गुरुवार, 28 मई 2020

व्यंग्य ट्रम्फ का चुनाव

व्यंग्य
ट्रम्फ का चुनाव
दर्शक
लोकतांत्रिक होना समाज में भले आदमी होने जैसा है और लोकतांत्रिक होने का मतलब चुनाव जीतने की क्षमता हो गया है। जो भी चुनाव जीत जाता है वह खुद को लोकतांत्रिक बताता हुआ नहीं थकता है। हजारों सामंत, पूंजीपशु, और मफिया गिरोह चुनाव जीत कर भले आदमी कहलाते हुए विचरण कर रहे हैं।
जब चुनाव जीतना ही मापदण्ड है तो कैसे भी जीत लो। साम दाम दण्ड भेद किसी भी तरह से दूसरे प्रत्याशियों से अधिक वोट ले लेना ही लोकतांत्रिक हो जाना है। यह बात खुद को लोकतंत्र का सबसे बड़ा ठेकेदार बताने वाले अमेरिका के प्रैसीडेंट तब तक नहीं समझते थे जब तक कि नरेन्द्रभाई दामोदर दास मोदी ने उन्हें नहीं समझा दी थी। लोकतांत्रिक होने से चुनाव जीत जाना आवश्यक नहीं है, जबकि चुनाव जीत जाने से लोकतांत्रिक होना तय है। पहले चुनाव जीतो, सत्ता हथियाओ, पुलिस प्रशासन, फौज़ को अपने नियंत्रण में करो तो चन्दा देने वाले तुम्हारे पीछे पीछे घूमेंगे। देखते नहीं हो कि जब जिसकी सत्ता होती है तब तब उसी पार्टी को सारे इलेक्ट्रोरल ट्रस्ट बड़ॆ बड़े चन्दे देते हैं। खुद को लोकतंत्र का सबसे बड़ा संरक्षक बताने वाले ये ट्रस्ट वोटों के आधार पर दलों की मदद नहीं करते अपितु सीटों की संख्या से लोकतंत्र को नापते हैं। पैसा आ गया, सत्ता आ गयी, पुलिस आ गयी, फौज आ गई तो सीटें कहाँ जायेंगीं, वे भी आ ही जायेंगीं| हर व्यापार में कुछ तो लागत लगती है, कुछ तो ज़ोखिम होता है।  चुनाव भले नकली लाल किला बनवा कर भी जीता जाये, बाद में यही रास्ता असली लाल किले तक ले जायेगा।
भीड़ तो भीड़ होती है, चाहे मुफ्त में जुटी हो या किराये की हो। मुफ्त की भीड़ के लिए भी तो लोग सम्मानजनक बोल नहीं बोलते। किराये से जुटायी गयी भीड़ को देख कर असली भीड़ भी जुटने लगती है। फिल्मी सितारों को टिकिट दे कर उन्हें स्टार प्रचारक बना दो लोग अपने आप जुटने लगेंगे। पुराने जमाने के राजा रानी, क्रिकेट खिलाड़ी, ऎथलीट, पहलवान, ओलम्पियन, गायक, कवि, शायर, भगवा भेषधारी सब नमूनों को जोड़ लो। राम भरोसे से पूछो कि क्यों जा रहे हो भीड़ में, तो वह कहता है कि जब इतने सारे लोग जा रहे हैं तो हम भी जा रहे हैं। मोदीजी ने दिखा दिया कि देखो भीड़ कैसे जुटायी जाती है। भीड़ देख कर ट्रम्फ भी चमत्कृत कि जब मेरे देश में इतने लोग जुटा लेता है तो अपने में कितने जुटा लेता होगा। जहाँ भीड़, वहाँ जीत।
संख्या बढाने के कई तरीके हैं। बम विस्फोट करा दो और किसी अल्पसंख्यक गुट के नाम से जिम्मेवारी लेने का ईमेल करा दो और सख्त बयान दे डालो तो भयभीत बहुसंख्यकों के सारे वोट झोली में। कोई अपने वाला फंस जाये तो प्रासीक्यूशन को सैट कर लो गवाहियों को डरा कर उनका घर भर दो और बरी होने पर उसे विधायक, सांसद या मंत्री बना दो। पैसा लगाओ, पैसा कमाओ।
इतने सारे लोगों के सामने जब कहा जायेगा कि अबकी बार ट्रम्फ सरकार, तो भीड़ में बदल चुके लोग 45 लाख भारतीय उसी जोश से जबाब भी तो देंगे।
पता नहीं, कितना सच है, पर कहा तो यह भी जा रहा है कि मोदीजी ने अमेरिका के प्रैसीडेंट से पूछा था कि तुम कहो तो हम अपने यहाँ की ईवीएम और प्रिसाइडिंग आफीसर भिजवा दें ताकि सब कुछ भारत जैसा हो सके, पर ट्रम्फ ने ही मना कर दिया।
शंकाएं, और भी हैं, अमेरिका के प्रैसीडेंट को अपने सारे प्रस्ताव संसद से पास कराने पड़ते हैं, और अगर वहाँ बहुमत नहीं आया तो क्या होगा? और अगर ट्रम्फ हार गये तो अगला प्रैसीडेंट अगली बार भारत में किसकी सरकार बोलेगा! इन सबके बीच चिंता उन एटम बमों की भी है जो हिन्दुस्तान पाकिस्तान ने दीवाली और ईद में फोड़ने के लिए नहीं रखे हैं। किसी ने कहा है-
हुक्मरानों की अदाओं पै फिदा है दुनिया
इस बहकती हुयी दुनिया को सम्हालो यारो                              

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