गुरुवार, 28 मई 2020

व्यंग्य ट्रम्फ का चुनाव

व्यंग्य
ट्रम्फ का चुनाव
दर्शक
लोकतांत्रिक होना समाज में भले आदमी होने जैसा है और लोकतांत्रिक होने का मतलब चुनाव जीतने की क्षमता हो गया है। जो भी चुनाव जीत जाता है वह खुद को लोकतांत्रिक बताता हुआ नहीं थकता है। हजारों सामंत, पूंजीपशु, और मफिया गिरोह चुनाव जीत कर भले आदमी कहलाते हुए विचरण कर रहे हैं।
जब चुनाव जीतना ही मापदण्ड है तो कैसे भी जीत लो। साम दाम दण्ड भेद किसी भी तरह से दूसरे प्रत्याशियों से अधिक वोट ले लेना ही लोकतांत्रिक हो जाना है। यह बात खुद को लोकतंत्र का सबसे बड़ा ठेकेदार बताने वाले अमेरिका के प्रैसीडेंट तब तक नहीं समझते थे जब तक कि नरेन्द्रभाई दामोदर दास मोदी ने उन्हें नहीं समझा दी थी। लोकतांत्रिक होने से चुनाव जीत जाना आवश्यक नहीं है, जबकि चुनाव जीत जाने से लोकतांत्रिक होना तय है। पहले चुनाव जीतो, सत्ता हथियाओ, पुलिस प्रशासन, फौज़ को अपने नियंत्रण में करो तो चन्दा देने वाले तुम्हारे पीछे पीछे घूमेंगे। देखते नहीं हो कि जब जिसकी सत्ता होती है तब तब उसी पार्टी को सारे इलेक्ट्रोरल ट्रस्ट बड़ॆ बड़े चन्दे देते हैं। खुद को लोकतंत्र का सबसे बड़ा संरक्षक बताने वाले ये ट्रस्ट वोटों के आधार पर दलों की मदद नहीं करते अपितु सीटों की संख्या से लोकतंत्र को नापते हैं। पैसा आ गया, सत्ता आ गयी, पुलिस आ गयी, फौज आ गई तो सीटें कहाँ जायेंगीं, वे भी आ ही जायेंगीं| हर व्यापार में कुछ तो लागत लगती है, कुछ तो ज़ोखिम होता है।  चुनाव भले नकली लाल किला बनवा कर भी जीता जाये, बाद में यही रास्ता असली लाल किले तक ले जायेगा।
भीड़ तो भीड़ होती है, चाहे मुफ्त में जुटी हो या किराये की हो। मुफ्त की भीड़ के लिए भी तो लोग सम्मानजनक बोल नहीं बोलते। किराये से जुटायी गयी भीड़ को देख कर असली भीड़ भी जुटने लगती है। फिल्मी सितारों को टिकिट दे कर उन्हें स्टार प्रचारक बना दो लोग अपने आप जुटने लगेंगे। पुराने जमाने के राजा रानी, क्रिकेट खिलाड़ी, ऎथलीट, पहलवान, ओलम्पियन, गायक, कवि, शायर, भगवा भेषधारी सब नमूनों को जोड़ लो। राम भरोसे से पूछो कि क्यों जा रहे हो भीड़ में, तो वह कहता है कि जब इतने सारे लोग जा रहे हैं तो हम भी जा रहे हैं। मोदीजी ने दिखा दिया कि देखो भीड़ कैसे जुटायी जाती है। भीड़ देख कर ट्रम्फ भी चमत्कृत कि जब मेरे देश में इतने लोग जुटा लेता है तो अपने में कितने जुटा लेता होगा। जहाँ भीड़, वहाँ जीत।
संख्या बढाने के कई तरीके हैं। बम विस्फोट करा दो और किसी अल्पसंख्यक गुट के नाम से जिम्मेवारी लेने का ईमेल करा दो और सख्त बयान दे डालो तो भयभीत बहुसंख्यकों के सारे वोट झोली में। कोई अपने वाला फंस जाये तो प्रासीक्यूशन को सैट कर लो गवाहियों को डरा कर उनका घर भर दो और बरी होने पर उसे विधायक, सांसद या मंत्री बना दो। पैसा लगाओ, पैसा कमाओ।
इतने सारे लोगों के सामने जब कहा जायेगा कि अबकी बार ट्रम्फ सरकार, तो भीड़ में बदल चुके लोग 45 लाख भारतीय उसी जोश से जबाब भी तो देंगे।
पता नहीं, कितना सच है, पर कहा तो यह भी जा रहा है कि मोदीजी ने अमेरिका के प्रैसीडेंट से पूछा था कि तुम कहो तो हम अपने यहाँ की ईवीएम और प्रिसाइडिंग आफीसर भिजवा दें ताकि सब कुछ भारत जैसा हो सके, पर ट्रम्फ ने ही मना कर दिया।
शंकाएं, और भी हैं, अमेरिका के प्रैसीडेंट को अपने सारे प्रस्ताव संसद से पास कराने पड़ते हैं, और अगर वहाँ बहुमत नहीं आया तो क्या होगा? और अगर ट्रम्फ हार गये तो अगला प्रैसीडेंट अगली बार भारत में किसकी सरकार बोलेगा! इन सबके बीच चिंता उन एटम बमों की भी है जो हिन्दुस्तान पाकिस्तान ने दीवाली और ईद में फोड़ने के लिए नहीं रखे हैं। किसी ने कहा है-
हुक्मरानों की अदाओं पै फिदा है दुनिया
इस बहकती हुयी दुनिया को सम्हालो यारो                              

व्यंग्य एक साथ चुनाव

व्यंग्य
एक साथ चुनाव
हरियाणा और महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों के साथ उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ, बिहार आदि में उपचुनाव परिणाम अभी पूरी तरह आ ही नहीं पाये थे कि रामभरोसे आ गया। बोला जगह बताओ!
मेरी समझ में कुछ नहीं आया तो मैंने कह दिया कि दिख नहीं रहा है क्या, जहाँ देखो जगह ही जगह है। आखिर तुम्हें तशरीफ रखने के लिए कितनी जगह चाहिए! जहाँ चाहो वहाँ रख दो।
मुझे तशरीफ नहीं रखनी है जनाब, बल्कि इत्मीनान से बैठ कर धरना देना है। वह बोला।  
किस बात पै धरना देना है, और किसके खिलाफ देना है। मेरी जिज्ञासा जागी।
तुम्हारे खिलाफ देना है, और इस बात के लिए देना है कि तुम आदरणीय मोदीजी की यह बात क्यों नहीं मान लेते कि लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ होना चाहिए। उसने गुस्से में कहा।
पहली बात तो यह कि मेरे मान लेने से क्या होगा, और आखिर मैं यह बात क्यों मान लूं?
देखो अभी हरियाणा और महाराष्ट्र विधानसभा के चुनाव परिणाम आ रहे हैं और जहाँ कुछ दिन पहले ही लोकसभा में भाजपा ने अपना लंगोटा फहरा दिया था वहीं अब उसको बहुमत के लाले पड़ गये हैं। क्या पिद्दी, क्या पिद्दी का शोरबा सब आँखें दिखा रहे हैं। अगर एक साथ चुनाव हो गये होते तो ‘माते की लगुन में सब की लगुन’ हो गयी होती। आज सुबह से खट्टर की मूंछें मुर्झाई हुयी हैं और फणनबीस की शकल, उन्नीस हुयी दिख रही है।   
मुझे ज्ञान बघारने का मौका मिल गया। मैंने किसी बुद्धिजीवी जैसी शकल बना कर कहा कि देखो अपने यहाँ फेडरल स्ट्रक्चर है और केन्द्र व राज्य के लिए लोग अलग अलग सरकारें चुनते हैं, जो अपने राज्य की जनता द्वारा दिये जनादेश के अनुसार नियम कानून बनाने का अधिकार रखती हैं। केन्द्रीय शासन के विषय अलग होते हैं और राज्य के अलग होते हैं। जनता केन्द्र के लिए अलग जनादेश देती है और राज्यों के लिए अलग। जब एक साथ चुनाव होंगे तो भावुकता जगा कर एक ही पार्टी वोट बटोर सकती है।
वह मुझे सब पता है पर जरा सोचो कि लोकसभा का चुनाव जीतने के लिए एयरस्ट्राइक करा दिया जिसमें एयरफोर्स कह रही है कि हमने सही ठिकाने पर बमबारी की किंतु नेता लोग वोट जुटाने के लिए अपनी अपनी तरह से आतंकियों के मरने की शेखियां बघारते रहे। दूसरी ओर पाकिस्तानी सरकार कहती रही कि हमारे कुछ पेड़ व एक काला कौवा शहीद हुआ। खुशी हुयी कि ‘हमारी भी जय जय, तुम्हारी भी जय जय, न हम हारे न तुम हारे’ हमारी जनता ने माना के हमने मारे और तुम्हारे मरे नहीं। इस वीरता के चक्कर में मोदीजी जरूर चुनाव जीत गये। यह बात बाद में पता चली कि इस हमले में हमने अपनी ही सेना का एक जहाज मार गिराया था जिसमें छह पायलट शहीद हो गये थे। अगर एक साथ चुनाव हो गये होते तो इसी सब में विधानसभा में साफ साफ बहुमत मिल जाता और किसी के निहोरे नहीं करना पड़ते। अब तो शिव सेना के बच्चे और घोटाला वाले चौटाला के बच्चे तक आँखें दिखा रहे हैं। वो तो ठीक समय पर काँग्रेसियों ने दलबदल कर घर सम्हलवा दिया था बरना तो मन्दी, बेरोजगारी, बैंक घोटाले से नाराज जनता वही करने पर उतारू थी जो कश्मीर के राज्यपाल ने राहुल गाँधी के साथ होने की आशंका व्यक्त की थी। मैं तो शांति का पक्षधर हूं इसलिए दोनों चुनावों के लिए एक सैनिक कार्यवाही से काम चलवा लेना चाहता हूं।
भविष्य में कुछ ऐसा न हो इसलिए मैं तुम्हारे खिलाफ धरने पर बैठ रहा हूं। मैंने नकली मावे से बनी गुजिया लाकर उसे खिलायी। गुजिया खाकर उसने धरने पर बैठने का विचार छोड़ दिया।   

व्यंग्य फैसला- उगलत निगलत पीर घनेरी

व्यंग्य
फैसला- उगलत निगलत पीर घनेरी
दर्शक
आखिर फैसला आ ही गया।
बकरे की माँ कब तक खैर मनाती। कहावत है कि ‘फिसल पड़े तो हर गंगे’। हरिशंकर परसाई ने लिखा है कि व्यापारी जब रहजनों के बीच घिर जाता है और उसका लुटना तय हो जाता है, तो वह दान का मंत्र पढने लगता है।
नाज़ है उनको बहुत सब्र मुहब्बत में किया
पूछिए सब्र न करते, तो और क्या करते
लोग मन्दिर-मस्जिद के सहारे जन्नत के दरवाजों तक पहुंचना चाहते हैं, किंतु राजनेता इसके सहारे संसद भवन, विधानसभाओं के दरवाजे तक माथा टेकना चाहते हैं। हमारा लोकतंत्र शार्टकट से ही चल रहा है।
मैं मैकदे की राह से होकर गुजर गया
बरना सफर हयात का बेहद तबील था  
वे भारतीय जनसंघ से वाया जनता पार्टी, भारतीय जनता पार्टी तक पहुंचे थे। मन्दिर से पहले वे दो पर थे। सो जमीन पर ही चलते थे। अगर इतना नहीं गिरे होते तो उन्हें राम जी की जन्मभूमि की याद नहीं आती। 1967 के बाद बनीं सभी संविद सरकारों में वे घुसे रहे पर उन्हें रामलला की याद नहीं आयी थी। बाद में जनता पार्टी में विलीन हो गये थे और केन्द्र सरकार में सम्मलित हो कर कैबिनेट मंत्री भी बने , पर तब भी तब भी याद नहीं आयी। याद तो तब आयी जब खाली हाथ हो गये और दो सीटों तक सीमित रह गये। अडवाणीजी प्रभु को पाने की यात्रा में दौड़ पड़े। इतनी दूर कैसे जाते सो उन्हें वाहन लेना पड़ा। भगवान के यहाँ जाना था इसलिए डीसीएम टोयटा का स्वरूप अर्थात मुखौटा बदलना पड़ा। उसे रथ का रूप दिया गया। लोग मोदी को बेकार ही दोष देते हैं कि वे नकली लाल किले से भाषण देते थे, पर उनसे पहले अडवाणी नकली रथ पर सवार हो तीर कमान हाथ में ले शत्रु दल के संहार हेतु लोगों को भड़काने निकल पड़े थे। इसका असर हुआ था और वे दो से अस्सी तक पहुंचे। सिर्फ इसी के सहारे वे अस्सी से दो सौ तक और फिर अब तीन सौ पाँच तक पहुंचे।
मस्जिद टूटने के विरोध में ही मुम्बई में हिंसा और फिर प्रतिहिंसा हुयी, जिसमें सैकड़ों लोग मारे गये। गोधरा और गुजरात में हिंसा का कारण भी राम मन्दिर के लिए अयोध्या की ओर निकले कार सेवकों की गतिविधियां ही थीं। हजारों लोग मारे गये, करोड़ों, अरबों की सम्पत्तियां नष्ट हुयीं। समाज में ध्रुवी करण हुआ। ध्रुवीकरण से विभाजन हुआ जिसका चुनावी लाभ बहुसंख्यक समाज को ही मिलता है। चुनावी जीत का फार्मूला हाथ लग गया था। यदि कभी दिखावे के लिए दूसरे वादे भी कर देते थे तो वे तो चुनावी जुमले होते।
रामभरोसे जब भी किसी से ऋण लेता है तो कहता है ‘ आजीवन आपका ऋणी रहूंगा’। वह रहता भी है, कभी ऋण लेकर चुकाना नहीं सीखा। भाजपा भी चुनाव के समय राम मन्दिर की बातें तो करना चाहती थी किंतु चुनावी लाभ का मुद्दा हाथ से भी नहीं जाने देना चाहती। उसने लगातार लटकाया और दूसरों को दोष दिया। जब आलोचना होती थी तब कह देते थे कि यह हमारा नहीं विश्व हिन्दू परिषद का कार्यक्रम है, किंतु जब चुनावी लाभ लेना होता था तो अपनी गरदन आगे कर देते थे। अब जीत का इकलौता मुद्दा हाथ से कैसे निकलने दें, सो नुक्ते निकाल कर ट्रस्ट के गठन पर विहिप से आलोचना शुरू करा दी। कुछ कह रहे हैं कि मस्जिद बनवाने के लिए अयोध्या से बाहर जमीन देना चाहिए। मजे की बात यह है कि अब तक जमा चन्दे के हिसाब की कोई बात नहीं कर रहा।
मुनव्वर राना ने कहा है-
हमारे कुछ गुनाहों की सजा भी साथ चलती है
कि हम तन्हा नहीं चलते दवा भी साथ चलती है
सो मन्दिर बनाने का फैसला भी अकेला नहीं आया उसके साथ छह दिसम्बर को मस्जिद तोड़ने वालों को सजा देने का फैसला भी साथ ही आया जिसे गत सत्ताइस साल से लटकाया जा रहा था। कुछ आरोपी तो नर्क या स्वर्गवासी हो गये। सब जानते हैं कि दोषी कौन थे और किस पार्टी के थे।
इसलिए नहीं कहा जा सकता कि ‘वे इतना जो मुस्करा रहे हैं, क्या गम है जिसको छुपा रहे हैं’। अब बाबा भले ही कम्बल छोड़ दे पर कम्बल को बाबा को नहीं छोड़ना चाहिए।     

व्यंग्य सड़क पर देश


व्यंग्य
सड़क पर देश
दर्शक
जब किसी का तख्त गिरा दिया जाता है और ताज उछाले जाने लगते हैं तो मुहावरे में कहा जाता है कि वे सड़क पर आ गये हैं। व्ही आई पी हो जाने का मतलब ही यह होता है कि अब उसके पैर जमीन पर नहीं पड़ते। वे वायुमार्गी हो जाते हैं या हवाई बातें करते करते हवा से बातें करने वाले वाहनों पर सवारी करते हैं। ऐसी तैसी किसी की जो उनके पद चिन्हों पर चल सके। पद चिन्ह तो तब बनेंगे जब वे कच्ची भूमि पर पैर रखेंगे। हवा में कोई चिन्ह नहीं बनता।
तुलसीदास कृत राम चरित मानस में कहा गया है कि बनवास को जाते समय रामचन्द्र जी से भरत ने उनकी खड़ाऊं यह कह कर उतरवा ली थीं कि इन्हें राज सिंहासन पर रख कर शासन करूंगा। खुड़पेंची रामभरोसे यह प्रसंग आने पर तरह तरह के सवाल कर के मुझे परेशान करता रहता है। कहता है कि भरत भाई जब अपने बड़े भाई का इतना सम्मान करते थे कि भरत मिलाप के अवसर पर आँसू बहाते चित्रों को अपने जन सम्पर्क विभाग से इतना प्रचारित कराया कि अगर आज के दिनों में यह काम होता तो विभाग को न जाने कितने करोड़ के विज्ञापन देने पड़ते। कहता है कि भाई के प्रेम प्रदर्शन में वे यह भी भूल गये कि बड़े भाई चौदह साल के लिए बनवास के कंटकाकीर्ण मार्ग पर जा रहे थे तो राज सिंहासन पर रखने के लिए वे पहनी हुयीं खड़ाऊं ही क्यों जरूरी थीं। राजपुत्र के पास कोई एक जोड़ खड़ाऊं तो होंगी नहीं। न सही जयललिता के बाराबर जूते की जोड़ियां पर दो चार तो पुरानी कबाड़खाने में पड़ी ही होंगीं। उन्हीं में से किसी एक को धो पौंछ कर रख लेते। या कोई राजसी वस्त्र ही सिंहासन पर बिछा देते तो अच्छा भी लगता। कम से कम वन में भाई के चरण कमल तो सुरक्षित रहते।
रघुवीर के खड़ाऊं विहीन हो जाने पर सीताजी और लक्षमण जी ने भी खड़ाऊं उतार दी होंगीं। पता नहीं चलता कि उनकी खड़ाऊं कहाँ स्थापित हुयी होंगीं। बहरहाल मानस में यह तो पता चलता है कि तीनों लोग ही खड़ाऊं विहीन हो गये थे। तुलसी बाबा लिखते हैं कि –
सिया राम पद पंक बनाये / लखन चलत इत दाएं बाएं
अर्थात रामचन्द्र जी और सीता जी के चरणों से कमल जैसे चिन्ह बन रहे तो पीछे पीछे चलने वाले लक्षमण उन पवित्र चिन्हों पर अपना पैर रखने से बचने के लिए उनके दाएं बाएं कदम रखते हैं।  
वृद्धावस्था में विचार भटक जाते हैं, सो मैं भी भटक गया था सो फिर मार्ग अर्थात सड़क पर आते हैं। मुद्दा यह है कि जो लोग पहले ही से सड़क पर हैं, फुटपाथ पर हैं वे चौपट राजा के फैसले के बाद और कहाँ जाते सो उसी सड़क पर चल पड़े। चौपट राजा को बात हजम नहीं हुयी सो उसने लाठी चार्ज करा दिया, आँसू गैस के गोले छुड़वा दिये, पर उनकी आंखें तो आंसुओं की इतनी अभ्यस्त हो चुकी थीं कि उसका असर नहीं हुआ। कारों ट्रकों ने उन्हें कुचला, माल से भरी माल गाड़ियां उनके ऊपर से गुजर गयीं, किंतु वे भूखे प्यासे चलते रहे। बिना किसी बैठक, बिना किसी समन्वय के सबके दिल से एक ही आवाज उठी ‘ आ अब लौट चलें’ वे बच्चों की तरह गठरी और गठरी की तरह बच्चों को उठाये चलते जा रहे थे और बिना राजा की अनुमति उनके चलने को राजा ने अपना अपमान समझा। सो राज्य सरकारों से कह दिया कि उन्हें घुसने न दें। जहाँ काम करते थे वहाँ के मालिकों ने उनकी मजदूरी नहीं दी, बोनस मार लिया, मालिकों ने झुग्गी खाली करा ली, सड़्कों पर चलने नहीं दिया और उनके अपने राज्यों में अपने गाँवों में घुसने नहीं दिया। वे राम लक्षमण सीता की तरह नंगे पैर चलते रहे, विंबाई फटे, लहूलुहान पैरों से चोर रास्तों से राज्य की सीमा पार करते रहे। महिलाएं चलते चलते बिना सीजेरियन आपरेशन के बच्चे जनती रहीं और बच्चे जनने के बाद फिर चलती रहीं। लड़कियां हजारों किलोमीटर साइकिल चला कर अपने बूढे बीमार पिता को ढो कर घर लाती रहीं। चौपट राजा को मुँह चिड़ाती रहीं।
जब पानी सर से गुजरता दिखा तो ट्रेनें चलाने का नाटक किया, उनमें दस प्रतिशत को भी जगह नहीं मिली। मारा कूटी, धक्कम पेल मची रही, जो ट्रेन चली उन्हें कहीं से कहीं ले जाया जाता रहा। उनमें लोग भूखे प्यासे भटकते रहे, मरते रहे। लाल बुझक्कड़ हर जगह अपनी नोटबन्दी जैसे फैसले थोपता  रहा।
देश को देश बनाने वाले जब सड़क पर पटके जा चुके हैं तो देश को सड़क पर आने में कितनी देर लगेगी। फकीर तो झोला उठा कर चल देगा वहाँ जहाँ उसने मेहुल भाइयों को पहले से भेज रखा है। भक्तो ताली थाली बजा कर, दिये मोमबत्ती जला कर फूल बरसाने के लिए तैयार रहो।

