मंगलवार, 3 मई 2016

व्यंग्य बज़ट में शायरी का योगदान

व्यंग्य
बज़ट में शायरी का योगदान
दर्शक
       मैं बहुत गम्भीरता से सोच रहा हूं कि अगर दुनिया मैं शायरी नहीं होती तो बज़ट का क्या होता। इतिहास बताता है कि बजट चाहे रेल का हो नून तेल का हो, उसमें शायरी का प्रयोग अनिवार्य है। देश के राष्ट्रपति पद को सुशोभित कर रहे श्री प्रणव मुखर्जी ने बहुत पहले उनके प्रधानमंत्री बनने की सम्भावनाओं के बारे में पूछने पर कहा था कि हिन्दी न आने के कारण वे प्रधानमंत्री नहीं बन सकते हैं। राष्ट्रपति बनने के लिए शायद ऐसी कोई आवश्यकता नहीं है। जब वे वित्त मंत्री रहे थे तब वे भी रवीन्द्रनाथ टैगोर की कविताओं का उपयोग अपने बज़ट भाषण में किया करते थे।  और तो और मनमोहन सिंह जी तक अपने बज़ट भाषण के पिंजरे में एकाध शे’र के लिए स्थान रखते थे।
पूरा हिन्दुस्तान भले ही भगवान भरोसे न चल रहा हो, पर रेल तो घोषित रूप से ‘प्रभु’ के भरोसे चल रही है। इन प्रभु ने भी इस बार रेल बजट में कविताओं को समुचित स्थान दिया और बकायदा अनुमति लेकर उनका उपयोग किया। हरिवंश राय बच्चन की कविता के लिए विज्ञापन शिरोमणि अमिताभ बच्चन से अनुमति ली जिसका उन्होंने उचित समय पर धन्यवाद भी दिया। अब पता नहीं कि विपक्षी दलों ने इसे बजट की गोपनीयता का उल्लंघन माना है या नहीं माना।
मेरा विचार है कि बजट वाले प्रत्येक विभाग में हिन्दी के ऐसे अधिकारियों को नियुक्त किया जाना चाहिए जो बजट भाषण में कविता के फूल पिरोने में कुशल हों। इससे नीरस बजट में कविता का रस आ जाने से वह ग्रहणीय हो सकता है। सादा खाने में जिस तरह चटनी का प्रयोग होता है उसी तरह नीरस बजट में शेरो-शायरी का प्रयोग होता है।
शब्दों का इतिहास रखने वाले लोग बताते हैं कि बजट शब्द चमड़े के थैले के लिए प्रयोग में आने वाले किसी भाषा के किसी शब्द से सशोधित होकर बना है। ये इतिहासकार इस बात को छुपा जाते हैं कि ये चमड़ा जनता की खाल उधेड़ कर तैयार जाता होगा।
कविता हमारी कला संस्कृति को प्रकट करती है। आर एस एस भी अपने आप को एक सांस्कृतिक संगठन बताती है पर वह दण्डों के अक्षरों से जिस तरह की रचनाएं देती है उन्हें देख कर लोगों को संस्कृति शब्द से ही चिढ होने लगती है। गनीमत है कि अभी तक उनके जगत में अटल बिहारी को छोड़ कर ऐसा कोई कवि नहीं हुआ है जिसकी कविताएं बजट भाषण में स्तेमाल की जा सकें। शायद यही कारण रहा होगा कि मोदी युग आने पर उनके चित्रों और जिक्रों को हटा दिया गया है। मेरे अँगने में तुम्हारा क्या काम है। जहाँ नफरत की आँधियां चलती हों, वहाँ कविता की बयार कैसे बह सकती है।
       वैसे भी बज़ट में कविताएं पिरोना कोई सरल काम नहीं है, झूठ के पुलन्दे में कविताओं के फुन्दने बाँधना मुश्किल काम है। जब रुपये की कीमत सरकार की लोकप्रियता की तरह दिन प्रति दिन गिर रही हो, सैंसेक्स किसी शराबी की तरह खड़े होने की कोशिश में बार बार भू लुंठित हो जाता हो, जब बाइस महीनों में सैंतीस देशों की यात्राएं करने वाले नसीबवाले प्रधानम्ंत्री के प्रभाव से विदेशी इनवेस्टमेंट पचहत्तर प्रतिशत गिर गया हो तब दो सौ रुपये किलो की दाल खाकर कविताओं के फूल कहाँ सजाये जा सकते हैं।

 हाँ कुछ फूल चढाये जरूर जा सकते हैं जैसे कि शवों पर चढाये जाते हैं।      

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