सोमवार, 5 दिसंबर 2016

व्यंग्य सेना और देश

व्यंग्य
सेना और देश
दर्शक
जिस तरह किसी देश को देश बनाने में एक सीमा की जरूरत होती है उसी तरह से उन सीमाओं को बनाये रखने के लिए एक सेना की जरूरत होती है।
सेना को बनाये रखने के लिए भी किसी चीज की जरूरत होती है जिसे सरकार कहते हैं। लोकतंत्र में सरकार को चेतना सम्पन्न जनता चुनती है पर अगर जनता की चेतना के पहले ही लोकतंत्र आ जाता है तो जनता को सरकार चुननी पड़ती है। जैसे कोई बीमार बच्चा दवाई नहीं खाता तो घर के सारे लोग उसके हाथ पाँव पकड़ कर उसका मुँह खोल कर जबरदस्ती दवा डाल देते हैं। इस क्रम में बच्चे का मुँह खोलते समय दवा पिलाने वाले का भी मुँह भी वैसा ही खुल जाता है और वह तब ही बन्द होता है जब बच्चा दवा पी लेता है। अब ठीक है। वोट लेने के बाद नेता भी ऐसे ही वोटर की पीठ थपथपा देता है, अब जाओ, हो गया।
लोकतंत्र के ये बीमार बच्चे पहले बहुत ठन-गन करते हैं इसलिए नकारा खाँटी नेताओं को इनके हाथ पाँव पकड़ने के लिए अपनी अपनी सेनाएं रखनी पड़ती हैं। बहुदलीय लोकतंत्र में दल से ज्यादा दलदल होता है इसलिए सेनाएं भी बहुत सारी होती हैं। भाजपा जैसे कुछ दल तो सेवकों जैसा मुखौटा लगा कर बन्दूक तलवार लाठी वाली सेना रखते हैं तो उनके नीचे कुछ श्री राम सेना, बजरंग दल आदि जैसी सेनाएं पलती रहती हैं। कुछ दलों ने तो अपने नाम में ही सेना जोड़ लिया है जैसे ‘शिव सेना’, ‘महाराष्ट्र नव निर्माण सेना’ दलित सेना, ब्राम्हण सेना रणवीर सेना, परशुराम सेना वगैरह, वगैरह। देश में इतनी सेनाएं हो गई हैं कि लोग उन सेनाओं से चिढने लगे हैं जो किसी की राजनीति चलाने के लिए स्थापित हो गई हैं।
सेनाओं का काम लड़ना होता है वे शांति बनाये रखने के नाम पर भी लड़ती हैं और अपना नाम पीस कीपिंग फोर्स रख लेती हैं। सैनिक बन्दूक की नली गले पर रख कर कहता है – साले शांति बनाये रखना नहीं तो गोली ऊपर से नीचे उतार दूंगा। अपनी अपनी संस्कृति के अनुसार कई बार सैनिक गोली नीचे कहाँ से निकलेगी यह भी बता देता है, ताकि कोई यह न कह सके कि पहले बताया नहीं।
देश की सेनाओं का महत्व कम करने में उन राजनीतिक दलों की सेनाओं का बड़ा हाथ है जो दलाली करते हुए भी सैनिक बने घूमते हैं। सेना तो दुश्मन से लोहा लेती है पर महाराष्ट्र की एक सेना तो देश की व्यापारिक राजधानी मुम्बई के व्यापारियों और फिल्म निर्माताओं से सोना लेती है। हम कह सकते हैं कि लोहा लेने वाली सेना और सोना लेने वाली सेना। जैसे अहिंसा धर्म की रक्षा करने वाले भी कई राजनीतिक सेनाओं को पालते पोसते रहते हैं उसी तरह निर्माण ही नहीं नव निर्माण करने वाली सेना भी महाराष्ट्र में है। ये उन अस्सी प्रतिशत गौ सेवकों की तरह हैं जिन्हें देश के प्रधानमंत्री ने गुंडे बतलाया है और यह जानते हुए भी कोई कार्यवाही करने की बात नहीं की। ये सैनिकों के नाम पर फिल्म निर्माताओं को दबाने का काम करते हैं। इन्हें कभी किसी फिल्म में कला नहीं दिखती केवल धार्मिक भावनाओं की ठेस दिखती है या पाकिस्तान दिखता है क्योंकि इसी सहारे इनका धन्धा चलता है। शत्रु देश पाकिस्तान के कलाकारों को साथ लेकर बनने वाली फिल्म का विरोध करके महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री की मध्यस्थता के साथ सौदा कर लिया जिसकी प्रकट शर्त यह थी कि वे सेना राहत कोष में पाँच करोड़ देकर फिल्म रिलीज कर सकते हैं पर अन्दर अन्दर क्या सौदा हुआ यह सामने नहीं आया। वह तो अच्छा रहा कि असली सेनाओं के अधिकारियों ने असली सैनिकों के कल्याण के लिए ऐसे किसी धन को लेने से साफ इंकार कर दिया।
इससे सेना और सेनाओं का फर्क स्पष्ट हुआ।


              

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