व्यंग्य लाकडाउन के चरण


व्यंग्य
लाकडाउन के चरण
दर्शक
हमारे परम पावन जगतगुरु देश में चरणों की बड़ी महिमा गायी गयी है। कई मन्दिरों और तीर्थस्थलों में मूर्तियों की जगह केवल चरणों से काम चला लिया गया है। कई जगह तो हर चीज को बड़ा बनाने के चक्कर में इतने बड़े बड़े चरण बना दिये गये हैं कि वह कहावत याद आ जाती है कि सर बड़ा सरदार का, पांब बड़ा गँवार का।
आसाराम, राम रहीम, रामपाल आदि से पहले भी संतों के चरणों के बारे में कहा गया है कि
जहँ जहँ चरण पड़े संतन के तहँ तहँ बंटाढार
कोरोना वायरस से बचने के नाम पर जो लाकडाउन किया गया वह भी चरणों में किया गया। असल में भाषा में भी साम्प्रदायिक सोच रखने वाले उसे भी विकृत करते रहते हैं। चरण का यह स्तेमाल उन्होंने कदम की जगह पर किया है, जैसे डीजल चलित वाहन डीसीएम टोयटा को अडवाणी जी रथ कहते थे। या स्कूल को मन्दिर कहा जाता है – सरस्वती शिशु मन्दिर। इसी तरह कदम का अनुवाद उन्होंने चरण कर दिया। कदम एक गतिवान घटना है। कदम रखे जाते हैं, उठाये जाते हैं, बढाये जाते हैं किंतु चरण तो सोशल डिस्टेंसिंग के लिए बनाये गये गोल घेरों में स्थिर रहने वाले स्मारकों की तरह होते हैं। गति के लिए जब भी प्रयोग में लाया जायेगा तो अधिक से अधिक पग शब्द का स्तेमाल किया जा सकता है। जब इसका स्तेमाल अस्त्र की जगह होता है तब लात का प्रयोग होता है। जैसे ब्राम्हण देवता भृगु ने हर्रि [विष्णु] को लात ही मारी थी, व जिसे खा कर भी उनकी कोई हानि नहीं हुयी थी।
का रहीम हरि को घट्यो, जो भृगु मारी लात
कहा जाता है कि रावण ने भी अपने भाई विभीषण को लात मार कर ही अपमानित किया था। यह लात कहाँ पर मारी गयी थी इसका विशेष उल्लेख उन पुराणों में नहीं मिलता जिन्हें मैंने पढे हैं। आज भी एक दल से अपमानित किये गये नेताओं को दूसरे दल का नेता विभीषण महाराज कहता है तो ना तो वह और ना उसके भक्त कोई अपमान महसूस करते हैं।
बहरहाल क्रमशः लाक डाउन का चौथा चरण भी आ गया। इस चरण को रखते हुए प्रधानमंत्री ने बीस लाख करोड़ का उल्लेख इतनी बार किया कि बिहार के चुनाव की वह नीलामी याद आ गयी जिसमें वे कह रहे थे पचास हजार करोड़ दे दूं, साठ हजार करोड़ दे दूं, .....। पता चला कि यह बीस लाख करोड़ भी वाग्जाल ही था।  बालकनी वाले लोगों ने ताली थाली बजा ली, बिजली बन्द कर मोमबत्ती व दिये जला लिये, सेना को लगा कर फूल बरसवा लिए पर कोरोना की बीमारी और  नीरसता बढती ही गयी। भाइयो बहिनों से लेकर प्यारे देशवासी तक सब कैद होकर रह गये। इन कैदों की भी अपनी अपनी किस्में थीं। कुछ स्टे एट होम थे तो कुछ क्वारंटाइन में, कुछ आइसोलेशन में थे। दुष्यंत के शब्दों में – आदमी या तो जमानत पर रिहा है या फरार।
मजदूर बेरोजगार हो गया, ठेले रिक्शे वालॉ का काम धन्धा बन्द हो गया, दुकानों पर ताले लग गये, पहिए थम गये निर्माण रुक गया। पर जिस मजदूर की दम पर दुनिया चलती है, उसे खाली बैठना मंजूर नहीं। वह तुम्हारे जहाजों, रेलों, बसों, गाड़ियों का मोहताज नहीं था। अपनी पोटली उठाये, पैदल या साइकिल पर ही निकल पड़ा। पूरा देश उनका ही है, तुम्हारा तो बैडरूम भर है जिसे आजकल लिविंग रूम कहा जाने लगा है। राहत इन्दौरी के शब्दों को थोड़ा बदल कर कहें तो –
तुम्हारी बन्द गाड़ियां, खाक हमें रोकेंगीं
हम परों से नहीं हौसलों से उड़ते हैं
पुलिस, लाठियां, आँसू गैस, बैरियर सबको पर करते हुए वे निकल कर चल दिये। उनके गृह राज्यों की सरकारों ने प्रतिबन्ध लगा कर संवेदनहीनता का परिचय दिया पर रोक नहीं सके।
बालकनी वाला भरा पेट मध्यम वर्ग जरूर कुकिंग लूडो, कैरम, फिल्मों, टीवी, रामायण और महाभारत में खोया रहा किंतु पूरे देश के मेहनतकश वर्ग ने बिना किसी के सिखाये , बिना किसी नेतृत्व के जो एक ही दिशा में फैसला किया वह सबूत है कि मजदूर वर्ग में स्वतःस्फूर्त चेतना कैसे पैदा होती है।
      


