताक्षर करा के मंगा लिये गये थे और सभी ने सिर झुका कर कर भी दिये थे। इन्दिरा गाँधी के समय में अटल बिहारी वाजपेयी कहा करते थे कि ये राष्ट्रपति इन्दिराजी के यहाँ से आये किसी भी कागज पर आँख मूंद कर दस्तखत कर देते हैं, मैं उनसे कहना चाहता हूं कि महामहिम उसे पढ तो लिया करो, कहीं ऐसा न हो कि वे आपके स्तीफे पर ही दस्तखत करा लें।
एक मार्गदर्शक मंडल है जो पिछले दिनों रस्ता देखता रहा कि कोई आकर उनसे औपचारिक रूप से ही पूछेगा कि बताइए राष्ट्रपति के रूप में कौन ठीक रहेगा पर वे रास्ते पर आँखें टांके देखते रहे, हर आहट पर खटकते रहे पर मार्ग दर्शन तो क्या दर्शन लेने देने ही कोई नहीं आया। कैफ भोपाली ने लिखा है –
कोई न, कोई न, कोई भी न आया होगा
मेरा दरवाजा हवाओं ने हिलाया होगा
घोषणा हो जाने के बाद उम्मीदवार इस तरह से आये जैसे सभी उम्मीदवार अपने वोटरों के पास आते हैं। नामांकन के बाद जब फोटो सेशन हुआ तो अडवाणी मोदी शाह के पीछे खड़े रहे, ठीक समय पर उम्मीदवार को वोटर का खयाल आ गया और उसने वोटर अडवाणी का लाचार हाथ अपने साथ में खड़ा कर दिया। मुनव्वर राना ने कहा है-
हमारे कुछ गुनाहों की सजा भी साथ चलती है
कि हम तनहा नहीं चलते, दवा भी साथ चलती है

     

