मंगलवार, 2 जनवरी 2018

व्यंग्य विकासखाना में एडवांस दिवाली


व्यंग्य
विकासखाना में एडवांस दिवाली
दर्शक
क्या फेसबुक, क्या व्हाट’स एप्प सब के सब हैप्पी दीवाली की फुलझड़ियों, खील बताशों और लक्ष्मीजी के सूंड़ उठाये हाथियों से भर गया था। यह देख कर रामभरोसे खीझ गया। उसने गुस्से में लिखा कि अभी दीवाली को एक साल से ज्यादा पड़ा है और आप लोग हैप्पी दीवाली, हैप्पी दीवाली चिचियाए जा रहे हैं। बन्द करो।
उसके ऐसा लिखने के बाद एक साथ पचासों उत्तर आये- दीवाली तो आज ही है।
रामभरोसे ने गुस्से से उत्तर दिया – विकास हो गये हो क्या! आप लोगों को देश के प्रधानसेवक पर बिल्कुल भरोसा नहीं है जिन्होंने खाकड़ा आदि पर जीएसटी कम करते हुए घोषणा की थी कि देश में पन्द्रह दिन पहले ही दिवाली आ गयी है। पूरा देश खुशी से झूमने लगा है। अब जब दिवाली बीत ही चुकी है तो अब काहे की हैप्पी दिवाली, हैप्पी दिवाली। जो हो ली, सो हो ली। अगली दीवाली तो गुजरात के चुनाव हो जाने के बाद ही आयेगी।
राम भरोसे का दिमाग बहुत तेज चलता है, कई बार तो वह उससे भी आगे निकल जाता है जिसका पीछा करते हुए वह तेज चल रहा होता है। पिछले दिनों विश्व पर्यटन स्थल से बाहर कर दिये गये ताजमहल को देखने आगरा गया था, और वहाँ के प्रसिद्ध पागलखाने को देख कर सलाह दे आया कि इसका नाम विकासखाना रख देना चाहिए, क्योंकि विकास पागल हो गया है।
इसी विकासपंती में मध्य प्रदेश के एक आईपीएस के ज्ञान चक्षु अचानक ऐसे खुल गये, जैसे कलियां चिटक कर फूल बनती हैं। वे शायद किसी विक्रमादित्य की न्यायशिला पर विराजमान हो गये हों जैसे। बोले कि पीएससी की परीक्षा में जो मेरी रैंक से बहुत पीछे था वह आरक्षित वर्ग का होने के कारण आईएएस बन गया और मैं आईपीएस रह गया। उन्हें कर्ण और शम्बूक की कथाएं याद नहीं आयीं जिनके साथ जाति के कारण ही अन्याय हुआ था। सामाजिक न्याय को यही तो शिकायत है कि न्याय की मांग वह बहुत चयनित होती है। पौराणिक इतिहास को तो छोड़िए उन्हें अभी हाल ही में लिब्राहन आयोग की जाँच की तरह खिंच रही व्यापम की याद भी नहीं आयी जिनमें योग्यता के ऊपर पैसा, सम्पर्क और पद ने हजारों प्रतिभाओं की ऐसी की तैसी कर दी थी और न्याय भी नहीं मिला। न्याय न मिलने देने के लिए दर्जनों की जान जरूर चली गयी। पता नहीं तब आईपीएस साहब ने मुँह क्यों नहीं खोला था।
पिछले दिनों दलितों, पिछड़ों की चेतना में जो उभार आया है वह फोड़ा फुंसी नहीं है कि बुजर्गों के आशीर्वाद से फल फूल गये हों। उन्हें समान मानव होने और संविधान में निहित समान अधिकारों का भान हो गया है। उन्हें यह भी समझ में आ गया है कि अधिकार भीख में नहीं मिलते अपितु लड़ कर छीने जाते हैं। इसी भान ने सत्ता की मलाई सड़ोकने वालों को बेचैन कर रखा है कि अब कम्बल साड़ी और दारू की बोतल पर वोट नहीं मिलने वाला सो कम होते रोजगारों के अवसर से जनित गुस्से को आरक्षण की ओर मोड़ दो। कच्ची, जली, सूखी, चुपड़ी का सवाल तो बाद में आयेगा पहले रोटियां तो हों।
एक विकास हरियाणा की जेल में जमानत के लिए छटपटाते हुए पड़ा है तो दूसरा विकास गुजरात में सोलह हजार गुना एक साल में हो जा रहा है क्योंकि वह न खाऊंगा न खाने दूंगा की घोषणा वाली पार्टी के अध्यक्ष का बेटा है। उसे अम्बानी की कम्पनी बिना किसी जमानत के करोड़ों का ऋण दे देती है और उसे अपनी खाता बही में भी नहीं दिखाती।
दिन भर रोजी रोटी की मारामारी में जूझ रहे  मोदी मोदी जपते आम भक्त आदमी को तो पता ही नहीं चलता कि नेपथ्य के पीछे क्या खेल चल रहा है। राहत इन्दौरी ने कहा है-
बन के इक हादसा बाज़ार में आ जायेगा /  जो नहीं होगा वो अखबार में आ जायेगा

चोर उचक्कों की करो कद्र कि मालूम नहीं /  कौन कब कौनसी सरकार में आ जायेगा  

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