व्यंग्य म.प्र. में मंत्रिमण्डल विस्तार


व्यंग्य

म.प्र. में मंत्रिमण्डल विस्तार

दर्शक
बुन्देली में एक कहावत है- पत्ता पर गुलांट खाना, अर्थात तुरंत ही अपने द्वारा कही बात से पलट जाना। भाजपा में नीचे से ऊपर तक लोग इस जिमनास्टिक में कुशल हैं। अगर ओलम्पिक में यह खेल सूचीबद्ध होता तो दस बीस स्वर्ण पदक तो लाये ही जा सकते थे। देश में आयाराम गयाराम का प्रारम्भ भले ही किसी ने किया हो किंतु इस विधा का संगठित स्तेमाल कर सरकारें बनाने में जनसंघ और बाद में भाजपा ने शिखर स्थान बनाया। अगर इस बात को काव्यात्मक भाषा में कहा जाये तो सत्ता के लिए पत्ता पर गुलांट खाने वालों में वे अग्रणी हैं।
सत्ता से धन और बल दोनों ही प्राप्त होते हैं। पुलिस, सशस्त्र बल. होम गार्ड, जब संघ के स्वयं सेवकों के साथ मिल जाते हैं तो हर काला मामला सफेद हो जाता है। उस पर भी अगर टुकड़खोर मीडिया भी साथ दे तो पंचतंत्र की वह कथा घटने लगती है जिसमें ब्राम्हण को अपनी अच्छी भली बछिया को कुत्ता समझ कर छोड़ देने के लिए मजबूर होना पड़ा था।
जिसे हाथ के पंजे पर चुनाव लड़ने के लिए टिकिट मिल जाता है, उसे काँग्रेसी कहते हैं। काँग्रेसी होना किसी आचार विचार से तय नहीं होता। यह गलाकाट प्रतियोगिता में टिकिट हथियाने में सफल हो जाना होता है। अगर किसी को टिकिट मिल गया तो उसने साबित कर दिया कि वह ही काँग्रेसी है। जैसे
तालों में ताल भोपाल ताल, और सब तलैयां हैं
रानी में रानी पद्मावती और सब गधैयां हैं
काँग्रेस ने जनप्रतिनिधि होने का अर्थ ही बदल दिया है। इसका अर्थ यह है कि रस से भरे खजाने के भगोने में आपकी स्ट्रा डल गयी। अब जितनी आपकी क्षमता है उतना सुड़के जाइए। सो काँग्रेसी अपने परिश्रम से टिकिट हासिल करता है, हिकमत से चुनाव जीतता है और सुड़पने में लग जाता है। पर उसे अपना पेट नहीं भगोने में बचा हुआ रस दिखता है। नीरज जी की एक कविता है-
देने वाले ने बहुत दिया
लेकिन मेरी अंजुरि में साँझ थी
और मेरी लोलुप दृष्टि
जो उसने दिया उसको छोड़ कर
जो उसने नहीं दिया उस पर थी
इसलिए, जो उसने दिया
वह सब मेरे कदमों में बिखर गया
विधायक बनने के ठीक बाद यदि काँग्रेस की सरकार बन गयी तो काँग्रेसी मंत्री बनने के लिए तड़फना शुरू कर देता है या किसी कार्पोरेशन का अध्यक्ष, अर्थात वह डबल स्ट्रा से पीना चाहता है।
भाजपा के लिए काँग्रेसी विधायक हमेशा बिकाऊ माल होता है। वह जानता है कि यह काँग्रेसी तो पैसा कमाने आया है, इसलिए इसकी पूरी विधायकी में सम्भावित कमाई से ज्यादा के आफर पर इसे कभी भी खरीदा जा सकता है। यही कारण रहा कि म.प्र., में काँग्रेस सरकार के बनने के ठीक बाद इन्दौर के एक भाजपा नेता ने कहा था कि ऊपर वालों का इशारा मिलते ही इस सरकार को किसी भी दिन गिरा सकते हैं। ऊपर वाले ने इशारा करने में थोड़ी देर कर दी। पता नहीं म,प्र. की सराकार से उन्हें क्या प्रेम था, पर ऐसी देरी न उन्होंने गोवा में की, न कर्नाटक में की, न हरियाणा में की, न उत्तराखण्ड में की, न मणिपुर में की।
पर देर आयद दुरस्त आयद। 5 स्टार होटलों की जब प्रोजेक्ट रिपोर्ट बनती होगी तब उसकी ग्राहकी के अनुमान में यह नहीं लिखा जाता होगा कि सरकारें बनाने बिगाड़ने से इनका धन्धा चमकेगा। मीर साहब कह गये हैं कि
हम हुये तुम हुये कि मीर हुये
उनकी जुल्फों के सब असीर [कैदी] हुये
सो फाइव स्टार होटले भी जुल्फें ही हैं जिनमें कैद होकर, विधायक किसी से नहीं मिलना चाहता। वैसे कहा जाता है कि विधायकों को भी विकल्प दिये गये थे कि या तो 35 करोड़ ले लें या 5 करोड़ और मंत्री पद ले लें। लोगों ने अपनी अपनी क्षमता के अनुसार विकल्प स्वीकारे। पर घर के लोग कहने लगे कि अगर सब बरातियों को खिला दोगे तो हम क्या भूखों मर जायें। वे भी जिद पर अड़ गये।
इसलिए बिल्लियों की लड़ाई में बन्दर मामा दोनों तरफ की रोटियां खाये जा रहे हैं, और महाराज विभीषण अपना सम्मान समेटे फिर रहे हैं।     


व्यंग्य कोरोना का रोना


व्यंग्य
कोरोना का रोना
दर्शक
रामभरोसे ने अपनी उसी बालकनी से जिससे उसने कुछ दिन पहले थाली पीटी थी और दिये जलाते जलाते पटाखे फोड़ना शुरू कर दिये थे, अपनी दोनों उंगलियों से व्ही का निशान बनाते हुए चिल्लाया, मैंने विजय प्राप्त कर ली है। सवाल पूछने के लिए मुझे भी चिल्लाना पड़ा- क्या घर में फिर झगड़ा हो गया था?
उसने गुस्से के तेवर प्रकट करते हुए मुझे घूंसा दिखाया और फिर उतने ही जोर से बोला- बिल्ली को छीछड़े ही नजर आते हैं। अरे मैंने जुकाम पर विजय प्राप्त कर ली है।
‘ तो इसमें इतना चिल्लाने की क्या बात है?’ यह कहने के लिए मुझे भी चिल्लाना पड़ा। गनीमत यह है कि कोराना का वायरस ध्वनि तरंगों के सहारे नहीं फैलता बरना सरकार इस पर भी प्रतिबन्ध् लगा चुकी होती।
‘बात कैसे नहीं है! क्या तुम देख नहीं रहे हो कि जो भी अस्पताल से ठीक होकर निकल रहा है, उसका विजेताओं की तरह स्वागत हो रहा है, उसके लिए तालियां बजायी जा रही हैं, उस पर फूल बरसाये जा रहे हैं। अब बीमारी ठीक होने का मतलब उस पर विजय पा लेना है, भले ही वह जुकाम ही क्यों ना हो!’
‘अरे भाई जुकाम और कोरोना में फर्क है यह छूत के बीमारी है, इससे दुनिया भर में मरने वालों की संख्या लाख तक पहुंचने वाली है, यह प्लास्टिक और धातु की सतह पर भी लम्बे समय तक जीवित रहने वाला वायरस है, अगर लापरवाही की तो नगर के नगर साफ हो सकते हैं, इस बीमारी से ठीक होकर आने वाला विजेता ही होता है’
‘हमें मत टहलाओ, क्या नहीं जानते कि टीबी भी बुरी बीमारी है और देश में आज भी हर साल इसके 28 लाख मरीज पहचाने जाते हैं जिनमें से चार लाख से ज्यादा को बचाया नहीं जा पाता। यह बीमारी तो हवा से हवा में मार करने वाली मिसाइल की तरह खाँसी और छींक से भी फैलती है, पर जब तक यह इसी स्तर पर अमेरिका में नहीं फैलेगी, तब तक तुम गम्भीरता से थोड़े लोगे। ये बात अलग है कि यह गरीबों से गरीबों को होती है और् तुम्हारी बीमारी हवाईजहाज से चल कर आयी है और हवाई यात्रियों के द्वारा डाक्टरों, नर्सों व सुरक्षा देने वाले पुलिस वालों तक को हो गयी है। तुमने इस बहाने लाक डाउन कर दिया, करोड़ों मजदूरों की नौकरी छीन ली, उनके घर लौटने के रास्ते बन्द कर दिये, साधन बन्द कर दिये। वे अपनी गृहस्थी सिर पर उठाये, बीबी बच्चों को घसीटते पैदल ही निकल पड़े, सैकड़ों किलोमीटर पैदल चल कर जाने लगे, तो तुमने डंडे बरसाये उन्हें वायरस मुक्त करने के नाम पर कैमिकल से नहलाया। वे भूखे पेट नालों का पानी पीते हुए आगे बढे तो जगह जगह रोक लगा कर उन्हें भूखों रखा। अपना नाम करने के लिए कुछ दान दाताओं ने उन्हें कभी कभी आधा पेट कुछ दे दिया तो दे दिया। किंतु इनमें से किसी को कोरोना नहीं हुआ, क्योंकि इनकी रोग प्रतिरोधक क्षमता हवाईजहाज वालों से ज्यादा थी। गिरती अर्थव्यवस्थाकी जिम्मेवारी से बचने के लिए सरकार को बहाना मिल गया। ‘ राम भरोसे बालकनी में था इसलिए उसमें वक्ता की आत्मा प्रवेश कर गयी थी। वह तब ही बन्द हुआ जब मैं घर में घुस गया।
अगर प्रधानमंत्री की सलाह पर इम्म्युनिटी मजबूत करना है तो इन हवाई यात्रियों को भूखा रहने और धूप में पैदल चलने की आदत सिखानी होगी। गरीबों में उदयप्रकाश की कहानी के टेपचू ही टेपचू हैं।  
देश भर के अखबारों में, टीवी चैनलों में, रेडियो पर कोरोना ही कोरोना छाया हुआ था। चुनाव परिणाम वाले सोफ्टवेयर से कोरोना के मरीजों की पहचान, क्वेराइंटीन, इलाज, आइसोलेशन, ठीक होने और मरने की नगरवार, प्रदेशवार, देशवार आंकड़े दर्शाये जा रहे थे। इससे भी अलग इसमें जमातियों की संख्या के आंकड़े भी अलग दर्शा कर कम समझ वालों को यह सन्देश दिया जा रहा था कि यह सब कुछ जमातियों के कारण हुआ है। जबकि हर तरह के अन्धविश्वासी देश के हर कोने में एकत्रित होते रहे और सोशल डिस्टेंस का मजाक बनाते रहे।    