रविवार, 28 मई 2017

व्यंग्य लाल बत्ती का हलाल होना

व्यंग्य [लघुकथा] 
लाल बत्ती का हलाल होना

दर्शक
उनका ड्राइवर मैकेनिक के पास गाड़ी में हूटर लगवाने आया था। उसका चेहरा ऐसा उतरा हुआ था जैसे किसी घर में कोई बिना कोई सम्पत्ति छोड़े मर जाता है और अंतिम संस्कार का खर्चा छोड़ जाता है।
पूछा क्या हुआ, तो बोला लाल बत्ती गई। निराशा ऐसी थी जैसे दाग ने कहा है-
होश-ओ, हवास-ओ ताब-ओ तवाँ दाग जा चुके
अब हम भी जाने वाले हैं, सामान तो गया
बात सचमुच ही अफसोस की थी। न तो वे मंत्री थे और न ही आईएएस थे, पर लाल बत्ती वाले थे। लाल बत्ती वाले इसलिए थे क्योंकि उन्हें राज्यमंत्री का दर्जा मिला हुआ था। यह दर्जा बड़ी मुश्किल से मिलता है। इसका हाल वही होता है कि
मुहब्ब्बत रंग दे जाती है, जब दिल, दिल से मिलता है
मगर मुश्किल तो ये है, दिल बड़ी मुश्किल से मिलता है
उन्होंने जिन्दगी भर फर्श बिछाया था, पोस्टर चिपकाये थे, रिक्शे पर लाउडस्पीकर रख कर भाइयो बहिनो कह कर मीटिंग की घोषणा की, प्रदर्शन किये, नारे लगाये, नारों के उत्तर दिये, बड़े नेता के आने तक भाषण दिये, फिर बड़े नेता के भाषण सुने, छोटे मोटे पदाधिकारी बन कर उसे मोटे मोटे अक्षरों से अपने पुराने स्कूटर पर लिखवाया। विधायकों का जलवा देख कर विधायक बनने के सपने पाले, सोचा जब हमारी पार्टी के दिन आयेंगे तो हम भी चुनाव लड़ेंगे, विधायकों जैसे हाथ जोड़ कर गेन्दे की फूलों की माला पहिनेंगे। हुआ भी वैसा ही। पार्टी के दिन फिरे, वे खुश हुये कि अब बनेंगे विधायक व मौका लग गया तो मंत्री बनेंगे, लाल बत्ती की गाड़ी में फर्राटे मार कर निकल जायेंगे।
पर पार्टी हाईकमान भी कोई चीज होती है। चुनाव आये। क्षेत्र का पुराना खाँटी विधायक तत्कालीन सत्तारूढ पार्टी का था। कुत्ते की तरह उसने सूंघ लिया कि हवा किस तरफ की बह रही है सो वह दिल्ली जाकर इनकी पार्टी के हाई कमान से मिल आया। देवता से मिलने जाने पर प्रसाद तो चढाना ही पड़ता है। हाईकमान नगर में पधारे तो सीधे इनके पास आये, घर के बच्चों को दुलारा और बोले कि आप लोगों की मेहनत की वजह से ही यह दिन आया है कि डूबते जहाज से चूहे कूद कूद कर भाग रहे हैं। यहाँ का विधायक हमारी शरण में आ रहा है, हमारी पार्टी में शामिल हो रहा है। मैं चाहता हूं कि आप ही उसके फार्म पर अनुमोदन दें। मंच पर आप बैठेंगे। वे खुश हुये। विधायक ने बड़ा ताम झाम जोड़ लिया था। वह अपने दो सौ साथियों के साथ शामिल हो रहा था। उसने पूरा मीडिया बुला लिया था जिनके डिनर और और उसके पूर्व का कार्यक्रम भी सबसे बड़े होटल में तय था। मंच पर हाईकमान ने उसका स्वागत किया, माल्यार्पण किया तो उसने उनके पैर छुये। हाईकमान के इशारे पर इनके भी पैर छुये तो ये गद्गद हो गये। अगले दिन अखबारों में उसके और हाईकमान के फोटो भरे हुये थे। इन्होंने सारे कोणों से देखा पर इनके कुर्ते की किनोर तक किसी फोटो में नहीं दिखी। इसके साथ ही सम्भावना व्यक्त की गयी थी कि अगला टिकिट उसी को मिलेगा। इन्हें धक्का लगा। सारा राष्ट्रवाद धरा रह गया। हिन्दू के खून खौलाने का चूल्हा बुझ चुका था। जो हमेशा पार्टी की विचारधारा को गाली देता था, वह अब इसी पार्टी की ओर से विधायक बनेगा और इन्हें जय जय कार करना पड़ेगी। काटो तो खून नहीं।
जो होना था वही हुआ। उसे टिकिट मिला और इनकी शक्ल पर बारह बज रहे थे। इनने तय किया कि ये विरोध करेंगे। जिस पार्टी के पक्ष में ज़िन्दगी भर चिचियाते रहे उसी को हराने के लिए काम करेंगे। फुसफुसाहट हाईकमान तक पहुंची तो उन्होंने बुलावा भेजा। बोले तुम्हारे प्रचार से अभी तक तो हमारी पार्टी का उम्मीदवार जीत नहीं सका था, सो यह भी नहीं मान सकते कि अब हार जायेगा। पहली बार प्रदेश में सरकार बनने की स्थितियां बन रही हैं तो क्यों अपने ज़िन्दगी भर के काम को मिट्टी में मिलाते हो। सरकार बन गई तो केवल विधायक ही तो पद नहीं होता, सैकड़ों दूसरे भी मौके होते हैं। पार्टी का कहा मानोगे तो फायदे में रहोगे।
झक मार कर उन्होंने पार्टी का कहा माना था, सो पार्टी ने उन्हें कोई पद देकर लाल बत्ती की गाड़ी का मौका दिया था। पर उन्हें लाल बत्ती में बैठ कर एक महीना भी नहीं हुआ था कि सबकी लाल बत्तियां गुल कर दी गयीं। वे पुनर्मूसको भव की स्थिति को प्राप्त होने जा रहे थे। लाल बत्ती का ड्राइवर केवल ड्राइवर होने जा रहा था। बंगले पर तो मातम ही छाया हुआ था।

