गुरुवार, 28 मई 2020

व्यंग्य फैसला- उगलत निगलत पीर घनेरी

व्यंग्य
फैसला- उगलत निगलत पीर घनेरी
दर्शक
आखिर फैसला आ ही गया।
बकरे की माँ कब तक खैर मनाती। कहावत है कि ‘फिसल पड़े तो हर गंगे’। हरिशंकर परसाई ने लिखा है कि व्यापारी जब रहजनों के बीच घिर जाता है और उसका लुटना तय हो जाता है, तो वह दान का मंत्र पढने लगता है।
नाज़ है उनको बहुत सब्र मुहब्बत में किया
पूछिए सब्र न करते, तो और क्या करते
लोग मन्दिर-मस्जिद के सहारे जन्नत के दरवाजों तक पहुंचना चाहते हैं, किंतु राजनेता इसके सहारे संसद भवन, विधानसभाओं के दरवाजे तक माथा टेकना चाहते हैं। हमारा लोकतंत्र शार्टकट से ही चल रहा है।
मैं मैकदे की राह से होकर गुजर गया
बरना सफर हयात का बेहद तबील था  
वे भारतीय जनसंघ से वाया जनता पार्टी, भारतीय जनता पार्टी तक पहुंचे थे। मन्दिर से पहले वे दो पर थे। सो जमीन पर ही चलते थे। अगर इतना नहीं गिरे होते तो उन्हें राम जी की जन्मभूमि की याद नहीं आती। 1967 के बाद बनीं सभी संविद सरकारों में वे घुसे रहे पर उन्हें रामलला की याद नहीं आयी थी। बाद में जनता पार्टी में विलीन हो गये थे और केन्द्र सरकार में सम्मलित हो कर कैबिनेट मंत्री भी बने , पर तब भी तब भी याद नहीं आयी। याद तो तब आयी जब खाली हाथ हो गये और दो सीटों तक सीमित रह गये। अडवाणीजी प्रभु को पाने की यात्रा में दौड़ पड़े। इतनी दूर कैसे जाते सो उन्हें वाहन लेना पड़ा। भगवान के यहाँ जाना था इसलिए डीसीएम टोयटा का स्वरूप अर्थात मुखौटा बदलना पड़ा। उसे रथ का रूप दिया गया। लोग मोदी को बेकार ही दोष देते हैं कि वे नकली लाल किले से भाषण देते थे, पर उनसे पहले अडवाणी नकली रथ पर सवार हो तीर कमान हाथ में ले शत्रु दल के संहार हेतु लोगों को भड़काने निकल पड़े थे। इसका असर हुआ था और वे दो से अस्सी तक पहुंचे। सिर्फ इसी के सहारे वे अस्सी से दो सौ तक और फिर अब तीन सौ पाँच तक पहुंचे।
मस्जिद टूटने के विरोध में ही मुम्बई में हिंसा और फिर प्रतिहिंसा हुयी, जिसमें सैकड़ों लोग मारे गये। गोधरा और गुजरात में हिंसा का कारण भी राम मन्दिर के लिए अयोध्या की ओर निकले कार सेवकों की गतिविधियां ही थीं। हजारों लोग मारे गये, करोड़ों, अरबों की सम्पत्तियां नष्ट हुयीं। समाज में ध्रुवी करण हुआ। ध्रुवीकरण से विभाजन हुआ जिसका चुनावी लाभ बहुसंख्यक समाज को ही मिलता है। चुनावी जीत का फार्मूला हाथ लग गया था। यदि कभी दिखावे के लिए दूसरे वादे भी कर देते थे तो वे तो चुनावी जुमले होते।
रामभरोसे जब भी किसी से ऋण लेता है तो कहता है ‘ आजीवन आपका ऋणी रहूंगा’। वह रहता भी है, कभी ऋण लेकर चुकाना नहीं सीखा। भाजपा भी चुनाव के समय राम मन्दिर की बातें तो करना चाहती थी किंतु चुनावी लाभ का मुद्दा हाथ से भी नहीं जाने देना चाहती। उसने लगातार लटकाया और दूसरों को दोष दिया। जब आलोचना होती थी तब कह देते थे कि यह हमारा नहीं विश्व हिन्दू परिषद का कार्यक्रम है, किंतु जब चुनावी लाभ लेना होता था तो अपनी गरदन आगे कर देते थे। अब जीत का इकलौता मुद्दा हाथ से कैसे निकलने दें, सो नुक्ते निकाल कर ट्रस्ट के गठन पर विहिप से आलोचना शुरू करा दी। कुछ कह रहे हैं कि मस्जिद बनवाने के लिए अयोध्या से बाहर जमीन देना चाहिए। मजे की बात यह है कि अब तक जमा चन्दे के हिसाब की कोई बात नहीं कर रहा।
मुनव्वर राना ने कहा है-
हमारे कुछ गुनाहों की सजा भी साथ चलती है
कि हम तन्हा नहीं चलते दवा भी साथ चलती है
सो मन्दिर बनाने का फैसला भी अकेला नहीं आया उसके साथ छह दिसम्बर को मस्जिद तोड़ने वालों को सजा देने का फैसला भी साथ ही आया जिसे गत सत्ताइस साल से लटकाया जा रहा था। कुछ आरोपी तो नर्क या स्वर्गवासी हो गये। सब जानते हैं कि दोषी कौन थे और किस पार्टी के थे।
इसलिए नहीं कहा जा सकता कि ‘वे इतना जो मुस्करा रहे हैं, क्या गम है जिसको छुपा रहे हैं’। अब बाबा भले ही कम्बल छोड़ दे पर कम्बल को बाबा को नहीं छोड़ना चाहिए।     

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