मंगलवार, 3 मई 2016

व्यंग्य कर्ज उतारने वाले और न उतारने वाले

व्यंग्य
कर्ज उतारने वाले और न उतारने वाले
दर्शक
जबलपुर के एक अच्छे गज़लगो हुआ करते थे जिनका नाम भवानी शंकर था। उनकी गज़ल की किताब पर दुष्यंत कुमार ने टिप्पणी लिखी थी। वे म.प्र. सरकार में वरिष्ठ इंजीनियर थे, बताया गया है कि एक दिन वे अचानक अंतर्ध्यान हो गये और फिर नहीं लौटे। बिल्कुल वैसे ही जैसे कि मेरे एक और नाटक कार मित्र विनायक कराड़े जो रिजर्व बैंक नागपुर में थे वे भी अचानक गायब हो गये थे और नहीं लौटे। वे मुक्तिबोध द्वारा प्रारम्भ किये गये अखबार ‘नया खून’ से जुड़े रहे थे। यह प्रसंग इसलिए याद आ गया कि अचानक मुझे भवानी शंकर का एक शे’र याद आया-
उम्र भर लोग चाय पी पी कर
दूध वाले का बिल चुकाते हैं
अब आप पूछेंगे कि यह शे’र क्यों याद आया। आपका सवाल वाजिब है क्योंकि हिन्दी फिल्म का एक बहुत वैज्ञानिक दृष्टिकोण वाला गाना है- दिल से दिल मिलने का कोई कारण होगा, बिना कारण कोई बात नहीं बनती-  सो यह शे’र मुझे मोदीजी के असम में दिये गये उस भाषण को सुन कर याद आया कि मैंने अपना जीवन असम की चाय बेच कर शुरू किया था और अब उसका कर्ज उतारने का समय आ गया है। यह समय भी शायद किरण रिजजू ने नास्त्रेदम की भविष्यवाणी पढ कर बताया होगा कि देश का नेता कर्ज कब उतारेगा।
मोदीजी उसी पार्टी के नेता हैं जिस पार्टी ने भारतमाता के दूध का कर्ज उतारने का आवाहन करते हुए हजारों दलित और पिछड़े लोगों को साम्प्रदायिकता की आग में झौंक दिया पर उसके सवर्ण नेतृत्व ने कभी कर्ज उतारने के लिए कुछ भी नहीं किया। किसी भी सवर्ण भाजपा नेता का कोई सम्बन्धी उस आग में नहीं झुलसा जिसे वे अपने वोटों की राजनीति के लिए लगाते रहते हैं। संघ की कथित देशभक्ति से प्रेरित होकर एक प्रतिशत सवर्ण युवकों के सेना में भर्ती होने के आंकड़े नहीं मिलते। सेना में बलिदान देने वाले अधिकतर गरीब दलित और पिछड़ी जातियों के युवा होते हैं। इन्हीं युवाओं के बलिदान को भुना कर इनके सपूत सत्ता के ऎशगाहों में सुख भोगते रहते हैं।
मैंने कुछ साल बैंक में भी नौकरी की है और जानता हूं कि जान बूझ कर कर्ज न चुकाने वाला कर्जदार किश्त देने की जगह नया ऋण प्रस्ताव ले कर आता है और कहता है कि संसाधनों की कमी के कारण मेरा पिछला व्यवसाय सफल नहीं हो सका इसलिए अगर पिछला ऋण वसूल करना हो तो उतना ही ऋण और देना पड़ेगा। मोदी जी को भी चाय का ऋण चुकाने की याद तब आयी जब असम में चुनाव के लिए समर्थन का नया ऋण चाहिए था। यह किसी साहूकार के कर्जदार का विनम्र आग्रह नहीं था अपितु देश के बैंकों का कर्ज हड़पने वाले माल्याओं की धमकी की तरह था कि अगर पिछला कर्ज वसूलना हो तो नया कर्ज दो बरना ठेंगा ले लो। पुराने लोकगीत में नायिका कहती थी कि मैं मैके चली जाऊंगी तुम देखते रहियो। अब बैंकों का मोटा कर्जदार कहता है कि मैं लन्दन चला जाऊंगा, तुम देखते रहियो-  और इतराता हुआ लिन्दन चला जाता है। राजीव गाँधी तो दशकों पहले सरकार की सीमा तय कर गये थे कि हम देख रहे हैं, हमने देखा, हम देखेंगे, [क्योंकि इससे अधिक हम कर भी क्या सकते हैं] । पिछली सरकार ने ललित मोदी को भगाया था इस सरकार ने माल्या को भगा दिया, और हम देख रहे हैं।
नाज है उनको बहुत सब्र मुहब्बत में किया
पूछिए सब्र न करते तो और क्या करते

 वोट लेने के बाद वादों पर कह दिया जाता है कि वह तो ज़ुमला था। अब चाय का ऋण उतारना क्या जुमला नहीं हो सकता? असम की जनता कह सकती है कि – यही तुम्हार बहुत सेवकाई, भूषन, वसन न लेव चुराई।         

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