व्यंग्य
सड़क पर देश
दर्शक
जब किसी का तख्त गिरा दिया जाता है और ताज उछाले जाने लगते हैं तो मुहावरे में
कहा जाता है कि वे सड़क पर आ गये हैं। व्ही आई पी हो जाने का मतलब ही यह होता है कि
अब उसके पैर जमीन पर नहीं पड़ते। वे वायुमार्गी हो जाते हैं या हवाई बातें करते
करते हवा से बातें करने वाले वाहनों पर सवारी करते हैं। ऐसी तैसी किसी की जो उनके
पद चिन्हों पर चल सके। पद चिन्ह तो तब बनेंगे जब वे कच्ची भूमि पर पैर रखेंगे। हवा
में कोई चिन्ह नहीं बनता।
तुलसीदास कृत राम चरित मानस में कहा गया है कि बनवास को जाते समय रामचन्द्र जी
से भरत ने उनकी खड़ाऊं यह कह कर उतरवा ली थीं कि इन्हें राज सिंहासन पर रख कर शासन
करूंगा। खुड़पेंची रामभरोसे यह प्रसंग आने पर तरह तरह के सवाल कर के मुझे परेशान
करता रहता है। कहता है कि भरत भाई जब अपने बड़े भाई का इतना सम्मान करते थे कि भरत मिलाप
के अवसर पर आँसू बहाते चित्रों को अपने जन सम्पर्क विभाग से इतना प्रचारित कराया
कि अगर आज के दिनों में यह काम होता तो विभाग को न जाने कितने करोड़ के विज्ञापन
देने पड़ते। कहता है कि भाई के प्रेम प्रदर्शन में वे यह भी भूल गये कि बड़े भाई
चौदह साल के लिए बनवास के कंटकाकीर्ण मार्ग पर जा रहे थे तो राज सिंहासन पर रखने
के लिए वे पहनी हुयीं खड़ाऊं ही क्यों जरूरी थीं। राजपुत्र के पास कोई एक जोड़ खड़ाऊं
तो होंगी नहीं। न सही जयललिता के बाराबर जूते की जोड़ियां पर दो चार तो पुरानी
कबाड़खाने में पड़ी ही होंगीं। उन्हीं में से किसी एक को धो पौंछ कर रख लेते। या कोई
राजसी वस्त्र ही सिंहासन पर बिछा देते तो अच्छा भी लगता। कम से कम वन में भाई के
चरण कमल तो सुरक्षित रहते।
रघुवीर के खड़ाऊं विहीन हो जाने पर सीताजी और लक्षमण जी ने भी खड़ाऊं उतार दी
होंगीं। पता नहीं चलता कि उनकी खड़ाऊं कहाँ स्थापित हुयी होंगीं। बहरहाल मानस में
यह तो पता चलता है कि तीनों लोग ही खड़ाऊं विहीन हो गये थे। तुलसी बाबा लिखते हैं
कि –
सिया राम पद पंक
बनाये / लखन चलत इत दाएं बाएं
अर्थात रामचन्द्र जी
और सीता जी के चरणों से कमल जैसे चिन्ह बन रहे तो पीछे पीछे चलने वाले लक्षमण उन पवित्र
चिन्हों पर अपना पैर रखने से बचने के लिए उनके दाएं बाएं कदम रखते हैं।
वृद्धावस्था में विचार भटक जाते हैं, सो मैं भी भटक गया था सो फिर मार्ग
अर्थात सड़क पर आते हैं। मुद्दा यह है कि जो लोग पहले ही से सड़क पर हैं, फुटपाथ पर
हैं वे चौपट राजा के फैसले के बाद और कहाँ जाते सो उसी सड़क पर चल पड़े। चौपट राजा
को बात हजम नहीं हुयी सो उसने लाठी चार्ज करा दिया, आँसू गैस के गोले छुड़वा दिये,
पर उनकी आंखें तो आंसुओं की इतनी अभ्यस्त हो चुकी थीं कि उसका असर नहीं हुआ। कारों
ट्रकों ने उन्हें कुचला, माल से भरी माल गाड़ियां उनके ऊपर से गुजर गयीं, किंतु वे
भूखे प्यासे चलते रहे। बिना किसी बैठक, बिना किसी समन्वय के सबके दिल से एक ही
आवाज उठी ‘ आ अब लौट चलें’ वे बच्चों की तरह गठरी और गठरी की तरह बच्चों को उठाये
चलते जा रहे थे और बिना राजा की अनुमति उनके चलने को राजा ने अपना अपमान समझा। सो
राज्य सरकारों से कह दिया कि उन्हें घुसने न दें। जहाँ काम करते थे वहाँ के
मालिकों ने उनकी मजदूरी नहीं दी, बोनस मार लिया, मालिकों ने झुग्गी खाली करा ली,
सड़्कों पर चलने नहीं दिया और उनके अपने राज्यों में अपने गाँवों में घुसने नहीं
दिया। वे राम लक्षमण सीता की तरह नंगे पैर चलते रहे, विंबाई फटे, लहूलुहान पैरों
से चोर रास्तों से राज्य की सीमा पार करते रहे। महिलाएं चलते चलते बिना सीजेरियन
आपरेशन के बच्चे जनती रहीं और बच्चे जनने के बाद फिर चलती रहीं। लड़कियां हजारों
किलोमीटर साइकिल चला कर अपने बूढे बीमार पिता को ढो कर घर लाती रहीं। चौपट राजा को
मुँह चिड़ाती रहीं।
जब पानी सर से गुजरता दिखा तो ट्रेनें चलाने का नाटक किया, उनमें दस प्रतिशत
को भी जगह नहीं मिली। मारा कूटी, धक्कम पेल मची रही, जो ट्रेन चली उन्हें कहीं से
कहीं ले जाया जाता रहा। उनमें लोग भूखे प्यासे भटकते रहे, मरते रहे। लाल बुझक्कड़
हर जगह अपनी नोटबन्दी जैसे फैसले थोपता रहा।
देश को देश बनाने वाले जब सड़क पर पटके जा चुके हैं तो देश को सड़क पर आने में
कितनी देर लगेगी। फकीर तो झोला उठा कर चल देगा वहाँ जहाँ उसने मेहुल भाइयों को
पहले से भेज रखा है। भक्तो ताली थाली बजा कर, दिये मोमबत्ती जला कर फूल बरसाने के
लिए तैयार रहो।
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