व्यंग्य कोरोना की चिंता में तबादले


व्यंग्य

कोरोना की चिंता में तबादले

दर्शक
अगर मामा का वश चलता तो कोरोना का ट्रांसफर भी कोलकता कर देता।
जो सत्ता से अलग होते ही केवल तबादलों पर ही दहाड़ें मार मार कर रोता रहा, उसने सबसे पहले आकर तबादले ही किये। जिसके कर सकता था उसके किये। तबादलों के बारे में कोई पालन करने वाला नियम नहीं है कि प्रशासनिक सुविधा के लिए किसका कितने साल बाद किया जाना चाहिए, इसलिए हर सरकार भले ही कुछ न करे पर तबादले जरूर करती है। कभी शरद जोशी ने लिखा था कि जैसे कोई महिला अपने जूड़े से पिन निकाल कर दांतों में दबा फिर जूड़े में खोंस लेती है, वैसे ही वर्मा जी की जगह शर्मा जी आ जाते हैं और फिर उसी कुर्सी पर वर्मा जी आ जाते हैं। जिस फाइल पर पहले एन ओ नो लिखा जाता है उसी पर नोट आ जाने के बाद उसमें टी और ई जोड़ कर नोट लिख दिया जाता है।
नीरज जी ने जो दुनिया के बारे में लिखा है, वही तबादलों के बारे में भी सच है, अगर सरकार को सरकस मान लिया जाये जो कि कुछ अर्थों में होती भी है-
और प्यारे, ये दुनिया एक सरकस है
और यहाँ सरकस में
बड़े को भी, छोटे को भी,
खरे को भी खोटे को भी 
दुबले को भी, मोटे को भी
नीचे से ऊपर को ऊपर से नीचे को
आना जाना पड़ता है
और रिंग मास्टर के कोड़े पर,
कोड़ा जो भूख है, कोड़ा जो पैसा है 
तरह तरह नाच के दिखाना यहाँ पड़ता है
बार बार रोना और गाना यहाँ पड़ता है
हीरो से जोकर बन जाना पड़ता है.......
अफसरों का भी हाल शेरों की तरह होता है जो जनता के लिए जंगल के शेर होते हैं और नेताओं के लिए सरकस के शेर होते हैं। ऐसे ही लगातार तबादलों पर मेरे एक अफसर मित्र ने लिखा था-
और कितनी बार फेंटोगे
पत्ते तो बावन ही होते हैं,
तिरेपनवां पत्ता कहाँ से लाओगे
और गर लाओगे तो उसे तुम
एक जोकर ही पाओगे
कोरोना महामारी है हजारों को लील चुकी है और पता नहीं कितनों को और लील लेगी, पर यही महामारी सरकारी नेताओं व अफसरों के लिए वरदान बन जाती है। जैसे वे कभी धर्म की ओट लेते हैं, कभी संस्कृति की, कभी राष्ट्र की, कभी सेना की, कभी शहीदों की, कभी युद्ध की, कभी आतंकवाद की, वैसे ही कोरोना की ओट भी ले रहे हैं। शेयर बाज़ार गिर गिर कर अर्थव्यवस्था की जर्जर स्थिति का प्रदर्शन कर रहा था कि तभी कोरोना आ गया ओट मिल गयी। हाथी के पांव में सबका पांव। कभी बिल्ली के भाग्य से छींका टूटता था, अब नेताओं के भाग्य से कोरोना का कहर टूटता है। जैसे शिवराज के भाग्य से सिन्धिया काँग्रेस से टूटते हैं और राज्यसभा की सीट पक्की कर लेते हैं। पैकेज आयेगा तो सारे नेताओं अफसरों को सबको खुरचन मिलेगा।
कोरोना के कारण जनता में सोशल डिस्टेंसिंग हो रही है, नेताओं में नजदीकियां बढ रही हैं, विधायक ही नये मुख्यमंत्री से गले नहीं मिल रहे हैं अपितु विपक्ष के नेता भी उनसे मिल रहे हैं। शपथ खिलाने के लिए इतने विधायक एकत्रित हो जाते हैं कि गोया थोड़ी बहुत बची खुची शपथ उन्हें भी खाने को मिल जाये।
वैसे इस जान है तो जहान है, ने देवताओं की बड़ी किरकिरी करा दी लोग मन्दिर मस्जिदों की जगह डाक्टरों, अस्पतालों पर भरोसा कर रहे हैं। जो बड़े बड़े गौ भक्त बनते थे उन्होंने भी इलाज हेतु गौमूत्र नहीं अपनाया।

व्यंग्य जहँ जँह संत मठा खों जांय


व्यंग्य
जहँ जँह संत मठा खों जांय
दर्शक
बुन्देली में एक कहावत है कि ‘जहँ जहँ संत मठा खों जांय, भैस पड़ा दोउ मर जांय ‘। हमारे देश की वर्तमान स्थितियों में संत की जगह ट्रम्प पढा जा सकता है। सौ करोड़ से ज्यादा खर्च करके हमने ट्रम्प से जिस तरह से नमस्ते की उस के बारे में कहा जा सकता है कि ‘खोदा पहाड़, निकली चुहिया’। सिर पर टोपी लगाये नये स्टेडियम में ट्रम्प को नमस्ते करने वाले एक व्यक्ति से एक पत्रकार ने पूछा कि किस लिए आये थे?
बोला ‘ट्रम्प को नमस्ते कहने’
‘किस बात के लिए नमस्ते कहने?’
‘ यह तो पता नहीं, किंतु अमरीका बड़ा देश है और उसका प्रैसीडेंट कब किसको क्या दे दे, कहा नहीं जा सकता, इसीलिए सब उन्हें नमस्ते करते रहते हैं।’ वह बोला।
‘ वे अगर दानदाता होते और उन्हें किसी को कुछ देना ही होता तो उसके लिए पहले से नमस्ते करने की क्या जरूरत थी?’
बहरहाल टोपीधारी मनुष्य थे या रोबोट थे, पर उन्होंने तो आदेश पर नमस्ते ट्रम्प किया और लोंग लिव इंडिया अमेरिका भी चिल्ला दिया। वे नहीं जानते थे कि भारत एक बूढा देश है जिसके आगे अमेरिका अभी बच्चा है। सब अपनी अपनी उम्र जियेंगे।
किसी के घर में दावत थी तो उसने पड़ौसी को आमंत्रित किया था। इस आमंत्रण पर केवल पड़ौसी ही नहीं, उसके पाँच बच्चे भी जो शायद उसने सुदर्शन की सलाह मान कर पैदा किये होंगे जीमने आ गये। मेजबान के कुढ कर कहा ‘ लज्जा नहीं आयी!’ तो पड़ौसी बोला कि वह स्कूल गयी हुयी है बस आती ही होगी। उसकी एक बेटी और थी जिसका नाम लज्जा था।
इसी तरह ट्रम्प भी अपनी तीसरी बीबी, बेटी और दामाद के साथ मोदी की मेहमानी करने चले आये और देश ने सौ सवा सौ करोड़ फूंक दिये। देश के गोदी मीडिया को तो मोदी के हर काम का गुणगान करने के पैसे मिलते हैं किंतु अमेरिका के अखबारों ने इस यात्रा की जगह कोरोना वायरस को लीड खबर बनाया। ‘यूएसए टुडे’ अमेरिका का सबसे अधिक सर्कुलेशन वाला अखबार है जिसने डिफेंस डील की जगह हालीवुड के एक्टर वींस्टीन जिन्हें यौन अपराधों के 87 आरोपों में से दो मामलों में 25 साल की सजा सुनायी गयी थी, को प्राथमिकता दी। ट्रम्प से जब इस घटना के बारे में पूछा गया था तो उन्होंने कहा था कि मैं उनका कभी प्रशंसक नहीं रहा, हाँ मिशेल ओबामा और हिलेरी क्लिंटन जरूर उन्हें ‘चाहती’ थीं।
चरित्र हत्या के मामले में भारत और अमेरिका एक जैसे हैं।
वाशिंगटन पोस्ट ने तो अपने कवरेज में साबरमती आश्रम में ट्रम्प को परोसे गये ब्रोकली समोसे और उनकी नापसन्दगी को प्रमुखता दी। यह समोसा किसी को पसन्द नहीं आया व विशेष रूप से उनके लिए बनाये गये इस समोसे को उन्होंने हाथ तक नहीं लगाया। अमेरिका के ही एक मीडिया एमएसएनबीसी ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि ट्रम्प को नीति, संस्कृति और इतिहास में कोई दिलचस्पी नहीं है। ब्रोकली के समोसे लिखना भूल गया होगा।  
हुआ कुछ कुछ ऐसा कि मुर्गी की जान गयी और खाने वाले को मजा नहीं आया। ट्रम्प ने अपने चुनावी लाभ के लिए भले ही अमेरिका में प्रवास कर रहे भारतीय वोटरों को बरगला लिया हो किंतु सौ करोड़ फूंक देने वाले भारत के हित में कुछ भी नहीं हुआ। उन्हें अपने हथियार बेचने थे सो वे तो मोदी जी एक और अमेरिका का चक्कर लगा कर खरीद ही लेते। समझ में यह भी नहीं आ रहा कि भारत आकर उन्हें मोदी के समानांतर इमरान की तारीफ करना क्यों जरूरी लगा।
अटल बिहारी ने विपक्ष का सहारा लेकर अफगानिस्तान में जाकर फंसने से इंकार कर दिया था। काश यही समझ मोदी सरकार भी कायम रख सके। दिल्ली के भयानक दंगे उनके आने के साथ ही शुरू हुये। पता नहीं कब खत्म होंगे!    

व्यंग्य चुनावों में हनुमान चालीसा


व्यंग्य
चुनावों में हनुमान चालीसा
दर्शक
सत्ता के शिखर तक पहुँचने के लिए लोकतंत्र में जो प्रणाली होती है, उसे चुनाव प्रणाली कहते हैं। हमारे देश में यह प्रणाली नाली में से होकर गुजरती है।
जिन डूबा तिन पाइयां गहरे पानी पैठ , मैं बौरा डूबन डरा, रहा किनारे बैठ
चुनावों में कथित रूप से जो स्वस्थ प्रतियोगिता होती है वह गटर लाइन से हो कर जाती है। डूबो, कितनी देर तक डूबा साध सकते हो।
अभी हाल ही में दिल्ली विधानसभा के चुनाव हुये हैं। आजकल चुनाव राजनीतिक दल नहीं लड़ते हैं, उन्हें प्रशांत किशोर लड़वाते हैं। वे सर्वस्वीकार कोच हो गये हैं। 2014 में उन्हें अमितशाह लाये और उन्होंने मोदी को जितवा दिया। फिर काँग्रेस ने उन्हें उत्तर प्रदेश के लिए कोच बनाया और अपनी खटिया खड़ी करवा ली। फिर प्रदेशवाद का झांसा देकर नितीश कुमार बिहार ले गये और जीत गये, मेहनताने में राज्यसभा का पद हथियाया। वे ही जगन रेड्डी को सलाह देने आंध्रप्रदेश गये और जितवा दिया। सुना है उन्हें शिवसेना ने भी बुलवाया था किंतु सौदा नहीं पटा। इस बार उन्होंने अपने उस दल के नेता से किनारा कर लिया जिसने उन्हें राज्यसभा में भेजा था और आम आदमी पार्टी के लिए काम किया, वह भी जीत गयी। लगता है देश की सारी चुनाव प्रणाली बेकार हो गयी, दलों को ना वादे करने की जरूरत है, न कार्यक्रम और घोषणापत्र घोषित करने की जरूरत है केवल प्रशांत किशोर को गांठ लेना काफी है। हीरा पाव गांठ गठियाओ। ‘हमारे पास माँ है’ की तरह कह सकते हैं कि तुम्हारे सब कुछ के सामने हमारे पास प्रशांत किशोर है।
चुनावों में आम आदमी पार्टी ने प्रशांत किशोर की सलाह पर मौनव्रत साधे रखा, उन्होंने आतंकवादी कहा तो उन्होंने अपनी प्रशासनिक उपलब्धियां गिना कर कहा कि बताओ दिल्ली की जनता के लिए इतना कुछ करने वाला क्या आतंकवादी होगा ! फिर भाजपाई लगातार गिरते गये, भगवाभेषधारी जोगी से क्या क्या नहीं कहलवाया, मोदीशाह के न जीतने पर विजेताओं द्वारा हिन्दुओं की बहिन बेटियों के साथ बलात्कार होने का भयावह चित्रण किया। केजरीवाल की जीत को पाकिस्तान की जीत बताया। सालों को गोली मारो के नारे लगवाये, शाहीन बाग का रास्ता रुकवाने का जिम्मेवार ठहराया पर केजरीवाल चुप रहे। किंतु जब ज्यादा ही हिन्दू मुसलमान होने लगा तो केजरीवाल को भी चिंता हुयी। उन्होंने बिना रुके पूरा हनुमान चालीसा सुना दिया। हनुमान जी के मन्दिर में ढोक भी दे आये। अब लड़ाई रामभक्तों और हनुमानभक्तों के बीच हो गयी। चुनाव की नाली में भक्ति की प्रतियोगिता होने लगी। शिक्षा, चिकित्सा, बिजली और पानी गया पानी में ।
केजरीवाल को बल मिला। जब भी कोई गाड़ी पर चढ कर हमला करने की कोशिश करता तो वे गाने लग जाते
 भूत पिशाच निकट नहिं आवै, महावीर जब नाम सुनावे
न खांसने की जरूरत पड़ी न भरी सर्दी में मफलर की बस वे गाते रहे-
नासै रोग हरै सब पीरा, जो सुमरित हनुमत बलवीरा
रामभक्तों से भी कहते रहे कि ऊपर से तुम कुछ भी सैंक्शन करा लो, पर फाइल पर काम तो नीचे वाले ही करेंगे
राम दुआरे तुम रखवारे, होत न आज्ञा बिन पैसारे
भीम रूप धरि असुर संहारे, रामचन्द के काज सम्हारे
दूसरे देवताओं के बारे में भी साफ कर दिया कि
और देवता चित्त न धरई, हनुमत वीर सदा सुख करई
धन्य है हमारा लोकतंत्र जो विशुद्ध भारतीय लोकतंत्र है जिसमें ज्योतिषी, पुजारी, मन्दिर मस्जिद, पूजा अनुष्ठान, बाबा, फिल्म स्टार, खिलाड़ी, राजा, रानी, सब चलते हैं, बस विचारधारा नहीं चलती।  
      

