बुधवार, 1 अप्रैल 2015

व्यंग्य कविताओं की बेतरतीब कौंध








व्यंग्य
कविताओं की बेतरतीब कौंध
दर्शक
आदमी जब पगला जाता है तो कहते हैं कि उसका दिमाग तब भी काम करता रहता है, बस उसके विचारों का क्रम टूट जाता है। वह थैले में टमाटरों और अंडों के ऊपर आलू प्याज रखने लगता है। यह क्रम खास और आम आदमी दोनों के साथ होता है इसलिए दर्शक के दिमाग में अगर बेतरतीब ढंग से कविताएं कौंध रही हों तो उसके आम या खास होने में कोई फर्क नहीं पड़्ता। अब कोई इसे आम आदमी पार्टी से जोड़ कर देखे तो उसके क्रम भंग होने के प्रति सहानिभूति ही व्यक्त की जा सकती है और वह दर्शक के प्रति सहानिभूति व्यक्त कर सकता है। सुप्रसिद्ध दार्शनिक हरी राम चौहान के शब्दों में कहा जाये तो पागल की ज़िन्दगी भी क्या ज़िन्दगी है, उसे सारी दुनिया पागल समझती है और वह सारी दुनिया को पागल समझता है।
अब ये सुप्रसिद्ध दार्शनिक हरी राम चौहान कौन थे यह इस समय याद नहीं आ रहा। पर कविताएं याद आ रही हैं।   
सबसे पहले अपने समय के प्रगतिशील कवि मैथली शरण गुप्त की पंक्तियों की याद आयी तो सुनायी दिया-
कोई पास न रहने पर भी जन मन मौन नहीं रहता
आप आप की सुनता है वह आप आप से है कहता
मुकुट बिहारी सरोज की पंक्तियां याद आयीं कि-
जिनके पाँव पराये हैं, जो मन से पास नहीं
घटना बन सकते हैं वे लेकिन इतिहास नहीं
अचानक दुष्यंत कुमार याद आ गये-
अब रिन्द बच रहे हैं, जरा तेज रक्श हो
महफिल से उठ लिये हैं नमाज़ी तो लीजिए
फिरता है कैसे कैसे खयालों के साथ वो
इस आदमी की ज़ामा तलाशी तो लीजिए
बलवीर सिंह रंग याद आये तो सुनायी दिया
आग पानी हुई, हुई न हुई
मेहरबानी हुई, हुई न हुई
कौन जाने फिजाये ज़न्नत में
ज़िन्दगानी हुई, हुई न हुई
सरफिरे दिल के बादशाहों की
राजधानी हुई, हुई न हुई  
********
प्रस्थान हो रहा है, पथ का पता नहीं है
नीरज जी कहने लगे
जिसमें जितनी आग भरी है
उसमें उतना पानी है
जिसमें जितना पागलपन है
वह उतना ही ज्ञानी है
एक पकिस्तानी शायर का शेर याद आया पर उसका नाम याद नहीं आया-
शहर के दुराहे पर एक शख्स देखा था
जाने क्या हवाओं पर उंगलियों से लिखता था
रात बन्द कमरे में उसने खुदकुशी कर ली
सारे शहर में जिसके कहकहों का चर्चा था
अब आप समझ लीजिए कि आम आदमी के दिमाग में जब आम आदमी पार्टी का सम्मेलन चलने लगता है तो उसके दिमाग का क्या हाल हो जाता है।



कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें