गुरुवार, 28 मई 2020

व्यंग्य सत्यमेव जयते उर्फ बल्ले बल्ले


व्यंग्य
सत्यमेव जयते उर्फ बल्ले बल्ले
दर्शक
हमारे राष्ट्रीय प्रतीक तीन दिखने वाले शेरों के नीचे एक आदर्श वाक्य अंकित किया जाता है  – सत्यमेव जयते। ये शेर सम्राट अशोक द्वारा सारनाथ में बनवाये गये स्तम्भ में दिखते हैं और उक्त वाक्य मुण्डक उपनिषद के मंत्र में से लिया गया है। मंत्र कहता है-
सत्यमेव जयते नानृतम सत्येन पंथा विततो देवयानः
येनाक्रमंत्यो ह्याप्तकामो यत्र तत्र सर्वत्र परमम निधानम ॥
अर्थात अंततः सत्य की ही जय होती है न कि असत्य की। यही वह मार्ग है जिससे होकर आप्तकाम [जिनकी कामनाएं पूर्ण हो चुकी हों] मानव जीवन के चरम लक्ष्य को प्राप्त करते हैं।  
एक बोधकथा कहती है कि एक गणितज्ञ ने खेती करने का विचार किया। उन्होंने गणित के एक एक नियम का प्रयोग करते हुए पाया कि जब गेंहू बोते हैं तो गेंहू और भूसा दोनों मिलते है। उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि भूसा बो देने पर भी यही उत्पाद मिलना चाहिए। इसे लाभप्रद मानकर उन्होंने भूसा बो दिया। परिणाम यह निकला कि न उन्हें भूसा मिला न गेंहू, उल्टे मेहनत और अकारथ चली गयी। इसी तरह सत्यमेव जयते को लेकर देश के राजनीतिकों ने निष्कर्ष निकाला के हमेशा सत्य ही जीतता है इसलिए जो जीत गया वही सत्य है। इस तरह उन्होंने समझा कि मोदी और अमित शाह ही सत्य हैं क्योंकि वे जीत गये हैं।
इस आदर्श वाक्य में यह स्पष्ट नहीं है कि जीत किस लड़ाई में होना है। शास्त्रार्थ में होना है या अखाड़े में होना है ! अगर अखाड़े में होना है तो पहलवान लबरासिंह भी सदाकत अली से जीत सकते हैं, और वे ही सत्य माने जायेंगे। एक हिन्दी फिल्म का नाम इस अर्थ में ज्यादा सार्थक नजर आता है- जो जीता वही सिकन्दर।
कोई भी शासन अपनी पुलिस, प्रशासन, शासक, न्याय, फौज आदि के प्रतीकों से जाना जाता है। अगर पुलिस को जूतों से पीटते हुए बाप और सरकारी काम करते हुए अधिकारी को बल्ले से पीटते हुए बेटा नजर आता है, जिसको  माननीय कोर्ट जमानत दे देता है और प्रैस से उसकी औकात पूछी जाती है तो सिकन्दर कौन हुआ, सत्य कौन हुआ? बेटे के फेसबुक पेज पर उसके चमचे जयजयकार करते हुए उसके हँसते फोटो के नीचे लिखते हैं- सत्यमेव जयते। बाप दो उंगलियां दिखाते हुए विक्टरी का निशान बनाता है। उन्होंने अपने कर्म को छुपाने दबाने की कोशिश नहीं की। बेटे ने खुशी खुशी अपनी पूरी पार्टी की नीति बतायी कि वह आवेदन, निवेदन के रास्ते दे दनादन तक जाती है। उसने तो एक अनुशासित सिपाही की तरह अपनी पार्टी की रीति नीति का पालन किया। वे पार्टी संविधान के अलावा कोई संविधान नहीं मानते। जब पार्टी ने घोषित ही कर रखा है तो चिंता कैसी? दनादन करना वह खुद मान रहा है और वीडियो को अदालत के अलावा सबने देख लिया है। 
जब उज्जैन के सव्वरवाल हत्या कांड में जो आरोपी जेल की जगह डाक्टरों की विशेष कृपा से अस्पताल में आराम कर रहे थे, छूट कर आये तो उनके स्वागत में भाजपा शासन के एक पहलवान मंत्री ने उज्जैन शहर में जलूस निकलवाया और वही मंत्री उस जलूस में नाचते हुए जा रहे थे जबकि उन्हीं की सरकार द्वारा दर्ज प्रकरण खारिज हो गया था। मंत्रीजी ने बयान दिया था कि आज मैं जितना खुश हूं, उतना तो मंत्री बनने के बाद भी नहीं हुआ था। भयभीत गवाहों के पलट जाने व प्रासीक्यूशन की कमजोरियों के कारण मिली विजय में मुकदमा जीतने वाला ही सत्य हुआ। हो सकता है कि निचली अदालत में सत्य का एक रूप हो व उच्च अदालत में दूसरा हो जाये व सुप्रीम कोर्ट में तीसरा हो जाये।
गुजरात 2002 के बाद हुए नरसंहार पर ज्योति बसु ने सही शब्द का प्रयोग किया था- बारबेरियन । अब यह शब्द गुजरात तक सीमित नहीं रहा।

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