व्यंग्य गोली मारो ... बीप बीप बीप


व्यंग्य
गोली मारो ... बीप बीप बीप
दर्शक
दुष्यंत कुमार ने कहा था-
अब रिन्द बच रहे हैं, जरा तेज रक्श हो
महफिल से उठ लिये हैं नमाजी तो लीजिए
लगता है कि वही समय आ पहुंचा है। नाच तेज हो गया है, आप चाहें तो नाच के आगे नंगा शब्द लगा सकते हैं किंतु मैं तो आचार संहिता के अंतर्गत अधिक से अधिक बीप बीप बीप लिख और बोल सकते हैं। आचार संहिता हमारे लिए है, उनके लिये नहीं।
अन्धभक्त राम भरोसे से जब यही बात कही तो बोला- अच्छा तो आप केन्द्र सरकार के मंत्री द्वारा उठाये गये नारे के सम्बन्ध में कह रहे होंगे जिन्होंने दिल्ली विधान सभा चुनाव प्रचार के दौरान वो नारा उठाया जिसके अंत में जबाब मिलता है- जूते मारो सालों को।
मैंने कहा कि नहीं, वे अकेले थोड़े हैं, पूरा का पूरा खानदान भरा पड़ा है दामादों से। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष के मनोनयन, जिसे निर्वाचन लिखा जाता है, के बाद काँग्रेस के वरिष्ठ नेता दिग्विजय सिंह ने खुशी व्यक्त करते हुए कहा था कि वे मध्यप्रदेश के दामाद हैं। वहीं दिल्ली के एक दूसरे सांसद जो भी मध्य प्रदेश के दामाद हैं मोदीशाह को बलात्कार से संरक्षण के लिए विकल्पहीन चौकीदार मानते हैं, ने कहा कि अभी अवसर है कि बचा लो बरना अगर ये नहीं रहे तो बहिन बेटियों को बचाने कोई नहीं आयेगा। मोदीशाह नहीं रहे तो वे लोग आयेंगे और तुम्हारी बहिन बेटियों के साथ बलात्कार करेंगे।
खबर पढ कर मैं भी झंकृत हो गया था। इस देश में कोई कानून व्यवस्था तो है नहीं जो देश के नागरिकों की रक्षा करेगी। इसलिए जिस तरह एक भरे पूरे पुलिस व दीगर रक्षा एजेंसियों हेतु दिये जाने वाले टैक्स के अलावा भी हमें प्राइवेट चौकीदार रखना पड़ता है उसी तरह डा. अम्बेडकर द्वारा रचित संविधान के बाबजूद मोदीशाह को भी नियुक्त रखना होगा। इनके अलावा तुम्हें कोई नहीं बचा सकता। और चौकीदारी के लिए ज्यादा कुछ करने की जरूरत भी नहीं है सिवाय तुच्छ से एक वोट के। कमल के फूल के बटन को दबा देना है और रक्षा शुरू हो जायेगी। शाह जी ने इतना अवश्य जोड़ा है कि दूर तक करंट फैलाने के लिए उसे जोर से दबाना है। वैसे यह एक नई थ्योरी है कि जितनी जोर से बटन दबाया जाता है, करंट उतनी दूर तक जाता है। वैज्ञानिकों को इस दिशा में काम करना चाहिए। वैसे अमितशाह लालू परसाद के चरण चिन्हों पर चलने की असफल कोशिश कर रहे हैं जिन्होंने कभी कहा था कि बटन तब तक दबाना जब तक कि भाजपा की चीं न बोल जाये। उनका इशारा वोट देते समय ईवीएम मशीन से निकलने वाली ध्वनि से था।
रामभरोसे उसी तरह अपने मुद्दे से नहीं हटता जिस तरह हिन्दू राष्ट्र बनाने वाले भले ही संविधान के आगे सिर झुकाने का पाखंड कर लेते हैं किंतु मौका मिलते ही फिर उसी पर लौट आते हैं। वह बोला देखो, हमारे माननीय मंत्रीजी ने तो केवल देश के गद्दारों के प्रति जनता के उद्गारों को जानने हेतु सवाल उछाला था जिसका उत्तर जनता की ओर से आया कि उनके प्रति क्या व्यवहार किया जाये। मंत्रीजी तो मासूम हैं और जनता से पूछ पूछ कर फैसले लेते हैं। उत्तेजित तो जनता है। कानून से न्याय की प्रतीक्षा करेंगे तो वे पार्टी विथ ए डिफरेंस कैसे रहेंगे। ..... और जिसे आप गाली समझ रहे हैं, वह गाली नहीं है अपितु एक रिश्ता है। हमारे यहाँ कहा जाता है कि दीवार बिगाड़ी आलों ने और घर बिगाड़ा सालों ने, इसलिए ऐसे सालों को गोली मार देना चाहिए। वैसे भी माननीय मंत्रीजी ने यह जिक्र तो नहीं ही होने दिया कि गोली कहाँ पर मारना चाहिए, दिल में या दिमाग में या पैरों में, पिस्तौल से, बन्दूक से, या ऐसे ही उठा कर कंकरिया की तरह मार देना चाहिए। वैसे भी उन्होंने गद्दारों को मारने के लिए कहा है, आपको इसमें क्या तकलीफ है!
रामभरोसे तो क्या किसी भी भक्त के आगे बहस करना बेकार है, क्योंकि वह व्हाट्स एप्प यूनीवर्सिटी से शिक्षित है जो आस्था और कानून की जगह बदलते रहते हैं, और नंगे नाच पर तालियां बजाते रहते हैं।