लाल बत्ती हलाल हो गयी थी।  

व्यंग्य ब्रिग्रेडियर साब

व्यंग्य
ब्रिग्रेडियर साब

दर्शक
कल तक राम भरोसे का सपूत, जो नरेन्द्र मोदी को इस बात के लिए कोस रहा था कि उन्होंने दो करोड़ लोगों को रोजगार देने का वादा करके तीन साल में दो लाख को भी हिल्ले से नहीं लगाया, आज खुश दिखायी दिया। मैंने कारण पूछा तो बिना बताये मुस्कराकर निकल गया। मेरी जिज्ञासा शायरी की भाषा में शबनम से शोला हो गयी, अर्थात भड़क गयी। मैं यह भड़की हुयी आग लेकर भागा भागा राम भरोसे के यहाँ पहुँचा तो देखता हूं कि राम भरोसे खुद ही मिठाई का डिब्बा लिये बैठे हैं। राम भरोसे से मिठाई खाना बैल दोने जैसा कठिन काम है, सो जिज्ञासा और भड़क गयी। मुझे देख कर ही उन्होंने मिठाई का डिब्बा मेरी ओर बढाते हुए दूसरी ओर मुँह कर लिया ताकि पीक थूक सकें क्योंकि इस समय उनका मुँह गुटखा से लारायित था। पीक की पिचकारी छोड़ने के बाद उन्होंने उद्गार प्रकट किये। बोले, बधाई हो तुम्हारे भतीजे को काम मिल गया है। मैंने बनन में बागन में बसंत की तरह नकली खुशी बगराते हुए पूछा कब, कहाँ?
उन्होंने शांत रहने का इशारा करते हुए कहा, बताता हूं पहले मिठाई तो खाओ।
मैंने भी खुशी को दुहरी प्रकट करने के लिए बरफी के दो पीस एक साथ उठा लिये और इस तरह खाने लगा जैसे कि शांत रहने के लिए खा रहा होऊँ।
राम भरोसे ने धैर्य के साथ बताया कि उत्तर प्रदेश के फ्री और फेयर चुनावों के बाद योगी जी की सरकार आयी है................
........................... और उन्होंने गुटका छोड़ने के लिए आदेश दिये हैं। मैंने कहा।
.............. अरे वह तो उन्होंने अपने स्टाफ के लिए कहा है। राम भरोसे खीझ कर बोला- योगी जी ने आते ही नये नये काम शुरू किये हैं जिसमें से एक बड़ा काम ऎंटी रोमियो ब्रिग्रेडों का गठन भी है, उसमें अपना श्रवण कुमार भी ब्रिग्रेडियर बन गया है। उसने गले में पीला दुपट्टा डाल कर वर्दी भी बनवा ली है और एक मोटा सा लट्ठ भी ले आया है। ड्यूटी भी बहुत अच्छे पर्यावरण वाले स्थलों में लगती है जहाँ प्रेम पनपने के लिए अनुकूल वातावरण बनता है। । वही स्थल तो ऐसे होते हैं जिसमें उसके दुश्मन पाये जाते हैं। पहले योगी के शपथ लेते ही पुलिस वालों ने यह काम हथिया लिया था, पर अगर वे ही करते तो बच्चों को काम कैसे मिलता, सो उनको रोक दिया। मौका देखते ही हमारा बहादुर दुश्मन पर हमला बोल देता है। पीला दुपट्टा देखते ही दुश्मन को सामने  पूरी योगी सरकार की ताकत दिखने लगती है। डर के मारे थर थर काँपता हुआ दुश्मन गिड़गिड़ाने लगता है और दो चार झापड़ खाने के बाद लड़की को पिज्जा खिलाने के लिए जुटाये पैसे निकाल कर रख देता है। लड़की तो रोने लगती है कि कहीं उसके घर वालों को पता न चल जाये।
देख लेना दर्शक जी अगर अपनी नफरत फैलाने वालों का शासन दस साल चल जाये तो लोग प्यार करना भूल जायेंगे। ऊपर मोदीजी, नीचे योगी जी और दोनों को नियंत्रित करते भागवत जी क्या दृश्य होगा। नफरत नफरत नफरत चारों तरफ नफरत। कहीं मुसलमानों से नफरत, कहीं ईसाइयों से नफरत, कहीं कम्युनिष्टों से नफरत, कहीं प्यार करने वालों से नफरत, कहीं दलितों से नफरत, कहीं दक्षिण के काले लोगों से नफरत, कहीं उत्तरपूर्व के चिंकियों से नफरत, बराबरी करती महिलाओं से नफरत। पूरे देश में कटप्पा और बाहुबली ही मारकाट करते घूमते मिलेंगे। सतियां, देवदासियां, हाथी, घोड़े, तलवार, भाले, त्रिशूल, लाठी, दनादन दनादन, खचाखच खचाखच। जो लोग ब्रिग्रेड में नहीं वे गौरक्षा का काम करते हैं, कुछ मन्दिर बनाने के लिए मस्जिदें गिराने का काम करेंगे। रोजगार ही रोजगार।  

रामभरोसे, जो कभी अपने श्रवण कुमार की नौकरी के लिए चिंतित रहता था, उस संकट को भूल चुका था और अपने ब्रिग्रेडियर बेटे के भविष्य की सुखद कल्पनाओं में खो गया था। मैंने उसकी खुशी की खातिर मिठाई के डिब्बे से एक पीस और उठाया और खिसक लिया।     

गुरुवार, 4 मई 2017

व्यंग्य गंगा, नर्मदा, गाय, मन्दिर, साध्वी, योगी,

व्यंग्य
गंगा, नर्मदा, गाय, मन्दिर, साध्वी, योगी,
दर्शक
भाषा, समाज की आत्मा होती है। हमारे देश में वही भाषा बदल रही है। कहा जाता है कि भूत के पाँव उल्टे होते हैं, और जो भूत काल की ओर मुंडी घुमा कर चलने में ही अपना भविष्य देखते हैं, उनका वर्तमान खराब ही होता है।
संघ परिवार भाषा पर विशेष ध्यान देता है। इसी के माध्यम से वे अपने परिवेश के स्वरूप को बदलने का दम भरते हैं। ईसाई मिशनरियों द्वारा संचालित स्कूलों से शिक्षित लोग जब विज्ञान पढने लगे व वैज्ञानिक दृष्टि से सोचने लगे तो उन्होंने भी समानांतर स्कूल खोले और उनका नाम स्कूल की जगह मन्दिर रखा। जैसे सरस्वती शिशु मन्दिर। अब तय है कि कोई मुसलमान मन्दिर में क्यों जाना चाहेगा, और दलितों का मन्दिर प्रवेश तो वैसे ही वर्जित है। सो हो गया विभाजन। सवर्ण हिन्दू बच्चे मन्दिर में और बाकी सरकारी स्कूलों में।
इस सादगी पै कौन न मर जाये या खुदा
लड़ते भी हैं , और हाथ में तलवार भी नहीं
मन्दिरों में स्कूल ड्रैस या यूनीफार्म नहीं पहिने जा सकते इसलिए उन्हें गणवेश कहते हैं, संघ के गणवेश में अब हाफ पेंट की जगह फुल पेंट आ गया पर नाम गणवेश ही रहा। पेंट पहिना जाता है किंतु ‘गणवेश” धारण किया जाता है। वे सड़क छाप नहीं होते इसलिए चुनाव के दौरान ‘रोड शो’ नहीं करते अपितु ‘पथ संचलन’ करते हैं।
जहाँ आप मोटर, कार, ट्रक, जीप, आटो, आदि आदि विदेशी वस्तुओं का उपयोग करते हैं, वहीं अडवाणी एंड कम्पनी रथ की सवारी करती है और रथ के सहारे ही दो लाख लोगों को हाँक कर अयोध्या में मस्जिद गिराती नहीं अपितु विवादित ढाँचे को ध्वस्त करा देती है, जैसे अगर विवाद हो तो सजा देने का काम उनके अधिकार क्षेत्र में आता हो। इसी अधिकार के अंतर्गत राजस्थान का गृहमंत्री कहता है कि अलवर में मारा गया पहलू खान गौ तस्कर था, और उसकी गुलाम पुलिस उसकी हत्या करने वालों के साथ साथ उस पर भी केस कायम कर लेती है। अखलाख के घर में पाया गये मांस का डीएनए तय करने में प्रयोगशालाओं को महीने लग जाते हैं किंतु भीड़ अपनी आस्था के कारण तुरंत तय कर लेती है और सजा दे देती है। गुजरात में मृत पशु की खाल उतारने वाले जिन्दा लोगों की खाल उतारने वाले किसी सरकारी न्यायाधीश की तुलना में अधिक सुख भोग रहे हैं।
