व्यंग्य
ऊंच नीच की भाषा
दर्शक
भाषा बड़ी समस्या है। मणिशंकर जी को ये बात
बहुत बाद में समझ में आयी। राहुल गाँधी को शायद पहले समझ में आ गयी होगी कि हिन्दी
वालों में गलतफहमी पैदा हो सकती है इसलिए उन्होंने गुजराती में ‘विकास गांडो थै
गयो छे’ की जगह विकास पागल हो गया है कहा।
हिन्दी वालों को खुश होना चाहिए कि उनकी भाषा के
बिना अब बात नहीं बनती। तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी को जब एक पत्रकार ने
उनकी वरिष्ठता के बाद भी प्रधानमंत्री न बन पाने को कुरेदा तो उन्होंने बड़ी
शालीनता से उत्तर दिया था कि मुझे हिन्दी नहीं आती थी इसलिए मैं उस पद के उपयुक्त
नहीं था। उनके इस कथन से यह भी स्पष्ट हो गया था कि हिन्दी न आने पर राष्ट्रपति तो
बना जा सकता है, पर प्रधानमंत्री नहीं बना जा सकता क्योंकि राष्ट्रपति को साल में
दो एक बार लिखा हुआ भाषण बांचना पड़ता है। हिम्मत की दाद तो सोनिया गाँधी की देना
चाहिए जिन्होंने हिन्दी न आते हुए भी प्रधानमंत्री बनने की कोशिश की थी और एक बार
तो चुन ही ली गयी थीं। वो तो सिर घुटा लेने की धमकी के आगे उन्होंने हार मान ली थी
और अपनी टोपी मनमोहन सिंह की पगड़ी को पहिना दी थी। मनमोहन सिंह ने दस साल बाद ज्यों
की त्यों धर दीन चदरिया की तरह ज्यों की त्यों धर दीन टुकरिया की तरह उतार कर धर
दी थी। अपनी टोपी दूसरे को पहिनाने की परम्परा पहले से ही थी और जब देश ने ताऊ
देवीलाल को प्रधानमंत्री चुन लिया था तब उन्होंने अपनी टोपी व्ही पी सिंह को पहिना
दी थी।
पहले तो नहीं लगा था पर अब लगने लगा है कि
माननीय मोदीजी ने ताऊ देवी लाल के प्रधानमंत्री न बन पाने की कमी को पूरा कर दिया
है। वे शब्दों को विस्तार देकर उनके मनमाने अर्थ निकाल कर शोर मचाने लगते हैं।
उन्होंने हिन्दी अज्ञानी के नीच शब्द को नीची जाति बना लिया और कहने लगे कि देखो
मुझे नीची जाति का कह रहे हैं। इतना ही नहीं उन्होंने न जाने किस फार्मूले से इसे
मुगल मानसिकता बता दिया। इस मामले में तो वे असम के स्वास्थ मंत्री हेमंत विस्व
शर्मा से भी आगे निकल गये जिन्होंने कैंसर को पिछले जन्मों का पाप बता दिया है। हो
सकता है कि मोदीजी भी ऐसे अर्थ हिन्दी की अज्ञानता में लगा रहे हों क्योंकि
उन्होंने भी तो हिन्दी चाय बेचते बेचते सीखी थी और इस रहस्य को खुद ही प्रकट किया
था। बहरहाल उन्होंने इस बार गुजरात के चुनावों में हिन्दी बोलने की गलती नहीं की
अपितु अपने सारे भाषण गुजराती में दिये और गुजरात की जनता को यह बताने की कोशिश की
कि देखो राहुल गाँधी बाहरी आदमी है और हूं थारो गुजराती भाई छूं। प्रधानमंत्री पद
पर बिराजे किसी अन्य व्यक्ति ने इस तरह की क्षेत्रीयता को कभी नहीं उकसाया।
जब किसी ने कहा होगा कि काँग्रेस के स्टार
प्रचारक भले ही गैरगुजराती हैं किंतु जिनके लिए वोट मांग रहे हैं वे तो गुजराती
हैं, सो उन्होंने कहानी गढ ली कि वे अहमद पटेल को मुख्यमंत्री बना रहे हैं।
उन्होंने सोचा कि साम्प्रदायिकता के जो बीज उन्होंने बोये हैं उससे लोग उनके पक्ष
में आ जायेंगे, पर शत्रु कहाँ नहीं होते जो विभिन्न रूप में घूमते रहते हैं और कुछ
तो शत्रुघ्न सिन्हा के रूप में ही घूमते हैं। उन लोगों ने कहा कि क्या अहमद पटेल,
विदेशी हैं? पागल हैं? अंडर एज हैं? और जब विधायकी की सारी पात्रताएं रखते हैं तो
चुने जाने पर मुख्यमंत्री क्यों नहीं बन सकते? अब उनके कल्पनाशील मष्तिष्क ने
राष्ट्रीय भावना को भड़काने के लिए बे सिर पैर की अगली कहानी गढी कि गुजरात का
मुख्यमंत्री बनाने के लिए काँग्रेसी नेताओं ने पाकिस्तानी दूतावास के अधिकारियों
से बातचीत की।
राम भरोसे बोला कि उसकी समझ में नहीं आ
रहा कि जब अमित शाह ताल ठोक ठोक कर कह रहे थे कि उनके एक सौ पचास विधायक जीत रहे
हैं तो अहमद पटेल बिना दल बदले मुख्यमंत्री कैसे बन जायेंगे?
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