व्यंग्य
144 से 370 का घटाना
दर्शक
राजनीति में गणित के पुराने फार्मूले नहीं चलते।
विशेष तौर पर जब अमित शाह जैसे एकाउंटेंट हों तो बिल्कुल भी नहीं चलते। आजकल धारा
144 से वे 370 घटाने में लगे हुये हैं।
कानून की धाराएं नदियों की धाराओं से भिन्न होती
हैं। कभी कभी नदी धारा तोड़ कर बहने लगती है और बाढ आ जाती है। कानून की धाराओं के
टूटने पर भी ऐसा ही हो सकता है।
हो यह रहा है कि धारा 370 को मिटा देने वाले धारा
144 को न टूटने देने के लिए कमर कसे हुये हैं। मुकुट बिहारी सरोज अपने गणित के गीत
में लिख गये हैं-
अंक
अपने आप में पूरा नहीं है
इसलिए कैसे दहाई को पुकारे
मान, अवमूल्यित हुआ है सैकड़ों का
कौन इस गिरती व्यवस्था को सुधारे
जोड़-बाकी एक से दिखने लगते हैं
राम जाने पीढियां कैसे पढ़ेंगी ?
शेष जिसमें कुछ नहीं ऐसी इबारत
ग्रन्थ के आकार में आने लगी है
और मज़बूरी, बिना हासिल किए कुछ
साधनों का कीर्तन गाने लगी है
माँग का मुद्रण नहीं करती मशीनें
राम जाने क़ीमतें कितनीं चढेंगी ?
इसलिए कैसे दहाई को पुकारे
मान, अवमूल्यित हुआ है सैकड़ों का
कौन इस गिरती व्यवस्था को सुधारे
जोड़-बाकी एक से दिखने लगते हैं
राम जाने पीढियां कैसे पढ़ेंगी ?
शेष जिसमें कुछ नहीं ऐसी इबारत
ग्रन्थ के आकार में आने लगी है
और मज़बूरी, बिना हासिल किए कुछ
साधनों का कीर्तन गाने लगी है
माँग का मुद्रण नहीं करती मशीनें
राम जाने क़ीमतें कितनीं चढेंगी ?
यह बरसात का मौसम है, यह बाढ का मौसम है, यही
धाराओं के तोड़ देने और टूटने का मौसम भी है। हिन्दी के गीतकार किशन सरोज जी का एक
गीत है –
कसमसाई है नदी की देह फिर से
देखना तटबन्ध कितने दिन चले
मोह में अपनी मंगेतर के
समुंदर बन गया बादल,
सीढ़ियाँ वीरान मंदिर की
लगा चढ़ने घुमड़ता जल;
समुंदर बन गया बादल,
सीढ़ियाँ वीरान मंदिर की
लगा चढ़ने घुमड़ता जल;
काँपता है धार से लिपटा हुआ पुल
देखिये, संबंध कितने दिन चले
देखिये, संबंध कितने दिन चले
विपक्ष बिफरा हुआ है, उससे कुछ पूछा ही नहीं गया,
तो सत्तारूढ दल के लोग कहते हैं कि तुम तो तुम हमें भी कुछ नहीं बताया गया। इस बार
ही नहीं कभी भी हमसे नहीं पूछा जाता। हमारा काम तो केवल हाथ उठा देना और टेबिलें
थपथपा कर जय जय श्रीराम बोल देने तक सीमित है। फैसले लेने के लिए तो कैबिनेट को भी
नहीं पूछा जाता, बस दो लोगों की टीम है या बगल में चेहरा लटकाये हुए किसी अनाथ की
तरह राजनाथ नजर आ जाते हैं।
इनकी शिकायत को अगर मैथिली शरण गुप्त के शब्द दें तो वे कह रहे हैं –
सखि, वे मुझसे कहकर जाते,
कह, तो क्या मुझको वे अपनी पथ-बाधा ही पाते?
मुझको बहुत उन्होंने माना
फिर भी क्या पूरा पहचाना?
मैंने मुख्य उसी को जाना
जो वे मन में लाते।
कह, तो क्या मुझको वे अपनी पथ-बाधा ही पाते?
मुझको बहुत उन्होंने माना
फिर भी क्या पूरा पहचाना?
मैंने मुख्य उसी को जाना
जो वे मन में लाते।
सखि वे मुझ से कह कर जाते
इश्क में तो गणित का खेल राजनीति से भी अलग होता
है। आशिक कहता है-
दो माइनस मिल कर के होता है एक प्लस
जालिम अरे दो बार ही कह दे – नहीं नहीं
व्यापार और राजनीति के मेल से सत्तारूढ दल के
अध्यक्ष के बेटे की नुकसान देने वाली फर्म में 16000 गुना मुनाफा होने लगता है। तो
मान लीजिए कि 144 से 370 घट सकती है क्योंकि उसका मान तो पहले ही ज़ीरो था क्योंकि
अस्थायी थी, जैसे गणित में कहते हैं कि मान लो कि धन सौ है, लगभग वैसी ही।
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