शनिवार, 5 सितंबर 2015

व्यंग्य आदेश का आकार



व्यंग्य
आदेश का आकार
दर्शक
पता नहीं क्यों बात बात में अतीत की ओर लौट कर पुराणों में वर्तमान समय की चुनौतियों का हल तलाशने वाले, गणेश की मूर्ति में मानव धड़ पर लगे हाथी के सिर को शल्य चिकित्सा का अग्रदूत समझने वाले,  कथित सांस्कृतिक परिवार के लोग भावना का महत्व नहीं समझते और स्थूल को पकड़ कर बैठ जाते हैं। हमारे पुराणों में एक कथा आती है कि एक व्यक्ति अपनी गरीबी से तंग आकर चोरी करने के लिए निकला तो उसे रास्ते में शिव मन्दिर मिला। वहाँ जब उसे चुराने को और कुछ नहीं मिला तो उसने उस मन्दिर का घंटा चुराने का फैसला किया। घंटा ऊँचाई पर लगा था इसलिए उसने पैरों को शिव पिण्डी पर जमाया और घण्टा उतार लिया। इसी बीच वह व्यक्ति चुराते हुए वह पकड़ लिया गया और उसे तुरंत मृत्युदण्ड दिया गया क्योंकि उन दिनों आज की तरह की न्याय व्यवस्था नहीं थी कि बीस साल में फैसला हो और वह भी विवादास्पद रहे। कथा कहती है कि उसके मरने के बाद जब वह अंतिम उच्चतम न्यायालय में पहुँचा तो उसे स्वर्ग दिया गया। इस फैसले पर जब एक दूत ने धर्मराज से सवाल किया तो उन्होंने बताया कि लोग तो पिण्डी पर एकाध फूल, बेलपत्र आदि चढा कर अपने कर्तव्य की इतिश्री मान लेते हैं किंतु उसने तो अपना सर्वस्य ही पिण्डी पर चढा दिया था इसलिए उसकी भावनाओं  का महत्व है और उन्हें ही देखते हुए उसे स्वर्ग में स्थान मिला।
यह कहानी भावनाओं के सम्मान को दर्शाती है। भाजपा मध्य प्रदेश काँग्रेस के नेताओं द्वारा किये गये कामों की आलोचना करते हुए उसके भावनात्मक पक्ष की उपेक्षा कर रही है। भाजपा नेता अपने ऊपर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों के जबाब में प्रतिआरोप लगा रहे हैं कि काँग्रेस शासन काल में सिगरेट की पन्नियों पर नियुक्तियां हो जाती थीं। उनकी निगाह में कागजों के आकार का बड़ा महत्व है। दूसरे प्रतिआरोपों की तरह उनका यह आरोप थोड़ा सा भिन्न है। यह कागज की गुणवत्ता पर प्रकाश फेंकता है। अगर साहित्यिक आलोचनाओं में यही पद्धति विकसित हो जाये तो कैसा रहे? जिस साहित्यकार को महान बताना हो तो कह देंगे कि वह टैब्लाइज्ड आकार की कागज़ पर लिखता था और जिसको कमतर बताना हो तो कह देंगे कि इसे तो लैटर साइज के कागज़ पर लिखने की आदत थी। सम्भावनाएं देखते हुए ए-4, लीगल, और जूनियर लीगल के रूप में बताया जा सकता है। कागज़ की क्वालिटी की चर्चा की जा सकती है।  
गोपालदास नीरज कहते हैं-
कांपती लौ, ये सियाही, ये धुँए का जल
ज़िन्दगी मेरी इन्हीं गीत बनाने में कटी
कौन समझे मेरी आँखों की नमी का मतलब
ज़िन्दगी वेद थी पर ज़िल्द बंधाने में कटी
जिन पर प्रवेश परीक्षाओं और भरती घोटालों के करोड़ों रुपयों के आरोप लगे हैं, वे इस बात को मुद्दा बना रहे हैं कि सिगरेट की पन्नियों पर नियुक्तियां दी गयीं। जिस समय ये नियुक्तियां दी जा रही थीं, पता नहीं उस समय भाजपा वाले चिलम पी रहे थे या हुक्का! खबरें तो ये भी हैं कि उस समय भी ये हैसियत के अनुसार जूठे दोने चाट कर खुश हो लेते थे। अभी भी अवसर देख कर काँग्रेस से भाजपा, और भाजपा से काँग्रेस में आना जाना ऐसे लगा रहता है जैसे सावन के महीने में लड़कियां मैके आती जाती रहती हैं। गोत्र अलग अलग हैं, पर जात तो एक ही है। उचित मौके पर काँग्रेस से उचटकर भाजपा में जाने वाले सीधे सांसद व मंत्री पद पर ही चिपकते हैं और बेदाग हो जाते हैं। टकराव ईमानदारी और भ्रष्टाचार का नहीं है अपितु भ्रष्टाचार की प्रतियोगिता में आगे पीछे होने का है। तुम डाल डाल हम पात पात।
नईम साहब की पंक्तियां हैं-
वो तो ये है कि आबो-दाना है
बरना ये घर कसाई खाना है
आप झटका, हलाल के कायल
जान तो लोगो मेरी जाना है
सो पन्नियों पर लिखने वालों की सराकर हो या परचों के सौदे करने वालों की सरकार हो, जान तो निरीह जानवर की तरह जनता की ही जाना है।






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