सोमवार, 5 दिसंबर 2016

व्यंग्य मुद्रा बहुठगनी हम जानी

व्यंग्य
मुद्रा बहुठगनी हम जानी
दर्शक
बहुत जल्दी एक संशोधन आ सकता है कि हिन्दी में जहाँ जहाँ माया लिखा हो वहाँ वहाँ मुद्रा समझा जाये। उदाहरार्थ – माया मिली न राम – को मुद्रा मिली न राम समझा जाये। चार पाँच घंटे बैक की लाइन में लगे रह कर खाली हाथ लौटने वाला ग्राहक जिसको अपनी मेहनत की कमाई भी निकालने का अधिकार नहीं है क्योंकि सरकार काले धन वालों से उचित कर नहीं वसूल कर पा रही। घरेलू महिलाओं का दोतरफा नुकसान हुआ है। एक तरफ तो उनका गुप्त धन निकल गया और दूसरी ओर जहाँ से यह पैदा होता है वे स्त्रोत सूख गये हैं।
विमुद्रीकरण हमारी भारतीय संस्कृति में देह और आत्मा की धारणा के अनुसार ही हुआ है। आत्मा अमर है, पर देह बदलती रहती है। मुद्रा का स्वरूप बदलता रहता है पर काला धन वही का वही रहता है। नीरज जी कहते हैं-
खोता कुछ भी नहीं यहाँ पर, केवल जिल्द बदलती पोथी
जैसे रात, उतार चाँदनी, पहने सुबह धूप की धोती
चाल बदल कर जाने वालो
वस्त्र बदल कर आने वालो
कुछ चेहरों के खो जाने से, दर्पन नहीं मरा करता है।
नई पंक्तियां होंगीं कि ‘नोट का रंग बदल जाने से काला धन नहीं मरा करता करता है।
 गुलाबी रंगत की साड़ी पहिन लेने से काले धन की आत्मा थोड़े ही बदल जायेगी। आत्मा तो अमर है, न वह मरती है न जलती है न कटती है केवल चोला बदलती है। थोड़े दिनों के लिए बाथरूम में चली जाती है और फिर कपड़े बदल कर इठलाती इतराती हुयी पूछती है कि कैसी लग रही हूं? यह सवाल सवाल की तरह नहीं होता क्योंकि इसका एक ही उत्तर सुना जा सकता है।
भागवत में कथा आती है कि अपने वस्त्र उतार कर नदी में स्नान करती गोपियों के वस्त्र लेकर कृष्ण कदम्ब के पेड़ पर बैठ जाते हैं। नहाने के बाद अपने वस्त्र न पाकर गोपियां बहुत परेशान होती हैं। नये कन्हैया भी मुद्रा रूपी वस्त्रों को ऐसे ही छुपा देते हैं और जनता रूपी गोपियों की परेशानियां देख कर प्रसन्न होते हैं। हमारे पाँच सौ के कहाँ गये, हमारे हजार के कहाँ गये! जनता गिड़गिड़ाती है कि भगवन हम नग्न हो गये हैं, हमारे कपड़े दे दो।
 नीरज जी ही लिखते हैं-
माखन चोरी कर तूने, कम तो कर दिया बोझ ग्वलिन का
लेकिन मेरे श्याम बता, अब रीती गागर का क्या होगा!
युग युग चली अमर की मथनी, तब झलकी घट में चिकनाई
पिरा पिरा कर साँस उठी जब, तब जाकर मटकी भर पाई
एक कंकरी तेरे कर की, किंतु न जाने आ किस दिशि से
पलक मारते लूट ले गई, जनम जनम की सकल कमाई
लेकिन, हे, न शिकायत तुझ से, केवल इतना ही बतला दे
मोती [यहाँ मुद्रा पढें] सब चुग गया हंस तो मानसरोवर का क्या होगा?
मुद्रा, योग और ध्यान की भी होती है। जैसे बगुला पानी में एक टांग पर भगत की मुद्रा में खड़ा रहता है और मछलियों का शिकार करता है। उसी तरह कई बगुला भगत स्थान स्थान पर तरह तरह की मुद्राएं बदलकर शिकार करने में लगे हुए हैं। हमारी भाषा और साहित्य इन मुद्राओं की चर्चाओं से भरा हुआ है। मुँह में राम बगल में छुरी भी ऐसी ही एक मुद्रा की अवस्था को दर्शाता है। ‘राम नाम जपना, पराया माल अपना’ भी जप की एक मुद्रा की ओर संकेत करता है।  मुकुट बिहारी सरोज अपने ‘असफल नाटकों के गीत’ में लिखते हैं-
नामकरण कुछ और गीत का, खेल रहे दूजा
प्रतिभा करती गई दिखाई, लक्ष्मी की पूजा
असफल, असम्बद्ध निर्देशन, दृश्य सभी फीके
स्वयं कथानक कहता है, अब क्या होगा जी के   
दुष्यंत कुमार जी भी लिख गये हैं-
ये रोशनी है वास्तव में एक छल लोगो
कि जैसे जल में झलकता हुआ महल लोगो
दरख्त है तो परिन्दे नजर नहीं आते
जो मुस्तेहक है वही हक से बेदखल लोगो

      जिन्हें चिंतित होना चाहिए वे निश्चिंत हैं और जिन्हें निश्चिंत होना चाहिए वे चिंतित व परेशान हैं। 

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