पूरे देश में पुरातन काल छाया हुआ है, इसलिए देश में एजेंडा तय करने के लिए मीडिया को क्रय कर लिया गया है। अब पूरे देश में न किसानों का लागत मूल्य और बाज़ार भाव समस्या है, न बेरोजगारी समस्या है, न शिक्षा और स्वास्थ सेवाओं में मची लूट समस्या है, न कश्मीर समस्या है, न नक्सलवाद समस्या है, असली समस्या गाय है जिसके बहाने अल्पसंख्यक, बहुसंख्यक करके बहुसंख्यक भावनाओं को उभारना और उसकी पूंछ पकड़ कर वैतरिणी पार करना, या न कर पाना, ही समस्या है। पिछ्ले दिनों अनियंत्रित सोशल मीडिया पर जितनी गायें कटते हुए देश ने देखीं उतनी तो शायद पौराणिक काल से अब तक नहीं काटी गयी होंगीं। वोट इसी तरह झड़वाये जाते हैं।
गंगा का तो पूरा मंत्रालय बना दिया गया है जिसने तीन साल में गंगा की शुद्धता के लिए तो कुछ नहीं किया, केवल बजट को ठिकाने लगाने के लिए तरीके तलाशे हैं। उस विभाग की भगवा वस्त्रधारी मंत्री कहीं नदी की भावना में बह कर मध्य प्रदेश के घाट पर न लग जायें इसलिए प्रदेश के मुख्यमंत्री ने सारे कामधाम छोड़ कर नर्मदा मैया की जगह जगह पूजा आरती प्रारम्भ कर दी है और मान रहे हैं कि इन आयोजनों के बाद किनारे पर गन्दगी छोड़ कर नदी शुद्ध हो जायेगी। नर्मदा के विस्थापित अभी भी परेशान हैं, पर पूरी केन्द्र सरकार मैय्या की आरती गाने क्रमशः पधार रही है।
कहीं गंगा, कहीं नर्मदा, कहीं गाय, कहीं मन्दिर से भी पेट नहीं भरा तो उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में योगी को ले आये और गले गले तक सरकारी विज्ञापनों से भरा मीडिया शेष बचे स्थान पर योगी के कुल्ला करने तक की कहानियां किश्तों में चला रहा है। जहाँ अनुशासन और प्रशासन पूरी तरह गुंडों के हाथों में आ गया हो, जहाँ एसएसपी के घर में भीड़ लेकर एमपी घुसे जा रहे हों, जहाँ थानों में आग लगायी जा रही हो, जहाँ ताजमहल को बाबरी मस्जिद बनाने की तैयारियां शुरू हो गयी हों, उस प्रशासन की गाथाएं गायी जा रही हैं। गुण गाये जा रहे हैं।