व्यंग्य
लाकडाउन के चरण
दर्शक
हमारे परम पावन
जगतगुरु देश में चरणों की बड़ी महिमा गायी गयी है। कई मन्दिरों और तीर्थस्थलों में
मूर्तियों की जगह केवल चरणों से काम चला लिया गया है। कई जगह तो हर चीज को बड़ा
बनाने के चक्कर में इतने बड़े बड़े चरण बना दिये गये हैं कि वह कहावत याद आ जाती है
कि सर बड़ा सरदार का, पांब बड़ा गँवार का।
आसाराम, राम रहीम, रामपाल
आदि से पहले भी संतों के चरणों के बारे में कहा गया है कि
जहँ जहँ चरण पड़े संतन के
तहँ तहँ बंटाढार
कोरोना वायरस से
बचने के नाम पर जो लाकडाउन किया गया वह भी चरणों में किया गया। असल में भाषा में
भी साम्प्रदायिक सोच रखने वाले उसे भी विकृत करते रहते हैं। चरण का यह स्तेमाल
उन्होंने कदम की जगह पर किया है, जैसे डीजल चलित वाहन डीसीएम टोयटा को अडवाणी जी
रथ कहते थे। या स्कूल को मन्दिर कहा जाता है – सरस्वती शिशु मन्दिर। इसी तरह कदम
का अनुवाद उन्होंने चरण कर दिया। कदम एक गतिवान घटना है। कदम रखे जाते हैं, उठाये
जाते हैं, बढाये जाते हैं किंतु चरण तो सोशल डिस्टेंसिंग के लिए बनाये गये गोल
घेरों में स्थिर रहने वाले स्मारकों की तरह होते हैं। गति के लिए जब भी प्रयोग में
लाया जायेगा तो अधिक से अधिक पग शब्द का स्तेमाल किया जा सकता है। जब इसका स्तेमाल
अस्त्र की जगह होता है तब लात का प्रयोग होता है। जैसे ब्राम्हण देवता भृगु ने
हर्रि [विष्णु] को लात ही मारी थी, व जिसे खा कर भी उनकी कोई हानि नहीं हुयी थी।
का रहीम हरि को घट्यो, जो
भृगु मारी लात
कहा जाता है कि रावण
ने भी अपने भाई विभीषण को लात मार कर ही अपमानित किया था। यह लात कहाँ पर मारी गयी
थी इसका विशेष उल्लेख उन पुराणों में नहीं मिलता जिन्हें मैंने पढे हैं। आज भी एक
दल से अपमानित किये गये नेताओं को दूसरे दल का नेता विभीषण महाराज कहता है तो ना
तो वह और ना उसके भक्त कोई अपमान महसूस करते हैं।
बहरहाल क्रमशः लाक
डाउन का चौथा चरण भी आ गया। इस चरण को रखते हुए प्रधानमंत्री ने बीस लाख करोड़ का
उल्लेख इतनी बार किया कि बिहार के चुनाव की वह नीलामी याद आ गयी जिसमें वे कह रहे
थे पचास हजार करोड़ दे दूं, साठ हजार करोड़ दे दूं, .....। पता चला कि यह बीस लाख
करोड़ भी वाग्जाल ही था। बालकनी वाले लोगों
ने ताली थाली बजा ली, बिजली बन्द कर मोमबत्ती व दिये जला लिये, सेना को लगा कर फूल
बरसवा लिए पर कोरोना की बीमारी और नीरसता
बढती ही गयी। भाइयो बहिनों से लेकर प्यारे देशवासी तक सब कैद होकर रह गये। इन कैदों
की भी अपनी अपनी किस्में थीं। कुछ स्टे एट होम थे तो कुछ क्वारंटाइन में, कुछ
आइसोलेशन में थे। दुष्यंत के शब्दों में – आदमी या तो जमानत पर रिहा है या फरार।
मजदूर बेरोजगार हो
गया, ठेले रिक्शे वालॉ का काम धन्धा बन्द हो गया, दुकानों पर ताले लग गये, पहिए थम
गये निर्माण रुक गया। पर जिस मजदूर की दम पर दुनिया चलती है, उसे खाली बैठना मंजूर
नहीं। वह तुम्हारे जहाजों, रेलों, बसों, गाड़ियों का मोहताज नहीं था। अपनी पोटली
उठाये, पैदल या साइकिल पर ही निकल पड़ा। पूरा देश उनका ही है, तुम्हारा तो बैडरूम
भर है जिसे आजकल लिविंग रूम कहा जाने लगा है। राहत इन्दौरी के शब्दों को थोड़ा बदल
कर कहें तो –
तुम्हारी बन्द गाड़ियां, खाक
हमें रोकेंगीं
हम परों से नहीं हौसलों से
उड़ते हैं
पुलिस, लाठियां, आँसू गैस,
बैरियर सबको पर करते हुए वे निकल कर चल दिये। उनके गृह राज्यों की सरकारों ने
प्रतिबन्ध लगा कर संवेदनहीनता का परिचय दिया पर रोक नहीं सके।
बालकनी वाला भरा पेट
मध्यम वर्ग जरूर कुकिंग लूडो, कैरम, फिल्मों, टीवी, रामायण और महाभारत में खोया
रहा किंतु पूरे देश के मेहनतकश वर्ग ने बिना किसी के सिखाये , बिना किसी नेतृत्व
के जो एक ही दिशा में फैसला किया वह सबूत है कि मजदूर वर्ग में स्वतःस्फूर्त चेतना
कैसे पैदा होती है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें